अदित मिश्रा (बिहार)

ये बात है पिछली दीवाली की, जब मेरी नौकरी रांची (झारखंड) में जनसंपर्क अधिकारी के तौर पर लगी. पहली बार अपने परिवार, अपने घर से दूर गया था और इस बात का एहसास मुझे तब ज्यादा हुआ जब रोशनी और खुशियों से भरपूर दिवाली का त्योहार नजदीक आया. वैसे तो जब भी मैं दीवाली में घर पर रहा तो हर काम, चाहे बाजार का हो या घर का दोनों ही बहुत ही आनंद से करा. लेकिन इस दीवाली मैं बाहर था, औफिस में काम ज्यादा होने के कारण मुझे छुट्टी  नहीं मिली. बहुत बुरा भी लगा रहा था कि इस बार घर का दीपक अपने घर के आगे दीपक भी नहीं जला पाएगा लेकिन मजबूरी भी थी.

बहरहाल दीवाली की उस रात मैं अपने औफिस से लौट ही रहा था कि मैंने देखा, मेरे फ्लैट के आगे चार छोटे गरीब बच्चे जली हुई फूलझड़ी को जलाने की कोशिश कर रहे है. वो ऐसा क्यों कर रहे थे, ये सवाल मुझे उनके चेहरे पर दिख रही उदासी से पता चल गया. अकेला मैं भी था और वो भी तो मैंने उन चारों बच्चों के साथ दीवाली मनाने को सोचा.

सबसे पहले मैं उन चारों को लेकर पटाखे की दुकान पर गया और कुछ फूलझड़ी और पटाखें खरीदे. साथ ही मिठाई भी खरीदी और फ्लैट के पास वापस आए. मैंने एक फूलझड़ी निकाली और उन बच्चों को दी, जैसे ही उन्होंने फूलझड़ी जलाई, उस के चेहरे पर फूलझड़ी की रोशनी से ज्यादा रोशनी थी. शायद इतनी खुशी मुझे अपने परिवार के साथ दीवाली मनाने से भी नहीं मिलती, जितनी उस रात दीवाली के दिन उन बच्चों के चेहरे पर आई.

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