दिल्ली के निजामुद्दीन बस स्टेशन पर बस से उतर कर मैं यों ही चहलकदमी करता चिश्ती घराने के चौथे संत हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के मकबरे की ओर निकल गया. हजरत वैराग्य और सहनशीलता की मिसाल कहे जाते हैं. बड़ा नाम सुना था उन का. फकीराना अंदाज और शहंशाही मिजाज. कहते हैं बड़ेबड़े बादशाह उन को सलामी देते थे. वर्ष 1303 में उन के कहने पर मुगल सेना ने अपना हमला रोक दिया था. 92 साल की उम्र में हजरत ख्वाजा की मृत्यु हुई और उस के बाद उन का जो मकबरा बना, उस का वर्ष 1562 तक नवीनीकरण होता रहा. आज उन की दरगाह पर देश के कोनेकोने से लोग अपनी मुरादें ले कर आते हैं. कहते हैं कि उन के दर से कोई खाली हाथ नहीं लौटता है.
मैं जैसे ही दरगाह जाने वाले मुख्य रास्ते पर नीचे की ओर मुड़ा, तो पहली दुकान फूल, अगरबत्ती और मजार पर चढ़ाई जाने वाली चादर व अन्य सामग्री की दिखाई पड़ी. कुछ आगे चलने पर भीड़भाड़ बढ़ने लगी. सड़क के दोनों तरफ खानेपीने की दुकानों के साथसाथ भिखारियों की टोलियां भी यहांवहां सड़क पर पसरी हुई थीं. इन नजारों को देखता हुआ मैं उस सड़क पर आगे बढ़ता जा रहा था, जिस का एक हिस्सा दरगाह पर जा कर खत्म होता है.
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दरगाह से लगभग 150 मीटर पहले से सड़क के दोनों तरफ एकदो अन्य चीजों की दुकानों को छोड़ कर सिर्फ फूल, अगरबत्ती, मजार पर चढ़ाई जाने वाली चादर आदि बेचने वालों की दुकानें ही नजर आईं. वे दुकानदार दरगाह की तरफ जाने वाले हर व्यक्ति को अपनी तरफ खींच कर मजार पर चढ़ाने का सामान लेने की गुहार लगाते या कहें कि आपस में एकदूसरे से कड़ी प्रतिस्पर्धा करते नजर आ रहे थे.
जैसे ही मैं वहां पहुंचा, एक दुकानदार ने मुझ से भी अपनी चप्पलें दुकान में जमा करने और साथ ही मजार पर चढ़ाने के लिए कुछ फूल, अगरबत्ती, चादर आदि खरीदने की गुजारिश की. मेरे इनकार करने पर दूसरा दुकानदार मुझे खींच कर अपनी दुकान की ओर ले गया. उस की इतनी अपील पर आखिरकार मैं उस के साथ उस की दुकान तक चला गया. मैं ने उस से कहा, ‘‘मैं दरगाहों पर बहुत कम जाता हूं, मुझे इन रिवायतों के बारे में कम जानकारी है, इसलिए पहले तो आप मुझे इस के बारे में बताइए कि जो सामान आप मुझे बेचना चाहते हैं उसे खरीदने और मजार पर चढ़ाने से क्या लाभ होगा?’’
उस दुकानदार ने जवाब दिया, ‘‘इस से आप की हर मुराद पूरी हो जाएगी. बस, इसे चढ़ा कर सच्चे दिल से मांग लेना.’’ जब मैं ने जोर दे कर पूछा, ‘‘क्या वाकई यह संभव है,’’ तो उस ने कहा, ‘‘सच्चे दिल से मांगोगे तो मुराद जरूर पूरी होगी.’’
इसी बीच, उस ने एक प्लेट में गुलाब के कुछ फूल, अगरबत्ती और मिस्री के एकएक पैकेट रख कर पूछा कि और क्या लोगे? मैं ने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप खड़ा रहा तो उस ने कहा, ‘‘ज्यादा सोचो मत, जो करना है फटाफट कर दो.’’ इस बीच एक अधेड़ उम्र की मगर देखने में काफी तंदुरुस्त औरत वहां आई और मेरे आगे हाथ फैला कर कुछ पैसे मांगने लगी. साथ ही दुकानदार की हां में हां मिलाते हुए बोली, ‘‘बेटा, वाकई यहां सब की मुरादें पूरी हो जाती हैं.’’
धर्म के नाम पर धंधा
मेरे मन में एक सवाल उठा कि अगर वाकई ऐसा होता है, तो यह औरत भीख क्यों मांग रही है? इस ने मन्नत मांग कर अपनी गरीबी दूर क्यों नहीं करा ली? मैं अनमना सा दुकानदार की थाली वहीं छोड़ कर आगे बढ़ गया. संकरी होती गली में जैसैजैसे मैं आगे बढ़ता गया, मुझ से चप्पलें जमा कराने और फूल, अगरबत्ती आदि सामग्री खरीदने की गुजारिश की जाती रही. साथ ही, वे यह बताना नहीं भूलते थे कि चप्पलें रखने का वे कोई पैसा नहीं लेते.
मैं ने एक दूसरे दुकानदार से पूछा, ‘‘जब वे कोई पैसा नहीं लेते तो बेवजह चप्पलों की जिम्मेदारी क्यों ले रहे हैं?’’ इस पर दुकानदार ने कहा, ‘‘हम आप से कुछ खरीदने की आशा करते हैं,’’ जबकि दूसरे ने बताया, ‘‘वे पुण्य पाने के लिए ऐसा कर रहे हैं.’’
आखिरकार, बिना कुछ खरीदे और बिना चप्पलें जमा किए मैं दरगाह के पास पहुंच गया. सामने अमीर खुसरो की मजार नजर आई. अंदर दरगाह के पास भी फूल, अगरबत्ती आदि सामग्री की 2 दुकानें थीं. एक दुकान पर बिना कुछ लिए ही मैं ने अपनी चप्पलें रख दीं. आसपास कुछ और पक्की कब्रें बनी थीं. थोड़ा अंदर गया तो मैं ने देखा कि मजार के सामने वाली दीवार पर संगमरमर का एक पत्थर गड़ा था, जिस पर उर्दू में कुछ लिखा हुआ था.
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वहां कुछ औरतें खड़ी थीं. उन के साथ एक किशोरी लड़की उस संगमरमर के पत्थर पर 2 रुपए का एक सिक्का चिपकाने का प्रयास कर रही थी. मेरी जिज्ञासा जगी कि यह लड़की ऐसा क्यों कर रही है? मैं ने उन औरतों से इस बारे में पूछा तो पता चला कि अगर यह सिक्का दीवार से चिपक जाता है तो मुराद अवश्य पूरी हो जाती है. अगर नहीं चिपकता, तो नहीं होती.
मैं उन महिलाओं के अंधविश्वास या कहें बेवकूफीभरी बातों के बारे में कुछ कह पाता, इस से पहले ही पास खड़े एक बुजुर्ग ने उन की बातों में संशोधन कर के कहा कि बृहस्पतिवार के दिन करने से ऐसा होता है. मैं अपना माथा पीटता सा आगे बढ़ गया.
बहुत से जायरीन फूल, अगरबत्ती, चादर आदि सामग्री ले कर अंदर अमीर खुसरो की मजार पर जा रहे थे. और मजार पर उन्हें चढ़ा कर मन्नतें मांग रहे थे. कोई कुछ पढ़ रहा था, तो कोई मजार को चूम रहा था. जब मैं अंदर पहुंचा तो देखा कि गेट के अंदर एक आदमी खड़ा था जो आने वालों से मजार पर कुछ न कुछ चढ़ाने के लिए कह रहा था. वहीं आसपास कुछ लोग बैठे हुए भी थे. अंदर अमीर खुसरो की मजार के साथ ही एक कब्र और थी, जिस पर लोग पैसे डाल रहे थे.
अंधविश्वास का खेल
अमीर खुसरो की मजार के गेट के आसपास 2-3 लोग हाथों में रजिस्टर लिए खड़े थे. वे मजार पर आने वालों से कुछ दानराशि भेंट करने के वास्ते रजिस्टर में पैसे लिखवाने के लिए कह रहे थे या यों कहें कि उन पर ऐसा करने के लिए दबाव डाल रहे थे. वे लोगों को बताते कि शाम को होने वाली दुआ कार्यक्रम में आप का नाम लिया जाएगा. कुछ लोग मरजी से, तो कुछ बड़े अनमने ढंग से रजिस्टर में 10 रुपए, 50 रुपए,100 रुपए की एंट्री कर देते. साफ दिख रहा था कि यहां जायरीन यानी श्रद्धालुओं से पैसे लूटने का बड़ा धंधा चल रहा है.
इसी बीच, वहां हो रही एक घटना ने मुझे बेहद परेशान कर दिया. मैं ने देखा कि अमीर खुसरो की मजार के आसपास जो 2-3 लड़के खड़े थे, वे जो भी जायरीन आता उसे अपनी तरफ बुलाते, बल्कि यों कहें कि उन का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचते और अमीर खुसरो की मजार पर ही उन्हें चढ़ावे की सामग्री चढ़ाने को कहते. शायद उन्हें डर था कि वे जायरीन कहीं आगे हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर न चले जाएं.
जो जायरीन पहली बार आ रहे थे और जिन्हें इस तमाशे का पता नहीं था, वे तो उन लड़कों की बातों में आ कर उन के कहे अनुसार वहीं अमीर खुसरो की मजार पर अपना चढ़ावा चढ़ा रहे थे, मगर जिन्हें पता था कि हजरत निजामुद्दीन की दरगाह आगे है, वे उन से हाथ छुड़ा कर आगे बढ़ जाते थे. जब कोई जायरीन इन के कहे अनुसार चलता तो इन के चेहरे की खुशी देखने लायक होती, ठीक वैसे ही जैसे एक दुकानदार ने दूसरे दुकानदार के ग्राहक को जबरन हासिल कर लिया हो.
मैं काफी देर तक वहां खड़ा हो कर यह तमाशा देखता रहा और फिर हजरत निजामुद्दीन की मुख्य दरगाह की तरफ चल पड़ा, जो अमीर खुसरो की दरगाह के पीछे वाले हिस्से में स्थित है. आगे चलने पर सीधे हाथ की तरफ 2-3 सीढि़यों के बाद एक चौकोर सी जगह नजर आई, जिस में कुछ कब्रों के आगेपीछे एक भिखारी सहित 4-5 औरतें बैठी जोरजोर से झूम रही थीं. इन में से कुछ अपने चेहरों पर अपने बालों को फैलाए बेहोशी की हालत में पड़ी नजर आईं तो कुछ आगेपीछे झूमती दिखीं.
एक औरत जोरजोर से चीख कर कुछ कह रही थी. पूछने पर पता चला कि उस के ऊपर कुछ ‘ऊपरी चक्कर’ है, यानी कुछ भूतपिशाच चढ़ा है. हालांकि, मुझे यह आज तक समझ में नहीं आया कि यह ‘ऊपरी चक्कर’ क्या बला है. एक लड़की वहीं बनी 2 पक्की कब्रों के बीच लेटी थी. उस के सिर के पास एक औरत बैठी हुई थी. जब मैं ने उस औरत से पूछा कि लड़की को क्या हो गया? तो वह औरत बेहद बेरुखी से बोली, ‘‘कौन हैं आप? क्या मतलब है आप को?’’ मैं ने कहा, ‘‘मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा हूं.’’ तो वह बोली, ‘‘नहीं, आप को किसी ने भेजा है.’’ आखिरकार मैं ने वहां से जाने में ही भलाई समझ. मैं दरगाह की ओर चला आया.
दरगाह के चारों तरफ काफी खाली जगह है, साथ ही हजरत निजामुद्दीन की मजार चौकोर जालियों से घिरी हुई है, जिस के चारों ओर खुली गैलरी है. इस गैलरी में मैं ने एक तरफ कुछ लड़कियों और औरतों को देखा जो वहां बैठी पवित्र कुरान पढ़ रही थीं, जबकि दूसरी ओर गेट के पास सफेद कुरतापाजामा और टोपी लगाए कुछ आदमी बैठे थे, जिन में से एक इंग्लिश का अखबार हिंदुस्तान टाइम्स पढ़ रहा था.
मैं ने अंदाजा लगाया कि शायद ये दरगाह के जिम्मेदार लोग थे, क्योंकि वे दरगाह पर आनेजाने वाले लोगों को न सिर्फ दिशानिर्देश दे रहे थे, बल्कि कभीकभी डांटफटकार भी कर रहे थे. दरगाह के पीछे की साइड में भी कुछ दुकानें थीं और उन के बीच रूहानी इलाज की दुकानें भी सजी हुई थीं, जो लोगों पर चढ़ी ऊपरी बलाओं के इलाज का दावा करते थे.
काफी देर इधरउधर घूमते हुए मैं दरगाह के चारों ओर बनी गैलरी के पिछले हिस्से के एक कोने में जा खड़ा हुआ. तभी वहां बैठे एक 55-60 साल की उम्र के व्यक्ति ने मुझे अपने पास बैठने का इशारा किया. बातचीत में पता चला कि उन का नाम चिश्ती इस्लाम उर्फ फड्डे खां है. उन्होंने मुझ से कहा कि मैं बाबा से अपनी मुराद मांगूं. फड्डे खां मुझ से बाबा की तारीफ करने लगे. बोले, ‘‘बाबा सब के दुख दूर करते हैं, जो मांगना जानता हो उस की भी, और जो न जानता हो उस की भी.’’
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मैं फड्डे खां से बतियाने लगा. फड्डे खां ने बताया, ‘‘जवानी के दिनों में लड़ाई झगड़ों में ज्यादा संलग्न रहने की वजह से लोग उन्हें ‘फड्डे खां’ कह कर बुलाने लगे. लगभग 25 साल पहले वे कानपुर में अपने 4 मासूम बच्चों और बीवी को छोड़ कर यहां चले आए थे और अब तो वहां जाते भी नहीं हैं. वे बोले कि अब बिना बाबा के उन का एक दिन भी नहीं कटता. बच्चों और बीवी की जिम्मेदारी के सवाल पर वे बोले कि जब इंसान फकीर बन जाता है तो उस की सारी इच्छाएं मर जाती हैं. हालांकि फड्डे खां की बाईं कलाई पर रौलेक्स की ब्रैंडेड घड़ी चमक रही थी. और मैं सोच रहा था कि इस आदमी का अपनी बीवी और बच्चों की जिम्मेदारी छोड़ कर यहां पड़े रहना क्या बाबा की नजर में उचित है?
फड्डे खां बोले, ‘‘आप के दरगाह में पैर रखते ही बाबा को पता चल गया था कि आप की क्या इच्छा है.’’ मैं सोचने लगा कि अगर फड्डे खां की बात सच होती तो फिर यहां किसी को भी इस बात का भान क्यों नहीं हुआ कि मैं यहां कोई मन्नत मांगने नहीं आया, बल्कि यों ही टहलते हुए चला आया कि देखें यहां क्या है? सच पूछो तो औलिया की मजार के बाहर जो दुकानदारों की फौज जायरीन को ठगने के लिए खड़ी है, उन्हें देख कर ही मेरे मन में आया कि चलो जरा अंदर चल कर यहां की पोलपट्टी खंगाली जाए. जर्नलिस्ट हूं तो सचाई जानने की जिज्ञासा मन में कुलांचें मारने लगती है.
इसी बीच, फड्डे खां के पास बैठी एक अधेड़ उम्र की औरत ने विनती करते हुए मुझ से कहा कि मैं उन्हें अपनी मुराद बताऊं, वह तो बतानी पड़ेगी न. यह मेरे लिए एक और उलझन की स्थिति थी. मैं ने फड्डे खां से कहा, ‘‘आप तो कह रहे थे कि बाबा को बताने की जरूरत नहीं, वे सब कुछ जानते हैं, और ये कह रही हैं कि अपनी मुराद तो बतानी पड़ती है. अब मैं किस की बात सच मानूं?’’ इस पर फड्डे खां आनाकानी करने लगे.
फरेब के सिवा कुछ नहीं
बातचीत के दौरान मैं बड़े गौर से आसपास के माहौल को निहार रहा था. मैं ने ध्यान दिया कि वहां मजार के चारों ओर की जालियों में बहुत से धागे बंधे हुए हैं. पूछने पर पता चला कि आने वाले जायरीन अपनी मुराद मांग कर एक धागा इस जाली से बांध देते हैं और जब उन की मुराद पूरी हो जाती है, तो आ कर धागा खोल जाते हैं. रोचक बात यह थी कि मुराद पूरी होने पर कोई भी धागा खोल सकते हैं. यह बात भी मुझे उन दोनों ने ही बताई, वरना मैं बड़ी कशमकश में था कि मुराद पूरी होने के बाद अपना धागा खोलने आने वाला व्यक्ति इतने धागों के बीच अपना वाला कैसे पहचानेगा?
इस बीच, वह महिला बाबा को ‘दिल्ली का दूल्हा’ कर संबोधित कर रही थी. मैं ने फड्डे खां और उस महिला से जाने की इजाजत ली और उठ कर वहीं आसपास घूमने लगा. हजरत निजामुद्दीन की दरगाह से निकल जब मैं वापस आने के लिए अमीर खुसरो की दरगाह की तरफ आया तो देख कर हैरान रह गया कि एक आदमी जालियों में बंधे लोगों की मुरादों के धागों को कैंची से काटकाट कर एक ओर फेंक रहा है. वहीं खड़े उस लड़के, जो रजिस्टर में नाम लिखवा रहा था और मेरे न लिखवाने पर मुझ से बहुत नाराज हो गया था, से जब मैं ने धागे काटने की बाबत पूछा तो उस ने कहा, ‘‘सफाई भी जरूरी है न.’’
अब मैं हैरानपरेशान सोच में पड़ गया कि लोग कितनी दूर से, किस विश्वास और किनकिन मुरादों के साथ इन धागों को यहां बांध कर जाते हैं, और ये लोग पहले उन्हें बांधने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, और अब यही उन की मुरादों का बेशर्मी से कत्ल कर रहे हैं. ये सब आखिर हो क्या रहा है?
कुछ देर बाद मैं ने देखा कि मजार के सामने खाली मैदान में 3-4 लोग आए और ढोलक व हारमोनियम बजा कर कव्वाली गाने लगे. उन की कव्वाली सुन कर चारों ओर लोग जमा होने लगे. मैं भी कुछ देर उन की कव्वाली सुनता रहा. मैं ने देखा कि कुछ लोग उन्हें 10-20 रुपए का उपहार भी दे रहे थे. तभी वहां फड्डे खां एक लड़के से बात करते नजर आए. मैं चलता हुआ उन के पीछे पहुंच गया. वे उस लड़के से कह रहे थे – ‘ला, अब तो कुछ दे दे.’ जवाब में उस लड़के ने कहा, ‘अभी मेरे पास नहीं हैं.’ फड्डे खां बोले, ‘कैसा इंसान है, फकीरों का भी खयाल नहीं रखता’. इतना कह कर वे आगे बढ़ गए.
मैं ने उस लड़के को रोक कर पूछा, ‘‘फड्डे खां क्या मांग रहे थे?’’ वह बोला, ‘‘अजमेर जाने के लिए पैसे मांग रहे थे.’’ मैं फिर सोच में डूब गया कि आखिरकार इतने सालों से बीवीबच्चों की जिम्मेदारी छोड़ बाबा के दर पर पड़े फड्डे खां बाबा से अजमेर जाने की अपनी मुराद पूरी क्यों नहीं करा पाए?
इसी उधेड़बुन के साथ मैं बिना कुछ दानपुण्य किए व चादर चढ़ाए हैरानपरेशान व कुछ अनसुलझे सवालों के साथ दरगाह से बाहर आ गया. बसस्टैंड पर खड़े भुट्टे वाले से एक भुट्टा खरीदा. भुट्टे वाला बोला, ‘‘भाई, अगर भुट्टा मीठा हो तभी पैसे देना.’’ और वाकई भुट्टा बहुत ज्यादा मीठा और स्वादिष्ठ था, जिस की मैं ने वहीं उस से तारीफ भी की. मैं भुट्टा खाता हुआ 894 नं. की बस पकड़ कर अपने औफिस चला आया. मेरी नजर में हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो की मजार पर खिदमत करने के नाम पर जायरीन से झूठ बोलने, उन्हें लूटने और ठगने वाले लोगों से वह भुट्टे वाला कहीं ज्यादा ईमानदार व सच्चे दिल वाला था, जो अपनी बात पर खरा उतरा.