बचपन के दिन भुला न देना… वर्तमान पीढ़ी ने तो यह गाना शायद ही सुना हो, मगर साठ-सत्तर की नैया पर सवार लोगों को यह गीत बखूबी याद है. बचपन यानी शरारतें, मौज-मस्ती, घुमक्कड़ी और याराना. हमने तो बचपन में ढेरों शरारतें की हैं. आजकल के बच्चे तो कम्प्यूटर और फोन में ही घुसे रहते हैं. याराना क्या होता है, मस्ती क्या होती है, मोहल्लेदारी क्या होती है, इन्हें पता ही नहीं. एक हम थे कि हर दिन कोई नयी चीज ट्राई करते थे, सफल हुए तो खुश और असफल हुए तो भी मजा ही आता था. काफी खुराफाती शौक होते थे हमारे. तब हमारी उम्र रही होगी कोई बारह या तेरह साल की. दो लंगोटिया यार थे – धीरू और टिल्लू. वो दोनों हम पर जान देते थे और हम उन दोनों पर. ये दोनों मेरे दो हाथ थे. तीन वानरों की यह सेना मिल कर खूब शरारतें करती थी. अक्ल मेरी चलती थी और हाथ पांव उन दोनों के, मगर मजे की बात यह थी कि जब पकड़े जाते तो मैं अपनी बेचारी सी शक्ल और दुबलेपन की वजह से बच निकलता, मगर धीरू और टिल्लू फंस जाते थे. कभी पतंग लूटने के चक्कर में पीटे जाते, कभी किसी के चलते वाहन में गिल्ली उड़ कर जा लगती तो वह इन दोनों को ही दौड़ाता.
हमारे जमाने में चिट्ठियों का बहुत चलन था, आजकल तो डाक से चिट्ठियां आती ही नहीं हैं, लोग ईमेल और वॉट्सएप पर ही बतिया लेते हैं. लेकिन जब हम छोटे थे तो चिट्ठियां डाकिया लाता था, साइकिल की घंटी बजा कर घर वालों को इत्तिला देता था और अपने बड़े से झोले से चिट्ठी निकाल कर घर के बाहर लगे छोटे से लेटर बॉक्स में डाल जाता था. तब हर घर के गेट या दरवाजे पर एक छोटा लेटर बॉक्स जरूर लगा होता था. शाम को पिताजी दफ्तर से आते तो दरवाजे की कुंडी खटकाने से पहले लेटर बॉक्स खोलकर चिट्ठियां निकालते थे. उन्हीं दिनों हमारा एक शौक जागा था – डाक टिकट संग्रह का. यह कोई मंहगा शौक नहीं था. पहले पहल तो हमने अपने घर में आने वाले पत्रों के डाक टिकटों को सहेजना शुरू किया. हम लिफाफे पर लगे डाक टिकट पर नम रुई का फाया रखते और फिर बड़ी सफाई से टिकट निकाल लिया करते थे, धीरे-धीरे हमारा शौक विस्तार पाने लगा तो डाक टिकट निकालने में अच्छी खासी महारत हासिल हो गई. हम चाहते थे कि जल्दी ही ढेर सारे टिकट संग्रह कर लें, मगर हफ्ते में तीन-चार चिट्ठियों से ज्यादा आती नहीं थीं. हमने धीरू और टिल्लू को भी इस काम में लगा दिया. दोनों बड़ी मेहनत से मेरे लिए टिकट संग्रह करने लगे. मगर मेरी हवस पूरी होने का नाम ही नहीं ले रही थी. टिकटों की संख्या में ज्यादा बढ़ोत्तरी न देखकर हमने मोहल्ले के पोस्ट ऑफिस रामादीन पोस्टमैन को पटाने की सोची. हमारी सोच यह थी कि अगर रामादीन पट गया तो उनके झोले में मौजूद ढेरों देसी-विदेशी पत्रों पर से हमें देसी के साथ-साथ विदेशी टिकट भी आसानी से हासिल हो जाएंगे. इससे हमारा खजाना बढ़ भी जाएगा और उसमें वैराइटी भी आ जाएगी. हमने रामादीन से बात की. ठाकुर के होटल पर एक कटिंग चाय पिलाने की बात पर हमारा कॉन्ट्रैक्ट साइन हो गया. कुछ दिन तक रामादीन एक कटिंग चाय में हमें टिकट उपलब्ध कराते रहे, मगर फिर उन्होंने चाय के साथ समोसे की मांग भी रख दी. खैर, हम उस पर भी राजी हो गये. जब तक रामादीन चाचा चाय और समोसे पर हाथ साफ करते, हम लोग उनके झोले में भरे पत्रों पर लगे डाक टिकटों पर हाथ साफ करते रहते.
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थोड़े दिन बाद रामादीन ने डिमांड बढ़ा दी. बोले – कटिंग चाय और बासी समोसे से काम नहीं चलेगा, आधा पाव दूध वाली चाय और मिठाई खिलाओ तब झोला खोलना. हम लोगों ने कास्ट बेनिफिट एनालिसिस किया, और यह निश्चय किया कि अब हम रामादीन की ब्लैकमेलिंग के आगे नहीं झुकेंगे और अपने बलबूते मैदान में उतरेंगे. इस तरह से हम तीनों ने आत्मनिर्भर होकर मोहल्ले की चिट्ठियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया.
मोहल्ले के घरों के बाहर लगे डाक बक्से से चिट्ठियां निकालना कोई बड़ी बात नहीं थी. कुछ लेटर बौक्स तो खुले ही रहते थे, मगर कुछ पर छोटे ताले पड़े होते थे. मगर ताले वाले लेटर बौक्स से भी हम चिमटी की मदद से आराम से चिट्ठियां निकाल लेते थे. उन पर लगे डाक टिकट निकाल कर हम चिट्ठियां वापस लेटर बॉक्स में डाल देते थे. लोगों को अब पत्र बिना डाक टिकट के मिलने लगे थे. पहले पहल तो लोगों को पता ही नहीं चला, या उन्होंने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया, लेकिन धीरे-धीरे कुछ शक्की लोगों का ध्यान इस ओर गया. हमें पता ही नहीं चला कि मोहल्ले के चौकीदार, दुकानदार, प्रेस वाली तक यह सूचना पहुंच गई कि देखो, डाक वाले डिब्बे कौन छूता है.
एक दिन भाजी वाले ने धीरू को डिब्बे से चिट्ठी निकालते धर लिया. हम दूसरे डिब्बों पर हाथ साफ कर रहे थे, सो बच गए. धीरू की धुनाई हो गई. धीरू ने मुंह खोला तो बात हमारे घर तक भी पहुंच गई. पिताजी ने कड़कदार आवाज में हमें बुलाया. सच्चाई पूछी और डांट कर अंदर अम्मा के पास भेज दिया. दूसरे दिन पिताजी जब दफ्तर से लौटे तो हमसे पूछा, ‘कितने टिकट बटोरे हैं?’
हमने डरते डरते बताया, ‘सात सौ पैंतालीस…’
बोले, ‘ले आओ.’ मैं घबराया कि आज तो मेरे सारे डाक टिकट गए समझो. पिताजी जरूर इन्हें चूल्हे में झोंकने वाले हैं. इतने सालों की मेहनत मिट्टी में मिलने वाली है… डरते-डरते अंदर गए. अपना बस्ता खोला और किताबों के बीच जमा की गई अपनी मेहनत को दोनों हथेलियों के बीच लेकर बाहर कमरे में आए और पिताजी के सामने सिर झुका कर खड़े हो गए. पिताजी तख्त पर एक ओर खिसक कर बैठ गए. बोले, ‘यहां रख दो और बैठो मेरे पास.’
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हम आंखों में आंसू लिए उनके पास तख्त पर बैठ गए. सारे टिकट हमने उनके चरणों में रख दिए. पिताजी ने टिकट देखे. उनकी आंखों में खुशी नाच रही थी. बड़े उल्लास से उन्होंने पास पड़ा अपना थैला खोला और उसमें से एक डाक टिकट कलेक्शन की फाइल निकाल कर मेरे सामने रख दी और चहक कर बोले, ‘चलो, सारे टिकट इसमें कायदे से लगाते हैं, मुझे भी बचपन में बड़ा शौक था टिकट संग्रह का…’