निजी सैक्टर में भवन निर्माण, कूरियर सेवाएं, स्कूल, अस्पताल और बस की सेवाएं अपनी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही हैं. बावजूद इस के सरकार रेल को निजी सैक्टर में देने की शुरुआत कर रही है. रेलवे का निजीकरण किसी भी तरह से लाभ का सौदा नहीं होगा. रेलवे में स्टेशन से ले कर ट्रेनों में खानपान और कंबलचादर तक का काम निजी सैक्टर के हाथों में है.

यह हालत सही नहीं है. कुली से ले कर शादी के पंडाल तक हर जगह निजी सैक्टर प्रभावी हैं. सभी जगह इन का काम चलताऊ है. ऐसे में निजी सैक्टर का न तो भरोसा रहा है न ही संतोष.

साल 2019-20 के बजट में सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि रेलवे के विकास के लिए निजीकरण की जरूरत है. इस के लिए सालाना 5 लाख करोड़ रुपए की जरूरत है, रेलवे के अपने भरोसे यह काम नहीं हो रहा है तो इस में अधिक से अधिक निवेश की जरूरत है.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, ‘‘रेलवे में 2030 तक 50 लाख करोड़ रुपए के निवेश की जरूरत है. मौजूदा समय में हर साल केवल 1.5-1.6 लाख करोड़ रुपए की ही व्यवस्था पूंजी के रूप में हो पा रही है. ऐसे में रेलवे की परियोजनाओं को पूरा करना संभव नहीं होगा. सो, रेलवे ट्रैक निर्माण, रोलिंग स्टाक निर्माण, यात्री और माल सेवाओं में सुधार के लिए निजी भागीदारी की जरूरत है.’’

अब ट्रेनों को चलाने में भी निजी सैक्टर की भागीदारी शुरू हो चुकी है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से दिल्ली के आनंद विहार रेलवे स्टेशन के बीच ‘तेजस’ ट्रेन चलनी है. यह देश की पहली निजी सैक्टर से चलने वाली टे्रन होगी.

रेलवे में प्राइवेटपब्लिक पार्टनरशिप यानी पीपीपी मौडल लागू करने पर जोर दिया जा रहा है. रेलवे में बहुत सारे काम अब इस योजना के तहत हो रहे है. आईआरसीटीसी भी कार्पोरेशन में काम कर रही है.

रेलवे में यात्रियों के लिए प्रयोग में आने वाली चादर, बैडशीट, तकिया, कंबल की धुलाई भी बाहरी लोगों की मदद से हो रही है. यात्रियों को इस में किसी भी तरह का संतोष नहीं है. ऐसे में यह साफ है कि रेलवे के निजीकरण से कोई लाभ नहीं है.

ये भी पढ़ें- बुढ़ापे में बच्चों का साथ है जरूरी

अच्छा नहीं है निजीकरण का फैसला

सरकारी विभागों के निजीकरण का फैसला जनता के हित में नहीं है. यह बात केवल रेलवे में ही नहीं दिखाई देती, दूसरे विभागों में भी साफ दिखती है. डाक विभाग ने पत्र और दूसरे जरूरी दस्तावेज पहुंचाने के लिए स्पीड पोस्ट सेवा शुरू की थी. इस में एक शहर से दूसरे शहर तक दूरी के हिसाब से यह पैकेट 24 से 48 घंटे के बीच पहुंच जाते थे. इस की कीमत 30 से 60 रुपए होती थी. धीरेधीरे इन सेवाओं में कटौती होने लगी.

इस से लोग सरकार की स्पीड सेवा को छोड़ कर निजी कूरियर के भरोसे होने लगे. नतीजा यह हुआ कि प्रयागराज से दिल्ली के बीच एक पैकेट भेजने के लिए 500 रुपए देने पड़ते हैं. तब वह कूरियर अगले दिन दिल्ली पैकेट पहुंचाने का काम करता है. करीबकरीब देखें तो 10 गुना ज्यादा पैसा देना पड़ रहा है. पैकेट बड़ा होने पर यही कीमत 500 से बढ़ कर 800 रुपए तक हो जाती है.

पोस्ट औफिस के जरिए होने वाली खतोकिताबत अब बंद हो गई है. अब पोस्ट औफिस से ज्यादा कूरियर सेवाओं पर जनता निर्भर हो गई है. इस के बाद भी अब न तो जनता को समय पर सही से सेवाएं मिल रही हैं और न ही सुरक्षित सेवाएं.

पोस्ट औफिस की साधारण सेवा ही नहीं, रजिस्टर्ड डाक तक अब बुरे दौर से गुजर रही है. नतीजतन, कूरियर का प्रभाव बढ़ रहा है. रजिस्टर्ड डाक से अधिक पैसा निजी कूरियर को देना पड़ता है. इस के बाद भी सब से अधिक पैकेट निजी कूरियर से गायब हो रहे हैं. ऐसे में डाक सेवाओं के निजीकरण का कोई अच्छा प्रभाव देखने को नहीं मिल रहा है.

डाक सेवाओं के प्रभावित होने और कूरियर सेवाओं के प्रभावी होने से पत्रिकाएं और अखबार भेजना मुश्किल हो गया है. इस की वजह से पढ़ने वाले लोगों को समय पर किताबें नहीं मिल रही हैं. किताबों की एक पीढ़ी संकट के दौर से गुजर रही है.

सुविधाजनक नहीं निजी परिवहन सेवाएं

रेलवे और डाक सेवाओं के बाद अगर परिवहन सेवाओं का हाल देखें तो वहां भी हालत बेहद खराब है. शहर के अंदर और बाहर दोनों ही जगहों पर सरकारी बस सेवाओं की जगह पर निजी बस सेवाएं चल रही हैं. इन में कुछ एसी बसें और गाडि़यां हैं जिन का किराया सरकारी बसों के किराए से कई गुना ज्यादा है. इन के समय से पहुंचने की हालत में कोई सुधार नहीं है.

लखनऊ से इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के बीच वोल्वो बस सेवा जब शुरू हुई थी तब बस के किराए में भारी अंतर था. वोल्वो का किराया 500 रुपए से ऊपर था. उसी समय साधारण सेवाएं 150 रुपए में थीं. शुरुआत में वोल्वो बसों की हालत अच्छी थी, अब हालत खराब हो गई है पर किराया वैसा ही है. ऐसे में अब यह कहीं नहीं लगता कि जो किराया निजी बसें वसूल रही हैं वह किसी तरह से उतनी सेवाएं दे रही हैं.

जो निजी साधारण सेवाओं के रूप में शहर और शहर के बाहर चल रही हैं, उन की हालत बेहद खराब है. ये बसें यात्रियों से भरी होती हैं. सामान रखने की जगह नहीं होती. इन से बेहतर सरकारी बसें होती हैं. ऐसे में निजी सेवाओं की हालत यहां भी बेहद खराब है. निजी सेवाओं के साथ जनता का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है.

केवल एकदो सैक्टर की बात नहीं है, हर सैक्टर में यही हो रहा है. रेलवे, डाक, परिवहन के बाद अगर हम शहरों में घर बनाने वाली संस्थाओं यानी प्राइवेट बिल्डर्स का हाल देखें तो साफ पता चलता है कि जनता को ठगने का सब से बड़ा काम प्राइवेट बिल्डर्स ने किया है. इस के पहले सरकारी संस्थाएं मकान और कालोनी बनाती थीं और वे हर वर्ग के आर्थिक स्तर के हिसाब से मकान बनाती थीं. अब प्राइवेट बिल्डर्स अपने लाभ के हिसाब से मकान बना रहे हैं.

ये भी पढ़ें- ‘चंद्रयान 2’: पाकिस्तान ने चंद्रयान को लेकर भारत पर कसा तंज

न सुविधा, न ईमानदारी

मकान बनाने वाले प्राइवेट बिल्डर्स तो पैसा लेने के सालोंसाल बाद भी लोगों को मकान नहीं दे रहे हैं. कईकई बिल्डर्स जनता का पैसा हजम कर गए, पर मकान नहीं दिया. प्राइवेट सोसाइटी बना कर लोगों ने काम करना शुरू किया.

यहां भी जमीनों की खरीदफरोख्त में भारी घपला होने लगा. सरकारी संस्थाओं द्वारा बनाए मकान या कालेनी देखें और प्राइवेट संस्था के बनाए मकान व कालोनी देखें तो पता चलता है कि हर सुविधा के लिए उस से कई गुना ज्यादा पैसा देना पड़ता है.

प्राइवेट बिल्डर्स से फ्लैट खरीदने वाले को हर सुविधा के लिए अलग से इतना पैसा देना पड़ता है कि वह अपना फ्लैट भी किराए का फ्लैट समझने लगता है. सरकारी कालोनियों में पर्यावरण सुविधाओं का ध्यान रखते हुए पार्क, फुटपाथ और सड़क बनती है, प्राइवेट बिल्डर्स पार्क, फुटपाथ और सड़क के नाम पर भी पैसे वसूल करते हैं.

सरकारी कामकाज में अगर रिश्वत का जोर है तो प्राइवेट बिल्डर्स में धोखाधड़ी का बोलबाला है. रातोंरात पैसा ले कर भाग जाने वाले प्राइवेट बिल्डर्स भी देखे गए. अपने मकान में रहने का सपना देखने वाले लोग ठगी का शिकार हो जाते हैं.

ऐसे में निजी सैक्टर अब जनता में अपना भरोसा खो चुका है. निजी सैक्टर वाले लोग जनता और समाज के लिए नहीं, बल्कि अपने मुनाफे के लिए काम करते हैं. शिक्षा और अस्पताल को देखें तो यह साफ लगेगा कि सुविधा के नाम पर प्राइवेट सैक्टर किस तरह से जनता को लूट रहा है.

सरकारी अस्पतालों में भी अब सारा काम निजी सैक्टर के सहयोग से चल रहा है. खासतौर पर सब से अधिक परेशानी बीमारियों की जांच में आने लगी है. निजी पैथोलौजी में जांच कराना बेहद महंगा पड़ रहा है. कई बार जांचें दवाओं से भी महंगी होती हैं.

बेरोजगारी दूर करने में असफल

किसी भी बिजनैस का एक अहम काम यह होता है कि वहां पर रोजगार उपलब्ध होता है. हाल के कुछ सालों में यहां भी हालात बुरी तरह से खराब हुए हैं. सरकारी सैक्टर और निजी सैक्टर से ले कर वेतन तक में बहुत अंतर है. एक सरकारी स्कूलटीचर सुबह 8 बजे से 4 बजे तक की ड्यूटी देता है और उस का शुरुआती वेतन 40 हजार रुपए होता है.

निजी स्कूलों में टीचर का वेतन 5 हजार से 8 हजार रुपए के बीच शुरू होता है. इस के बढ़ने का कोई तय फार्मूला नहीं है. स्कूल मालिक के एहसान पर है कि वह कितना बढ़ा दे. निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर अधिक समय तक भी काम करते हैं. उन के पढ़ाए बच्चों का परीक्षा परिणाम भी ज्यादा अच्छा होता है. इस के बाद भी उन्हें वेतन कम मिलता है. देखने वाली बात यह भी है कि टीचर को कम पैसे देने वाले स्कूल बच्चों से बहुत फीस वसूल करते हैं.

निजी सैक्टर जनता से भरपूर पैसा वसूल करने के बाद भी अपने कर्मचारियों को उन की जरूरत और क्षमता के अनुसार वेतन व सुविधाएं नहीं देते हैं. उन की शैक्षिक योग्यता के आधार पर वेतन और सुविधाएं तय न होने से रोजगार के अवसर अच्छे नहीं हैं. निजी सैक्टर में काम करने वालों के जीवनस्तर में कोई सुधार नहीं है.

साफ है कि सरकार रेल को निजी सैक्टर में ले जाने का जो काम कर रही है वह सही नहीं है. बहुत सारे उदाहरण बताते हैं कि निजी सैक्टर केवल अपने मुनाफे के लिए काम कर रहे हैं. उस से पब्लिक की सुविधाओं और पब्लिक के बजट का कोई खयाल नहीं है.

ये भी पढ़ें- चंदे का धंधा

निजी सैक्टर के साथ कठिनाई यह है कि व्यापारियों में जनता की सेवा कर के मुनाफा कमाने की भावना कम और लूटने की भावना ज्यादा हो गई है. व्यापारियों के व्यावसायिक खर्च भी बढ़ गए हैं व व्यक्तिगत भी. और व्यापार में मंदी, प्रतिस्पर्धा व तकनीक का ज्ञान न होने के कारण वे घटिया सेवा देते हैं.    –

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...