‘‘जाओ, भैया को खाना परोस दो.’’
‘‘मैं पढ़ रही हूं, भैया खुद भी तो खाना ले कर खा सकते हैं न.’’
‘‘वह लड़का है. यह लड़कों का काम नहीं है.’’
अपने घर में, आसपड़ोस में या टीवी पर किसी मां द्वारा अपनी बेटी से यह डायलौग बोलते आप ने सुना ही होगा. ‘लड़कों को ये काम शोभा नहीं देते,’ ‘लड़के यह सब नहीं करते,’ ‘लड़कियों को तो घर का काम आना ही चाहिए, लड़कों को न आए तो क्या,’ इस तरह की बातें हमारी सोसाइटी में आम हैं.
लड़कियां चाहे घर का काम करें या न करें लेकिन लड़के घर के काम नहीं करेंगे, यह तय है. तय क्यों है? अरे भई, यही तो हमारी परंपरा, प्रतिष्ठा और सम्मान है जो लड़कों के घर के काम कर लेने से या उन के कामों में हाथ बंटा देने से छोटी हो जाएगी, खत्म हो जाएगी.
और्गनाइजेशन फौर इकोनौमिक कोऔपरेशन ऐंड डैवलपमैंट की एक रिपोर्ट के अनुसार, 15 से 64 साल के पुरुष व लड़के एक दिन में घर के कामों में केवल 0.9 घंटा व्यतीत करते हैं, वहीं महिलाएं व लड़कियां 5.9 घंटे घर के काम में बिताती हैं. जिस समय लड़कियां किचन और घर के दूसरे कामों में उलझी रहती हैं उस समय उन के भाई, पापा या पति टीवी के सामने बैठ कर क्रिकेट या फुटबौल का लुत्फ उठा रहे होते हैं.
मांएं बचपन से ही लड़कों को घर के काम से दूर रखती हैं. उन के हिस्से में कुछ काम आते भी हैं तो वे उन के मर्द होने पर ठप्पा लगाने वाले होते हैं, जैसे बाजार से राशन ले कर आना, सिलैंडर लगा कर देना, बिजली के काम करना या कुछ लेनदेन करना. लड़कियों के हिस्से में घिसेपिटे झाड़ूबरतन और कूड़ाकरकट के काम मढ़ दिए जाते हैं, बिना यह सोचे कि लड़कों को इन कामों से दूर रख मांएं उन्हें मुसीबत में डाल रही हैं, वे उन्हें घमंडी भी बना देती हैं.
काम न आना है मुसीबत
नीरज 18 साल की उम्र तक अपने घर में बड़े ही ऐश से रहा. घर का झाड़ूपोंछा, बरतन, खाना बनाना, सब्जी लाना बहुत दूर की बात है, उस ने आज तक अपने खुद के कमरे को साफ नहीं किया था. उस के बरतन या तो उस की मां धोतीं या बहन. बहन उस से बड़ी नहीं थी, बल्कि 4 साल छोटी थी, फिर भी मां ने उसे सब काम करने की आदत बचपन से ही डलवा दी थी. उन का कहना था कि लड़कियों को यह सब काम आने ही चाहिए. लेकिन नीरज को यह काम आने चाहिए या नहीं, यह उन्होंने कभी नहीं समझा.
अहमदाबाद में स्कूल खत्म कर नीरज का ऐडमिशन दिल्ली के एक नामी कालेज में कराया गया. नीरज को उस के मांपापा ने एक पीजी भी दिला दिया, जहां उस के साथ उस का एक रूममेट था. नीरज की मम्मी का तो रोना तब तक नहीं रुका जब तक वे गाड़ी में बैठ कर चली नहीं गईं. जातेजाते उन के आखिरी शब्द थे, ‘कैसे करेगा मेरा बेटा सब काम…’
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नीरज ने पहले 2 दिन तो कुछ नहीं किया. बस, नए कालेज की खुशी और घर से दूर रहने का गम ही मनाता रहा. लेकिन, तीसरे दिन से ही असलियत ने उस के मुंह पर तमाचा मारना शुरू कर दिया. उस के रूममेट ने उसे अच्छे से समझा दिया कि 3 दिन झाड़ूपोंछा नीरज को करना पड़ेगा, खाने का डब्बा बस सुबहशाम आएगा, आधी रात में भूख लगी तो खुद बना कर खाना होगा और दिन में बाहर खाना पड़ेगा. कपड़े खुद धोने हैं और अपने बरतन भी खुद ही मांजने हैं. सफाई नहीं रखी तो पीजी वाली आंटी रूम में घुसने नहीं देंगी.
यह सब सुन कर नीरज के स्वाभिमान को ठेस तो लगी पर बेचारा क्या करता. दिल्ली में एक महीना नहीं हुआ कि नीरज का सारा अहं पानी भरने लगा. सुबह जल्दीजल्दी तैयार हो कर कालेज जाता, दोपहर बाहर से खरीद कर कुछ खाता और हर दूसरे दिन पेटदर्द ले कर पड़ा रहता, खुद को कुछ बनाना जो नहीं आता था. हर हफ्ते बाल्टी भरभर कर अपने गंदे कपड़े धोता और अपने समय पर रोता. नीरज को यह नई जिंदगी शुरुआत में बड़ी मुश्किल तो लगी, लेकिन फिर धीरेधीरे उस ने आदत डाल ली, या कहें कि मजबूरी में उसे आदत डालनी ही पड़ी. हां, कभीकभी वह जरूर कहता कि काश, लड़की होता तो काम आसान हो जाता.
यह बदलाव क्यों नहीं
वर्तमान समय में यदि देखा जाए तो लड़कियां घर के कामों में इतनी मसरूफ नहीं होतीं जितनी कि पहले के समय में होती थीं. इस का स्पष्ट कारण है कि अब वे केवल घर की चारदीवारी में बंद नहीं रहतीं, बल्कि शिक्षित हो बड़े पदों पर कार्यरत भी हैं. लड़कियां अब कामकाजी हैं. वे डाक्टर हैं और इंजीनियर भी. बावजूद इस के, उन्हें घर के काम आते हैं.
घर के काम इसलिए नहीं कि उन्हें इतना पढ़लिख कर भी घर का चूल्हाचौका करना पड़े, बल्कि इसलिए कि वे सरवाइव कर सकें. घर के कामकाज आना सर्वाइवल का मुख्य भाग है. फिर भी केवल लड़कियों को ही इस सर्वाइवल के लिए तैयार किया जाता है. इस का मतलब तो यह हुआ कि लड़कों के सर्वाइवल का जिम्मा भी लड़कियों के सिर है. ऐसे में सवाल है कि अगर लड़कियां हर तरह से खुद को मजबूत बना कर घर और बाहर के कामकाज कर सकती हैं तो फिर लड़कों को भी दोनों ही कामों के लिए सक्षम क्यों न बनाया जाए?
काम सिखाने के फायदे
यूनिसेफ की एक स्टडी के अनुसार, घर के कामों में बीतने वाला समय लड़कों के मुकाबले लड़कियों के जीवन और भविष्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है. हर घंटा जो लड़कियां घर के कामों में बिताती हैं, उस घंटे में वे दोस्त नहीं बना पातीं, स्कूल का काम नहीं कर पातीं और खेल नहीं पातीं.
मतलब साफ है कि लड़कों का घर के कामों में हाथ न बंटाना लड़कियों के जीवन को कई तरीकों से प्रभावित करता है. यानी, लड़कों के घर के काम में हाथ बंटाने से वे लड़कियों के जीवन को बेहतर बनाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं. इस के अलावा, खुद लड़कों के पक्ष में भी घर के काम करना कई तरीकों से फायदेमंद है.
सर्वाइवल के लिए
घर के कामकाज, जैसे खाना पकाना, कपड़ेबरतन धोना, बचीखुची चीजों से कुछ नया बना लेना, सफाई करना आदि ह्यूमन सर्वाइवल का मुख्य आधार हैं. कभी घर में कोई महिला नहीं हुई तो लड़कों को होटलों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे, न ही गंदगी में रहना पड़ेगा. उन्हें कामकाज की आदत होगी तो पीजी या होस्टल में रहते हुए उन की हालत खस्ता नहीं होगी.
आलस कम, चुस्ती ज्यादा
मेरे पड़ोस में एक लड़का रहता है जिस के घर में उस के अलावा कोई और फीमेल नहीं है. वह 16 साल का है और उसे घर का सभी काम भलीभांति आता है. इस के पीछे मुख्य कारण है कि पिछले 3 वर्षों से उस की मम्मी की तबीयत कुछ ठीक नहीं रहती और कामवाली आएदिन छुट्टी ले कर बैठ जाती है.
वह कामवाली के न होने पर स्कूल से आ कर खुशीखुशी घर के काम में मम्मी की मदद करता है. उसे न इस में कोई शर्म महसूस होती है, न अपने लड़के होने पर कोई शक. इस में दोराय नहीं है कि वह चुस्तदुरुस्त लड़का है और आलस का साया भी कभी उस के चेहरे पर नहीं दिखता.
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निर्भरता खत्म होना
यह बात नकारना बेहद मुश्किल है कि हम में से ज्यादातर घरों में हमारे पापा और भाई हमेशा से ही घर की औरतों पर निर्भर रहे हैं. कमरे की सफाई हो या शर्ट प्रैस करना और धोना, बैड के नीचे पड़ा कूड़ा हटाना हो या अलमारी में कपड़े लगाना, भाईपापा हर काम के लिए निर्भर ही रहते आए हैं. हालत तो ऐसी है कि जेब में पैसे न हों और घर में कोई खाना बना कर देने वाला न हो तो वे दिनभर भूखे ही रहें. इस निर्भरता को खत्म करना बेहद जरूरी है, और यह खत्म तब होगी जब लड़कों को शुरू से ही काम करने की आदत डलवाई जाए.
संबंधों का बेहतर होना
जब लड़के और लड़कियां दोनों ही घर के कामों में बराबर हाथ बंटाएंगे तो जाहिर सी बात है कि उन के संबंध कहीं ज्यादा बेहतर होंगे, चाहे वे भाईबहन हों, पतिपत्नी हों या लिवइन पार्टनर्स. मेरे बचपन में भैया और मेरे बीच हमेशा एक जंग छिड़ी रहती थी, जिस का मुख्य कारण था उन का जानबूझ कर मम्मीपापा के सामने मुझ से अपने काम करवाना, जिन के लिए मैं मना नहीं कर पाती थी. बड़े होने पर वे इतना समझ गए कि घर के काम करना कोई बोझ नहीं है, बल्कि दिनचर्या का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. अब वे खुद का कमरा साफ करते हैं तो कभीकभी मेरा भी कर ही देते हैं.