भाजपा चुनावों के जरिये सत्ता पर एकाधिकार चाहती है. उसके दावे बड़े हैं. उसके इरादे पक्के हैं. उसने उन तकतों से तालमेल भी बैठा लिया है, जो सरकारें बनाती हैं और जिनके नाम से सरकारें बनायी जाती हैं, उस आम जनता के लिये उसके पास आकर्षक नारें हैं, जिसमें फंसाने का काम प्रचारतंत्र करता है. नायक के रूप में उसने नरेंद्र मोदी को खड़ा कर लिया है. सत्तर चूहे खाने के बाद जिसे हज की जरूरत भी नहीं पड़ी. बिल्ली को बाघ मान लिया गया. भाजपा की ये बड़ी सफलता है, जिसे कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने सजा कर प्लेट में दिया.
2014 में उसने लोकसभा चुनाव में बड़ी सफलता हासिल की. 2015 में बिहार के बाद 2016 में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में उसे बिहार में शिकस्त के बाद, पश्चिम बंगाल, पाण्डुचेरी, केरल और तमिलनाडू में भी करारी मात मिली, मगर असम के चुनाव में मिली सफलता को उसने अपनी सफलता और जन स्वीकृति का ऐसा जरिया बनाया, इतनी खुशियां बांटी कि देश की आम जनता, शायद धोखे में आ गयी है, और 2017 में होने वो उत्तर प्रदेश सहित अन्य चार राज्यों में चुनावों में सफलता की घोषणा वह अभी से करने लगी है. उसके हौसले बुलंद हैं. उसके दावे बड़े हैं. वह उत्तर प्रदेश को निशाने पर ले चुकी है, जहां सपा की सरकार है. बसपा की मजबूत स्थिति है और कांग्रेस भी है. वामदलों के साथ में खास कुछ नहीं है. बिहार चुनाव में भाजपा की हार के बाद जिस राजनीतिक विकल्प की बातें हुईं थी, वह अभी साफ नहीं है. कह सकते हैं, कि वह है.
लेकिन भाजपा कांग्रेस को समाप्त करने पर तुली हुई है. ‘कांग्रेस मुक्त भारत‘ उसका नारा है. वह मान कर चल रही है, कि यदि कांग्रेस नहीं है, तो राष्ट्रीय स्तर पर उसके लिये दलगत राजनीतिक चुनौती नहीं है.
भाजपा जिन छुपे और खुले हुए मुद्दों के तहत 2014 का लोकसभा चुनाव जीत चुकी है, उन्हीं मुद्दों के तहत ‘मिशन 2017‘ वह पूरा करना चाहती है. मिशन 2017 उसके लिये उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है, मगर यह उससे कहीं ज्यादा है, वह मान कर चल रही है, कि उत्तर प्रदेश में सरकार का मामला मतलब 2019 के आम चुनाव में जीत की गारंटी है. पंजाब का चुनाव भी, उसके इस मिशन का हिस्सा है. वह अपनी उपलब्धियों को गिनाने और बताने में इतनी मशगूल है कि वह जनसमस्याओं का समाधान करने के बजाये उसे भुलावा देने और भटकाने में लग गयी है. उसने हिन्दुत्व के घातक मुद्दे को चुनाव में रामनामी ओढ़ाना तय कर लिया है. विकास के साथ रामनामी भी अहम मुद्दा है.
12, 13 जून को इलाहाबाद में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक और सभायें हुईं. अमित शाह और तमाम मंत्री-संतरी, जिसे जो कहना चाहिये था, उन्होंने वही कहा. मीडिया को जैसे रिपोर्टिंग करनी चाहिये थी, उन्होंने वैसी ही रिपोर्टिंग की. भाजपा नमोवादी हो गयी. उत्तर प्रदेश 2017 का चुनाव मोदी के नाम पर लड़ना तय हो गया.
नरेंद्र मोदी को, पार्टी और सरकार के कंधों पर चढ़ा दिया गया. ‘हाथी-घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की.‘ चुनाव में माहिर हो गये भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बैठक में शामिल किसी भी मंत्री ने देश की वस्तु स्थिति के बारे में कुछ नहीं कहा. बढ़ती हुई महंगाई, भूखमरी, सूखे की स्थिति, तेजी से बढ़ती सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं के बारे में कुछ नहीं कहा. वो मोदी के दो साल की तस्वीरें चिपका कर एक-दूसरे को आईना की तरह दिखाते रहे. ऐसी तस्वीरें दिखाते रहे जिसमें मोदी का कद तो बढ़ता है, मगर देश और आवाम गायब होती जा रही है. मोदी चुनावी चेहरा बन गये हैं. सरकारी खर्च पर प्रचार कार्य जारी है.
भाजपा उत्तर प्रदेश में 2014 के आम चुनाव परिणाम की तरह 2017 में प्रदेश चुनाव परिणाम के सपने पाल रही है. वह सोच रही है, कि 2019 का ‘गेट पास‘ उसे मिल जायेगा. चुनाव वह अकेले ही लड़ने के मूड़ में दिख रही है. निशाने पर वैसे तो सपा और बसपा है, मगर समीकरण अभी बदलेगा. सभी शातिर दिमागों की तेजाबी होगी. नरेंद्र मोदी अपने को करामाती दिखाने में लगे रहे. संघ की फौज को तैयार किया जा रहा है. धर्म और जाति के गोटियों पर विकास का बर्क चढ़ाया जा रहा है. आने वाले कल में राम मंदिर के निर्माण और ‘देशद्रोही बनाम देशभक्ति‘ के मुद्दे को तरजीह मिलेगी.
भाजपा की सफलता इस बात पर निर्भर करती है, कि वह प्रदेश की आम जनता को बरगलाने में कितना सफल होती है. कमोबेश यही स्थिति अन्य राजनीतिक दलों के बारे में भी कही जा सकती है. सपा जो है उसे बचाने में लगी है. बसपा समीकरण मे संभावनायें तलाश सकती है, जिसके वोट बैंक में घुसपैठ हो रही है. कांग्रेस और तीसरा मोर्चा के माथे पर गहरी शिकन है.