शिक्षण संस्थानों का नया सैशन शुरू होते ही अभिभावकों की भागदौड़ शुरू हो जाती है. कौपीकिताब के साथसाथ बच्चों के लिए स्कूलों द्वारा निर्धारित ड्रेस खरीदना आवश्यक होता है. अधिकतर स्कूलों द्वारा ड्रेस के लिए कुछ दुकानें अधिकृत कर दी जाती हैं और पेरैंट्स के लिए वहीं से अपने नौनिहालों के वास्ते ड्रेस खरीदना अनिवार्य रहता है.

मंगला अपने बेटे के लिए शर्ट खरीद रही थीं. शर्ट का कपड़ा और उस का मूल्य देख कर वे दुकानदार से नाराज हो कर बोलीं, ‘‘क्यों भैया, आप ने तो एकदम लूट मचा रखी है. इतने बेकार कपड़े की शर्ट और दाम 400 रुपए? यह तो 200 रुपए से ज्यादा की नहीं है.’’

‘‘मैडम, नाराज मत होइए. इस दाम में यही कपड़ा है. हम लोगों को जो थोक व्यापारी देते हैं, वही हम लोग आप को देते हैं. हम लोगों की भी अपनी मजबूरी होती है.’’

तभी पास में खड़ी कविता बोल पड़ी थी, ‘दीदी, ये लोग ड्रैस की कीमत तो ज्यादा रखेंगे ही, आखिर इन बेचारों को अपनी दुकानदारी बढ़ाने के लिए स्कूल वालों को खुश करना पड़ता है और इस के लिए इन्हें अपनी जेबें ढीली करनी पड़ती हैं. तभी ये लोग अधिकृत दुकानदार बन पाते हैं.’’

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स्कूलों की मनमानी

आजकल स्कूल वाले हर चीज में अपनी कमाई देखते हैं. हमारी मजबूरी है कि हमें अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए इन सब के इशारों पर नाचना पड़ता है.

मेरे 2 बच्चे हैं. उन दोनों की पूरी ड्रैस खरीदने में महीने का सारा बजट बिगड़ जाता है, क्योंकि हर बच्चे को हफ्तेभर में 3 तरह की ड्रैस पहननी होती हैं. एक दिन पीटी ड्रैस, एक दिन हाउस ड्रैस और बाकी दिन स्कूल डै्रस. चूंकि बच्चे

कपड़े बहुत जल्दी गंदे करते हैं, इसलिए 2-2 सैट खरीदने पड़ते हैं.

मेरठ की अंकिता मोजवानी अपना दर्द साझा करते हुए कहती हैं, ‘‘तमाम सरकारी नियमों के बावजूद कईर् प्राइवेट स्कूल

खुद ही स्कूल ड्रैस बेच रहे हैं. कुछ स्कूल दुकानदारों से अच्छाखासा कमीशन लेते हैं, उस के बाद फिर उन्हें अपने स्कूल की ड्रैस बेचने का अधिकार प्रदान करते हैं.’’

जो ड्रैस बाजार में 300 रुपए की है, स्कूल का ठप्पा लगते ही सीधे उस की कीमत 1,000 रुपए तक पहुंच जाती है. दरअसल, स्कूलों और ड्रैस बेचने वाले कारोबारियों के बीच आपस में गठजोड़ है.

उदाहरण के लिए, भोपाल में स्कूल ड्रैस बनाने वाले छोटेबड़े करीब डेढ़ सौ सैंटर्स ने स्कूलों से गठजोड़ कर रखा है. एक कारोबारी ने अपना नाम न बताने की शर्त पर बताया कि उस के पास 30 प्राइवेट स्कूलों के और्डर हैं. स्कूल ड्रैस पर स्कूल का ‘मोनो’ जरूरी होता है, जोकि स्कूल से ही उपलब्ध करवाया जाता है. वे खुद को छोटा कारोबारी बताते हैं लेकिन जुलाई माह में लगभग 50 लाख रुपए तक का कारोबार कर लेते हैं. शहर में लगभग

325 बड़े स्कूल हैं. गली, महल्ले में सिमटे हुए निजी स्कूलों की संख्या करीब 700 है, जिन में 5 लाख से अधिक नौनिहाल पढ़ते हैं. स्कूल ड्रैस की मनमानी दरों से बच्चों के पेरैंट्स को जूझना पड़ता है.

गठजोड़ का खेल

स्कूल ड्रैस की सिलाई करने वाले मोहन कुमार का कहना है, ‘‘5वीं के छात्र की पैंट 95 सैंटीमीटर कपड़े में बन जाती है. इस के लिए जो कपड़ा उपयोग के लिए लिया जाता है, उस की क्वालिटी के अनुसार इतना बड़़ा कपड़ा केवल 100 रुपए में आ जाता है. शर्ट में

सवा मीटर कपड़ा लगता है, जो 80 रुपए में आता है. 120 रुपए सिलाई मिला कर एक स्कूल ड्रैस 300 रुपए में तैयार हो जाती है.’’

एक स्कूल ड्रैस विक्रेता का कहना है, ‘‘हम लोग सभी स्कूलों की ड्रैस तैयार करते हैं और सीधे पेरैंट्स को बेचते हैं. जबकि हकीकत यह है कि स्कूलों की मंजूरी के बिना कोई भी किसी स्कूल की ड्रैस नहीं बनाता. लागत के बाद जो राशि बचती है, वह दुकानदार और स्कूल के बीच में बंट जाती है.’’

जब प्रशासन से इस विषय में पूछताछ की गई तो उस का कहना है, ‘‘हां, स्कूल ड्रैस के कारोबार की शिकायतें मिली हैं. प्रशासन लगातार कोशिश कर रहा है कि पेरैंट्स अपनी पसंद की कीमत की स्कूल ड्रैस आदि खरीद सकें. हम इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए प्रयासरत हैं. हम इस पर कड़ी मौनिटरिंग कर रहे हैं. हमें इस ठगबंधन को तोड़ने में काफी सफलता भी मिली है. अब परैंट्स जागरूक हो रहे हैं. हम कारोबारियों और स्कूलों के आपसी ठगबंधन को तोड़ने में एक दिन अवश्य कामयाब होंगे.’

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टीचर्स की ड्रैस

अब कुछ राज्य सरकारों ने स्कूलों में टीचर्स के लिए भी ड्रैसकोड लागू किया है. सरकार का कहना है कि बच्चे अपनी टीचर को अपना रोलमौडल मानते हैं. उन की भड़कीली और उकसाऊ ड्रैस से बच्चों पर खराब असर पड़ता है.

अविका मिश्रा, जो ग्वालियर में रहती हैं, उदास मन से बोलीं, ‘‘मुझे तो हमेशा से फैशनेबल कपड़ों का शौक रहा है. मुझे तो अपने कालेज में ‘फैशन क्वीन’ का टाइटल भी मिला था. अब जौब में आई तो ड्रैस कोड के कारण रोज एक ही तरह की ड्रैस पहननी होगी.’’

2012 में एक आदेश निकाला गया था कि टीचर स्कूल में सिंपल कपड़े पहन कर आएं. लेकिन देखा गया कि फीमेल टीचर्स स्कूलों में तड़कभड़क वाले कपड़े पहन कर आती हैं. जैंट्स टीचर की भी फटी जींस और टाइट पैंट व टीशर्ट पर सरकार की नजर है.

टीचर के फैशनेबल कपड़े देख कर बच्चे भी अपने पेरैंट्स पर ऐसे कपड़े लाने का दबाव डालते हैं, जो गरीब मांबाप के लिए मुश्किल खड़ी करता है. और साथ ही, न मिलने पर बच्चों के मन में हीनभावना पैदा होती है.

टीचर्स की ड्रैसकोड के पीछे भगवा सोच भी है कि टीचर गुरु के समान तो है पर वह लीक से हट कर न सोचे, न पढ़ाए. ड्रैसकोड का अर्थ है कि आप विविधता का विरोध कर रहे हैं. अनुसंधान जो सफल हुए हैं इसलिए कि वे लीक से हट कर सोचने व करने की प्रेरणा देते हैं. ड्रैसकोड मानसिक गुलामी का एक रूप है जिस में जंजीर के  पैसे भी गुलाम ही देता है.

अनावश्यक रूप से लगभग सभी स्कूलों ने 6 दिनों में 3 तरह की ड्रैसेस अनिवार्य कर रखी हैं. पेरैंट्स को तीनों ड्रैसेस के 2-2 सैट लेने ही पड़ते हैं. इस के अलावा समर और विंटर ड्रैस के नाम पर हर 6 महीने में यूनिफौर्म भी बदल जाती है.

स्कूलों ने जूतेमोजे का भी विकल्प नहीं छोड़ा है. शर्टपैंट, ट्राउजर, ब्लेजर के अलावा स्ट्राइप वाले मोजों को भी पेरैंट्स को निर्धारित शौप से ही खरीदना पड़ता है. उन्हें ड्रैस के नाम पर खास तरह के जूतेमोजों का सैट खरीदना पड़ रहा है.

दरअसल, स्कूली डै्रस उत्पादन उद्योग काफी तेजी से बढ़ रहा है. इस का आकार वित्त वर्ष 2016-17 के 18 हजार करोड़ रुपए से बढ़ कर वित्त वर्ष 2021-22 तक 25 हजार करोड़ हो जाने का अनुमान है. महाराष्ट्र के जिला शोलापुर रेडीमेड इंडस्ट्री एसोसिएशन के उपाध्यक्ष नीलेश शाह कहते हैं, ‘‘शिक्षा के प्रति देश में बढ़ती जागरूकता के कारण स्कूल ड्रैस उद्योग बहुत तेजी से बढ़ रहा है. यह जिला इस उद्योग का केंद्र बन चुका है. शहर में 2022 तक लगभग 2 हजार नई इकाइयां शुरू करने की योजना है.’’

जरूरत इस बात की है कि सरकार व्यापारियों और स्कूलों के इस ठगबंधन के जाल को समूलरूप से नष्ट करे ताकि पेरैंट्स को सही दामों में स्कूल ड्रैस उन के नौनिहालों के लिए मिल सकें.

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