उत्तराखंड में हुई किरकिरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली व अमित शाह को तो याद रहेगी ही, आगे की केंद्रीय सरकारों के लिए यह एक सबक रहेगी. जहां सीधे न जीत पाए हों, वहां सत्तारूढ़ पार्टी में तोड़फोड़ करा कर राज कर लेने के उदाहरण रामायण व महाभारत के युग में तो होते ही थे, संविधान बनने व उस के लागू होने के बाद भी बहुत हुए. हरियाणा में तो एक बार आयारामगयाराम चुटकुला बन गया जब एक विधायक गयाराम दिन में 4 बार दल बदलने लगा. पहले एस आर बोम्मई के मामले में और अब हरीश रावत के मामले में उत्तराखंड उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने विधायकों की ब्लैकमेल करने की ताकत की हवा निकाल दी और विधायकों की खरीदफरोख्त पर पूरी तरह की पाबंदी सी लगा दी है. अरुण जेटली और अमित शाह सोच रहे थे कि वे इंदिरा गांधी वाला युग वापस ले आएंगे. सर्वोच्च न्यायालय ने उन के मनसूबों पर पानी फेर दिया.

हर सरकार में ऐसे नेता होते हैं जो ऊंचा पद चाहते हैं और विजय बहुगुणा दरअसल हरीश रावत की जगह खुद को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाह रहे थे. किसी कारण सोनिया गांधी के दरबार में उन की चल नहीं रही थी. ऐसे में उन्होंने नरेंद्र मोदी के दरबार में गुहार लगाई. दिल्ली व बिहार की हार के सदमे को न भुला पा रहे नरेंद्र मोदी को यह एक अवसर लगा कि शायद वे साबित कर पाएं कि चुनावों के बिना भी वही अकेले देश में शासन के लायक हैं, दूसरी पार्टियों के विधायक भी उन्हें ही नेता मानते हैं. कश्मीर में सत्ता हाथ से न निकले, इसलिए उन्होंने महबूबा मुफ्ती से कई समझौते किए और भारत माता की जय न बोलने पर भी जम्मूकश्मीर में किसी को देशद्रोही न मानने तक को तैयार हो गए. उत्तराखंड का पूरा नाटक भाजपा का विभीषणी काम था. वह रामराज्य कैसा जहां भाई को भाई से लड़वाया जाए पर भाजपा ने विजय बहुगुणा की 9 विधायकों को तोड़ लाने की पेशकश को स्वीकार कर लिया और बात नहीं बनती दिखी, तो राष्ट्रपति शासन, छोटी सी बात पर, लागू कर डाला. उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने तो एक तरह से राष्ट्रपति को बुरी तरह डांट लगा दी. सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय वाली भाषा का इस्तेमाल तो नहीं किया पर आखिरकार किया वही, जो उच्च न्यायालय कह रहा था.

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