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मेरी कहानी

इक मोड़ पर ठिठकती

इक मोड़ पर सहमती

आदि ढूंढ़ती, अंत ढूंढ़ती

कभी खुशी की फुहार

कभी गम की साइत

तितरबितर, बिखरे हुए

पलों में खुशियां ढूंढ़ती

हसरतों के धागे जोड़

बनाती है ओढ़नी

उतर आती है और

मेरे आंगन में चांदनी

समय ने ली करवट

मांगा हिसाब बीते लमहों का

और शक्तिहीन हाथों में

शक्ति का संचार कर

इक नई दिशा देने को

मेरी कहानी भटकती है

इक नई शुरुआत को

इक सुंदर अंत देने

मेरी कहानी भटकती है.

              – हेमा महाडिक लोखंडे

धार्मिक कट्टरता में उलझा देश

भारतीय जनता पार्टी के असली रंग अब सामने आने लगे हैं और विकास की बातों की जगह विनाश की बातें लेने लगी हैं. नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत की इस परिवर्तन में रजामंदी है या नहीं यह तो पता नहीं चलेगा पर वैरभाव की जो हवा जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं ने तैयार की, जिस से पाखंडपने को पूरे तौर पर देश पर लागू करा जा सके, उस ने अपना काला रंग दिखाना शुरू कर दिया है. उत्तर प्रदेश के दादरी में गोमांस को ले कर मोहम्मद अखलाक की पीटपीट कर हुई हत्या के बाद मुंबई में भारतीय जनता पार्टी के चिंतक सलाहकार रहे सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर काला पेंट पोतने की घटना चाहे केंद्र सरकार की साजिश का नतीजा हो या न हो, यह उस व्यापक नीतिगत वातावरण का परिणाम है जिस में समाज को हिस्सों में बांटा जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने बहुत सरलता से गांवों और शहरों में पिछड़ों का एक ऐसा वर्ग तैयार कर लिया है जो धर्म के नाम पर आतंक फैलाने को तैयार है. चाहे ये पिछड़े वही हो जो खुद हिंदू वर्ण व्यवस्था के सदियों तक शिकार रहे हैं पर साथ ही जमींदारों और महंतों के लठैत भी रहे हैं और उन्हीं के बल पर राजाओं, उमरावों और मंदिरों ने अपना राज गांवगांव में कायम किया था.

यह वर्ग पहले कांगे्रस का साथ दे रहा था और वहां कुछ न पा कर समाजवादी दलों के पास चला गया था. अब इन के युवा भाजपा में घुस कर भगवा झंडे में अपने उद्धार की आस में मारपीट पर उतारू हो रहे हैं. पूरे देश में धर्म के नाम पर जो दंगे, फसाद व विवाद हो रहे हैं उन में यही वर्ग ज्यादा मुखर है जो खुद राजा से भी ज्यादा राजा का भक्त बनने की कोशिश कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के पहले आस जगाई थी कि देश के विकास का, आर्थिक विकास और प्रशासनिक विकास का मुद्दा उस के लिए मुख्य होगा और उन्हीं के सहारे भारत अपना गौरव प्राप्त कर लेगा. नरेंद्र मोदी ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जिस में काम करना आसान होगा, भ्रष्टाचार न होगा और जीवन स्तर सुधरेगा. अब हर रोज देश एक नए विवाद में उलझ रहा है. सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और व्यापमं कांडों ने जहां भ्रष्टाचार की पोल खोल दी वहीं हाल की धार्मिक कट्टरता की घटनाओं ने विकास की आशाओं को धूल में मिला दिया. नरेंद्र मोदी ने जिस मेहनत से दुनिया भर में नए उदय होते भारत की तसवीर खींची थी उस पर कुछ ही सप्ताहों ने तालिबानी रंग पोत दिया और दुनिया, जो पहले ही इसलामी आतंक से भयभीत थी, भारत के प्रति भी आशंकित होने लगी है.

यह कोई नई बात नहीं है. इस देश में यही होता रहा है. 1947 के बाद गांधी और नेहरू के वादे नेहरू की समाजवादी सोच और कांग्रेस के कट्टरवादी हिंदू नेताओं के कारण ढह गए थे. 1977 में आपात स्थिति के बाद जनरोष का लाभ जनता पार्टी उठा न पाई. 1984 में राजीव गांधी ने देश की अखंडता के लिए मिले समर्थन को डुबो दिया और वे बोफोर्स घोटाले का शिकार हो गए. 2014 के नरेंद्र मोदी के सपनों को उन्हीं की पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता पीटपीट कर अधमरा कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व नहीं जानता कि जिस धार्मिक कट्टरता के जिन्न को उन्होंने बोतल से निकाला था, उसे बोतल में फिर बंद कैसे करे.

किराए की कोख

कोख को उधार देना अब एक फलताफूलता व्यवसाय बन गया है और सैकड़ों क्लिनिक ऐसी औरतें खोजने लगे हैं जो फर्टिलाइज्ड एग को 9 माह गर्भ में रख कर शिशु पैदा कर सकें. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में इस पर कानून के अभाव पर चिंता जताई और एक तरह से इशारा किया कि यह कुछ गलत है. यह गलत बिलकुल नहीं है. यह हर औरत का अपना निजी हक है कि वह अपने शरीर का इस्तेमाल कैसे करे. कानून केवल तभी बीच में आ सकता है जब जोरजबरदस्ती हो या धोखाधड़ी. इस के लिए मौजूदा कानून काफी हैं. औरतों को मिलने वाली हर आजादी को सामाजिक सिद्धांतों के खिलाफ माना जाना गलत है और कानून बना कर इंस्पैक्टरों, पुलिस, अदालतों, अनुमतियों, कागजी कार्यवाहियों के जंजाल में फंसाना एकदम मौलिक अधिकार के खिलाफ है. किराए की कोख का इस्तेमाल वे युगल कर रहे हैं जो किसी कारण बच्चे पैदा नहीं कर पा रहे. इन युगलों को हक है कि वे अपनी संतान पा सकें और जैसे आधुनिक तकनीक हजारों मील दूर बैठी घटना के चित्र सैकंडों में आप तक पहुंचा सकती है वैसे ही अगर चिकित्सा तकनीक सैकड़ों मील दूर बैठी औरत की कोख से बच्चे पैदा करा दे तो हर्ज क्या है!

सरकार जब भी कानून बनाती है उस में सरकारी कारिंदों को अधिकारों पर अधिकार दे देती है मानो वे देवदूत हों और आम आदमी दैत्यों के वंशज. सरकारी कानून अगर 2 आम व्यक्तियों की आपसी सहमति को नियंत्रित करने वाले ही हों तो ठीक है पर सरकार का कानून तो भारी दस्तावेजों का पुलिंदा बनवा देगा और सरोगेट मदरहुड की कीमत 4 गुनी कर देगा और बढ़ी हुई कीमत सिर्फ और सिर्फ सरकारी कारिंदों की जेब में जाएगी, प्रशासनिक खर्च के तौर पर या रिश्वत में. किराए पर कोख देना औरतों का हक है. यह डाक्टर का फर्ज है कि वह एक स्वस्थ औरत को ही इस के लिए तैयार करे. जब डाक्टर युगल से मोटी फीस लेगा तो वह नहीं चाहेगा कि बीमार औरत का चयन किया जाए. यह जिम्मा कि युगल जो अपना फर्टिलाइज्ड एग दे रहा है और सरोगेट मदर ठीक है, उन के अपने विवेक पर छोड़ दें. सरकार का पल्लू हर बात में खींचना गलत है. अदालतों को भी सरकार को हर काम में दखल देने के लिए कहना बंद करना चाहिए. वैसे ही हम पर सरकार बड़ी मेहरबान है और उस की मेहरबानी से आम आदमी कुचला जा रहा है.

एक पटेल के पीछे लाखों पटेल

हार्दिक पटेल भी अरविंद केजरीवाल की राह पर चलते हुए दिखाई पड़ रहे हैं क्योंकि उन के बयानों में विरोधाभास नजर आता है, जो कभी अन्ना आंदोलन के समय अरविंद केजरीवाल के बयानों में देखा जाता था. केजरीवाल भी अन्ना आंदोलन के समय कहते थे कि हम राजनीति में नहीं आएंगे, हम तो केवल जनलोकपाल बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि देश से भ्रष्टाचार को दूर किया जा सके. आज केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं लेकिन कभी अपनी सरकार बनने के तुरंत बाद जनलोकपाल कानून लाने की बात करने वाले केजरीवाल की सरकार आज भी जनलोकपाल कानून लाने पर विचारविमर्श ही कर रही है. आज हार्दिक पटेल ने भी अखिल भारतीय स्तर पर एक गैरराजनीतिक संगठन ‘पटेल नवनिर्माण सेना’ बना लिया जो देशभर में फैले पाटीदार समाज को संगठित कर के उन के हक की लड़ाई लड़ेगा. हार्दिक पटेल भी केजरीवाल की तरह पहले अपने आंदोलन के माध्यम से अपने संगठन को मजबूत करेंगे. बाद में हो सकता है ‘पटेल नवनिर्माण सेना’ भी एक राजनीतिक संगठन का रूप ले ले. दिल्ली में पत्रकारवार्ता में पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन्होंने इस विकल्प को भी खुला रखा है कि भविष्य में अपनी मांगों की पूर्ति के लिए वे राजनीति में भी आ सकते हैं.

हार्दिक पटेल राष्ट्रीय स्तर के नेता बनें, इस में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को राजनीति में आने का पूर्ण हक है, जिस की इजाजत सभी को भारत का संविधान देता है. लेकिन हार्दिक पटेल को अगर राष्ट्रीय स्तर का नेता बनना है तो उन्हें अपनी जानकारियों को भी मजबूत करना पड़ेगा. एक तरफ तो वे यह कह रहे हैं कि झारखंड के कुर्मी समुदाय नेहरू के कारण बदहाली का शिकार हैं, जबकि हकीकत यह है कि झारखंड में वर्ष 1932 से ले कर वर्ष 2004 तक झारखंड के कुर्मी समुदाय के लोगों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दरजा प्राप्त था, जिसे वर्ष 2004 में तत्कालीन भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल कर दिया गया था.

तत्कालीन सरकार के इस फैसले का झारखंड के कुर्मी समुदाय ने जोरशोर से विरोध किया था. दूसरी तरफ उन्हें नीतीश कुमार और सुदेश महतो जैसे राजनीतिक लोगों का समर्थन लेने या देने में कोई परहेज नहीं है. लेकिन गुर्जर आंदोलन के नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला के राजनीति में आ जाने के कारण वे उन का सहयोग नहीं लेना चाहते हैं. हार्दिक पटेल ने पटेलों को इंसाफ दिलाने के लिए जो कदम उठाया है वह उन के समाज का मामला है. लेकिन अगर उन्हें राजनीति में आना ही है तो खुल कर सामने आएं न कि मुद्दों को तलाश करें क्योंकि उन्होंने भी केजरीवाल की तरह भष्टाचार को दूर करने के नाम पर देशभर के लोगों को इकट्ठा कर के अपनी पार्टी बना ली और हार्दिक भी पटेलों को आरक्षण दिलवाने के नाम पर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पैठ बनाने की ओर अग्रसर हैं. हालांकि यह सब इतना आसान नहीं होगा. मौजूदा स्थिति यह है कि हार्दिक पटेल ने जो पटेलों को जमा कर आरक्षण पर आंदोलन खड़ा किया था उस की धार अब कुंद पड़ गई है. बीते दिनों न तो कोई बड़ी सरगर्मी दिखी और न ही हार्दिक के बगावती तेवर.   

नाबालिग का गर्भपात, कौन करे फैसला?

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 30 किलोमीटर दूर बसा बाराबंकी जिला चर्चा में है. चर्चा की वजह एक नाबालिग लड़की का गर्भपात है. बलात्कार की शिकार 13 साल की इस लड़की की कहानी कानून, समाज और व्यवस्था सब की लाचारी को दिखाती है. कानूनी पेचीदगी में फंसी नाबालिग लड़की प्रसव के बाद जिस बच्चे को जन्म देगी उस के भविष्य पर सवाल उठ रहे हैं. उस का पालनपोषण कैसे होगा? बच्चा नाबालिग लड़की के पास कैसे रह सकता है क्योंकि समाज में कुंआरी मां की स्वीकृति नहीं है. अगर बच्चा अलग रहता है तो क्या यह जायज है? इन सब के बीच एक सवाल यह भी है कि क्या शर्मिंदगी और सैक्स संबंधों की अज्ञानता के चलते ऐसे हालात बनते हैं? एक घटना के सहारे ऐसे व्यावहारिक पक्षों को देखना जरूरी है, जिस से घटना से सबक ले कर कुछ ऐसा सबक लिया जा सकता है जिस से आगे सतर्क रहा जा सके.

13 साल की रीना (बदला हुआ नाम) बाराबंकी जिले की रहने वाली है. उस का परिवार बहुत गरीब है. 17 फरवरी, 2015 को वह भागवत कथा सुनने गांव के बाहर बने मंदिर में गई थी. वहां गांव के एक युवक ने उस से जबरन देह संबंध बनाए. बलात्कार का शिकार हुई रीना को उस ने डरायाधमकाया और हिदायत दी कि घरपरिवार में किसी को कुछ न बताए. रीना ने देखा था कि गांव में जब कभी ऐसी घटना सुनी जाती थी तो लोग लड़की को ही दोष देते थे. ऐसे में उस ने किसी को घटना की जानकारी नहीं दी. जुलाई माह की शुरुआत में रीना के पेट में दर्द होने लगा. तब उस ने घर वालों को पेट दर्द की जानकारी दी. घर वाले उसे सरकारी अस्पताल में ले कर गए तो वहां पता चला कि रीना को 21 सप्ताह और 2 दिन का गर्भ है. तब रीना ने घर वालों को अपने साथ फरवरी में हुए बलात्कार की जानकारी दी. रीना के घर वालों ने पुलिस में शिकायत की. पुलिस ने रीना से बलात्कार करने वाले युवक को जेल भेज दिया.

कानूनी बाधा 

रीना का गर्भ 21 सप्ताह से अधिक का हो चुका था. ऐसे में कानून के हिसाब से उस का गर्भपात नहीं कराया जा सकता था. गर्भपात के लिए देश में बने एमटीपी ऐक्ट यानी मैडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैग्नैंसीऐक्ट 1972 बना है. 1975 में यह कानून पूरे देश में लागू भी हो गया. इस में काफी सख्ती दिखाई जा रही है. कई डाक्टरों को जेल तक जाना पड़ा है. तमाम पैथोलौजी इस ऐक्ट का शिकार हो चुकी हैं. इस कानून में कहा गया है कि 12 सप्ताह से कम समय के गर्भ का गर्भपात केवल एक प्रशिक्षित डाक्टर द्वारा किया जा सकता है. 12 सप्ताह से अधिक और 22 सप्ताह से कम समय के गर्भ का गर्भपात करने के लिए कम से कम 2 डाक्टरों का पैनल गर्भपात कर सकता है. अगर गर्भ में पल रहे भू्रण का वजन 500 ग्राम से अधिक है तो गर्भपात की अनुमति नहीं दी जा सकती. 5 माह से अधिक समय के गर्भ का गर्भपात किसी सूरत में नहीं हो सकता.

रीना के मसले में जब उस के गरीब मातापिता हाईकोर्ट में गर्भपात की गुहार लगाने पहुंचे तब तक गर्भ की अवधि बढ़ चुकी थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच के पास जब यह मसला पहुंचा तो 2 जजों की बैंच ने इस की सुनवाई की. न्यायमूर्ति सबीहुल हसन और न्यायमूर्ति डी के उपाध्याय की बैंच ने लखनऊ के किंग जौर्ज मैडिकल कालेज की स्त्री एवं प्रसूति विभाग के विभाग प्रमुख को आदेश दिया कि वह अस्पताल की 3 सीनियर डाक्टरों का पैनल बनाए. वह पैनल लड़की के स्वास्थ्य का परीक्षण करे. उस के जीवन के खतरे को देखते हुए गर्भपात का निर्णय ले. किंग जौर्ज मैडिकल कालेज की विभाग प्रमुख डा. विनीता दास ने 3 सदस्यों की समिति का गठन किया. इस में विभाग प्रमुख डा. विनीता दास के अलावा क्वीनमेरी अस्पताल की चिकित्सा प्रमुख डा. एस पी जैसवार और डा. उमा सिंह शामिल थीं.

लड़की की जांच के बाद रिपोर्ट हाईकोर्ट को भेज दी गई. डाक्टर गर्भपात की राय को ले कर एकमत नहीं हैं. गोपनीय जांच के संबंध में डाक्टरों ने किसी भी तरह की जानकारी बाहर देने से मना कर दिया. 15 सितंबर, 2015 तक के घटनाक्रम मेंकिशोरी के परिजनों के अनुसार डाक्टरों का मानना है कि गर्भपात अब संभव नहीं है. चिकित्सा की विधियों से प्रसव ही कराया जा सकता है. इस में भी किशोरी और बच्चे की जान को खतरा हो सकता है. ऐसे में यही उम्मीद बचती है कि लड़की का प्रसव ही कराया जाए. मामला हाईकोर्ट में होने के कारण डाक्टर और प्रशासन हर तरह की सावधानी बरत रहे हैं. लड़की का परिवार खुद भी समाज के सवालों से दूर समय के बीतने का इंतजार कर रहा है.

जन्म के बाद की मुश्किलें

बाराबंकी की इस लड़की की यह अकेली कहानी नहीं है. पूरे देश में ऐसी घटनाएं समयसमय पर सामने आती हैं. विचार करने की जरूरत यह है कि क्या कोई ऐसा तरीका हो सकता है जिस में ऐसे मामलों में कानून कुछ नरम रुख अख्तियार करने पर विचार करे? ज्यादातर ऐसी परेशानियां बेहद गरीब तबके के लोगों के सामने आती हैं. बाराबंकी में रहने वाली लड़की का परिवार बेहद गरीब है. उस के लिए पुलिस, अदालत और अस्पताल के चक्कर काटना बहुत मुश्किल काम होता है. वह मेहनतमजदूरी छोड़ कर ऐसा काम करता है जिस का प्रभाव उस की रोजीरोटी पर पड़ता है. गरीब परिवारों की लड़कियां कम पढ़ीलिखी होती हैं. उन को सैक्स संबंधों की बात करने में बेहद हिचक होती है. अगर बाराबंकी की इस लड़की ने बलात्कार का शिकार होने पर पूरी बात घर में बताई होती तो ऐसे हालात नहीं बनते.

दरअसल, हमारा समाज औरतों और लड़कियों के प्रति बहुत कट्टरवादी सोच रखता है. लड़की शादी से पहले कौमार्य नहीं खो सकती. वह किसी परपुरुष से अकेले बात नहीं कर सकती. शादी से पहले अभी भी लड़की को सागसब्जी की तरह देखा जाता है. कुंआरी मां के नाम को भी सुनना समाज के बड़े तबके को गवारा नहीं है. पुरुष खुद कितने भी संबंध बना ले पर औरत को ले कर वह बहुत संकीर्ण विचारधारा रखता है. विधवा और तलाकशुदा औरतों को ले कर उस की सोच में बहुत बदलाव नहीं हुआ है. औरत को लाख तरक्की के बाद भी बराबरी का हक समाज ने नहीं दिया है. पुरुष प्रधान समाज की अवधारणा को खत्म नहीं किया जा सका है. महिलाओं के खिलाफ हिंसा और उन पर लांछन लगाने के आरोप कम नहीं हुए हैं. जरूरत इस बात की है कि लोग कानून को धर्मादेशों की तरह न लें. इस के तर्क और व्यवहार को भी समझने की कोशिश करें.

बुनियादी सवालों पर ध्यान दें

खासकर जब मसला नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार और गर्भधारण का हो तो जरूर सावधानी बरतनी चाहिए. बेहतर होगा कि इस तरह के मसलों के लिए कानून में कुछ सुधार हो. लड़की के मातापिता और डाक्टरों को यह अधिकार हो कि वे अपनी सूझबूझ से कोई फैसला ले सकें. आज भी देश में लड़की के हर आरोप पर परिवार को ही सामने आना पड़ता है. बिना परिवार के लड़की की जिंदगी नर्क समान होती है. कानून के अधिकार को ले कर देश में तमाम ऐसे शैल्टर होम्स हैं जहां शोषित और परेशान लड़कियों को रखा जाता है. इन शैल्टर होम्स की हकीकत पूरे देश से छिपी नहीं है. रहना, खाना, सेहत जैसे बुनियादी मुद्दों तक की परवा शैल्टर होम्स में नहीं की जाती. शैल्टर होम्स एक तरह के कैदखाने बन कर रह गए हैं. ऐसी भी घटनाएं सामने आई हैं जहां शैल्टर होम्स ही शोषण का जरिया बन गए. कानून को बुनियादी ढांचों पर भी ध्यान देना चाहिए. नाबालिग लड़की के मसले में गर्भपात का अधिकार डाक्टर और लड़की के मातापिता पर छोड़ देना चाहिए. कानून को धर्म की तरह जिंदगी के हर पहलू में घुसने की आदत को छोड़ना चाहिए. कानून के सहारे ही पंडों की तरह से अफसर और थानेदार आम आदमी के हक में दखल देते हैं. ऐसे फैसले जनता के हित के नहीं होते.  इन से जनता परेशान ही होती है. नाबालिग लड़की के बच्चा होने के बाद उस को शैल्टर होम में ही रखा जा सकता है. समाज कुंआरी मां को स्वीकार नहीं करेगा. इस लड़की का दूसरा विवाह तभी संभव है जब उसे पहले के जीवनके बारे में पता न चले. खुद लड़की आत्मनिर्भर नहीं है. उसे अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए समाज और कानून को मिल कर पहल करनी चाहिए. सरकार इस में अहम भूमिका अदा कर सकती है. कई ऐसे मसले मुंह बाए खडे़ हैं. अगर बलात्कार के बाद लड़की ने कोई इमरजैंसी गर्भनिरोधक गोली समय पर ले ली होती तो बात वहीं पर खत्म हो जाती. 

चीन व भारत की प्रगति

चीन की आर्थिक प्रगति की रफ्तार अब थमने लगी है. 10 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि के बाद चीन अब 5 से 6 प्रतिशत की दर पर आ गया है और इस बात से भारतीय नीतिनिर्धारक खुश हैं क्योंकि भारत की आर्थिक प्रगति की दर ठीकठाक बनी हुई है. चीन की धीमी होती गति पर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि चीन उस स्तर पर पहुंचने लगा है जिस पर प्रतिशत में कम वृद्धि होने पर भी डौलरों में वृद्धि काफी ज्यादा है और भारत उस से पिछड़ता जा रहा है. चीन में जहां 95 प्रतिशत लोग पढ़लिख सकते हैं, भारत में यह आंकड़ा 62 प्रतिशत ही है जो बढ़ाचढ़ा कर दिया जाता है. भारत के 5 साल से कम उम्र के 43.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं जबकि चीन के कुल 3.4 प्रतिशत कुपोषित हैं. भारत की प्रति व्यक्ति सालाना आय 3 हजार डौलर आंकी जा रही है जबकि चीन की 13 हजार डौलर है. भारत के गरीबों की संख्या 30 से 50 प्रतिशत आंकी जा रही है जबकि चीन में यह मात्र 6.1 प्रतिशत है.

चीन सरकार का बजट भारत सरकार के बजट से 10 गुना ज्यादा है. भारत का निर्यात चीन के मुकाबले 10वां ही है. चीन की प्रगति धीमी हो जाए तो भी वह रुपयों या डौलरों में भारत की वृद्धि से 2 से 3 गुना ज्यादा रहेगी और दोनों देशों के आर्थिक स्तर में अंतर बढ़ता जाएगा. चीन की प्रति व्यक्ति उत्पादकता भारत की प्रति व्यक्ति उत्पादकता से 3 गुना ज्यादा होने के कारण भारत में गरीबी रहेगी जबकि चीन का गरीब भी ठाट से रहेगा. हमारी कमजोरी है कि हम अपने गाल ज्यादा बजाते हैं. अपने को जगद्गुरु साबित करने के चक्कर में, अभी हाल तक हम से गरीब रहे चीन से हम बुरी तरह पिछड़ रहे हैं. चीन ने राजनीतिक सुधार चाहे न किए हों पर सामाजिक व प्रशासनिक सुधार जम कर किए हैं. साइकिलों वाला देश मोटरकारों वाला बन गया है और हमारे गरीबों से साइकिलें भी छिन गई हैं. चीन ही नहीं, श्रीलंका, कंबोडिया, वियतनाम आदि तेजी से आगे बढ़ रहे हैं जो हाल तक आंतरिक युद्धों के शिकार थे. हम अपने छोटे विवादों में फंसे हैं और आधी प्रतिशत वृद्धि पर झूम रहे हैं.

तमिल सीखेंगी जैकलीन

बौलीवुड की मशहूर अभिनेत्री जैकलीन फर्नांडीज फिल्म ‘किक’ में सलमान खान और फिल्म ‘ब्रदर्स’ में अक्षय कुमार के साथ लीड भूमिकाओं में आ कर बौलीवुड में अपने पैर जमा चुकी हैं. अब अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों में भी काफी सक्रिय हैं. इस साल उन्होंने जहां एक हौलीवुड थ्रिलर पूरी की वहीं एक श्रीलंकन फिल्म भी कंपलीट कर चुकी हैं. खबर है कि यह फिल्म तमिल भाषा में डब की जाएगी, जिस के लिए जैकलीन तमिल सीखने को तत्पर हैं. जैकलीन की प्रवक्ता की मानें तो जैकलीन श्रीलंका से हैं इसलिए उन्हें तमिल की समझ है. इसलिए फिल्म को तमिल में डब करने में उन्हें कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी. लिहाजा श्रीलंका में तमिल के बाजार को देखते हुए निर्माता वहां तमिल फिल्मों में ही फिल्म रिलीज करेंगे. फिलहाल बौलीवुड में प्रियंका चोपड़ा ही हौलीवुड में नाम कमा रही हैं.

 

ठुमरी को उस का हिस्सा नहीं मिला

शास्त्रीय संगीत में शुमार ठुमरी ऐसा छोटा मधुर गीत होता है जिस के गायन में पूरी भावनाएं आनी जरूरी हैं. इस में भाव और शब्द के लिए अलगअलग राग अलापने पड़ते हैं. इसे किसी भी राग रागिनी में गाया जाए, इस का गायन अन्य रागों के गायन से अलग होता है. इसे केवल रागों की तरह नहीं गाया जा सकता है. पद्मश्री व पद्मभूषण से सम्मानित 86 वर्षीया गिरिजा देवी का कहना है कि ठुमरी को उस का उचित हिस्सा नहीं मिला है. उन्होंने कहा कि शास्त्रीय संगीत का हिस्सा ठुमरी की खयाल गायकी और रागरागिनी से तुलना की जाए तो ठुमरी को बहुत कम हिस्सा मिला है. ठुमरी की गायन शैली को बढ़ावा देने के लिए साहित्य परिषद की प्रशंसा करते हुए सुप्रसिद्ध गायिका गिरिजा देवी ने कहा कि ठुमरी को जो बढ़ावा दिया जा रहा है, उस से उन्हें बहुत प्रसन्नता हो रही है.

साहित्य कला परिषद द्वारा दिल्ली में आयोजित ‘ठुमरी उत्सव’ के दौरान गिरिजा देवी ने अपनी 2 शिष्याओं के साथ ठुमरी, दादरा गाती हुई आवाज के साथसाथ हाथों के उतारचढ़ाव और चेहरे पर मुसकराहटभरी भावभंगिमाओं से ‘हम से नजरिया काहे फेरे हो बालम, क्या मुझ से भूल हुई…’ के अलावा ‘श्याम अब तक न आए…’ और ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए…’ गा कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया. ठुमरी के प्रति अपने अगाध प्रेम को दर्शाते हुए गिरिजा देवी ने कहा, ‘‘मैं ने दिल्ली में देखा कि मेरे छोटे भाईबहनों, बेटेबेटियों ने ठुमरी का गायन बहुत ही अच्छे ढंग से किया. मुझे अच्छा लगा कि सभी ने बढि़या गाया है.’’ गिरिजा देवी ने ठुमरी की शुरुआत करने से पूर्व शब्दों को स्पष्ट करते हुए समझाया भी था कि इन बोलों के जरिए क्या चित्रित किया जा रहा है. उन्होंने कहा, ‘‘ग न के शब्द हैं- हम से नजरिया काहे फेरे हो बालम, क्या मुझ से भूल हुई…’’ इस से संगीतप्रेमी उन के गायन का भरपूर लुत्फ उठा सके. वाराणसी में 8 मई, 1929 को जन्मी पुरबंग गायिकी की महान गायिका गिरिजा देवी ने 5 वर्ष की उम्र में पंडित सरजू प्रसाद मिश्रा से संगीत सीखना शुरू किया और उन के बाद वह पंडित श्रीचंद मिश्रा की शिष्या रहीं. उन्होंने उसी परिवार के अपने साथ तबले पर संगत कर रहे अभिषेक मिश्रा की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘अभिषेक अपने परिवार की छठी पीढ़ी के सदस्य हैं जो मंच पर मेरे साथ संगत कर रहे हैं.’’ ठुमरी उत्सव में गिरिजा देवी के अलावा उस्ताद गुलाम सादिक खान ने अपने बेटे और पोते के साथ मिल कर ठुमरी का रंग जमाया.

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