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पाठकों की समस्याएं

मैं 28 वर्षीय अविवाहित युवक हूं. 8 साल से सेना में कार्यरत हूं. मेरी समस्या यह है कि 2 साल पहले फेसबुक पर मेरी मुलाकात एक लड़की से हुई जो मेरे ही शहर की है पर उस ने मुझे अपना पता कहीं और का बताया था. वह लड़की तलाकशुदा है और उस का एक 5 साल का बेटा है. यह बात भी उस ने मुझ से छिपाई. मैं ने जब इस बारे में उस से पूछा तो वह बोली, ‘‘मैं आप को बताने ही वाली थी.’’ वह कहती है कि वह मुझ से बहुत प्यार करती है और मेरे अलावा किसी और से शादी नहीं करेगी. मेरे घर वालों को इस बारे में कुछ पता नहीं है और वे मेरी शादी कहीं और करना चाहते हैं. मैं उस लड़की से प्यार तो करता हूं पर उस के बच्चे को अपनाने से हिचकता हूं. मुझे क्या करना चाहिए, सलाह दीजिए.

फेसबुक पर बनने वाले ऐसे रिश्तों के सचझूठ का पता लगाना अत्यंत कठिन होता है. जो दिखता है वह होता नहीं है और जो होता है वह दिखता नहीं है. यहां लोग बड़ी आसानी से अपनी व्यक्तिगत जानकारी छिपा सकते हैं. आप के केस में भी कुछ ऐसा ही हुआ है. वह तो अच्छा है कि आप को अब सच पता है. जहां तक लड़की से विवाह का सवाल है, आप सब से पहले अपना मन पक्का कीजिए. जब आप खुद उस के बेटे को अपनाने से हिचक रहे हैं तो अपने परिवार वालों से इस बारे में कैसे बात करेंगे. आप उस युवती से मिलें और उस के बेटे से भी मिलें. यदि आप को लगे कि आप दोनों को जीवनभर निभा सकते हैं तो बात आगे ले जाएं. जहां अभी से हिचक हो, वहां नापतौल कर निर्णय लेना चाहिए.

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मैं विवाहित महिला हूं. विवाह को अभी 4 महीने हुए हैं. समस्या यह है कि मेरी सास मुझे हर समय कुछ न कुछ बोलती रहती हैं. हर छोटीछोटी बात में मेरी खिंचाई करती हैं. हर समय वह ‘बेटाबेटा’ करती रहती हैं. मेरे पति उन के इकलौते बेटे हैं. समझ में नहीं आता, क्या करूं? नईनई शादी है, कुछ गलत न हो जाए, डरती हूं. कृपया सही सलाह दीजिए.

सास आप की खिंचाई करती हैं, यह स्वाभाविक है. वर्षों तक बेटे पर रखे एकाधिकार को आप से बांटना नहीं चाहती हैं वे. ऐसा हर घर में होता है. आप इस में आनंद ढूंढ़ें. आप स्वयं उन का बेटा बन जाएं. उन पर निर्भर बनें. स्वतंत्र बनने की कोशिश न करें. आप के पति मां को चाहते हैं तो आप भी उन्हें चाहने लगेंगी. उन्हें प्रतिद्वंद्वी न समझें, सहयोगी समझें. धैर्य से काम लें और अपने व्यवहार द्वारा उन का दिल जीतने का प्रयास करें.

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मैं 42 वर्षीय विवाहित महिला हूं. समस्या यह है कि पति अपने काम में व्यस्त रहते हैं और मैं अकेलेपन से परेशान हूं. वे मुझे समय नहीं देते. समझ नहीं आता क्या करूं?

आप की परेशानी का कारण आप का खाली बैठना ही है. इसलिए आप का ध्यान इस ओर जाता है कि पति आप पर ध्यान नहीं देते. अगर आप स्वयं को कहीं व्यस्त कर लेंगी तो आप की शिकायत दूर हो जाएगी. आप अपनी रुचि के अनुसार कुकिंग, सिलाई, बुनाई, कढ़ाई या बच्चों को पढ़ाने में खुद को व्यस्त कीजिए. इस से आप का ध्यान बंटेगा और साथ ही, आप का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा व आप की अकेलेपन की शिकायत भी दूर हो जाएगी.

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मैं 30 वर्षीय विवाहित महिला हूं. विवाह को 11 वर्ष हो गए हैं. 2 बेटे हैं. 3 साल पहले तक सब ठीक चल रहा था. लेकिन 3 साल पहले मुझे पता चला कि मेरे पति ने किसी लड़की के साथ संबंध बनाए हुए हैं. हमारी लव मैरिज है, इस के बावजूद मेरे पति मेरे साथ ऐसा कर रहे हैं. यह सोच कर बहुत दुख होता है. मैं जब भी इस बारे में उन से बात करती हूं, वे मेरी बात पर ध्यान नहीं देते, इग्नोर करते हैं. लगता है जैसे उन्हें मेरी जरूरत ही नहीं है. उस लड़की के चक्कर में मुझे मारते भी हैं. सब बहुत समझा चुके हैं पर उन्हें समझ नहीं आता. मैं अपना बिखरता घर देख कर बहुत परेशान हूं. मैं अपने टूटते रिश्ते को कैसे बचाऊं, सलाह दीजिए.

क्या आप के पास कोई सुबूत है कि उस लड़की के साथ आप के पति के संबंध हैं? क्या आप ने कभी उन्हें रंगेहाथों पकड़ा है? शक की बिना पर कोई निर्णय मत लीजिए. क्या पता यह आप का वहम हो और आप के बारबार उन पर दोषारोपण करने से उन्हें आप पर क्रोध आता हो और वे आप के साथ मारपीट करते हों और आप को इग्नोर करते हों. और अगर यह सच हो तो सोचें कि आप को नुकसान क्या है. हर बात में पति पर टौंट कसने से या उन से झगड़ा करने से फायदा नहीं. उस लड़की को दोस्त बना कर देखें. शायद जीवन ज्यादा अच्छा हो जाए.

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मैं 30 वर्षीया तलाकशुदा, 6 वर्षीय बेटे की मां हूं. एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरे मातापिता मेरे दोबारा विवाह के लिए मुझ पर जोर डाल रहे हैं लेकिन मैं डरती हूं कि कहीं मेरा दूसरा विवाह पहले की तरह असफल न हो जाए. इस के अलावा क्या मेरे होने वाले पति मेरे बेटे को पूरे मन से अपनाएंगे?

जरूरी नहीं कि किसी रिश्ते में पहली बार असफलता हासिल हुई हो तो दूसरी बार भी ऐसा ही होगा. समाज में ऐसे अनेक प्रसिद्ध जोड़े हैं जिन्होंने दूसरी बार विवाह किया है और उन का वैवाहिक जीवन पूरी तरह सफल है. और जहां तक आप के भावी पति द्वारा आप के बेटे को अपनाने की बात है आज पुरुषों की सोच बदल रही है, और वे अपनी होने वाली पत्नी के बच्चे को भी दिल से स्वीकारते हैं. अभी आप के सामने पूरी जिंदगी है, इसलिए मनचाहा  साथी मिलने पर विवाह करने में कोई बुराई नहीं है. हां, जो रिश्ता मातापिता सुझाएं, उस व्यक्ति से कई बार खुल कर मिलें और कई बार तो अपने बेटे को साथ ले जाएं. यदि आप के बेटे और उस व्यक्ति में ठीक संबंध पैदा हो जाएं तो ही विवाह करें. विवाह हो जाए, तो ही अच्छा है.

पूंजी बाजार

बजट से पहले बाजार को लगा झटका

शेयर बाजार लगातार तेजी पर है. दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद बाजार का नरम रुख बदला और इस में लगातार सुधार होता रहा. तीसरी तिमाही में विकास दर के 7.4 फीसदी तक पहुंचने और महंगाई दर के जनवरी में शून्य से नीचे जाने के कारण बाजार में तेजी का रुख रहा. उस से पहले बाजार में दिसंबर में विकास दर के कम रहने के कारण बाजार पर दबाव था जिस की वजह से बाजार में सुस्ती का माहौल रहा लेकिन अर्थव्यवस्था के मजबूती के माहौल के कारण सूचकांक में सुधार हुआ और 19 फरवरी को बाजार लगातार 8वें दिन तेजी पर रहा तथा 3 सप्ताह के शीर्ष पर पहुंचा. इन 8 सत्रों में बाजार लगातार 29 हजार अंक पर बना रहा. उसी तरह से नैशनल स्टैक एक्सचेंज यानी निफ्टी भी 8,800 अंक के पार चला गया और बाजार में उत्साह का माहौल बना रहा. बाजार के झूमने का सब से बड़ा कारण विकास दर के उत्साहजनक रहने और महंगाई की दर का 5 साल के निचले स्तर पर पहुंचना माना जा रहा है. इसी बीच, पैट्रोलियम मंत्रालय में जासूसी का मामला पकड़ा गया. इस से सरकार की साख प्रभावित हुई है जिस के कारण बाजार में भूचाल आ गया और सूचकांक ढह गया. हालांकि 2 सत्र के बाद फिर संभल गया और 24 फरवरी को मजबूती पर बंद हुआ.

मनरेगा को सर्वाधिक आवंटन

कमाल की बात है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा को कांगे्रस के नेतृत्व वाली केंद्र में रही सरकार की विफलता का जीताजागता स्मारक बताया था और उस के ठीक एक दिन बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली ने उसी ‘स्मारक’ पर धनवर्षा कर दी. इस योजना के लिए, इस तरह की तमाम योजनाओं की तरह, 35 हजार करोड़ रुपए के आवंटन की घोषणा की और कहा कि पैसा आएगा तो योजना को 5 हजार करोड़ रुपए और दिए जाएंगे. इस तरह से इस योजना को 40 हजार करोड़ रुपए से अधिक का आवंटन होगा जो अन्य सभी योजनाओं की तुलना में सर्वाधिक होगा. सरकार का मानना है कि यह गांव के गरीब को रोटी देने का सीधा और सरल तरीका है, इसलिए इसे बंद नहीं किया जाएगा. हालांकि इसे बंद करने की अटकलें लग रही थीं लेकिन मोदी ने लोकसभा में घोषणा कर दी कि यह योजना बंद नहीं होगी और इस तरह से इस योजना से जुड़ी सारी अटकलों पर विराम लग गया. यह योजना शुरू करने वाली कांगे्रस ने भी राहत की सांस ली है. उस के साथ ही गांव को मजबूत ढांचागत व्यवस्था से जोड़ने की बजट में कवायद की गई है. मनरेगा पर सरकार ने जम कर राजनीति की है और विपक्ष को कठघरे में खड़ा कर के रख दिया है.

कांगे्रस इस मुद्दे पर मोदी की राजनीति का लोहा मानने को विवश हो रही है. इसलिए सिर्फ वह इतना भर कह रही है कि मोदी की टिप्पणी दुर्भाग्यपूर्ण है और उन्हें इस पर पुनर्विचार करना चाहिए. फिलहाल मोदी का यह दांव सधी हुई सियासत का एक नमूना बन गया है जिस ने सामाजिक क्षेत्र के बजट को और चुनौतीपूर्ण बना दिया है.

गार की मार टलने से निवेश का माहौल

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट प्रावधान में जनरल ऐंटी अवौइडेंस रूल्स यानी सामान्य कर परिवर्जन नियम-गार के क्रियान्वयन को मार्च 2017 तक टाल दिया है. यह कानून कर चोरी के रास्ते रोकने की सभी कमजोरियों पर निगाह रखने वाला है. गार को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ले कर आई थी और उस का इरादा उद्योगों द्वारा कर चोरों के रास्ते तलाशने के सभी विकल्पों को बंद करने का प्रयास था. उस समय गार का उद्योग जगत ने भारी विरोध किया था, इसलिए संप्रग सरकार इस को लागू नहीं कर पाई. भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार से उस कानून को लागू करने की उम्मीद थी लेकिन वह यह कहते हुए उस के क्रियान्वयन को दो बात के लिए टाल गई कि इस से पूंजी निवेश का माहौल बिगड़ेगा और विदेशी निवेशक देश के ढांचागत आधार को मजबूत करने वाले निवेश से पीछे हट जाएंगे. इस का मतलब यह हुआ कि सरकार निवेशकों को कर चोरी की खुली छूट दे रही है.

वित्त मंत्री कहते हैं कि गार आम बहस का विषय है, इसलिए इसे 1 अप्रैल, 2017 से लागू किया जाएगा. तब तक सरकार ने एक तरह से निवेशकों की कर चोरी से बचने की सभी चालों को वैध करार दे दिया है, भले ही कंपनियां निवेश में कर चोरी कर के देश को चूना लगाती रहें. यह निश्चित रूप से स्वस्थ प्रशासन और मजबूत आर्थिक आधार की बुनियाद नहीं हो सकती.

रक्षा बजट पर मेक इन इंडिया का पहरा

सरकार ने रक्षा बजट में मात्र 11 फीसदी की बढ़ोतरी की है और साफ किया है कि बढ़ती रक्षा चुनौतियों के बावजूद हथियारों की अंधी दौड़ में शामिल हो कर विदेशी हथियार निर्माता कंपनियों को मजबूत बनाना उचित नहीं है. इस के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दी गई है और इस के जरिए देश में ही हथियारों के निर्माण का रास्ता प्रशस्त किया गया है. इस से लड़ाकू विमानों सहित रक्षा उपकरणों के लिहाज से देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश हो रही है जो प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया के सपने को आगे ले जाने वाली कड़ी का एक हिस्सा है.सेनाओं को मजबूत बनाने के लिए हथियारों पर आत्मनिर्भरता कम करने की सरकार ने रणनीति बना ली है. इस के अतिरिक्त, सीमा पर ढांचागत सुविधा उपलब्ध कराने पर भी सरकार का विशेष ध्यान है और सड़क परिवहन तथा राजमार्ग मंत्री  नितिन गडकरी ने कुछ समय पहले घोषणा की थी कि सीमावर्ती क्षेत्रों, खासकर पूर्वोत्तर, में सीमा पर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है. इस से सीमा पर सेना की आवाजाही को आसान बनाया जा सकेगा और दुश्मन से लड़ने की ताकत हासिल की जा सकेगी. लेकिन जो प्रयास हमारी सरकार आज कर रही है चीन उसे वर्षों पहले कर चुका है. लेह में तो वह भारतीय सीमा के भीतर भी सड़क खोद चुका है.

अभिप्राय यह है कि सीमा पर दुश्मन से लड़ते समय मानवीयता या नैतिकता नहीं, बल्कि आक्रामकता ही काम आ सकती है और यह तब ही संभव होगा जब दुश्मन से लोहा लेने के लिए ढांचागत व्यवस्था को सीमा पर मजबूत बनाया जा सकेगा. यदि ऐसा होता है तो मेक इन इंडिया की अवधारणा से निर्मित हथियार भी हमें मजबूती प्रदान करेंगे अथवा आयातित हथियार भी धरे के धरे रह जाएंगे.

जीतनराम मांझी बिहार की सियासी नैया में किए कई छेद

आखिरकार जीतनराम मांझी नैया छोड़ कर भाग खड़े हुए और उन की नैया डूब गई. अपनी नाव डुबोने के साथसाथ मांझी ने भाजपा और जदयू की नावों में कई छेद कर दिए हैं, जिन्हें दुरुस्त करने में दोनों दलों के पसीने छूटेंगे. भाजपा के भरोसे बिहार के मुख्यमंत्री बने रहने की जीतनराम मांझी की कवायद ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ साबित हुई. 20 फरवरी को बिहार विधानसभा में बहुमत साबित करने से पहले ही मांझी ने इस्तीफा दे कर हार मान ली और इस्तीफा देने के फैसले की भनक भाजपा को आखिरी वक्त तक नहीं लगने दी. मांझी और नीतीश के बीच चले 15 दिनों के ड्रामे में आखिर में नीतीश की जीत तो हुई पर मांझी हार कर भी जीत गए. नीतीश ने मांझी से ताज तो छीन लिया पर अपनी लाज बचाने में नाकाम रहे. मांझी ने उन के सिर पर यह कलंक तो लगा ही दिया कि नीतीश महादलित विरोधी हैं, जिस का खमियाजा उन्हें नवंबर में होने वाले राज्य विधानसभा के चुनाव में भुगतना पड़ेगा.

पिछले 9 महीने के अपने राज में मांझी ने खुद को महादलितों और दलितों के नेता के तौर पर लालू, नीतीश और रामविलास पासवान की बराबरी पर खड़ा कर लिया है. इस से इन तीनों महारथियों के वोटबैंक में सेंध लग सकती है. भाजपा अब निश्चित रूप से मांझी के बहाने नीतीश व लालू को महादलित विरोधी साबित करने की चुनावी मुहिम शुरू करेगी.

भाजपा की चाल

पूरी सियासी नौटंकी में भाजपा ने परदे के पीछे रह कर नीतीश के तीर (जदयू का चुनाव निशान) से ही यानी उन के ही दल के नेता से उन्हें शिकार बना लिया. 1990 से जिस बिहार में दलितों व पिछड़ों का दलितों के लिए और पिछड़े व दलितों के द्वारा ही राजपाट चलाया जा रहा था और उन के निशाने पर अगड़ी जातियां, जमींदार व ब्राह्मणवाद रहे, वहीं मांझी के बहाने पहली बार दलित और पिछड़े एकदूसरे पर निशाना साधते दिखे और भाजपा मजा लेती हुई राजनीति साधती रही. दलित तीर से भाजपा ने दलित सियासत का शिकार कर लिया. मांझी के जाल में नीतीश और उन का कुनबा कुछ इस कदर उलझा कि जनता दल परिवारों के विलय की कोशिशें दरकिनार पड़ गईं. सत्ता से हटाने और सत्ता पाने का खुला खेल फर्रूखाबादी चलता रहा और आखिरकार विश्वास मत पाने से ऐन पहले इस्तीफा दे कर मांझी ने अचानक कहानी को नया मोड़ दे दिया. अब मांझी खुद को शहीद बता कर महादलितों, दलितों और पिछड़ों के वोट को अपने पाले में करने की जुगत में लग जाएंगे और नीतीश व लालू को चुनौती देंगे.

भाजपा के एक सूत्र के मुताबिक, मांझी को अगले 9 महीने तक मुख्यमंत्री बनाए रखने का भाजपा का कोई प्लान नहीं था. उस का मकसद इतना ही था कि नीतीश की फजीहत हो और जदयू में टूट हो. वह नीतीश के ‘आदमी’ के जरिए ही नीतीश की छीछालेदर कराने में कामायाब भी हो गई. मांझी या महादलित को ले कर भाजपा में कोई सहानुभूति नहीं थी, वह नीतीश के महादलित कार्ड का जवाब महादलित नेता को आगे कर दे रही थी. अगर मांझी अपने साथ भाजपा के कहे मुताबिक 30 विधायक ले भी आते तो अगले चुनाव में सभी को भाजपा टिकट कैसे दे पाती?

नीतीश भले ही भाजपा का प्लान फेल होने की बात कर रहे हों भाजपा ने इस बारे में तो कोई प्लान बनाया ही नहीं था. वह तो दूर बैठ तमाशा देख रही थी. दिल्ली विधानसभा में मिली करारी हार के बाद वह फूंकफूंक कर कदम उठा रही है. वह पिछले दरवाजे से मांझी की सरकार बनाने का कलंक अपने माथे पर नहीं लेना चाहती थी.नीतीश ने मांझी से मुख्यमंत्री का ताज वापस हासिल तो कर लिया है पर मांझी उन के लिए ढेरों मुसीबतें खड़ी कर गए हैं. 9 महीने तक सत्ता से बाहर रहे नीतीश न तो अपनी पार्टी की सरकार को दुरुस्त रख पाए और न ही पार्टी पर ध्यान दे सके . इसी साल नवंबर में विधानसभा के चुनाव होने हैं और नीतीश को जनता के बीच फिर से यह साबित करना होगा कि वे सुशासन और तरक्की के प्रतीक हैं. इस के साथ ही लालू, मुलायम, कांगे्रस और वामदलों को बांध कर रखना भी उन के लिए बड़ी चुनौती है.

बिहार के सियासी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब अपने ही दल के मुख्यमंत्री को हटाने के लिए किसी पार्टी को पापड़ बेलने पड़े हों. मांझी और नीतीश के बीच चले कुरसी के इस खेल ने बिहार की दलित और पिछड़ी जातियों के मसीहाओं की पोल खोल दी है. एक महादलित जाति का नेता जब अपने ही दल के बड़े नेता को सियासी तौर पर पटखनी देने की कोशिश करता है तो उस पर पीठ में छुरा घोंपने और भरोसा तोड़ने का आरोप लगाया जाता है. दलितों और महादलितों की सियासत का डंका पीटने वाले नीतीश और लालू जैसे नेताओं को यह बरदाश्त नहीं हुआ कि कोई महादलित उन्हें सियासत में मात दे. जब दलितों के ये स्वयंभू मसीहा अपने ही दल के किसी नेता को आगे बढ़ने नहीं देते हैं तो वे हकीकत में दलितों और महादलितों की कितनी, क्या और कैसी तरक्की करते होंगे.

पुराने धुरंधर हैं मांझी

दरअसल, दलितों और पिछड़ों के नाम पर दशकों से सत्ता की मलाई खाते रहने वाले नेता कभी नहीं चाहते कि उन की जातिबिरादरी का कोई भी बड़ा नेता या अफसर बन सके. उन की सारी कवायद उन्हें जाहिल और गुलाम बनाए रखने की होती है, जिस से कि उन का वोटबैंक बना रहे. अगर दलित पढ़लिख जाएगा तो समझदार हो जाएगा. ऐसे में वह बजाय वोटबैंक बने रहने के अपने विवेक से वोट देने के अधिकार का इस्तेमाल करेगा. 9 महीने पहले नीतीश ने अपने दल के सारे सीनियर नेताओं को दरकिनार कर मांझी को मुख्यमंत्री की कुरसी पर यही सोच कर बिठाया था कि वे परदे के पीछे से मांझी के बहाने सरकार चलाते रहेंगे. आज नीतीश इसलिए यह कह रहे हैं कि उन्होंने मांझी को मुख्यमंत्री की कुरसी पर बिठा कर गलती की क्योंकि मांझी उन के रिमोट कंट्रोल की पहुंच से बाहर निकल गए. मांझी अब चीखचीख कर कह रहे हैं कि नीतीश उन्हें रबर स्टैंप की तरह इस्तेमाल करना चाहते थे. नीतीश ने मांझी को रबर स्टैंप की तरह इस्तेमाल करना चाहा पर वे भूल गए कि मांझी सियासत के धुरंधर और पुराने खिलाड़ी हैं. वे नीतीश से काफी पहले से सियासत के मैदान में पहलवानी कर रहे हैं और काफी नीचे लेवल से वह सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ कर मुख्यमंत्री की कुरसी तक पहुंचे थे.

जनता सिखाएगी सबक 

भाजपा नेता सुशील मोदी कहते हैं कि नीतीश ने महादलित जाति के मांझी का अपमान किया है और महादलित जातियां उन्हें चुनाव में सबक सिखा देंगी. मांझी को अपने जाने का अंदेशा पहले ही हो गया था, तभी वे कैबिनेट की ताबड़तोड़ बैठकें कर प्रस्तावों को धड़ाधड़ हरी झंडी दे रहे थे. उन की कैबिनेट ने 16 दिनों में 105 बड़े फैसले कर डाले. मांझी ने कई ऐसे मामले पास कर डाले हैं जो नीतीशया आगे के मुख्यमंत्रियों के लिए गले की हड्डी बन सकते हैं. कई फैसलों को वापस लेना तो सरकार के लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होगा. 10 फरवरी को कैबिनेट की बैठक में सरकारी ठेके में एससीएसटी को आरक्षण देने और आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को आरक्षण के लिए 3 सदस्यीय कमेटी बनाने का फैसला हुआ. इस के साथ विधवाओं और असहाय व्यक्तियों को खाद्य सुरक्षा का लाभ देने का फैसला हुआ. 14 फरवरी को कैबिनेट की बैठक में दुसाध जाति की उपजातियों ढाढ़ी और धरही को महादलित में शामिल किया गया, जिन्हें नीतीश ने शामिल करने से मना कर दिया था. वहीं पत्रकारों को पटाने के लिए 20 साल की नौकरी पर पत्रकारों को पैंशन देने का फैसला लिया गया. 18 फरवरी को कैबिनेट की बैठक में पुलिसकर्मियों को 13 महीने का वेतन देने का प्रस्ताव पास किया गया. होमगार्ड्स का मानदेय रोजाना 300 रुपए से बढ़ा कर 400 रुपए करने एवं 20 साल तक लगातार सेवा देने वाले होमगार्ड को 60 साल की आयु होने पर डेढ़ लाख रुपए की सहायता राशि देने का फैसला लिया गया. गजेटेड पदों को छोड़ कर सभी सरकारी सेवा में महिलाओं को 35 फीसदी आरक्षण देने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई. पंचायत और नगर शिक्षकों के वेतनमान के लिए उच्चस्तरीय कमेटी बना दी गई. 19 फरवरी को कैबिनेट की बैठक में कुल 23 प्रस्तावों को पास कर दिया गया.

मांझी और नीतीश के बीच चली कुरसी की जंग में संवैधानिक संस्थाओं की जम कर फजीहत हुई. बिहार में पिछले एक महीने चली सियासी उथलपुथल के बीच नेताओं ने एकदूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में कई दफे सीमाएं लांघीं और संवैधानिक संस्थाओं व पदों की गरिमा को ठेस पहुंचाई. राज्यपाल और हाईकोर्ट के फैसले को विधानसभा अध्यक्ष ने मानने से मना कर दिया. राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी ने बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत जब मांझी सरकार को बहुमत साबित करने का निर्देश दिया तो उन के फैसले पर ही सवाल उठाए गए. आरोप लगाया गया कि राज्यपाल ने यह भाजपा के इशारे पर किया है. राज्यपाल के फैसले के विरोध में नीतीश कुमार दिल्ली जा पहुंचे और राष्ट्रपति के सामने अपने समर्थन के 130 विधायकों की परेड करवा डाली. वहीं, विधानसभा स्पीकर ने राज्यपाल के फैसले से पहले ही नीतीश को विधानमंडल दल का नेता बना दिया.

घरवापसी के बहाने धर्म की दुकानदारी

आखिरकार बीती 17 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साफतौर पर वह बात कहनी ही पड़ी जिस का उन के पीएम बनने के बाद से लोग इंतजार कर रहे थे. लोगों की दिलचस्पी यह जानने में थी कि क्या नरेंद्र मोदी हिंदूवादी संगठनों के इशारे पर नाचते धर्म और हिंदुत्व की राजनीति करेंगे या फिर तरक्की की जिस के लिए उन्हें वोट दिया गया है. उस दिन नरेंद्र मोदी दिल्ली में ईसाइयों के एक बड़े धार्मिक जलसे में शामिल हुए थे जहां उन्होंने कहा कि धर्म किसी भी आदमी का निजी मामला है और हर किसी को अपनी मरजी से धर्म चुनने का, उस में रहने या न रहने का और उसे बदलने का भी हक है.तमाम धर्मों के लोगों को हिफाजत की गारंटी देते पीएम ने भरोसा दिलाया कि किसी भी तरह की धार्मिक हिंसा बरदाश्त नहीं की जाएगी, देश का संविधान धर्म के नाम पर हिंसा की कतई इजाजत नहीं देता.

हालांकि मुश्किल है पर यकीन करना पड़ेगा कि ये वही नरेंद्र मोदी हैं जिन की इमेज एक कट्टरवादी हिंदू नेता की रही है और जिन के माथे पर गोधरा कांड का काला टीका लगा हुआ है. फौरी तौर पर जानकारों द्वारा अंदाजा यही लगाया गया कि यह ओबामा फैक्टर का असर है. गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जब भारत आए थे तब मोदी और उन की सरकार ने स्वागत में लाल कालीन और पलकपांवड़े बिछाए. वापस जाते ओबामा ने नरेंद्र मोदी को आगाह किया था कि उन्हें धर्म के नाम पर समाज को बांटने वालों से बचना चाहिए.

ओबामा का सीधा इशारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की तरफ था. वजह, दिसंबरजनवरी के महीनों में हिंदूवादियों ने धर्म के नाम पर जम कर धमाल मचाया था जो अभी तक जारी है. उस दौरान गिरजाघरों पर भी हमले हुए थे. कोई अयोध्या में राममंदिर बनाने की बात कर रहा था, कोई हिंदुओं को ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने का मशवरा दे रहा था तो कोई देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करवाने पर तुला था. आरएसएस के सहयोगी संगठन विश्व हिंदू परिषद का खुला ऐलान यह था कि चाहे कुछ भी हो जाए, हिंदू धर्म छोड़ कर जो लोग दूसरे धर्मों में गए हैं, उन्हें हर कीमत पर हिंदू धर्म में वापस लाया जाएगा. विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगडि़या की मानें तो ऐसे हिंदुओं की तादाद तकरीबन 15 करोड़ है.

यह इत्तेफाक है या इस के पीछे हिंदू धर्म के पैरोकारों की साठगांठ, यह खुलासा मुद्दत बाद होगा लेकिन 17 फरवरी को ही आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने कानपुर में साफ कहा कि घरवापसी यानी हिंदुओं को अपने धर्म में वापस लाने की मुहिम में कुछ गलत नहीं है, यह मुहिम जारी रहेगी. अगर कोई भटका हुआ घर वापस आना चाहता है तो उसे रोकना ठीक नहीं.इन बयानों से एक बात जरूर वक्त रहते साबित हो गई कि नरेंद्र मोदी और हिंदूवादी संगठनों के बीच टकराव शुरू हो गया है क्योंकि मोदी इन संगठनों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं. इस के पहले दिसंबर 2014 के तीसरे हफ्ते में ही वे साफ  कर चुके थे कि लोगों ने मुझे विकास और बेहतर शासन के लिए वोट दिया है, लेकिन हिंदूवादी संगठन उपद्रव मचाते हैं जिस से तरक्की में खलल पड़ता है. आरएसएस से गुजारिश सी करते हुए उन्होंने यह धौंस भी दी थी कि अगर बजरंग दल और विहिप जैसे संगठन अपनी कारगुजारियों से बाज नहीं आते हैं तो मैं पीएम पद की कुरसी छोड़ दूंगा.

जाहिर है यह धौंस नरेंद्र मोदी की सियासी कमजोरी ही कांग्रेस की तरह कही और मानी जाएगी कि उन में इन कट्टरपंथियों से निबटने का दम और ताकत नहीं जैसे करोड़ों हिंदुओं ने घुटने टेक रखे हैं वैसे ही मोदी ने भी इन के सामने घुटने टेक दिए हैं. यह बात कतई देश की तरक्की, हिफाजत और खुशहाली के लिहाज से ठीक नहीं कि अगर असल राज इन्हीं का है तो बंटाधार होने में देर नहीं लगने वाली. हिंदूवादियों के इरादे कितने खतरनाक हो चले हैं, इस का अंदाजा सतना में 20 फरवरी को प्रवीण तोगडि़या के इस बयान से लगाया जा सकता है कि हम रावलपिंडी में भगवा फहरा कर हिंदू राष्ट्र बनाएंगे. बकौल तोगडि़या, अब से 1400 साल पहले शाहरुख और सलमान खान नहीं थे क्योंकि तब मुसलमान पैदा ही नहीं हुए थे. हिंदू बीते 2000 सालों से  धर्मांतरण का शिकार हैं.

कमजोरियां धर्म की

धर्म से संबंध रखती इन बातों और बयानों से हिंदुओं का क्या भला होगा, यह शायद ही कोई हिंदूवादी नेता या किसी संगठन का मुखिया बता पाए पर मौजूदा हालत यह है कि लोग इस धर्म के जाल में फंसे मछली की तरह छटपटा रहे हैं.इस सवाल पर तमाम लोग कन्नी काटते नजर आते हैं कि हिंदू धर्म की कमजोरियां क्या हैं जिन के चलते थोड़े से पैसों या सहूलियतों के लालच में लोग इसे छोड़ देते हैं. दरअसल, ये कमजोरियां कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रहीं, उलटे रोजाना  उजागर होती हैं. झांसी में एक दलित अमरसिंह की नाक महज इसलिए काट दी गई कि बरात में उस ने ऊंची जाति वालों के बराबर में बैठ कर खाना खाने का गुनाह कर डाला था जो दबंगों को नागवार गुजरा था. छुआछूत, जातिपांति, भेदभाव और अत्याचार इतने आम हैं कि देशभर के अखबारों में रोज कोई दर्जन भर खबरें छपती हैं.

दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ कर बरात निकालने का हक नहीं. दलित औरतों की आबरू लूटना ऊंची जाति वाले अपना पैदाइशी हक समझते हैं. दलितों को मंदिरों में दाखिल नहीं होने दिया जाता. उन्हें गांव के कुओं से पीने का पानी तक भरने नहीं दिया जाता. ऐसे में वे लोग क्यों उस धर्म में बने रह कर अत्याचार और शोषण सहेंगे. इन बातों पर सब के होंठ सिले रहते हैं लेकिन रावलपिंडी जा कर भगवा फहराने की बात की जा रही है, 15 करोड़ लोगों को वापस हिंदू धर्म में लाने की मुहिम छेड़ी जा रही है. मोहन भागवत की मानें तो इस बाबत स्वयं सेवकों और सहयोगी हिंदूवादी संगठनों की जिम्मेदारी और बढ़ गई है. यानी छुआछूत और जातिगत भेदभाव से इन्हें कोई मतलब नहीं क्योंकि उन के मुताबिक ये हिंदू धर्म की कमजोरियां नहीं, खूबियां हैं जिन से फायदा पंडेपुजारियों का होता है.

छुआछूत से जुड़ेबुंदेलखंड इलाके के दमोह जिले के एक मामले पर आप भी गौर करें. जिले के जवेरा ब्लौक के गांव गुजराकलां में 2 साल की एक मासूम दलित ने खेलतेखेलते नल पर रखे ऊंची जाति वालों के बरतन छू लिए तो ऊंची जाति वालों ने बेटी के पिता भागचंद प्रजापति से बरतनों के पैसे मांगने शुरू कर दिए. उन का कहना था कि तुम्हारी बेटी के छूने से हमारे बरतन दूषित हो गए हैं, इन्हें तुम ही रखो और हमें बरतनों की कीमत दे दो.

जड़ में पैसा

मतलब, पैसे लेने से परहेज नहीं है. यही वह वजह है जो बताती है कि बवंडर चाहे बरतन छूने का हो या फिर भगवा फहराने का, उन की जड़ में पैसा होता है. अधिकतर दलित गरीब हैं, इसलिए उन्हें हिंदू नहीं माना जाता लेकिन एक बड़ा बदलाव 30 साल में यह आया है कि पिछड़ों की गिनती हिंदुओं में इज्जत से की जाने लगी है. पंडे इन के घर जा कर पूजापाठ करवाने लगे हैं. वे यज्ञ, हवन सहित सत्यनारायण की कथा वांचते हैं, शादियां करवाते हैं और एवज में खूब मालपुआ उड़ाते हैं व जेबों में दक्षिणा के नोट ठूंस कर लाते हैं. इन पिछड़ों की हालत भी 30-40 साल पहले तक आज के दलितों सरीखी ही थी लेकिन पढ़लिख कर इन्होंने पैसा कमाया, सरकारी नौकरियां हासिल कीं व खेती और कारोबार से भी खासा पैसा कमाया तो ये कब इतने बड़े हिंदू हो गए कि इन के इशारे पर पंडेपुजारी नाचने लगे, यह पता ही नहीं चला.

देश की तसवीर और माहौल 20 सालों में तेजी से बदले हैं. अब ऊंची जाति वाले अधिकांश लोग धार्मिक पाखंडों और मकड़जाल से छुटकारा चाहने लगे हैं लेकिन वे मुसलमान या ईसाई नहीं बनते. चुपचाप हिंदू धर्म का हिस्सा बने हैं. इन्होंने धर्म के नाम पर खूब पैसा लुटाया और जब सदियों बाद होश आया तो संभल गए और अपनी बेवकूफियों व ठगाए जाने पर हाथ मल रहे हैं. पिछड़े और दलित अभी भी नहीं संभल रहे हैं. पिछड़ों को बताया जा रहा है कि तुम हिंदू हो, खूब धरमकरम करो, उपवास रखो, तीर्थ करो, जनेऊ लटकाओ. लेकिन दलितों को दुत्कारा जा रहा है क्योंकि उन की गांठ में चढ़ाने के लिए पैसा नहीं है. जस दिन ये भी पैसे वाले हो जाएंगे, उस दिन इन्हें भी हिंदू करार दे दिया जाएगा.

जो दलित घबरा जाते हैं वे दूसरे धर्म में चले जाते हैं. आदिवासी बड़े पैमाने पर ईसाई बन रहे हैं. उन्हें ईसाई मिशनरियां चर्च में ले ज कर प्रार्थना करना सिखाते हैं व गले में क्रास लटका देते हैं कि अब तुम्हारे प्रभु यीशु हैं जो सारे कष्ट, दुख, दर्द हरेंगे, इसलिए चिंता मत करो. हालांकि दलितों का पहला पसंदीदा धर्म बौद्ध है जिस से हिंदूवादी ज्यादा खतरा नहीं महसूस करते क्योंकि बौद्ध धर्म में जाने के बाद भी दलित हिंदू धर्म के पाखंड और कर्मकांड नहीं छोड़ते. लगभग 10 फीसदी दलित मुसलमान बनते हैं जिस से हिंदूवादियों की त्योरियां चढ़ जाती हैं और झगड़ेफसाद शुरू हो जाते हैं. मकसद, समाज में दहशत फैलाना रहता है.

दहशत भी चढ़ावे के लिए

दरअसल, यह सारा खेल जो शुरू से ही साजिश है, महज चढ़ावे के लिए है. इसीलिए दलितों को समझाइश दी जाती है कि इस जन्म और जाति में रहते पंडेपुजारियों को अपनी हैसियत के मुताबिक दान देते रहो, भगवान तुम्हें अगले जन्म में जरूर ऊंची जाति में पैदा करेगा. अधिकतर दलित इसी लालच के चलते हिंदू दलित बने रहते हैं कि चलो, यह तो दुत्कार खाने में कट गया, अब अगला जन्म तो दक्षिणा के दम से सुधर जाएगा. यह सिलसिला 2000 सालों से चल रहा है. पहले सवर्ण बड़े ग्राहक थे, अब पिछड़े हैं, कुछ सालों बाद दलित होंगे जो हकीकत समझने के बाद भी खिसियाहट में कुछ न कुछ चढ़ाते रहेंगे यानी पंडेपुजारियों के हाथों में हर तरफ से लड्डू हैं. हर हाल में उन की थाली में हलवापूरी रहनी है. शर्त इतनी भर है कि पूजापाठ होते रहने चाहिए और दानदक्षिणा का माहौल बना रहना चाहिए.

असल मुद्दों और इस हकीकत से ध्यान बंटाए रखने के लिए घरवापसी का हल्ला मचाया जाता है. इस से भी बात बनती न दिखे तो मंदिर निर्माण का जिन्न निकाल कर हिंदूवादी कार्यकर्ता गांवगांव में अखंड रामायण का पाठ करने/करवाने लगते हैं. ऐसा भी नहीं है कि दूसरे धर्म में जाने के बाद दलित हिंदुओं की बदहाली दूर हो जाती है. उलटे होता यह है कि ये दूसरे धर्म की गुलामी करने लगते हैं. ईसाई बने आदिवासियों का आज तक कोई भला नहीं हुआ है. वे पंडे की जगह फादर और शंकर, हनुमान, राम के बजाय ईसा को पूजने लगे हैं. वे हाड़तोड़ मेहनत कर पैसा कमाते हैं और चर्च की पेटी में डाल आते हैं. वहां छुआछूत या भेदभाव इसलिए नहीं है कि कभी कोई ऊंची जाति वाला मुसलमान, ईसाई या बौद्ध नहीं बनता. इस धर्म में सभी उन्हीं की बराबरी की हैसियत के लोग हैं. अलावा इस के, ईसाई लोग अपने धर्म में आए लोगों की मदद भी करते हैं और सेहत व तालीम का भी इंतजाम करते हैं. इस से जागरूकता आती है तो हिंदू ठेकेदार तिलमिलाते हैं. इसी तिलमिलाहट में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने बीती 23 फरवरी को जयपुर में मशहूर समाजसेवी मदर टेरेसा पर निशाना साधते हुए कह ही डाला कि वे सेवा की आड़ में धर्म बदलवाती थीं. इस बयान पर कुदरती तौर पर खासा बवाल मचा लेकिन साबित यह भी हुआ कि हिंदू धर्म में सेवा और मदद करने की बातों पर कोई अमल नहीं करता. जो दलित बौद्ध बन गए उन्होंने इतना भर किया कि बुद्ध की मूर्ति की पूजा शुरू कर दी. पूजापाठ की आदत से बौद्ध धर्म के ठेकेदारों को भी एतराज नहीं क्योंकि उन्हें भी तादाद के साथसाथ तगड़ा पैसा चाहिए. दलित मेहनतमजदूरी कर पैसा कमाते हैं और बौद्ध मंदिरों में दान कर देते हैं. मुसलमान बने और बन रहे दलितों को तो शुरू में यह भी नहीं करना पड़ता.

प्रवीण तोगडि़या जैसे हिंदूवादी नेताओं की नजर में जो आज सलमान, शाहरुख खान हैं उन के पूर्वज हिंदू थे. तकलीफ इस बात की है कि ये खान पैसा इसलाम को देते हैं, हिंदू होते तो अमिताभ बच्चन की तरह करोड़ों का चढ़ावा पंडों को देते.

क्या करे आम आदमी

धर्म और उस की दुकानदारी बेधड़क चल रही है और खूब फलफूल रही है. अंदरूनी तौर पर धर्म के ठेकेदारों को कोई शिकायत या गिला एकदूसरे से नहीं, बल्कि सहूलियत है कि ग्राहक किसी भी धर्म में रहे, पैसा तो देगा ही. फिर झगड़ा क्या है और मुद्दा क्या है, इस सवाल का जवाब भी बेहद साफ है कि कुछ नहीं, सारे झगड़ेफसाद और विवाद चढ़ावे के हैं, मुफ्त में मालपुए खाने के लिए हैं. दिखावे की लड़ाई इसलिए लड़ी जाती है कि लोग धर्म के अलावा कुछ और सोचने व करने न लगें. अब यह आम लोगों के समझने की बात है कि धर्म के कारोबारियों की नजर उन के धर्म या जाति के नाम पर उन की जेब पर रहती है, जिसे धर्म की कैंची से काटा जाता है. धर्म की लत इस तरह डाली जाती है कि लोग यह नहीं सोच पाते कि हम किसी विशेष धर्म में क्यों रहे. धर्म अगर बदला जा सकता है तो छोड़ा भी जा सकता है यह बात खुद पीएम नरेंद्र मोदी 17 फरवरी को इशारे में कह चुके हैं.

देश ही नहीं, पूरी दुनिया इन धर्म के दुकानदारों की गुलामी झेल रही है. सब से ताकतवर देश अमेरिका भी इस से अछूता नहीं, जहां मंदिरों पर हमले होते हैं. लोग तालीम हासिल करें, मेहनत से पैसा कमाएं तो ही इज्जत की जिंदगी जी पाएंगे, शर्त यह है कि वे धर्मों से दूर हों यानी नास्तिक बन जाएं. फिर कोई उन के बारे में यह नहीं कह सकता कि इन की घरवापसी करना है. धर्म, दरअसल, कुछ नहीं पीढि़यों से चली आ रही दिमागी गुलामी है जिस के आका वे पंडेपुजारी हैं जो मेहनत की नहीं, बल्कि दक्षिणा की खाते हैं और न मिले तो दादागीरी भी करते हैं व लोगों को आपस में लड़ाते भी हैं. सारे धर्म, धर्मगुरु और धर्म के कारोबारियों का इकलौता मकसद यही है कि लोग धर्म को मानते रहें, फिर चाहे वे हिंदू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों या बौद्ध, चढ़ावा किसी को तो मिलेगा ही. कहीं से कोई भीतरी या बाहरी खतरा किसी धर्म को नहीं है, यह खतरा तो बनाया जाता है, उस का डर दिखाया जाता है और फिर उसे दूर करने  या उस से बचाने के लिए पैसे ऐंठे जाते हैं. घरवापसी मुहिम का मकसद भी यही है. 

अच्छे दिनों की आस में निराशा का बजट 2015-16

केंद्र सरकार का 2015-16 का बजट विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने वाला और आर्थिक विकास के ज्यादा अनुकूल नजर आता है जिस से भविष्य में निवेश बढ़ेगा और रोजगार के अवसर पैदा होंगे. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फुरसत के साथ और चुनावी राजनीति के दबाव के बिना देश के आर्थिक आधार को मजबूत बनाने वाला बजट तैयार किया है. इस का लाभ लंबी अवधि में देखने को मिलेगा लेकिन फिलहाल यह जनसामान्य की भावनाओं के विपरीत है. जनसाधारण को तात्कालिक लाभ ज्यादा लुभाते हैं और इस का बजट में जरा भी ध्यान नहीं रखा गया है. यों कह सकते हैं कि यह बजट आम आदमी के लिए निराशा ले कर आया है. सामान्य व्यक्ति बजट से एक ही उम्मीद करता है कि सरकार का बजट लंबी अवधि के लिए अच्छे दिनों की भूमिका जरूर तैयार करे लेकिन इस कवायद में तात्कालिक रूप से उस के घर का बजट नहीं चरमराए. बजट में यह उस की उम्मीद की धुरी होता है.

जेटली का बजट आम जन की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है. बजट सर्वाधिक सेवाकर के रूप में आम आदमी की जेब हलकी करने वाला है. जनसामान्य के लिए इस में खुश करने वाली स्थिति बिलकुल नहीं है. वजह, सिर्फ उस के उपयोग की सामान्य वस्तुओं की कीमत बढ़ा कर उस पर बोझ डाला गया है. बजट में सेवाकर 12.36 फीसदी से बढ़ा कर 14 फीसदी किया गया है. सेवाकर के नाम से हाशिए पर खड़े आदमी की जेब से पैसा निकाल कर विकास की बुनियाद में लगाना है.

मतलब कि यदि आम आदमी टीवी देखता है, रेल का सफर करता है, बस से यात्रा करता है, अपनों को फोन करता है और कभीकभार मध्यवर्ग का आदमी छोटेमोटे रेस्तरां में जा कर खाना खाता है तो उस को इस की कीमत के साथ ही, इस सेवा का इस्तेमाल करने का जुर्म पहले की तुलना में ज्यादा झेलना पड़ेगा. यह अनावश्यक बोझ है. इस से आम आदमी की झुंझलाहट बढ़ी है, साथ ही छोटेमोटे व्यापारियों के लिए काम करने का भी संकट बढ़ गया है. उन का कारोबार चौपट होने की कगार पर पहुंच गया है. आखिर विकास की राह को आम आदमी की जेब पर डाका डाल कर आसान बनाने की कोशिश कैसे न्यायसंगत हो सकती है. इस व्यवस्था से गरीब पर बोझ बढ़ा है. इस से यही लगता है कि मोदी सरकार ने गरीब को दिखाए गए अच्छे दिनों के सपने को चकनाचूर कर दिया है. सपना टूटने की वजह जनसामान्य की सीमित महत्त्वाकांक्षा है. उसे लंबी अवधि में सुख तो चाहिए लेकिन पहले उस के समक्ष उस सुख को पाने के लिए जिंदा रहने का संकट है. जिंदा रहने के लिए उसे दो वक्त का भरपेट भोजन चाहिए और जब बजट उस के पेट से जुड़ी वस्तुओं की कीमत उस के दायरे से बाहर ले जाता हो तो खुशहाल आर्थिक आधार वाले बजट का उस के लिए कोई मतलब नहीं रह जाता है.

सामाजिक सरोकार

जेटली ने नया आर्थिक अध्याय लिखने का प्रयास किया है. आर्थिक प्रगति में साथ देने वाले संस्थानों को मजबूती प्रदान करने के लिए आर्थिक आधार पर खुशहाल भारत के निर्माण की पटकथा लिखी है. तत्कालीन वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह के 1992 के बजट में आर्थिक सुधारों के लिए उठाए गए कदमों की याद दिलाई है, जब पहली बार सार्वजनिक क्षेत्रों की 20 फीसदी हिस्सेदारी बेचने की घोषणा की गई, बाजार नियामक संस्था सेबी कागठन किया गया और इस के 2 साल बाद पहली बार सेवाकर की व्यवस्था शुरू की गई. उसी तरह, यह बजट अच्छे दिनों की शुरुआत के लिए आर्थिक सुधारों की रफ्तार बढ़ाने की अच्छी पहल है लेकिन इस दौड़ में सामाजिक सरोकारों की फिक्र बिलकुल नहीं की गई है. वित्त मंत्री ने बेफिक्र हो कर आर्थिक मजबूती की दूरगामी दृष्टि रखी है.

ऐसा लगता है कि बजट सिर्फ भविष्य को ध्यान में रख कर बनाया गया है. वर्तमान सरोकारों की उपेक्षा की गई है. वित्त मंत्री के समक्ष बजट बनाते समय किसी के नाराज होने या निराश होने का कोई डर न था. लक्ष्य था, सिर्फ आर्थिक हालात को पटरी पर लाना और आर्थिक विकास की दर साढ़े 8 प्रतिशत पहुंचाना.

कहां हुई चूक

इस समय देश की जनता को तेज रफ्तार आर्थिक सुधारों से ज्यादा महंगाई की मार से राहत पाने की जरूरत है लेकिन सरकार है कि दिन में आर्थिक सुधारों की बुनियाद वाला बजट पेश करती है और शाम को डीजल व पैट्रोल के दाम बढ़ा देती है. यह बजटीय संतुलन आम आदमी को कैसे पसंद आएगा.बजट में आजादी की 75वीं वर्षगांठ यानी 2022 को लक्ष्य कर के नीतियां निर्धारित की गई हैं. बिजली उत्पादन, गंगा सफाई अभियान, गरीबों के लिए आवास जैसी कई योजनाओं का लक्ष्य 2022 तक रखा गया है.  शहरों में हर व्यक्ति को आवास सुविधा देने का लक्ष्य तय किया गया है लेकिन इस उपलब्धि को हासिल करने के वास्ते रियल एस्टेट के लिए कुछ खास कदम नहीं उठाए गए हैं. रियल एस्टेट देश में रेलवे के बाद सर्वाधिक नौकरियां उपलब्ध कराने वाला क्षेत्र है. इस क्षेत्र में ढांचागत सुधार की बात तो की गई है लेकिन ठोस आर्थिक पंच दिए बिना यह क्षेत्र तरक्की नहीं कर सकता है.

इसी तरह से बिजली क्षेत्र में सुधार के लिए 5 नई अल्ट्रा मेगा पावर परियोजनाओं की घोषणा हुई जिन से 20 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जाएगा. इस परियोजना पर 1 लाख करोड़ रुपए तक खर्च होने का अनुमान है. यह सब पैसा निजी क्षेत्र से आएगा, इसलिए पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया के तहत इन परियोजनाओं को निजी संगठनों को सौंपा जाएगा. इस में ‘प्लग ऐंड प्ले’ मतलब कि योजना से जुड़े विवाद पहले ही सुलझा लिए जाएंगे और आवंटित होते ही उन पर सीधा निर्माण कार्य शुरू किया जाएगा. सरकार इसी तरह का सिद्धांत सड़क, रेल, हवाई अड्डों आदि के निर्माण के लिए भी अपना रही है. इस से परियोजना पर आवंटन के तत्काल बाद काम शुरू हो जाएगा और बेवजह की देरी से लागत में आने वाली बेवजह की तेजी से बचा जा सकेगा. तात्पर्य यह है कि सरकार विकास परियोजनाओं का ठेका देने से पहले परियोजना से जुड़ी सभी मंजूरियों व अन्य जरूरी सुविधाओं का इंतजाम कर लेगी.

राह में अड़चनें

बजट में कई संस्थानों को बंद करने के कदम उठाए गए हैं. एफएमसी यानी वायदा बाजार आयोग का विलय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) के साथ कर दिया गया है. एफएमसी का गठन जींस बाजार के कारोबार पर निगरानी रखने के लिए 1953 में किया गया था लेकिन जींस बाजार में सट्टेबाजी पर अंकुश लगाना कठिन हो गया था, इसलिए शेयर बाजार की गतिविधियों पर एफएमसी का विलय किया गया है. इसी तरह से बैंकों को और अधिक स्वायत्तता देने का प्रावधान किया गया है. वित्त मंत्री का कहना है कि उन का लक्ष्य वित्तीय घाटे को कम करना है और अगले 4 वर्ष में वे वित्तीय घाटा 4.3 प्रतिशत से घटा कर 3 प्रतिशत से कम पर ला देंगे. इसी तरह उन का दावा देश की विकास दर को अगले वित्त वर्ष में 8.5 फीसदी तक पहुंचाने का है. इस के लिए वे बुनियादी ढांचागत विकास को बढ़ावा देने पर जोर दे रहे हैं.

अमीरों का बजट

वित्त मंत्री का कहना है कि एक ही जगह सारी सुविधाएं दे कर व्यवसायी को कारोबार शुरू करने की सुविधा प्रदान की जा रही है और उस के लिए एक वैब पौर्टल तैयार किया गया है जिस के जरिए कोई भी कारोबारी कारोबार शुरू करने से संबंधित 14 मंजूरियां एक ही जगह हासिल कर सकता है. वित्त मंत्री को कौर्पोरेट कर की दर घटाने की घोषणा के कारण सब से अधिक आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है. इस की वजह से कोई उसे अव्यावहारिक बजट बता रहा है तो किसी का कहना है कि बजट में कौर्पोरेटरों व धन्ना सेठों को खुश करने का प्रयास किया गया है. सरकार का कहना है कि विकास की अपेक्षित रफ्तार बनाने और धन्ना सेठों को निवेश के लिए आकर्षित करने की वजह से यह व्यवस्था की गई है. कौर्पोरेट कर को 4 साल में 30 फीसदी से घटा कर 25 फीसदी पर लाया जाएगा. चालू वित्त वर्ष में कौर्पोरेट कर से सरकार को 4 लाख 26 हजार करोड़ रुपए मिले हैं और अगले वर्ष तक उस के 4 लाख 70 हजार करोड़ रुपए होने का अनुमान है.

अमीरों का संपत्ति कर भी खत्म कर दिया गया है और 1 करोड़ रुपए से अधि की आय पर 2 प्रतिशत अतिरिक्त कर लगाने की व्यवस्था की गई है. उस कर से सरकार को 1 हजार करोड़ रुपए की आय होती है और इस की वसूली में नाकों चने चबाने पड़ते हैं. वहीं, 2 प्रतिशत अतिरिक्त कर से सरकार को 9 हजार करोड़ रुपए की आय का अनुमान लगाया गया है. इसी तरह से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में न्यूनतम कर की वैकल्पिक व्यवस्था खत्म कर दी गई है. इस व्यवस्था के तहत शून्य कर देने वाली कंपनियों को अच्छा मुनाफा हो रहा था लेकिन सरकार को उस से कुछ नहीं मिल रहा था. अब इन विदेशी कंपनियों को पारदर्शी तरीके से अंशधारकों को मिलने वाले लाभांश पर कर का आकलन कर के टैक्स देना पडे़गा.

किसानों की अनदेखी

किसानों के लिए उपज लागत का उचित मूल्य दिलाने के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार विकसित करने के साथ ही परंपरागत जैविक खेती और मृदा उपज बढ़ाने के लिए कदम उठाए गए हैं. हालांकि इस क्षेत्र का आवंटन पिछले साल के मुकाबले सिर्फ 50 हजार करोड़ रुपए ही बढ़ाया गया है लेकिन सपने बखूबी दिखाए गए हैं. कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि उस का फायदा बीज, कीटनाशक दवा तथा कृषि से जुड़े उपकरण बनाने वाली कंपनियों  को ज्यादा होगा. किसानों के लिए यदि आर्थिक पैकेज की व्यवस्था की गई होती तो उस का सीधा लाभ उन्हें जरूर मिलता. हां, हर खेत को पानी पहुंचाने की जोरदार व्यवस्था जरूर की गई है. बजट में अल्पसंख्यकों की छवि सुधारने का प्रयास जरूर किया गया है और इस वर्ग के लिए भाजपा सरकार ने अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं को हुनर देने के लिए ‘नई मंजिल’ नाम से एक नई व एकीकृत योजना शुरू करने की घोषणा की है.

क्या है भविष्य

विशेषज्ञ बजट को विकास के साथ सधी हुई सियासत का खेल बता रहे हैं लेकिन सब का एक ही मत है कि बजट के जरिए देश के आर्थिक ढांचे को मजबूत बनाने की पहल हुई है. डा. मनमोहन सिंह ने भी उसे उम्मीद के इर्दगिर्द बताया है लेकिन आर्थिक विश्लेषक यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि इस तरह का बजट सरकार आने वाले वर्षों में नहीं दे पाएगी. सत्ता हासिल करने के पहले संपूर्ण बजट में उस ने आलोचनाओं की परवा किए बिना हिम्मत के साथ आर्थिक सुधारों का बजट पेश कर दिया है लेकिन आने वाले समय में उस पर चुनावी दबाव रहेंगे.वित्त मंत्री ने आयकर से छेड़छाड़ नहीं की है और लोगों का धैर्य बांधे रखा है लेकिन इस के पीछे भी उन्होंने ठोस सोच का सहारा लिया है और जब उन्हें विश्वास हो गया कि ढांचागत सुधार के प्रयास से 2015-16 में आयकर राजस्व 15 फीसदी  बढ़ रहा है तब ही उन्होंने आयकर को यथावत बनाए रखा है. इस का मतलब इस के अलावा निवेशक भी बजट से उत्साहित हैं.

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश सबै भूमि कौर्पोरेट गोपाल की

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को ले कर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार की संसद के अंदर और बाहर जबरदस्त घेराबंदी हो रही है. मौजूदा सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून को पलट दिया जिसे दिसंबर 2013 में संसद में पारित कराया गया था. इसे ले कर विपक्षी दल संसद में सरकार पर हमला कर रहे हैं तो सड़कों पर किसानों, आदिवासियों, मजदूरों का गुस्सा उबल रहा है. देशभर के करीब एक दर्जन किसानों और दूसरे जन संगठनों ने दिल्ली के जंतरमंतर पर विरोध जता कर सरकार के सामने चुनौती खड़ी कर दी है.

आक्रोश में किसान

इस अध्यादेश के विरोध में 20 फरवरी को हरियाणा के पलवल से शुरू हुई जन संगठनों की यात्रा जंतरमंतर पर पहुंची, 2 दिन का धरना दे कर अध्यादेश को किसान विरोधी करार दिया गया और इसे वापस लेने की मांग की गई. अन्ना हजारे की अगुआई वाले इस आंदोलन से एनडीए सरकार खासी बेचैन है. इस के बावजूद वह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को संसद में पास कराने की कोशिश में है. जंतरमंतर पर उमड़ी हजारों की भीड़ के गुस्से से साफ लग रहा था कि ‘सब का साथ, सब का विकास’ जैसे नारे के साथ जो भाजपा सत्ता में आई थी, 9 महीने होतेहोते उस के खिलाफ लोगों का गुस्सा दिखने लगा है.

सामाजिक संगठनों का बड़ा विरोध उस प्रावधान को पलटने को ले कर है जिस में कहा गया था कि आवश्यक सार्वजनिक कार्य को छोड़ कर किसी भी जगह की जमीन का अधिग्रहण करना पड़ा तो वहां की 80 प्रतिशत भूमि मालिकों  की सहमति से लेनी होगी और सार्वजनिक सहयोग वाली परियोजनाओं में 70 फीसदी भूमि के लिए ही मालिकों की सहमति जरूरी होगी.

कंपनियों की मनमानी

इस प्रावधान को हटाने पर सवाल उठाए जा रहे हैं. कहा गया है कि इस के होने से किसानों की जमीन सुरक्षित रहती और जमीन लेने के मामलों में कंपनियों की मनमानी नहीं चलती. जंतरमंतर पर आए हरियाणा के रेवाड़ी जिले के किसान नेता अतर सिंह सांगवान कहते हैं कि यहां किसानों से सरकार ने अधिकृत कर के 22 लाख रुपए प्रति एकड़ जमीन कंपनियों को दी. अब वे पट्टे पर उसी को डेढ़ करोड़ रुपए में दे रही है. इसलिए यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस प्रावधान के हटने से यह काम बेलगाम हो कर किया जाने लगेगा. इस के अलावा 2013 के कानून में जनहित, सामाजिक व आर्थिक असर को समझने की बात थी जिसे संशोधन के जरिए बेहद कमजोर कर दिया गया. कानून में यह भी प्रावधान था कि अगर अधिग्रहीत भूमि का इस्तेमाल 5 साल की समयसीमा में नहीं होता है तो 5 साल बाद इसे वापस करना होगा लेकिन इस अध्यादेश में 5 साल की मयसीमा को हटा दिया गया है. यही नहीं, जमीन से जुड़े लाभार्थियों की संख्या भी सीमित कर दी गई है.

असमंजस और विरोध

बढ़ते विरोध को देखते हुए सरकार शुरू में असमंजस में दिखी. फिर कहा गया कि किसानों का हित सर्वोपरि रखा जाएगा. लेकिन अब सरकार ने लोकसभा सत्र में बजट के साथसाथ संशोधन का विधेयक पेश कर यह साफ कर दिया कि वह इस मुद्दे पर कदम पीछे नहीं खींचेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी के सांसदों को इस विधेयक के पक्ष में मजबूती से खड़ा होने को कहा है. जबकि सरकार के सहयोगी दल शिवसेना, अकाली दल अध्यादेश के पक्ष में नहीं हैं. शिवसेना तो खुल कर विरोध कर रही है. सरकार द्वारा कौर्पाेरेट को किसानों की जमीन देने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया गया. इस के लिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेशों के जरिए कानून बनाने की प्रवृत्ति पर सरकार को चेताया भी था पर सरकार का कहना है कि वह आर्थिक सुधारों को जारी रखना चाहती है.

दरअसल, दिसंबर 2013 में संप्रग सरकार ने ब्रिटिश काल के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को बदल कर ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक-2011’ संसद में पारित कराया था. हालांकि कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार भी किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के हितों को ताक पर रख कर कानून बनाना चाहती थी पर कानून के प्रारूप को ले कर जन संगठनों ने आंदोलन चलाया. किसान संगठनों से ले कर गैर सरकारी संगठनों ने धरने, प्रदर्शन किए और सत्याग्रह यात्रा निकाली.

यह उस समय हुआ जब भ्रष्टाचार के खिलाफ संप्रग सरकार जनाक्रोश का सामना कर रही थी और लोकसभा चुनाव सामने थे. एकता परिषद के नेतृत्व में हजारों किसानों, आदिवासियों की जनयात्रा जब दिल्ली कूच के लिए ग्वालियर से आगे पहुंची तो तब के केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इस जनयात्रा में जा पहुंचे और आंदोलनकारियों को उन की मांगें कानून में समाहित करने का आश्वासन दिया. स्वयं जयराम रमेश और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किसानों, आदिवासियों, मछुआरों के लिए समुचित मुआवजे के साथसाथ रोजगार की व्यवस्था का प्रावधान भी जोड़ा. इस के साथ ही कानून में भूमिहीनों के लिए जमीन देना भी आवश्यक किया गया. इस में न केवल जनहित विकास परियोजनाओं, उद्योग जगत और शहरियों, ग्रामीणों, किसानों, आदिवासियों, मजदूरों, भूमिहीनों का पूरा खयाल रखा गया था बल्कि बिल में भूमालिकों की जमीन को संरक्षित रखने और पर्याप्त मुआवजे व रोजगार के प्रावधान भी किए गए थे.

जल्दबाजी क्यों

कांग्रेस सरकार के कानून में भूमिहीन परिवारों के लिए जमीन मुहैया कराना और अधिग्रहण की चपेट में आए किसानों, मकानमालिकों को पर्याप्त मुआवजा, आजीविका व पुनर्वास को सुनिश्चित करना शामिल था. यह कानून हर तबके के लिए अच्छा माना गया. यह बात अलग है कि इस से कांग्रेस को बिलकुल भी चुनावी फायदा नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी सरकार को ऐसी क्या जल्दी थी कि एक साल पुराने विधेयक को सदन में चर्चा कराए बगैर आननफानन में अध्यादेश के जरिए वैधानिक रूप दे दिया गया? इस पर भाजपा सरकार का तर्क है कि जब स्मार्ट शहर बनाए जाएंगे तो ऐसे संशोधनों की आवश्यकता है. हालांकि अध्यादेश में भी पुनर्वास के लिए मुआवजा देने का प्रावधान रखा गया है पर सच यह है कि बढ़ा हुआ मुआवजा वैकल्पिक आजीविका नहीं दे सकता. हाल के दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र दौरे के दौरान रांकापा नेता शरद पवार से मिले और बाद में पवार दिल्ली आ कर मोदी से मिले. दोनों नेताओं ने एकदूसरे की खूब प्रशंसा की. अनुमान लगाया जा रहा है कि शरद पवार से मोदी कौर्पोरेट को साधने के लिए कोई मंत्र लेना चाह रहे हैं. शरद पवार 2003 से कानून के विरोधी रहे थे.

कांग्रेस सरकार द्वारा भूमि अर्जन बिल पेश करने से पहले केंद्रीय कृषि मंत्री के तौर पर शरद पवार भी कौर्पाेरेटों की पैरवी वाली भाषा बोल रहे थे. उन्होंने कहा था कि भूमि अर्जन बिल से बांध और अन्य परियोजनाओं के लिए बगैर रजामंदी वाले किसानों से भूमि अधिग्रहण करना मुश्किल हो जाएगा. साफ था कि वे किसानों से जबरन भूमि हड़पने के पक्ष में थे. लिहाजा, अब मोदी सरकार ने भूमि  अधिग्रहण अध्यादेश में 70 प्रतिशत भूमि के लिए मालिकों की रजामंदी का प्रावधान हटा दिया.

कौर्पोरेटों की तरफदारी

भाजपा कांग्रेस द्वारा लाए गए कानून से भी खुश नहीं थी और वह कौर्पोरेट की तरफदारी कर रही थी. कांग्रेस सरकार के कानून के प्रावधानों को ले कर कई औद्योगिक घरानों ने आशंका व्यक्त की थी कि इन के कारण भूमि की कीमत बढ़ जाएगी और कीमतें बढ़ने से उद्योगों की ढांचागत लागत 3 से 5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी. भवन निर्माण परियोजनाओं में लागत वृद्धि 25 प्रतिशत तक होगी. देश के औद्योगिक और व्यापारिक संगठन आलोचना कर रहे हैं कि इस कारण उत्पादन व निर्माण उद्योग चरमरा जाएंगे. सामाजिक आकलन के प्रावधान के कारण परियोजनाएं समय पर शुरू नहीं हो पाएंगी. पब्लिकप्राइवेट पार्टनरशिप परियोजनाएं प्रभावित होंगी. खनन उद्योग बाधित होगा. औद्योगिक क्षेत्र की इन्हीं आशंकाओं के चलते मोदी सरकार ने कई संशोधन किए हैं. असल में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा यह अध्यादेश इसलिए लाया गया है ताकि वह औद्योगिक क्षेत्रों, स्मार्ट सिटी, स्पैशल इकोनौमिक जोन, निजी फाइवस्टार अस्पताल, शिक्षण संस्थान, सड़कें, रेलवे, उद्योग स्थापित करने के नाम पर उद्योगपतियों, कौर्पोरेट कंपनियों, रियल एस्टेट कारोबारियों, बिल्डरों को फायदा पहुंचा सके. मुनाफा कमाने के लिए जमीनें किसानों से छीन कर उन्हें दी जा सकें. भाजपा सरकार के अध्यादेश में कौर्पोरेट क्षेत्र की अधिक तरफदारी है. इस में गांवों के भूस्वामियो की जमीनें जबरन छीन लेने के प्रावधान हैं. यह न भूलें कि गांवों के किसान आमतौर पर पिछड़े व दलित वर्गों के ही हैं.

कहा जा रहा है कि अकेले दिल्लीमुंबई कौरिडोर के लिए ही 3,99,000 वर्ग हैक्टेयर क्षेत्रफल की कृषि योग्य जमीन किसानों के हाथों से निकल कर कंपनियों के हाथों में चली जाएगी. मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद, रायपुर, रांची बेंगलुरु जैसे शहरों के विस्तार का काम अंबानी, अडाणी, टाटा, मित्तल जैसे चंद लोगों के हाथों में चला जाएगा. आने वाले 10 सालों में किसानों, झुग्गीझोंपड़ी वालों की जमीनें छिन जाएंगी. बड़े शहरों में कच्ची बस्तियों को पक्के मकान देने के नाम पर हटाए जाने की तिकड़में चल रही हैं.

कांग्रेस सरकार जब भूमि अधिग्रहण कानून ले कर आई थी तब कौर्पोरेट जगत इस से नाराज था. फैडरेशन औफ इंडियन चैंबर्स औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री (फिक्की) तथा कन्फडरेशन औफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने कानून को उद्योगों के लिए सही नहीं बताया, कहा गया था कि बिल के प्रावधान इंडस्ट्री के लिए अच्छे नहीं हैं. फिक्की की अध्यक्ष नैनालाल किदवई ने तब कहा था कि कांग्रेस सरकार का बिल बड़ी उत्पादन परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण की खातिर सही नहीं है. पोस्को, आर्सेलर मित्तल जैसी परियोजनाओं को जमीन मिलने में बाधा का सामना करना पड़ा है.

देश का नया जमींदार

कौर्पोरेट जगत चाहता था कि उसे जमीन बिना किसी बाधा के तुरतफुरत मिले. नैनालाल किदवई ने मुआवजे और पुनर्वास के प्रावधान पर भी एतराज जताया था. लेकिन अब भाजपा के अध्यादेश से कौर्पोरेट जगत तालियां बजा रहा है. शहरी, ग्रामीण भूमालिक, गरीब, आदिवासी, किसान, दलित, पिछड़ों को अपना हितैषी दिखाने के लिए कांग्रेस सरकार ने आम चुनाव से पहले अपने दामन पर लगे महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे तमाम दाग धो देने का तब प्रयास किया था. सरकारें अब तक किसानों, आदिवासियों, झुग्गीवासियों से जमीनें ले कर कौर्पोरेट जगत को मुहैया कराने में खूब रुचि दिखाती आई हैं. हां, देश की तरक्की के लिए जमीनों की जरूरत होती है और जमीन अधिग्रहीत की जानी चाहिए लेकिन इस प्रक्रिया में उन लोगों की उपेक्षा की जाती रही जिन की रोजीरोटी जमीन के बल पर ही चल रही थी. हाल के दशकों में हजारों एकड़ संरक्षित और अनुसूचित भूमि कांग्रेस सरकारों द्वारा ही बलपूर्वक खनन व औद्योगिकीकरण के नाम पर हस्तांतरित कर दी गई. बड़े पैमाने पर कृषि और वन भूमि उद्योग, खनन और विकास परियोजनाओं या ढांचागत सुविधा के लिए दे दी गई. झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कौर्पोरेट कंपनियों को किसानों की कृषि भूमि, आदिवासियों के जंगल, शहरी लोगों की शहरों से सटी जमीनें अन्यायपूर्ण कानून के सहारे छीनी गईं. पिछले

2 दशकों में लगभग 8 लाख एकड़ भूमि खनन और 2 लाख 50 हजार एकड़ जमीन स्थानीय लोगों की आजीविका की परवा किए बिना औद्योगिक मकसद से हस्तांतरित कर दी गई. परिणामस्वरूप, कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल में टाटा, ओडिशा में पोस्को व आर्सेलर मित्तल, गुजरात में अडाणी व रिलायंस, छत्तीसगढ़  व झारखंड में जिंदल ग्रुप, उत्तर प्रदेश में अंबानी के विरोध में हिंसक घटनाएं हुईं. देश में आज करीब 5 करोड़ लोगों के पास आवास नहीं हैं. सरकारों ने किसानों, आदिवासियों, झुग्गीझोंपड़ी वालों की जमीनें अधिग्रहण कर निजी कंपनियों को बेचीं. ऐसे लोग सरकार की इन नीतियों का खमियाजा भुगत रहे हैं. आजादी के बाद से ही भूमि सुधार की प्रक्रिया चलती रही है. पहले जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और हर पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधार के लिए नीतिनियमों को शामिल किया गया. जमीन बंटवारे को ले कर जो गैरबराबरी थी, उसे खत्म करने के प्रयास किए गए. सभी राज्य सरकारों से कहा गया कि कृषि भूमि सीलिंग ऐक्ट और अधिकतम भू अधिग्रहण सीमा को ले कर कानून बनाए जाएं और भूमिहीनों व सीमांत किसानों को सरप्लस जमीन बांटी जाए.

तकरीबन सभी राज्यों में 1961 तक कृषि सीलिंग कानून पारित कर दिए गए थे. जागीरदारी प्रथा उन्मूलन के पूरी तरह नाकाम रहने के परिणामस्वरूप योजना आयोग ने 1955 में सभी राज्यों को अधिग्रहण व भूमिहीनों और अन्य सीमांत किसानों को भूमि आवंटन करने के लिए कृषि भूमि जोत सीलिंग करने की सलाह दी थी लेकिन कानून निर्माण में पूरी तरह छिद्र छोड़ दिए गए जो बड़े भूस्वामियों के पक्ष में ही रहे.

नए कानून में झोल

नरेंद्र मोदी सरकार के नए कानून में घूसखोरी के रास्ते बंद होते दिखाई नहीं देते. पुरानी अंधकार भरी जागीरदारी नए रूप में नजर आ रही है. धन्ना सेठ अब देश का नया जमींदार बन रहा है और सरकार उस से लगान वसूल करने वाली सामंतशाह. कुछ लोगों को सारे संसाधनों का मालिक बनाया जा रहा है, बाकी को फटेहाल छोड़ दिया जा रहा है. इस कानून से असमानता, भेदभाव, अमीरीगरीबी की दीवार और बढ़ेगी. ठीक भी है जमीन के मालिकाना अधिकार को ले कर सदियों से चली आ रही सोच से धर्म के मार्ग पर चलने वाली भाजपा सरकार अलग कैसे चल सकती है. ‘सबै भूमि गोपाल की’ यह वाक्य बहुत प्रसिद्घ है. इस का अर्थ यह नहीं है कि सारी भूमि ईश्वर की है, बल्कि इस का सीधा सा अर्थ है सारी भूमि ईश्वर के एजेंट ब्राह्मणों की है. ब्राह्मण चाहे जहां रह सकता था, चाहे जिस की भूमि कब्जा सकता था, चाहे जिसे बेदखल कर सकता था, किसी को भी श्राप देने का वरदान उसे प्राप्त है. धर्मग्रंथों में लिखी इन बातों का मर्म यही है कि सारी पृथ्वी ब्राह्मण के अधीन है. लेकिन अब सरकार नए ब्राह्मण कौर्पोरेट क्षेत्र को यह हक दे रही है. सबै भूमि कौर्पोरेट गोपाल की

सरित प्रवाह

जेटली का बातों का जाल

अगर बातों से देश का विकास हो सकता है तो 2022 तक देश में रामराज आ जाएगा. अब आचार्य अरुण जेटली ने कह दिया है तो होगा ही. उन्होंने कह डाला है कि 24 घंटे बिजली, साफ पानी, शौचालय, हरेक को घर, हरेक को नौकरी, सड़कें, सारे गांवों में बिजली, स्वास्थ्य–सब मिल जाएगा. ऐसा लग रहा है कि पिछले सभी वित्तमंत्रियों ने इन सब सुविधाओं को नौर्थ ब्लौक में छिपा रखा था, जेटलीजी ने उस के दरवाजे खोल दिए हैं. बातों से चुनाव जीते जाते हैं, देश का विकास नहीं होता. देश का विकास तो जनता करती है अपनी मेहनत से, उत्पादकता से, विकास से. वित्त मंत्री से अपेक्षा होती है कि वे सरकार चलाने के लिए इस तरह कर वसूलें कि जनता का उत्साह बना रहे और वह पैसा देती भी रहे. अब तक सभी वित्त मंत्री लगता है जनता के हाथ में पैसा दान में छोड़ते रहे हैं और अरुण जेटली ने भी वही किया है.

उन्होंने व्यक्तिगत आयकर में मामूली हेरफेर किया है. 2-4 हजार का लाभ कई  अमीरों को दिया है और 10-20 हजार ज्यादा अमीरों से लिया है. यह बेमतलब की कवायद है. इस से ज्यादा उन्होंने सेवा कर बढ़ा कर झटक लिया है. कहने को वित्त मंत्री ने बताया है कि 4,44,200 रुपए की छूट दी है पर यह तब है जब 50 हजार रुपए फंड में जमा किए जाएं, 2 लाख रुपए का ब्याज मकान के कर्जे पर दिया जाए, 25 हजार रुपए का जीवन बीमा हो, 19,200 रुपए यात्राभत्ता मिलता हो. यह गणित किसी को भी समझ में आ जाएगा कि जिस की आय 40 हजार रुपए मासिक के आसपास हो, वह ऐसा मकान ले ही नहीं सकता कि जिस पर ब्याज 2 लाख रुपए देना हो और ऊपर से 25 हजार रुपए का बीमा हो यानी 20 हजार रुपए महीने की देनदारी.

करों के बिना देश नहीं चलता पर कर एकत्र करना कला है और यह देश ने कभी नहीं सीखी. यहां कर एकत्र करने वाले मंत्री से ले कर चपरासी तक रंगदारों की तरह से चूसने की कोशिश करते हैं और तभी पूरी अर्थव्यवस्था कालेधन पर चल रही है. जो कर दिया जा रहा है वह मन मार कर ही दिया जा रहा है.

बजट और आमजन

वित्त मंत्रियों से यह अपेक्षा कम ही की जाती है कि वे ऐसा बजट बना सकते हैं जिस से देश तालियां बजाए क्योंकि हर बजट का काम तो सरकार के लिए कर वसूलना होता है. सरकारी खर्च हमेशा बढ़ता ही है. अगर कोई वित्त मंत्री 2-4 चीजों पर करों में छूट दे दे तो लोग वाहवाह करते हैं पर जल्दी ही व्यापारी उन्हीं चीजों के दाम बढ़ा कर लोगों की हंसी छीन लेते हैं. अगर कोई खड़ूस वित्त मंत्री ज्यादा टैक्स बढ़ा दे तो लोग बिना हिसाब का काम ज्यादा शुरू कर देते हैं. रही बातें बड़ीबड़ी योजनाओं, सड़कों, अस्पतालों, स्कूलों, कालेजों, जहाजों, हवाई अड्डों की, तो ये खयालीपुलाव हैं जो कब पूरे होंगे, उस का न तो पता किया जा सकता है, न उन में जनता की रुचि होती है. उन में तो रुचि केवल बड़े कौर्पोरेट घरानों को होती है जो उन के सहारे अपने धंधे के सपने बुनने लगते हैं.

बजट में किसी नई सोच वाली सरकार की कोई छाप नहीं है, पुरानी बातों को दोहराया गया है, पुराने प्रोजैक्टों को नया नाम दिया गया है. ये वे काम हैं जिन की घोषणा सरकार 28 फरवरी को करे या कभी भी, कोई फर्क नहीं पड़ता. आम आदमी को अरुण जेटली के बजट से यही पता चलता है कि भाजपा सरकार के सारे चुनावी वादे 14 मई, 2014 को पूरे हो चुके हैं जब नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल ने शपथ ली. अब तो सरकार भैया यों ही चलेगी.

किसान, सरकार और भाजपा

आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल के हाथों दिल्ली में बुरी तरह हारने के बाद ऐसा लग रहा है कि भाजपा नेता व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बादशाहत मुगलई दिनों की हो गई है. अध्यादेशों को कानूनों में बदलवाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को मुंह में जिस तरह लोहे के चने डालने पड़े हैं, वह अप्रत्याशित है. भूमि अधिग्रहण कानून पर विपक्षी इतने मुखर हो जाएंगे और अपने भी आंखें दिखाने लगेंगे, इस की आशा न थी. रोचक बात यह है कि जिस भूमि अधिग्रहण कानून को बचाने के लिए सारे भाजपा विरोधी एकमत हो गए हैं, वह जब बना था तो शायद ही किसी ने सोनिया गांधी की तारीफ की थी. भूमि अधिग्रहण कानून 1947 के बाद से किसानों को लूटने का सब से खौफनाक हथियार रहा है. देशभर में फैले शहर असल में किसानों को मुट्ठीभर रेत का मुआवजा दे कर उन से हथियाई गई जमीनों पर उगे हैं. जिन की वे जमीनें थीं, वे आज भी दरदर भटक रहे हैं.

ऐसा अनाचार और ज्यादा न हो, इस के लिए न जाने किस प्रेरणा से सोनिया गांधी ने यह कानून बनवाया था. पर तब कांगे्रसी ही इस से नाखुश थे. राज्य सरकारें भी उसे नहीं चाहती थीं पर सोनिया गांधी अपनी जिद पर अड़ी रहीं. अब पता चल रहा है कि यह कानून किस तरह का क्रांतिकारी था कि सभी हमदर्दों को इस में थोड़ाबहुत परिवर्तन भी स्वीकार्य नहीं है. यह अगले चुनावों में भाजपा के गले की फांस बन सकता है. किसान की जमीन उस की इच्छा के बिना जबरन ले कर किसी और काम में लगाई जाए, यह मूलभूत तौर पर गलत है. सिवा सड़कों, रेलों, नहरों के यह इजाजत किसी को नहीं होनी चाहिए. अगर भवन या कालोनी निर्माणकर्ताओं को जरूरत है तो वे किसानों से जमीनें खरीदें, जैसे वे और दूसरे सामान खरीदते हैं. किसान की जमीन का दाम जबरन कोई और तय करे, यह कैसे हो सकता है?

हां, भारतीय जनता पार्टी के लिए इस कानून में बदलाव किया जाना आवश्यक है क्योंकि उसे चुनावों में अमीरों का जो समर्थन मिला था, उस के पीछे इस ढील का वादा था. आज पैसा बनाने का सब से सरल तरीका सरकारी जमीन का अलौट कराना और उस पर मकान, उद्योग, मौल, सिनेमा, होटल बनाना है. जमीन अगर सीधे किसानों से खरीदनी पड़े तो बहुत ज्यादा परेशानियां होती हैं. यह गनीमत है कि भारतीय जनता पार्टी को लगभग शुरू में ही कड़वा घूंट पीना पड़ रहा है और अब उस की सरकार द्वारा केवल अमीरों को लाभ पहुंचाने वाले फैसले शायद कम ही लिए जाएंगे. देश का विकास अमीरों को और अमीर बना कर ही नहीं, गरीबों को भी अमीर बना कर करना होगा और इस के लिए किसानों को अपनी जमीन पर मनचाहा काम करने की छूट देनी होगी, उन की जमीनों को हथियाना नहीं होगा.

कालाधन और कानून

नए बजट पर बोलते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार विदेशों में रखे कालेधन पर एक कानून तैयार कर रही है जिस के तहत नागरिक अपना पैसा वापस ला कर कर चुका दे वरना उन पर मुकदमा चला कर 10 साल की कैद हो सकती है. यह अव्यावहारिक है, यह साफ है. नरेंद्र मोदी 15 दिनों में 15 लाख रुपए लाने की बातें कर रहे थे और अब 9 माह के बाद भी कानून पर बस विचार हो रहा है. और यह कानून होगा भी क्या? अगर विदेशों में रखे कालेधन के बारे में पता करना आसान होता तो पिछली सरकारें क्यों चुप रहतीं? हर आयकर कार्यालय में फाइलें भरी होतीं कि किन नागरिकों को पकड़ना है. अगर कांगे्रस सरकार की मिलीभगत थी तो क्या भाजपा सरकार को 9 माह में भी एक को भी पकड़ने का मौका नहीं मिला? ऐसे में नया कानून क्या करेगा?

नए कानून में भी पहले तो पता करना होगा कि किस का पैसा है. यदि पैसा ज्यादा है तो भारतीय नागरिक विदेशी बन कर निकल सकता है. जो विदेश में पैसे रख सकता है, भारत में कामधंधे करेगा, नागरिक कहीं का बन भी जाएगा. नागरिकता तो आसानी से खरीदी जा सकती है. किसी इक्केदुक्के को पकड़ भी लिया तो भी दर्जनों अफसरों को मिल कर सुबूत जुटाने होंगे. वकील रखने होंगे, कागज तैयार करने होंगे. इस दौरान जहां पैसा रखा होगा वहां की विदेशी यात्रा पर अफसर जाएंगे. जितना पैसा हाथ लगेगा उस सेज्यादा हर मामले में अफसरों पर, कागजों पर, यात्राओं में, होटलों पर खर्च होगा और यह हर मामले में अलग होगा. वे सरकार से सुप्रीम कोर्ट तक लड़ेंगे. तब जा कर कहीं गिरफ्तारी होगी. हां, अगर सख्ती के नाम पर पहले कैद, सजा और फिर मुकदमा वाला तानाशाही कानूनी फंदा तैयार करने की मंशा हो तो बात दूसरी है. वह न दलील, न वकील वाली बात होगी, सिर्फ मनमानी होगी.

वैसे भी करों से बचाया गया पैसा विदेश में कौन रखेगा? व्यापारी और उद्योगपति तो हरगिज नहीं क्योंकि उन्हें देश में पैसा चाहिए. यह तो नेता और अफसरों का काम है या तस्करों का. उन्हें पकड़ना आसान नहीं क्योंकि उन की पहुंच होती है और उन की धमकियां भी कारगर होती हैं. अफसर उन्हें छूते नहीं. और फिर नरेंद्र मोदी ऐसे अफसर कहां से पैदा करेेंगे जो ईमानदारी से काम करेंगे. साक्षी महाराज और निरंजन ज्योति वाले फालतू के बच्चे हो भी जाएं और वे उन के सद्व्यवहार आसारामी, नित्यानंदी आश्रमों से निकल कर आए तो भी 30 वर्ष लगेंगे.

यह कानून बनाना होता तो अब तक बन जाता पर इसे बनाना मर्ज का इलाज नहीं. सरकारी आदेश से सूर्य पश्चिम से उगना तो शुरू नहीं कर देगा. सरकारी प्रचार से देश तो स्वच्छ नहीं हो गया. कालाधन खत्म करने का कानून बना देंगे, यह तो हर वित्त मंत्री कहता रहा है.

‘आप’ में विवाद

आम आदमी पार्टी यानी आप में उभरे आंतरिक विवाद पर आम आदमी की चिंता स्वाभाविक है. अलग तरह की राजनीति का वादा कर के जीती आम आदमी पार्टी के नेता भी और पार्टियों की तरह अहं और आत्ममुगालता के शिकार हों और अपने गुस्से को सार्वजनिक करें, यह आमजन को आसानी से नहीं पचेगा. असहमति वैसे लोकतंत्र की निशानी है. लोकतंत्र में हर विचार के लोग होते हैं, फिर भी वे एक मंच पर बैठते हैं और तभी सरकारें चलती हैं. इसी तरह हर दल में हर विचार के लोग होते हैं और वे अपने तमाम गुणों से पार्टी को बनाते हैं, उसे ऊंचा उठाते हैं. यह बात दूसरी है कि अकसर कुछ लोग पार्टी को बिगाड़ते हैं पर उन की भी जरूरत होती है क्योंकि जो अडि़यल होते हैं वे भी इस स्तर पर, जब नीतियों पर अपनी छाप छोड़ सकें, पहुंचने के पहले पार्टी के लिए बहुत योगदान देते हैं. आम आदमी पार्टी के मतभेद स्वाभाविक हैं क्योंकि यह बराबरी के स्तर वाले लागों की बनाई पार्टी है जिस में अब सत्ता और प्रभाव का बंटवारा होने पर कद घटनेबढ़ने लगे हैं. अब तक विवाद महत्त्व के नहीं थे क्योंकि सारे महल हवाई थे पर अब हकीकत में, चाहे दिल्ली में ही सही, प्रभाव का इस्तेमाल होने लगा है. अब पार्टी में लिए गए निर्णयों का असर हरेक की सोच पर पड़ने लगा है.

अरविंद केजरीवाल के लिए यह चुनौती है कि वे रूठों को कैसे मनाएं. जिस तरह से उन्होंने रूठे अन्ना हजारे को मनाया और भूमि अधिग्रहण कानून पर धरने में उन का साथ दे कर पुरानी नाराजगी दूर कर दी वैसे ही वे शायद इन लोगों को भी मना लें जो आम आदमी पार्टी के निर्माताओं में से हैं और उन के बिना पार्टी लड़खड़ा सकती है. वैसे, किरण बेदी जैसे कई नामों की नाराजगी के बावजूद आम आदमी पार्टी चली और अच्छी चली. फिर भी अच्छा रहता कि ये मतभेद 2-4 साल और छिपे रहते. ये पार्टी के विरोधियों को सुकून देते हैं और आम समर्थक के मन में संशय पैदा करते हैं. केजरीवाल को साबित करना है कि उन के सीधेपन का मतलब यह नहीं कि वे इस तरह के विवादों को हल नहीं कर पाएंगे.

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