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हम तुम

तुम्हारा घर आना

दिल की सुनना

कुछ बतलाना

छोटीछोटी बातें

छोटेछोटे पल

कुछ किस्से कल के

कुछ बातें मन की

कुछ सपने साझे

कुछ तेरेमेरे

इकदूजे के सहारे

स्वरलय में डूबे

एकाकार हम तुम.

    – नीलम राकेश

ग्रीस एथेंस का सुहाना सफर

जीवन में पर्यटन का अपना अलग ही आनंद है. जिस ने इस का सुख प्राप्त किया है, वह इस सुख को फिर प्राप्त करना चाहता है. जिस व्यक्ति में नएनए स्थानों को देखने की उत्सुकता होती है वह समय निकाल कर अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार वहां अवश्य पहुंच जाता है. मुझे और मेरे पति दोनों को दर्शनीय स्थल देखने का बहुत शौक है. हम लोगों ने इस बार ग्रीस की राजधानी एथेंस देखने का प्रोग्राम बना कर टर्किश एअरलाइंस से जाने की योजना बनाई. हवाई जहाज का दिल्ली से चलने का समय सुबह 6.30 बजे था, इसलिए 2.30 बजे हम घर से एअरपोर्ट के लिए चल दिए क्योंकि इंटरनैशनल एअरपोर्ट पर कम से कम 3 घंटे पहले पहुंचना होता है.

टर्किश एअरलाइंस की गौर वर्ण वाली एअरहोटेस गहरे नीले रंग की पोशाक पहने, लाल रंग की टोपी लगाए थीं. उन के ऊपर से निगाहें हट ही नहीं रही थीं. थोड़े समय बाद हमारा जहाज आगे बढ़ने लगा और कुछ ही मिनटों में वह आकाश को चूमने लगा. अब तक सब लोग अपनीअपनी बैल्ट खोल कर सामान्य हो चुके थे और एअरहोस्टेस अपनी सेवाएं देने लगी थीं. हम ने टिकट खरीदते समय शाकाहारी भोजन की इच्छा लिखवा दी थी. शाकाहारी भोजन हमारे सामने रखा जाने लगा. एअरहोस्टेस एअरलाइंस यात्रियों को खानेपिलाने में कोई कमी नहीं छोड़ रही थी. सभी यात्री खापी कर मस्त थे. इस्ताम्बुल में हमारा हवाईजहाज रुका और उस के बाद हम दूसरे हवाईजहाज से ग्रीस के लिए रवाना हो गए.

एथेंस में हम सुबह 10.30 बजे पहुंचे. वहां की लोकल ट्रेन भी तीव्रगामी होती हैं. हमारा होटल स्टेशन से अत्यंत समीप था. इसलिए एअरपोर्ट से टैक्सी के स्थान पर लोकल ट्रेन से ही जाने का मन बना लिया. परंतु हमें क्या ज्ञात था कि भारत जैसे पौकेटमार वहां पर भी हैं. ट्रेन से उतरते समय भीड़ का लाभ उठा कर किसी ने मेरे पति के पौकेट से पर्स निकाल लिया. बहुत सारे यूरो की हानि तो हुई ही, साथ में क्रैडिट कार्ड आदि के चले जाने से हम लोग बहुत चिंतित हो उठे. ईमेल आदि कर के किसी तरह अपने क्रैडिट कार्ड को ब्लौक करवा दिया. सोचा, चलो पर्स ले गया तो ले जाए, हमारी खुशियां तो नहीं ले जा सकता है. यानी किसी तरह अपना मन शांत किया और एथेंस में घूमने का प्रोग्राम बना लिया.

बचपन में सिकंदर महान की बहुत सारी कहानियां पढ़ी थीं. तब से ही सिकंदर के देश यूनान को देखने का सपना संजोए बैठी थी. यूनान ने सिकंदर महान ही नहीं अपितु सुकरात, अरस्तू, प्लेटो जैसे चिंतक, दार्शनिक एवं लेखक भी दिए हैं. ग्रीस की राजधानी होने के साथ एथेंस इस देश का सब से बड़ा शहर भी है. यह विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक है. इस का इतिहास लगभग 3,400 वर्ष पुराना है. एथेंस को संसार की पाश्चात्य सभ्यता का प्याला, प्रजातंत्र का जन्मस्थल कहा जाता है. यहां पर डेफनी मौनेस्ट्री, हेलेनिक पार्लियामैंट, नैशनल लाइबे्ररी औफ ग्रीस, एथेंस यूनिवर्सिटी, एकेडमी औफ एथेंस, एक्रोपोलिस इत्यादि कई दर्शनीय स्थान हैं. वहीं, बहुत सारी इमारतें एवं मंदिर आदि समय एवं युद्धों की मार झेलते हुए खंडहर बन गए हैं. ये खंडहर बताते हैं कि इमारतें कभी बुलंद थीं.

एक्रोपोलिस यहां की इमारतों में सब से अधिक प्रसिद्ध एवं अच्छी दशा में है. इसे पेरिक्लीज नाम के शासक ने 5वीं सदी में अन्य इमारतों के साथ बनवाया था. यह एथेंस में काफी ऊंचाई पर स्थित है. हम लोग सब से पहले एक्रोपोलिस ही देखने गए. यह 7.4 एकड़ में फैली हुई है. महल बनने के उपरांत एक साइक्लोपियन (विशाल चारदीवारी) का निर्माण किया गया, जो 760 मीटर लंबी, 10 मीटर ऊंची तथा जिस की दीवारें साढ़े 3 से 6 मीटर मोटी थीं. ये दीवारें 5वीं शताब्दी तक एक्रोपोलिस को सुरक्षा प्रदान करती रहीं. ईसापूर्व 480 में जब परशियंस ने इस शहर पर आक्रमण किया, उस समय पुराने पारथिलोन का निर्माण कार्य चल रहा था. उन्होंने इस इमारत को लूटा और जला दिया. परशियंस क्राइसिस समाप्त होने के उपरांत एथेंस के शासनाधिकारियों ने उत्तर दिशा में एक दीवार का निर्माण किया जिसे ‘वार मैमोरियल’ का नाम दिया गया और जो आज भी उपस्थित है.

एथेंस में एक ‘अकादेमस’ नामक स्थानीय वीर पुरुष था, जिस का एक व्यक्तिगत बगीचा था, परंतु बाद में वह सार्वजनिक उद्यान के रूप में नागरिकों को भेंट कर दिया गया. वहां पर खेल, व्यायाम, शिक्षा और चिकित्सा के केंद्र बना दिए गए. प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो ने इसी उद्यान में प्रथम दर्शन विद्यापीठ की स्थापना की. इसे ही आगे चल कर अकादमी कहा जाने लगा. इस अकादमी की यह विशेषता है कि यह ऐसी संस्था थी जिस में नगरवासियों के अतिरिक्त बाहर के लोग भी सम्मिलित हो सकते थे.

यहां पार्थनन नाम का मंदिर भी बनाया गया था और उस के नीचे एथीना नाम की ग्रीस अर्थात यूनानी देवी की प्रतिमा स्थापित की गई. ये भी समय की मार से खंडहर बन चुके हैं, परंतु कुछ समय से यहां जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा है. पार्थनन मंदिर के समीप ही ‘थिएटर औफ हिरोड्स एटिकस’ है, जहां आज भी खुले नीले आकाश के नीचे संगीत एवं नृत्य के कार्यक्रम आयोजित होते हैं. यह भी अपनेआप में एक अनूठा स्थान है. उस समय इसी तरह के कई मंदिरों का निर्माण हुआ था, परंतु जो सब से बड़ा मंदिर था उस का नाम ‘टैंपल औफ ओलंपियन जियूस’ है. कहा जाता है कि इस के निर्माण में 650 वर्ष लग गए थे. परंतु अब वहां 15 खंभे ही खड़े हैं जिन में से प्रत्येक की ऊंचाई 17 मीटर है. हम लोग इसी तरह की खंडहर बनी इमारतों को एक के बाद एक देखते चले गए. एथेंस में ही सर्वप्रथम 1896 में 6 अप्रैल से 15 अप्रैल के मध्य एक बहु खेल प्रतियोगिता आयोजित हुई थी. जो ‘ओलंपियाड खेल’ के रूप में प्रसिद्ध हुई. यह आधुनिक युग में आयोजित होने वाली पहली अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक खेल प्रतियोगिता थी. ‘अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक समिति’ भी इस सम्मेलन के मध्य स्थापित की गई थी. अनेक बाधाओं के होते हुए भी 1896 में आयोजित इस ओलिंपिक खेल को एक बहुत बड़ी उपलब्धि माना गया था.

19वीं सदी में प्रयोग किया गया एकमात्र ओलिंपिक स्टेडियम, जिस का नाम ‘पानाथिनाइको’ है, एथेंस की शोभा बढ़ा रहा है. उस समय इस में आयोजित प्रतियोगिताओं को देखने के लिए अत्यधिक भीड़ उमड़ पड़ी थी. यह एथेंस के लोगों के लिए इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था क्योंकि इस में उन के देशवासी स्पिरिडिन लुई ने मैराथन विजय प्राप्त की थी. इस स्टेडियम में सब से पहले प्रतियोगी जरमन पहलवान एवं जिमनास्ट कार्ल शुमेन ने 4 स्पर्धाओं में जीत अर्जित की थी. यहां पर यूरोपीय संघ के सदस्य आधुनिक गणराज्य का संसद भवन है जिस में नीतियों का निर्माण होता है. संसद के बाहर एक बहुत बड़ा खाली स्थान है. इस स्थान को ‘प्लाका’ कहा जाता है. इस में लोग जनाक्रोश के लिए एकत्रित होते हैं. यह भी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने में अत्यंत समर्थ है.

एथेंस में हम लोगों ने 4 रातें व्यतीत कीं. हमारी दिनभर की थकान को संध्याकाल में जो स्थान दूर कर देता था वह यहां के ‘मोनस्तिराकी’ का इलाका था. हर शाम को यहां एक उत्सव का वातावरण रहता है, लोग मनोरंजन करने के लिए यहां आते हैं. कुछ लोग मोनास्तिराकी के मध्य बने बड़े से खुले मैदान में गाते हैं, बजाते हैं और अपनी विभिन्न कलाओं का प्रदर्शन करते हैं. परंतु रविवार के दिन यहां विशेष रूप से चहलपहल रहती है क्योंकि एथेंसवासी छुट्टी मनाने, घूमनेफिरने, खानेपीने और खरीदारी करने के बहुत शौकीन हैं. रविवार को एंटीक अर्थात पुराने सामान की बोली लगती है. मोनास्तिराकी में कई गलियां अंदर जाती हैं. वहां एक ऐसी भी गली है जिस के दोनों ओर खानेपीने के रेस्तरां हैं. गली के बाहर कई एजेंट खड़े रहते हैं जो ग्राहकों को विभिन्न तरीकों से पटा कर अपने रेस्तरां में ले जाते हैं. कोई गली जूतेचप्पलों की दुकानों से भरी है तो कोई आर्टीफिशियल ज्वैलरी से. जब हम लोग इन गलियों का आनंद उठा रहे थे तभी एक गायक मंडली  गली से गुजरती हुई गातीबजाती, बाहर की दुनिया से बेखबर अपने में ही मस्त दिखाई दी. वास्तव में जीवन कैसे जिया जाता है, यदि किसी को देखना है तो उसे एथेंस के मोनास्तिराकी को अवश्य देखना चाहिए.

एथेंस निवास के दौरान मेरी मित्रता कुछ स्थानीय लोगों से हो गई. उन के सामाजिक जीवन के विषय में भी जानने की मुझ में उत्सुकता थी. कुछ लोग तो वहां भी अंगरेजी में अच्छी तरह बात कर सकते थे परंतु कुछ हाथ हिला कर उस भाषा के प्रति अपनी अज्ञानता दिखा रहे थे. इसलिए शिक्षा को ले कर मन में अनेक प्रश्न आ रहे थे. मैं ने उन से पूछा, ‘क्या आप के देश में सभी शिक्षित हैं?’ तब उन्होंने बताया कि 10वीं कक्षा तक शिक्षा सभी के लिए अनिवार्य है. परंतु उस के बाद शिक्षा प्राप्त करने में लड़कों से आगे लड़कियां हैं. हमारे देश की तरह वहां लड़केलड़कियों में अंतर नहीं किया जाता है.

वहां 70 प्रतिशत महिलाएं  नौकरी करती मिलेंगी. ये लोग अभी तक संयुक्त परिवार में ही रहना पसंद करते हैं तथा अपने वृद्ध मातापिता को भी अपने साथ ही रखते हैं. 65 वर्ष की आयु में यहां व्यक्ति को सेवानिवृत्त कर देते हैं. मेरे पूछे जाने पर कि क्या आप के समाज में प्रेमविवाह को मान्यता प्राप्त है या मातापिता द्वारा निर्धारित विवाह होते हैं? मेरी मित्र बनी सायना ने बिना हिचकिचाहट के बताया कि लगभग 99 फीसदी लोग प्रेमविवाह करते हैं. विचारों में मेल न होने पर यदाकदा परस्पर तकरार होती रहती है. वहां पर भी महिलाओं को ही अधिक सहन करना पड़ता है. मैं ने जब भोजन संबंधी जानकारी लेनी चाही तो उन्होंने बताया कि यहां लगभग सभी लोग मांसाहारी हैं. गेहूं, चावल आदि से बने विभिन्न उत्पाद वे अपने भोजन में सम्मिलित करते हैं. शिक्षित व्यक्ति अब हरे पत्तों की सलाद भी अपने भोजन में सम्मिलित करने लगे हैं. चाय, कौफी का सेवन तो अब सभी देशों में किया जाता है. कृषि में केवल 20 फीसदी लोग ही लगे हुए हैं. गेहूं, चावल, गन्ना आदि वहां के मुख्य उत्पाद हैं. फलोें के राजा आम को उन का देश पसंद नहीं था, इसीलिए तो वे इतने स्वादिष्ठ फल से वंचित रह गए. 

जाति को ले कर प्रश्न किए जाने पर उन्होंने बताया कि लगभग 99 फीसदी और्थोडौक्स क्रिश्चियंस हैं तथा बहुत कम मुसलिम हैं. मसजिद न के बराबर हैं और जो हैं भी, तो अंडरग्राउंड हैं. जिज्ञासा शांत करने के लिए मैं ने अपने मित्रों को धन्यवाद दिया. इस नगरी से विदा लेने का समय आ गया था. सो, सुबह उठते ही एअरपोर्ट जाने के लिए शीघ्र तैयार हो कर भारत जाने वाले टर्किश एअरलाइंस के ही हवाईजहाज में बैठ गए. इस समय हृदय ठहरी हुई झील के समान शांत था. सिकंद महान के देश ग्रीस को छोड़ते समय वहां की एकएक इमारत व उस के भव्य खंडहर सिनेमा की रील की तरह स्मृतिपटल पर आते जा रहे थे. सारा समय खींची हुई फोटो को देखते व उस के विषय में बात करते हुए ही बीत गया और पता ही नहीं चला कि कब दिल्ली एअरपोर्ट आ गया.

अदिस अबाबा

इथियोपिया ऐतिहासिक दृष्टि से अफ्रीका का ऐसा महत्त्वपूर्ण देश है. जहां आधुनिक मानव जाति के आदिम पूर्वजों के सब से पुराने सुबूत मिलते हैं. माना जाता है कि यहीं से पहली बार होमोसीपियंस, जिन से आधुनिक मानव जाति का उद्गम हुआ, ने मध्यपूर्व तथा उस से आगे के क्षेत्रों में फैलना शुरू किया और शायद इसीलिए यह दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां आदिम संस्कृति के चिह्न जहांतहां बिखरे मिलते हैं. इस की राजधानी अदिस अबाबा विषुवत रेखा के एकदम करीब स्थित है. समुद्रतल से लगभग 8 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित होने के कारण बारहों महीने यहां की जलवायु बहुत खुशगवार बनी रहती है.

स्थानीय भाषा में अदिस अबाबा का अर्थ होता है ‘नया फूल’. सच में ऊंचीनीची पहाडि़यों पर करीब 1 हजार साल पहले बसाए गए इस नगर के चारों ओर फैली हरियाली, लंबीचौड़ी तथा साफसुथरी सड़कें, ऊंचेऊंचे यूकेलिप्टस के पेड़ तथा गगनचुंबी अट्टालिकाओं के बीच देश के प्राचीन राजसी गौरव का बखान करता हुआ भव्य राजमहल देख कर यह नगर आप को किसी फूल से कम नहीं लगेगा. हवाई अड्डे से होटल पहुंचने तक की अपनी यात्रा के दौरान ही हम अत्याधुनिकता के बीच सिमटे इस के ऐतिहासिक गौरव का बखान पढ़ चुके थे. यहां पर हम आप को यह बताना चाहेंगे कि इस देश का राजवंश, जिस के अंतिम शासक थे हेल सिलासी, जिन्हें 1974 की कम्युनिस्ट क्रांति के दौरान अपदस्थ कर दिया गया था, बिना किसी बाधा के हजारों साल पहले के पुरातन येरूशलम के राजा सोलेमन तथा शीबा की महारानी मकेदा के पुत्र मेनेलिक प्रथम के समय से ही चला आ रहा था. कहते हैं कि मकेदा अपने जमाने की सब से सुंदर महारानी थीं और आज भी उन के सौंदर्य से जुड़े अनेक किस्से आप को इथियोपिया के बूढ़े लोगों से सुनने को मिल जाएंगे.

होटल पहुंचतेपहुंचते रात हो गई थी और नैरोबी से अदिस अबाबा तक की लंबी हवाई यात्रा के कारण थकान भी महसूस होने लगी थी. सो हम रात का खाना खाने के बाद जल्दी ही नींद की गोद में झूलने लगे थे. रात को 3 बजे अचानक हमारी नींद टूट गई. हमारी सांस जोर से फूलने लगी थी और इसी वजह से नींद में भी विघ्न पड़ गया था. अगले दिन सुबह होटल के मैनेजर से जब हम ने बात की तो उस ने मुसकराते हुए हमारी शंका का समाधान किया, ‘‘समुद्रतल से ऊंचाई ज्यादा होने के कारण औक्सीजन की कमी हो जाती है और यह चूंकि आप का पहला दिन है, आप अभी इस के अभ्यस्त नहीं हुए हैं, इसीलिए रात को आप की सांस फूलने लगी थी.’’ अगले दिन सुबह हम ने इस नगर की परिक्रमा मेस्केल स्क्वायर से शुरू की, जहां से साइडेस्ट किलो एवेन्यू की ओर पैदल चलतेचलते हम ने नगर के कुछ महत्त्वपूर्ण स्थान जैसे अफ्रीका हाल, संसद भवन, राजमहल, विदेश मंत्रालय की खूबसूरत इमारत, जो किसी आर्किटैक्चरल आश्चर्य से कम नहीं है, इथियोपिया का पहला आधुनिक स्कूल जो मेनेलिक द्वितीय ने 1880 के दशक में बनवाया था, त्रिनिटी और्थोडौक्स कैथेड्रल तथा नैशनल म्यूजियम आदि देखे.

इथियोपियन नैशनल म्यूजियम की गिनती इथियोपिया या केवल अफ्रीका के ही नहीं, बल्कि दुनिया के कुछ सर्वश्रेष्ठ संग्रहालयों में होती है. आदिम मानव जाति के विकास से जुड़ी अनेक दुर्लभ चीजें यहां देखने को मिलेंगी, जिन में से एक आदिम महिला लूसी की प्रतिकृति विशेष रूप से उल्लेखनीय है. यहां पर उल्लेखनीय है कि इथियोपिया की संस्कृति दुनिया की सब से पुरानी संस्कृति है और इस पुरातन संस्कृति से जुड़ी मानव जाति के विकास के हजारों साल पुराने इतिहास का सफर आप इस संग्रहालय में घूम कर कुछ समय में ही पूरा कर सकते हैं. किस तरह आदिम युग से पाषाण युग की तरफ मनुष्य ने कदम रखा, किस तरह का जीवन वे लोग जीते रहे होंगे और किस तरह शिकार से ले कर रहनसहन की विभिन्न चीजों, साथ ही मानव की कलात्मक प्रवृत्तियों का विभिन्न कालों में विस्तार और विकास हुआ, ये सब एक सीमित जगह में देखना और अनुभव करना बहुत रोमांचक है.

इथियोपियन नैशनल म्यूजियम से थोड़ी दूरी पर मसकल स्क्वायर के अंतिम छोर पर स्थित है एक और संग्रहालय, जो इस देश के कम्युनिस्ट शासन के दुष्कर्मों तथा अत्याचारों की कहानी सुनाता है. यह ’रेड टैरर म्यूजियम’ के नाम से जाना जाता है. इस संग्रहालय का निर्माण 2010 में हुआ था और इस में आम जनता पर हुए कम्युनिस्टों के जुल्मोसितम और फिर 1990 के दशक के भीषण अकाल की दर्दभरी दास्तान से जुड़े चित्र तथा चीजें रखी गई हैं. इस संग्रहालय में काम करने वाले कर्मचारी खुद उस जुल्म तथा भुखमरी के शिकार हो चुके हैं और उन के मुंह से यह दिल दहला देने वाली कहानी सुन कर आप की आंखें नम हो जाएंगी.

इन 2 संग्रहालयों के अलावा अदिस अबाबा का इथनोलौजिकल म्यूजियम, अदिस अबाबा म्यूजियम, इथियोपियन नैशनल हिस्ट्री म्यूजियम, इथियोपियन रेलवे म्यूजियम तथा नैशनल पोस्टल म्यूजियम भी उल्लेखनीय हैं. यह आप की दिलचस्पी पर निर्भर करता है कि आप ये सारे संग्रहालय देखना पसंद करेंगे या नहीं. अगर आप के पास समय की कमी हो तो भी हम चाहेंगे कि आप इथियोपियन इथनोलौजिकल म्यूजियम देखने जरूर जाएं, जो अदिस अबाबा विश्वविद्यालय के कैंपस के भीतर स्थित है. इस में आप को इस देश की विभिन्न प्रजातियों के जीवन, संस्कृति, कला तथा धर्म से जुड़ी अनेक दिलचस्प चीजें देखने का अवसर मिलेगा. यह शायद इथियोपिया का सब से ज्यादा दिलचस्प संग्रहालय है.

संग्रहालयों के बाद आप मेनेलिक द्वितीय एवेन्यू पर स्थित अफ्रीका हाल देखना न भूलें, जहां आजकल संयुक्त राष्ट्रसंघ के अफ्रीका संबंधी आर्थिक आयोग का प्रधान कार्यालय स्थित है. असल में संयुक्त राष्ट्रसंघ के इथियोपिया स्थित लगभग सभी कार्यालय इसी भवन में विद्यमान हैं. इस भवन का नाम अफ्रीका भवन इसलिए रखा गया क्योंकि यहीं पर सब से पहले और्गेनाइजेशन और अफ्रीकन यूनिटी नामक संस्था की नींव पड़ी थी, जो आजकल अफ्रीकन यूनियन के नाम से जानी जाती है. इस के थोड़ा आगे स्थित है इथियोपिया का संसद भवन, जिस का निर्माण सम्राट हेल सिलासी ने करवाया था. आज भी देश की संसद का सत्र यहीं आयोजित किया जाता है. केवल कम्युनिस्ट शासन के दौरान संसद को शेंगो हाल में स्थानांतरित कर दिया गया था. इस भवन का निर्माण कम्युनिस्टों ने ही करवाया था.

इथियोपिया में पुरातन गिरजाघरों की भरमार है. इन में से एक मेधाने अलेम को तो हम ने अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से होटल जाते समय पहले देख लिया था. इस कैथेड्रल के नाम का अर्थ होता है ‘दुनिया का रक्षक’ और यह अफ्रीका महाद्वीप का दूसरे नंबर का सब से बड़ा गिरजाघर है. इस के अलावा अदिस अबाबा का दूसरा गिरजाघर है सैंट जौर्ज कैथेड्रल, जो चर्च रोड के उत्तरी सिरे पर स्थित है. इस का निर्माण 1896 में हुआ था. चर्च की गोलाकार इमारत बाहर से इतनी प्रभावशाली नजर नहीं आती, लेकिन भीतर प्रवेश करने के बाद आप इस के सौंदर्य से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे. इस में एक छोटा सा संग्रहालय भी स्थित है, जिस में आप को पादरियों की, विभिन्न समारोहों में पहनने वाली पोशाकें तथा कुछ पुरातन पांडुलिपियां भी देखने को मिलेंगी.

एक अन्य पुराना गिरजाघर गोला स्ट्रीट माइकेल चर्च नगर के बीचोबीच स्थित है, जहां आप को इथियोपिया के पुराने से ले कर आधुनिकतम, लगभग सभी चित्रकारों की कलाकृतियां देखने को मिल जाएंगी. अदिस अबाबा के अन्य दर्शनीय स्थलों में प्रमुख हैं नैशनल पैलेस, जो पहले जुबली पैलेस के नाम से जाना जाता था. इस का निर्माण सम्राट हेल सिलासी की रजत जयंती के उपलक्ष्य में 1955 में हुआ था. अब इस में इथियोपिया के राष्ट्रपति का निवास है. दूसरा पुराना राजमहल इंपीरियल पैलेस के नाम से जाना जाता है, जहां कभी सम्राट मेनेलिक निवास करते थे. इस में आजकल इस देश के विभिन्न मंत्रियों के दफ्तर स्थित हैं. आप इथियोपिया के कुछ स्थानीय सोवीनियर खरीदना चाहते हैं, तो नगर के बीचोबीच स्थित मरकाटो बाजार जरूर जाएं. यह अदिस अबाबा का सब से बड़ा बाजार है. यहां स्थानीय लोगों के उपयोग की लगभग सभी चीजें मिलती हैं. यही कारण है कि यहां हर समय स्थानीय लोगों की भीड़ रहती है.

आप नेत्सा आर्ट विलेज भी जा सकते हैं, जो फ्रैंच दूतावास के सामने एक सुंदर पार्क में स्थित है. इस विलेज में आप को इथियोपिया के कलाकारों तथा कारीगरों द्वारा बनाए गए अनेक चित्र तथा दस्तकारी की वस्तुएं देखने का अवसर तो मिलेगा ही, साथ ही इन में से आप अपनी मनपसंद चीजें भी खरीद सकते हैं. इस शहर में रेस्तरां तथा कौफी हाउस की भी कोई कमी नहीं है, जहां स्वादिष्ठ स्थानीय व्यंजनों के साथसाथ कौंटिनैंटल डिशेज भी आसानी से मिल जाती हैं. इतना ही नहीं, यहां कुछ भारतीय रेस्तरां भी हैं. इन में ‘ज्वैल औफ इंडिया’ सब से ज्यादा लोकप्रिय है.

अदिस अबाबा अपनी रात की रंगीनियों के लिए भी दुनियाभर में मशहूर है. शोरशराबे वाला संगीत तथा आप के साथ पश्चिमी नृत्य करने वाली इथियोपियन बालाएं. बोल रोड पर, जो अफ्रीका रोड के नाम से भी जाना जाता है, आप को लाइन से नाइट क्लब, बार तथा इस देश के परंपरागत नृत्यों का विशेष प्रदर्शन (हबेशा शो) करने वाले स्थान मिल जाएंगे. जहां कहीं भी आप को संगीत का शोर सुनाई दे, समझ लें कि वहां आप अपनी रात गुजारने जा सकते हैं. सामान्यतया रात में 10-11 बजे के करीब इन स्थानों पर लोगों की भीड़ जुटनी शुरू हो जाती है.

इस क्षेत्र के अलावा लगभग पूरे शहर में ही जगहजगह ये क्लब बिखरे हुए हैं, जिन में से प्रमुख हैं–मेमो क्लब, सिल्वर बुलेट वार, माई बार, कौंकौर्ड, डोम क्लब, इल्यूजन, डिवाइन टैंपटेशन, इंडिगो, द केव तथा करामारा. इन में से कुछ तो किसी वेश्यालय से कम नहीं हैं. देह का व्यापार यहां खुलेआम चलता है और इस पर यहां कोई कानूनी पाबंदी भी नहीं है. छोटी जगहों पर जो काम खुलेतौर पर चलता है वहीं दूसरी तरफ कौंकौर्ड जैसे महंगे क्लबों में, जहां भीतर प्रवेश करने के लिए आप को एक मोटी फीस चुकानी पड़ती है, ये सबकुछ परदे के पीछे चलता है. कौंकौर्ड में प्रवेश करने के 3 मिनट के भीतर ही हमें एहसास हो गया था कि यहां भी सुंदर इथियोपियन लड़कियों को माध्यम बना कर आप की जेब काटने के पुराने हथकंडे अपनाए जाते हैं. इस सब का अनुभव हम नैरोबी, मोंबासा तथा ऐसी ही अन्य कितनी ही जगहों पर पहले भी कर चुके थे.

हम अपनी मेज पर बैठे बैंड के संगीत का आनंद ले रहे थे, तभी एक सुंदरी हमारे पास मुसकराती हुई बैठ जाती है और फिर शुरू होती है उस की फरमाइश. अब यह सब तो आप पर निर्भर करता है कि आप रात की मदहोशियों में उस सुंदरी के साथ डूबना चाहते हैं, या फिर संगीत और वहां की रौनक के बीच केवल कुछ समय बिता कर अपने होटल वापस लौटना चाहते हैं.

सफर अनजाना

जयपुर जाने के लिए मेरे पति स्टेशन पर छोड़ने आए, मेरे साथ मेरी 3 साल की बेटी और कुछ सामान था. एक ट्रेन आई, पतिदेव ने कहा, ‘‘तुम बच्ची को ले कर चढ़ो, मैं टिकट ले कर आता हूं.’’ अभी मैं ठीक से बैठ भी नहीं पाई कि ट्रेन से चल पड़ी. मैं ने देखा, मेरे पति जोरजोर से कुछ कह रहे हैं. मगर मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया. लेकिन लोगों की बातचीत से मुझे अंदाजा लगा कि यह ट्रेन जयपुर नहीं, जोधपुर जा रही है. अब तो मैं और डर गई. जयपुर स्टेशन पर मुझे मेरे रिश्तेदार लेने आने वाले थे ट्रेन में जो लोग बैठे थे उन से बातोंबातों में कई बातें पूछीं लेकिन यह जाहिर नहीं होने दिया कि मैं बिना टिकट हूं, गलत ट्रेन में हूं और ऊपर से अकेली. जब मेड़ता सिटी स्टेशन आया तो मैं बच्ची को ले कर उतर गई. वहां से जयपुर का टिकट लिया. 3 घंटे बाद ट्रेन आई. उस में बहुत भीड़ थी. जैसेतैसे बच्ची को चढ़ाया, सामान को ट्रेन में घुसाया और फिर खुद चढ़ी. ट्रेन हर स्टेशन पर रुक रही थी. किसी तरह रात तक जयपुर पहुंची.

नोखा से आने वाली ट्रेन में मेरे रिश्तेदार मुझे ढूंढ़ढूंढ़ कर परेशान हो गए थे. थकहार कर रात में एक बार फिर वे प्लेटफौर्म पर आए. तभी मैं ट्रेन से उतरी. जुलाई की गरमी में बच्ची का हाल बेहाल था. मैं ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं हूं. मगर उस सफर ने मुझ में आत्मविश्वास कूटकूट कर भर दिया.   

गट्टानी उमा, जोरहाट (असम)

*

घटना मेरी आंखों देखी है. रेलगाड़ी एक स्टेशन पर रुकी. वहां से एक सभ्य परिवार अपने सामान के साथ चढ़ा और अपनी रिजर्व सीटों की ओर बढ़ा. वहां पहले से ही एक परिवार सामान के साथ बैठा था. ‘‘हटाइए ये सामान और हमारी सीटें खाली करिए,’’ कहते हुए वे लोग अपनी सीटों पर बैठ गए. थोड़ी देर बाद उस परिवार के एक सदस्य ने बातचीत का सिलसिला शुरू करने के लिए सामने बैठे परिवार वालों से पूछा, ‘‘आप लोग कहां से कहां तक यात्रा कर रहे हैं और कहां के रहने वाले हैं?’’

उन्होंने सब बताया. जहां ये लोग शादी में जा रहे हैं वहीं वे भी जा रहे थे.

‘‘आप हमारे मामाजी को जानते हैं?’’

‘‘हां, हमारे मम्मीपापा अकसर नाम लिया करते हैं लेकिन मिले नहीं.’’

अब क्या था, जब बातों और पहचान का सिलसिला आगे बढ़ा तो पता लगा कि वे एक ही खानदान के बिलकुल करीब हैं, ‘‘अरे, आप हमारी खास बुआजी हैं और आप हमारे खास चाचाजी हैं.’’

‘‘अरे, हम सब तो अपने ही हैं,’’ और सब खिलखिला कर हंस दिए.

सरन बिहारी माथुर, दुर्गापुर (प.बं.) द्य

प्रकृति से रूबरू कराता वाइल्डलाइफ पैकेज

रोमांचप्रेमी घुमंतू उत्तराखंड के जिम कौर्बेट नैशनल पार्क के जानवरों की अनोखी दुनिया से ले कर उत्तर प्रदेश के दुधवा नैशनल पार्क के शेरों की आनबानशान मध्य प्रदेश के टाइगर अभयारण्यों में वनराज की दहाड़ और केरल के जंगलों की प्राकृतिक सुंदरता की विस्तृत जानकारी के साथ उत्तर से दक्षिण तक के रहस्य व रोमांच से भरे जंगलों की यात्रा का आनंद हमारे साथ उठाएं.

जिम कौर्बेट नैशनल पार्क

उत्तराखंड की तलहटी में स्थित जिम कौर्बेट नैशनल पार्क में प्रकृति ने जम कर अपना वैभव बिखेरा है. जिम कौर्बेट नैशनल पार्क को देश का पहला राष्ट्रीय उद्यान होने का गौरव प्राप्त है.

क्या देखें

जिम कौर्बेट नैशनल पार्क की जैव विविधता देखते ही बनती है. यदि आप का दिन अच्छा है तो हो सकता है घनी झाडि़यों के पीछे छिपे रहने वाले बाघ, तेंदुए और भालू भी आप को नजर आ जाएं. यहां और जानवरों की तुलना में भालुओं और हाथियों की संख्या ज्यादा है. हाथी की सवारी करते हुए जंगल के राजा से साक्षात्कार का अनुभव यहां आने वाले पर्यटकों की नसों में रोमांच भर देता है. पार्क में मौजूद हजारों लंगूर और बंदरों की उछलकूद बच्चों का खूब मनोरंजन करती है. यहां एक संग्रहालय भी है जहां जिम कौर्बेट की स्मृतियों को संजो कर रखा गया है. संग्रहालय के अलावा आप पार्क में कालागढ़ बांध देखने भी जा सकते हैं. यह बांध अपनेआप में एक अजूबा है क्योंकि इस का निर्माण सिर्फ मिट्टी से किया गया है. कौर्बेट पार्क के आसपास गर्जिया मंदिर, कौर्बेट फौल्स और झीलों की नगरी नैनीताल केवल 66 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यहां से टैक्सी ले कर आप इन स्थानों पर जा सकते हैं.

कब जाएं

कौर्बेट नैशनल पार्क अथवा टाइगर रिजर्व की सैर 15 नवंबर से 15 जून के बीच कभी भी की जा सकती है. नवंबर से फरवरी के मध्य यहां तापमान 25 से 30 डिगरी, मार्चअप्रैल में 35 से 40 तथा मईजून में 44 डिगरी तक पहुंच जाता है. इन में से आप अपना पसंदीदा मौसम चुन सकते हैं.

कैसे जाएं

यह सभी प्रमुख शहरों से सड़कमार्ग से जुड़ा हुआ है. दिल्ली से राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से गाजियाबाद, हापुड़ हो कर मुरादाबाद पहुंचने के बाद वहां से स्टेट हाइवे 41 को पकड़ कर काशीपुर, रामनगर होते हुए यहां पहुंच सकते हैं. लखनऊ से भी राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से सीतापुर, शाहजहांपुर, बरेली होते हुए मुरादाबाद और वहां से उपरोक्त मार्ग से कौर्बेट नैशनल पार्क पहुंचा जा सकता है. निकटतम रेलवे स्टेशन रामनगर है जो दिल्ली, लखनऊ और मुरादाबाद से जुड़ा हुआ है. वायुमार्ग से यहां पहुंचने के लिए फूलबाग (पंतनगर) निकटतम हवाई अड्डा है जो जिम कौर्बेट नैशनल पार्क से 115 किलोमीटर दूर है.

प्रमुख नगरों से दूरी : दिल्ली 290 किलोमीटर, लखनऊ 503 किलोमीटर, देहरादून 203 किलोमीटर.

इन से जरूर बचें : जंगल में हाथियों को उकसाने का प्रयास न करें. हमेशा वन विभाग के प्रशिक्षित महावत के साथ ही जंगल की यात्रा करें. जंगल में शोर न मचाएं और न ही तेज म्यूजिक का प्रयोग करें. हमेशा इस बात को याद रखें कि यह जू नहीं, जंगल है, इसलिए वन्य प्राणियों की इज्जत करें और उन्हें परेशान न करें.

दुधवा नैशनल पार्क

उत्तर प्रदेश में नेपाल की सीमा से सटा, तराई के दलदली किनारों, घने जंगलों के बीच में 490 वर्ग किलोमीटर में फैला दुधवा नैशनल पार्क अपने प्राकृतिक सौंदर्य और अनोखे वन्य जीवन के लिए दुनियाभर में मशहूर है. प्रकृति के इस अनोखे करिश्मे को देखने के लिए हर वर्ष हजारों पर्यटक यहां पहुंचते हैं. दुधवा पद्मश्री व पद्मभूषण से सम्मानित टाइगर हैवन बिली अर्जन सिंह नामक एक स्वतंत्र वन्यजीवन संरक्षणवादी के लिए भी जाना जाता है. 1959 में सेना की नौकरी छोड़ने के बाद से बिली वन्य पशुओं, विशेषकर तेंदुओं व बाघों की भलाई में जुटे रहे. आज बिली तो नहीं हैं पर उन की पुस्तक ‘टाइगरटाइगर’ आज भी बेहद लोकप्रिय है. पुस्तक में दुधवा के नरभक्षी बाघों का सजीव चित्रण है. यह पार्क पर्यटकों के लिए 15 नवंबर से 15 जून तक खुला रहता है.

क्या देखें

सिर पर सींगों का मुकुट सजाए बारहसिंगा दुधवा की बेशकीमती सौगात है. हिरणों की यह विशेष प्रजाति स्वैंप डियर अथवा सेर्वुस डुवाउसेलि कुवियेर भारत और दक्षिण नेपाल के अतिरिक्त दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती है. नाम के अनुरूप सामान्यतया यह माना जाता है कि इस जाति के हिरणों के बारह सींग होंगे लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है. बारहसिंगा के सिर पर 2 सींग होते हैं और वे ऊपर जा कर अनेक शाखाओं में विभक्त हो जाते हैं. दुधवा के कीचड़ वाले दलदली इलाकों में बारहसिंगा के झुंड नजर आते हैं. दुधवा में बाघ देखना दूसरे अनेक राष्ट्रीय उद्यानों की अपेक्षा अधिक सुगम है. इस की वजह यह है कि यहां बाघों की काफी आबादी निवास करती है. यहां 400 से ज्यादा किस्म की चिडि़यां भी निवास करती हैं. जंगल की सैर के समय कई  अपरिचित चिडि़यों से मुलाकात हो जाती है. कई प्रकार के सांप, विशालकाय अजगर, मछलियां और मगरमच्छ भी यहां काफी संख्या में पाए जाते हैं. बारहसिंगा के अतिरिक्त यहां हिरणों की 6 और प्रजातियां भी पाई जाती हैं. उत्तर प्रदेश की धरती से गैंडों के लुप्त होने के करीब 100 वर्ष बाद दुधवा नैशनल पार्क में देश की पहली गैंडा पुनर्वास परियोजना शुरू की गई. प्रकृति दर्शन के लिए दुधवा के जंगलों में आप ऊंचेऊंचे मचानों से वन्यजीवों का अवलोकन कर सकते हैं, कुछ बेहतरीन दृश्यावलोकन के लिए भादी ताल का मचान, ककहरहा ताल पर स्थित मचान, बांकेताल पर स्थित 2 मचान व किशनपुर वन्यजीव विहार में झादी ताल के किनारे रिंग रोड पर मौजूद 2 मचानों से वन्य सौंदर्य निहार सकते हैं.

इन से बचें : केवल वनविभाग के प्रशिक्षित हाथी, सफारी वाहन और कुशल पथप्रदर्शकों की ही सहायता लें क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम होता है कि कौन सा जानवर किस स्थान पर होगा, लोकल गाइडों और टैक्सी चालकों से बचें.

कैसे पहुंचें

दुधवा नैशनल पार्क के समीपस्थ रेलवे स्टेशन पलिया और मैलानी हैं. यहां आने के लिए दिल्ली, मुरादाबाद, बरेली, शाहजहांपुर तक ट्रेन द्वारा और इस के बाद 107 किलोमीटर सड़क यात्रा करनी पड़ती है, जबकि लखनऊ से भी पलियादुधवा के लिए ट्रेन मार्ग है. लखीमपुर, शाहजहांपुर, सीतापुर, लखनऊ, बरेली, दिल्ली आदि से पलिया के लिए रोडवेज की बसें एवं पलिया से दुधवा के लिए निजी बस सेवा उपलब्ध हैं. लखनऊ, सीतापुर, लखीमपुर, गोला, मैलानी से पलिया हो कर दुधवा पहुंचा जा सकता है.

कान्हा किसली

मध्य प्रदेश अपने 9 नैशनल पार्क और 25 अभयारण्य पर खूब इतराता है. इसलिए इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इस राज्य को टाइगर स्टेट कहा जाता है क्योंकि यहां बाघों की संख्या सब से ज्यादा है. इन में नैशनल पार्कों में सब से ज्यादा चर्चित है बांधवगढ़ नैशनल पार्क क्योंकि 940 वर्ग किलोमीटर में फैला राज्य का यह पहला नैशनल पार्क है. इस नैशनल पार्क को 1974 में टाइगर अभयारण्य क्षेत्र घोषित किया गया.

क्या देखें 

टाइगर प्रेमियों को यह जंगल कभी निराश नहीं करता. दरअसल, कान्हा में बाघ दर्शन ने पर्यटन को काफी बढ़ावा दिया है. कान्हा, किसली और मुक्की में वन विभाग के पालतू हाथी सुबहसवेरे 5 बजे ही घने जंगलों में बाघ की तलाश में निकल पड़ते हैं. वर्षों के अनुभव से महावत बाघ की खोज में माहिर हो गए हैं. कान्हा में एक सनसैट पौइंट भी है जिसे बमनी दादर कहते हैं. यह पौइंट इस जंगल का सब से सुंदर स्थान है. कान्हा में 200 से अधिक पक्षियों की नस्लें निवास करती हैं और हिरणों की सामान्य किस्म के अलावा बारहसिंगा की एक दुर्लभ प्रजाति पंकमृग (सेर्वुस बांडेरी) भी पाई जाती है. बाघ और बारहसिंगा के अतिरिक्त यहां भालू, जंगली कुत्ते, काला हिरण, चीतल, काकड़, नीलगाय, गौर, चौसिंगा, जंगली बिल्ली और सूअर भी पाए जाते हैं. इन वन्य प्राणियों को हाथी की सैर अथवा सफारी जीप के जरिए देखा जा सकता है.

जीप और हाथी की सवारी : पार्क में घूमने के लिए मध्य प्रदेश पर्यटन की जिप्सी या हाथी की सहायता ले सकते हैं. हाथी की सवारी पर्यटक आमतौर पर टाइगर देखने के लिए करते हैं.

कैसे पहुंचें

कान्हा नैशनल पार्क जाने के लिए 2 मुख्य मार्ग हैं. पहला, खटिया से, जो किसली से 3 किलोमीटर की दूरी पर है. और दूसरा, मुक्कीजबलपुर से चिरई डोगरी हो कर. इस रोड से किसली गेट 165 किलोमीटर पड़ता है. कान्हा बालाघाट से 89 किलोमीटर, नागपुर से 159 किलोमीटर दूर स्थित है. वायुमार्ग से निकटतम एअरपोर्ट जबलपुर 160 किलोमीटर पहुंच कर यहां सड़कमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है. निकटतम रेलवे स्टेशन बिलासपुर और जबलपुर हैं.

बांधवगढ़

विंध्य क्षेत्र के 488.85 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ सब से ज्यादा टाइगर की संख्या वाला बांधवगढ़ नैशनल पार्क को सफेद शेरों की जन्मस्थली भी माना गया है. यह पार्क विशाल खड़ी चट्टानों से घिरा है. सब से ऊंची चट्टान पर बांधवगढ़ का किला है. किले के आसपास कई गुफाएं हैं जिन में कई शिलालेख पाए गए हैं. बांधवगढ़ नैशनल पार्क बनने के पहले यह रीवा के महाराजाओं की शिकारगाह थी. 1968 में इसे नैशनल पार्क बनाया गया.

क्या देखें

जंगल के अंदर एक भव्य किला है. यह किला निर्माण और स्थापत्य की दृष्टि से देखने लायक है. यहां आने वाले पर्यटक इस किले और विंध्य की घाटियों की तारीफ किए बिना नहीं रह सकते. यहां कई घाटियां हैं जो आपस में एकदूसरे से जुड़ी हुई हैं. ये सभी घाटियां घास के एक मैदान पर जा कर खत्म होती हैं, जिसे स्थानीय लोग बोहेरा कहते हैं. यहां के जंगल में 22 से अधिक जातियों के जानवर और 250 पक्षियों की जातियां पाई जाती हैं. टाइगर के अलावा बंगाल लोमड़ी, लकड़बग्घा, तेंदुआ, चीतल, सांभर चौसिंगा, नीलगाय और चिंकारा पाए जाते हैं.

बांधवगढ़ का खानपान : मध्य प्रदेश पर्शियन और हिंदुस्तानी दोनों संस्कृतियों को अपने दामन में समेटे हुए है. यह यहां के खानपान में भी दिखता है. अगर आप ने बांधवगढ़ में भुट्टा की कीस, मावाबाटी कबाब और खोपरापाक नहीं खाया तो फिर आप की यात्रा अधूरी ही मानी जाएगी.

कैसे पहुंचें

हवाई, रेल और सड़कमार्ग से बांधवगढ़ पहुंचा जा सकता है. यहां का सब से नजदीकी एअरपोर्ट जबलपुर, 190 किलोमीटर है. खजुराहो 237 किलोमीटर है. रेलसेवा से कटनी रेलवे स्टेशन 102, सतना 120 और उमरिया 35 किलोमीटर पड़ता है. सड़क द्वारा भी आप उमरिया और कटनी से नियमित बस सेवा और टैक्सी द्वारा बांधवगढ़ पहुंच सकते हैं. अक्तूबर से मार्च के बीच बांधवगढ़ घूमना सब से अच्छा माना जाता है.

पन्ना नैशनल पार्क

प्रकृति को करीब से देखने वाले लोगों के लिए पन्ना नैशनल पार्क एकदम सटीक जगह है. यहां आप को देश में विलुप्ति के कगार पर खड़े बाघ शान से चहलकदमी करते दिखाई देंगे. यहां के मंदिर भारतीय शिल्प कला की नायाब धरोहर हैं. इसी के साथ आप पन्ना में जंगली जानवरों की दिनचर्या को करीब से देख कर अपनी यात्रा को संपूर्णता प्रदान कर सकते हैं. यह खजुराहो से 32 किलोमीटर की दूरी पर 543 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है.

क्या देखें

यदि आप रोमांच से भरी यात्रा करना चाहते हैं तो एक बार यहां की नाइट सफारी का लुत्फ अवश्य उठाएं. यहां आप को सफारी पहले से बुक कराना होता है ताकि आप को वहां पहुंचने पर बेवजह विलंब न हो. हाथी की सवारी कर आप यहां टाइगर, नीलगाय, चिंकारा, चौसिंघा, जंगली सूअर और चीता देख सकते हैं. पक्षियों की भी 200 प्रजातियां यहां देखने को मिलती हैं. पार्क से हो कर गुजरने वाली केन नदी पार्क की खूबसूरती में चारचांद लगा देती है. इसे घडि़याल अभयारण्य भी घोषित किया गया है. कई रिजौर्ट तो नदी के किनारों के पास हैं जो नदी के बीच उभरे टापू पर कैंडल लाइट डिनर और फिशिंग की सुविधा देते हैं. पार्क के मुख्य आकर्षणों में एक आकर्षण खूबसूरत पांडव फौल है,  इस के अलावा इस पार्क के पास स्थित चंद्रनगर कसबे में राजगढ़ पैलेस है, जो कि कला व शिल्प का अद्भुत नमूना है.

इन से बचें : चटख रंगों वाले कपड़े पहन कर पार्क में न जाएं, मधुमक्खियां आप के पीछे पड़ सकती हैं. हमेशा जंगल में शांति बनाए रखें, किसी जानवर को परेशान न करें.

कैसे पहुंचें

पन्ना नैशनल पार्क, नैशनल हाईवे 75 पर स्थित है. पन्ना से खजुराहो की दूरी 57 किलोमीटर, सतना की दूरी 105 किलोमीटर भोपाल की दूरी 727 किलोमीटर, दिल्ली की दूरी 889 किलोमीटर, खजुराहो से दिल्ली, मुंबई और वाराणसी के लिए डेली फ्लाइट सुविधा है. पन्ना से 61 किलोमीटर की दूरी पर खजुराहो रेलवे स्टेशन है जहां से सभी प्रमुख स्थानों के लिए ट्रेन सेवा उपलब्ध है.

पेरियार नैशनल पार्क

चप्पेचप्पे पर बिखरी हरियाली, हरेभरे वृक्षों से ढके पर्वत, नदियों और झीलों की इस धरती केरल पर प्रकृति ने खुले हाथों से सुंदरता लुटाई है. पश्चिमी घाट की खूबसूरत पहाडि़यों से घिरा पेरियार नैशनल पार्क 777 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. पार्क के बीचोबीच केरल की सब से लंबी पेरियार नदी पर एक कृत्रिम झील बनाई गई है. 26 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली इस झील के चारों ओर घने जंगल पसरे हुए हैं, जहां वन्य प्राणियों की आवाजें जंगल की खामोशी को भंग करती हैं.

क्या देखें

नील गाय, सांभर, भालू, चीता तथा तेंदुआ आदि जंगली जानवर यहां पाए जाते हैं. पर्यटकों को यहां झील में बोटिंग करना बहुत लुभाता है. उद्यान की सैर के लिए हालांकि यहां प्रशिक्षित हाथियों की समुचित व्यवस्था है लेकिन इस प्रचलित तरीके से घूमने के बजाय मोटरबोट से यहां भ्रमण का एक अलग ही मजा है. झील में नौकायन के दौरान तटवर्ती क्षेत्र में जंगली जानवर खासतौर पर हाथी, गौर और हिरणों के झुंड नजर आ जाते हैं.   

कुमिली और क्रैडोमम :पेरियार से 4 किलोमीटर दूर स्थित कुमिली एक बडे़ पर्यटन स्थल के रूप में उभर रहा है. इस छोटे शहर का मुख्य व्यवसाय मसालों का है. पेरियार व कुमिली से आप केरल की खूबसूरती क्रैडोमम को देख सकते हैं. आप का गाइड आप को जीप या टैक्सी द्वारा क्रैडोमम हिल्स जाने को प्रेरित करेगा, यदि आप समूह में हैं तो एक अच्छी यात्रा पर खर्च भी कम पड़ेगा. इन स्थलों की ओर जाते समय रास्ते में आप को नारियल, रबड़, कौफी और कालीमिर्च के बागान भी देखने को मिलेंगे.

कब जाएं

इस पार्क में जाने का सब से सही समय अक्तूबर से जून के बीच का है. इस समय यहां का मौसम बेहद सुहाना होता है.

कैसे जाएं

रेलमार्ग से पेरियार पहुंचने के लिए पहले कोट्टायम जाना होता है. वहां से पेरियार उद्यान की दूरी 118 किलोमीटर है. सड़कमार्ग से कोट्टायम, अर्नाकुलम व मदुरै से चलने वाली बसें पेरियार राष्ट्रीय उद्यान के सब से नजदीकी शहर कुमिली तक जाती हैं. हवाईमार्ग से आने के लिए यहां के नजदीकी हवाई अड्डे कोच्चि 200 किलोमीटर और मदुरै 145 किलोमीटर हैं.

 

पूंजी बाजार

आम बजट के बाद शेयर बाजार में तेजी

वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा 28 फरवरी को लोकसभा में वर्ष 2015-16 का आम बजट पेश करने के मद्देनजर बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई के सूचकांक में तेजी का जो रुख बना वह लगातार जारी है. बजट में ढांचागत सुविधाओं को बढ़ावा देने के लिए बुनियादी व्यवस्था को लागू किए जाने के प्रस्ताव से बाजार को एक तरह से पंख लग गए हैं. निवेशकों में उत्साह है.

अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने देश की अर्थव्यवस्था के मजबूत रहने की संभावना जताई है. वित्त मंत्री ने 2015-16 के वित्त वर्ष में विकास दर 7.4 फीसदी और अगले वित्त वर्ष में इस के 8.03 फीसदी तक पहुंचने की उम्मीद जताई है. शेयर बाजार में इस अनुमान के कारण अच्छा उछाल आ रहा है. मार्च के पहले सप्ताह में 30 शेयरों वाले नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी का सूचकांक पहली बार 9 हजार अंक के पार पहुंचा है. बीएसई का सूचकांक पहली बार 30 हजार अंक से आगे निकला है हालांकि बाद में गिर गया. आर्थिक विशेषज्ञों को उम्मीद है कि वह जल्द ही 30 हजार अंक के पार पहुंच जाएगा. इस बार बजट शनिवार को पेश किया गया, छुट्टी का दिन होने के बावजूद शेयर बाजार खुला रहा. बजट के दिन सूचकांक 128 अंक की तेजी के साथ बंद हुआ. बाजार के लिए इसे बेहद सकारात्मक संकेत माना जा रहा है.

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अक्षय ऊर्जा की ‘अक्षय’ उम्मीद पर परमाणु बिजली भारी

अक्षय ऊर्जा क्षेत्र को सरकार ने अपनी प्राथमिकता में शामिल कर लिया है. इस दिशा में सरकार के प्रयास को देखते हुए देश को वैश्विक नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालने की बात भी की जाने लगी है. सरकार दावा कर रही है कि इस क्षेत्र में वह जो कदम उठा रही है, दुनिया के किसी देश ने अभी वहां तक नहीं सोचा है. खुद सरकार के वरिष्ठ मंत्री कह रहे हैं कि प्रकृति के इस स्वच्छ ऊर्जा भंडार का पूरा इस्तेमाल करने के लिए प्रौद्योगिकी का भरपूर प्रयोग नहीं हुआ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15-17 फरवरी तक दिल्ली में अक्षय ऊर्जा पर आयोजित पहले वैश्विक निवेशक सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा कि दुनिया के 50 देशों को प्रकृति ने सूर्य की रोशनी का असीम भंडार बख्शा है और हम सब को एक समूह बना कर सौर ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए मिल कर शोध व अनुसंधान करने चाहिए.

ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल उस सम्मेलन की सफलता से अत्यधिक उत्साहित दिखे. उन्होंने कहा कि सरकार गैरपरंपरागत ऊर्जा उत्पादन का अपना लक्ष्य बढ़ा रही है. उस दौरान दुनिया के 27 बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में सरकार को 5 लाख करोड़ रुपए के निवेश करने की प्रतिबद्घता का पत्र भी सौंपा. सरकार का इस से उत्साहित होना स्वाभाविक है. स्वच्छ ऊर्जा को जब इतना महत्त्व दिया जा रहा है तो उसी समय सरकार परमाणु ऊर्जा जैसी घातक परियोजनाओं के लिए दुनिया के समक्ष किसलिए गिड़गिड़ा रही है. उस की इस कवायद को देख कर लगता है कि नवीकरणीय ऊर्जा की संभावना पर उसे भरोसा नहीं है. शायद उसे लगता है कि यह देश की ऊर्जा जरूरत पूरी नहीं कर पाएगा. यदि स्थिति असमंजस की है तो ढोल पीटने की जरूरत नहीं होनी चाहिए.

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निशुल्क इंटरनैट, फायदा ग्राहक का

मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों ने जब इनकमिंग कौल्स पर शुल्क लेना बंद किया था तो मोबाइल सेवा लेने वालों की संख्या में एकाएक तेजी आ गई थी. बाजार में ग्राहक बढ़े तो सेवाप्रदाता कंपनियों की संख्या में इजाफा होने लगा. इस से ग्राहक बढ़ाने की मोबाइल कंपनियों में होड़ शुरू हो गई. इसी बीच, ग्राहक संख्या के आधार पर आगे निकलने के लिए प्रतिस्पर्धा चरम पर पहुंची तो अचानक कुछ कंपनियों ने टैरिफ यानी कौल्स दर घटा दी. उपभोक्ता उसी कंपनी की तरफ भागने लगे तो फिर दूसरी कंपनी ने भी वही रास्ता अपना लिया और इस स्पर्धा के कारण आज हमें मामूली दर पर प्रति कौल प्रति सैकंड की सुविधा मिल रही है. इधर, पोर्टेबिलिटी की सुविधा भी शुरू हो गई है और रोमिंगफ्री जैसी सेवाएं ग्राहक ले रहे हैं. आने वाले वक्त में पूरे देश में पोर्टेबिलिटी के कारण नंबर बदलने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इन सुविधाओं के कारण हर हाथ तक मोबाइल पहुंच गया है. इधर, रिलायंस कम्युनिकेशंस ने फेसबुक के साथ मिल कर ग्राहकों को निशुल्क इंटरनैट की सुविधा देने की घोषणा की है. इस से सेवाप्रदाता कंपनियो में खलबली मच गई है. इन कंपनियों में?भी प्रतिस्पर्धा का भाव बढ़ गया है और कई कंपनियों ने अपनी सेवा की समीक्षा शुरू कर दी है. समीक्षा के बाद कुछ कंपनियां अपनी सेवाओं की दरें घटा सकती हैं अथवा निशुल्क भी कर सकती हैं. इस से इंटरनैट क्षेत्र में क्रांति आने की संभावना है.

प्रतिस्पर्धा में फायदा ग्राहक का ही होता है. इस बहाने उसे अच्छी और सस्ती सेवा मिल जाती है. इस में देखना यह है कि ग्राहक की जेब पर डाका डालने वाली कंपनियां कैसेकैसे जाल बुन कर ग्राहक को लूटने के छिपे रास्ते निकालती हैं.

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कोयला ब्लौक आवंटन में पारदर्शिता का सवाल

देश में बिजली की आपूर्ति निर्बाध बनाए रखने के लिए सरकार कोयला उत्पादन को निर्विघ्न जारी रखने की कोशिश में है. कोयले में राजनेताओं तथा उद्योगपतियों के हाथ लगातार काले हुए हैं और इसे धोने के लिए नीलामी में पारदर्शिता जैसे जुमलों का सहारा ले कर कोयला उत्पादन जारी रखने की कोशिश है. नीलामी प्रक्रिया मार्च तक पूरी की जानी है. उच्चतम न्यायालय ने पिछले वर्ष सितंबर में 218 में से 214 कोयला ब्लौकों के आवंटन में धांधली होने की वजह से उन्हें रद्द कर दिया था और 31 मार्च तक फिर से इन ब्लौकों को आवंटित करने को कहा था. इस के तहत सरकार ने 103 ब्लौकों की आवंटन प्रक्रिया शुरू की. इन की औनलाइन नीलामी की प्रक्रिया जारी है. रद्द किए गए सभी ब्लौक 1993 से 2010 के बीच आवंटित हुए हैं.

नीलामी साफसुथरी हो, इस के लिए मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव को नोडल अधिकारी बनाया गया. औनलाइन आवेदन मंगाए और औनलाइन ही नीलामी हो रही है. सरकार दावा कर रही है कि नीलामी पारदर्शी तरीके से जारी है. लेकिन मुश्किल यह है कि इस काम के लिए संसद में विधेयक पारित करा कर कानून अभी नहीं बना है. अध्यादेश के जरिए इतना बड़ा काम किया जा रहा है. विदित हो कि 10 माह की यह सरकार कोयले पर 2 अध्यादेश ला चुकी है. पहला अध्यादेश जारी करने के बाद विधेयक लाई लेकिन संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा में बहुमत के अभाव में उसे पारित नहीं करा सकी. इसलिए सत्र के समाप्त होने के महज कुछ दिन बाद सरकार ने फिर से अध्यादेश ला कर उस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया. सरकार भले ही उस प्रक्रि या को जारी रखने को अपनी जीत बताए लेकिन संवैधानिक तरीके से अध्यादेश के बल पर इस तरह के काम कराने की परंपरा स्वस्थ नहीं कही जा सकती है.

यह ठीक है कि प्रक्रिया शुरू करने के लिए अध्यादेश एक निश्चित अवधि तक का विकल्प है लेकिन एक पूरा सत्र निकल गया और अध्यादेश को कानून नहीं बनाया जा सका तो यह सरकार की विफलता है. सरकार विपक्ष को भरोसे में ले कर राज्यसभा में विधेयक पारित कराए और इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाए तब ही कह सकते हैं कि वह पारदर्शिता की कसौटी पर चल रही है.

इंडियाज डौटर पर प्रतिबंध : सच पर परदा डालने की कोशिश

निर्भया बलात्कार कांड पर बनी डौक्यूमैंट्री ‘इंडियाज डौटर’ को ले कर हल्ला मचा है. सरकार के इस डौक्यूमैंट्री फिल्म पर प्रतिबंध लगा देने के बाद देश में बहस छिड़ गई. एक पक्ष प्रतिबंध के पक्ष में है तो दूसरा इस का विरोध कर रहा है. विरोध करने वालों की संख्या बहुत कम है. पूरी संसद फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए एकजुट हो गई. सबकुछ ऐसा लगा मानो मूर्खों का झुंड उठा, संस्कृति खतरे में पड़ गई, राष्ट्रीय गौरव संकट में आ गया, बिना देखे, बिना जाने और बिना सोचेसमझे बैन लगा दिया गया. सरकारी अमला इस तरह जुट गया मानो सरकार का चीरहरण हो रहा है. और तो और मीडिया के एक बड़े हिस्से द्वारा भी भारत की गंदगी, गरीबी की तरह इस डौक्यूमैंट्री को उसी तरह का रंग दे कर फिरंगियों को कोसा जा रहा है.

दरअसल, डौक्यूमैंट्री में निर्र्भया बलात्कार मामले के अभियुक्त मुकेश सिंह और उस के 2 वकीलों के इंटरव्यू जब अखबारों में छपे तो हंगामा उठ खड़ा हुआ. डौक्यूमैंट्री को प्रतिबंधित करने की मांग उठी. डौक्यूमैंट्री के निर्मातानिर्देशक लेस्ली उडविन के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई. दिल्ली पुलिस द्वारा आईपीसी के सैक्शन 504 (महिला के सम्मान को ठेस पहुंचाना) और सैक्शन 509 (शांति व्यवस्था भंग करना) के हवाले दिए गए और दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट से बैन का आदेश ले लिया गया. लिहाजा, भारत में इसे नहीं दिखाया जा सका.

सरकार ने बीबीसी के मैनेजिंग डायरैक्टर के नाम एक पत्र लिख कर डौक्यूमैंट्री का प्रसारण रोकने का अनुरोध किया था लेकिन बीबीसी ने सरकार के आदेश को धता बताते हुए भारत के बाहर लंदन में इसे प्रसारित कर दिया. बीबीसी का कहना था कि लोगों की रुचि को देखते हुए इस सशक्त फिल्म को निर्धारित समय से पहले ही प्रसारित किया गया है. डौक्यूमैंट्री हमारे संपादकीय गाइडलाइन के अनुरूप है और इस संवेदनशील मुद्दे को पूरी जिम्मेदारी के साथ पेश करती है. बीबीसी ने यह भी कहा कि यह डौक्यूमैंट्री पीडि़ता के परिवार के लोगों के पूरे सहयोग और समर्थन से बनाई गई है. यह जघन्य अपराध को ठीक से समझने में मदद करती है. दरअसल, डौक्यूमैंट्री में मुकेश सिंह ने कहा है कि इस घटना के लिए निर्र्भया खुद ही जिम्मेदार थी. उसे बलात्कार का विरोध नहीं करना चाहिए था. उसे चुप रहना चाहिए था. विरोध करने पर उसे बुरी तरह मारा गया. उस का कना था कि हमारे यहां लड़के और लड़कियां बराबर नहीं हैं. लड़कों से ज्यादा लड़कियां जिम्मेदार हैं. लड़कियों का मतलब है वे घर का कामकाज संभालें, यह नहीं कि वे जहांतहां घूमें. डिस्को में जाएं और गलत कपड़े पहनें.

बचाव पक्ष के वकील ए के सिंह ने कहा था, ‘‘अगर मेरी बेटी शादी से पहले सैक्स संबंध बनाती है और रात को अपने बौयफ्रैंड के साथ घूमती है तो मैं उसे जिंदा जला दूंगा.’’ एक दूसरे वकील एम एल शर्मा ने कहा, ‘‘हमारी संस्कृति सब से अच्छी है. हमारी संस्कृति में औरत के लिए कोई जगह नहीं है. हमारे समाज में हम लड़कियों को रात को साढे़ आठ बजे के बाद किसी भी हाल में घर से बाहर नहीं जाने देते. लड़कियां भारतीय संस्कृति को त्याग रही हैं. वे फिल्मी संस्कृति से प्रभावित हो रही हैं.’’ लगभग 1 घंटे की डौक्यूमैंट्री में पीडि़ता के परिवार, वकील, बलात्कार कानून पर बनी जस्टिस जे एस वर्मा कमेटी, पूर्व जस्टिस लीला सेठ और गोपाल सुब्रह्मण्यम के इंटरव्यू दिखाए गए हैं. उस पुलिस अधिकारी ने भी अपना पक्ष रखा है जिस ने पहली बार निर्भया और उस के दोस्त को वारदात के ठीक बाद नग्न अवस्था में देखा था.

दिसंबर 2012 में दिल्ली के बहुचर्चित निर्भया बलात्कार मामले पर बीबीसी द्वारा बनाई गई यह डौक्यूमैंट्री 8 मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ पर प्रसारित होनी थी पर डौक्यूमैंट्री को बिना देखे ही सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया. असल में 2 साल पहले लेस्ली उडविन ने सरकार से अपराधी मुकेश का इंटरव्यू लेने की इजाजत मांगी थी और उन्हें इजाजत मिल गई थी. फिल्म बनने में 2 साल का वक्त लगा. डौक्यूमैंट्री फिल्म का लक्ष्य एक लड़की के साथ बर्बर तरीके से बलात्कार व हत्या की घटना के कारणों और संवेदना को उजागर करना था. लेस्ली उडविन ने कहा था कि वह निर्भया मामले के बाद हुए प्रोटैस्ट से प्रभावित हो कर भारत आई थी. 16 दिसंबर, 2012 को हुई इस घटना ने देश को हिला कर रख दिया था. इस बर्बरतापूर्वक हिंसा और मौत की घटना से देशभर में गुस्सा भर गया था. दिल्ली समेत कई शहरों के लोग सड़कों पर झंडे, बैनर, पोस्टर, नारों के साथ उतर आए थे. इस कृत्य के खिलाफ संघर्ष देखने लायक था. लगा था कि किसी बड़े राजनीतिक सामाजिक बदलाव के लिए जमीन तैयार हो चुकी है.

घटना के बाद उठे बवंडर के फलस्वरूप महिला सुरक्षा को ले कर कानून में संशोधन हुए, निर्भया फंड बना. मगर बदली नहीं तो वह थी महिलाओं के प्रति रूढि़वादी सामाजिक सोच. इस घटना के बाद हुए बदलावों के बावजूद देश में बलात्कार की घटनाओं में कमी नहीं आई. समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार ने फिल्म पर बैन क्यों लगा दिया? एक डौक्यूमैंट्री से भारत की बदनामी कैसे हो रही है? देश के गौरव पर चोट कैसे लग सकती है? अपराधी मुकेश सिंह और वकीलों के बयान उस पुरुष मानसिकता को व्यक्त करते हैं जिसे हम आएदिन देखतेसुनते हैं. ये बातें तो तुलसीदास से ले कर शंकराचार्य, साधुसंत और भाजपा व संघ के कई नेता तक अकसर दोहराते आए हैं.

चाणक्य कहता है, ‘पुरुष की कही गई हर बात स्त्री के लिए मान्य है, उसे मानना ही उस का धर्म है’.

तुलसीदास ने कहा है : ‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’.

आदि शंकराचार्य ने कहा था, ‘स्त्री नरक का द्वार है’.

बलात्कारी आसाराम ने कहा था, ‘लड़की को उन लड़कों को पहले भाई कह देना चाहिए था. तब उस के साथ बलात्कार नहीं होता. लेकिन ताली एक हाथ से नहीं बजती. लड़की दोषी होती है.’ स्वामी प्रभुपाद ने कहा था, ‘ऐसा नहीं है कि औरतें जबरन यौन संबंध नहीं चाहतीं. वे अपनी इच्छा से कई बार ऐसा चाहती हैं. दिखावे के लिए अनिच्छा जाहिर करने की उन की मानसिकता होती है.’ भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था, ‘अगर औरत द्वारा नैतिकता की सीमा लांघी जाती है तो बलात्कार जैसी घटनाएं होती हैं.’ एक अन्य नामी व्यक्ति ने कहा था कि ‘अगर बलात्कारी न माने तो औरत को समर्पण कर देना चाहिए और उसे भी एंजौय करना चाहिए.’ यही प्राचीन सोच वाली संस्कृति स्त्री के शोषण, अत्याचार और बलात्कार की जिम्मेदार है. क्या सरकार इसी संस्कृति को बचाए रखना चाहती है. औरत के बारे में हर धर्म में इसी तरह की बातें कही गई हैं.

यह प्रतिबंध उस संस्कृति के पक्ष में है जो स्त्री से बलात्कार को प्रेरित करती है. देश में बलात्कार संस्कृति को बचाए रखने के लिए ही सरकार ने डौक्यूमैंट्री को बैन किया है क्योंकि इस में मुकेश सिंह और उस के वकीलों ने जो कुछ कहा है वही बात भाजपा और संघ के कई नेता तथा धर्म और संस्कृति के ठेकेदार अकसर कहते रहे हैं. प्रतिबंध के पीछे यही मानसिकता काम कर रही है. इस में कांग्रेसी अपवाद नहीं हैं क्योंकि ज्यादातर कांग्रेसियों को कुरेदेंगे तो इस में कट्टरता की वही बू आएगी जो हिंदू संस्कृति के मानने वालों में से आती है. यह फिल्म हमारे समाज की स्त्री विरोधी मानसिकता की भयावह सचाई है जिस पर प्रतिबंध के जरिए परदा डालने की कोशिश की गई है. आज समाज में महिलाओं की जो बदहाली है उस के लिए यही धर्म और संस्कृति की सीख जिम्मेदार है. औरतों को सिर्फ घरेलू कामकाज तक बांध कर रखना, शिक्षा के अधिकार से वंचित रखना, अपने निजी जीवन से जुड़े निर्णय भी न लेने देना, सदैव पुरुषों के अधीन रखना, यहां तक कि उन के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए खुद उन्हीं को दोषी ठहराना, इन सभी बातों की सीखें धर्म की किताबों में भरी पड़ी हैं.

हिंदू, ईसाई, इसलाम में स्त्रियों के उत्पीड़न के लिए बनाए गए रीतिरिवाज, नियमकायदे बाकायदा आज भी बदस्तूर जारी हैं. धर्म का जामा पहना कर स्त्रियों के उपभोग के नियम समाज में मान्य करार कर दिए गए. आखिर सरकार ने डौक्यूमैंट्री पर बैन इसलिए लगाया है क्योंकि सरकार डर रही है. हर धर्म और धर्म के सहारे टिकी सत्ता को उस जनता से डर रहता है कि उस की असलियत किसी भी छोटी से छोटी वजह से उजागर न हो जाए. धर्म और संस्कृति के पैरोकारों की इस प्रखर सरकार को डर है कि इस डौक्यूमैंट्री के बहाने धर्म, संस्कृति की पोल खुल जाएगी. पोल खुलेगी तो सरकारी कामकाज की भी खुलेगी.

सरकार चाहती है कि इस फिल्म को लोग उस नजर से न देख सकें जिस से हिंदू संस्कृति, परंपरा की पोल खुले. डौक्यूमैंट्री पर प्रतिबंध ने अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल खड़े किए हैं. सरकार ऐसे में ऊलजलूल और तानाशाही आदेश थोपने लगती है. ऐसी किसी चीज को बिना देखे बैन करने में केवल किसी खास राजनीतिक सोच की दरकार होती है. ऐसे अलोकतांत्रिक तानाशाही फैसले लागू करने के पीछे कोई सामाजिक, नैतिक या कानूनी जमीन की जरूरत नहीं होती. बस तानाशाही निर्णय थोपना होता है.

जनता का अधिकार

सरकार इस बैन के जरिए देश और समाज को संदेश दे रही है कि एक खास किस्म के विचार ही यहां चलेंगे. देश उन विचारों से चलेगा और जो कोई उन विचारों से अलग होगा, उसे कुचल दिया जाएगा. पर क्या इस लोकतांत्रिक देश की जनता को यह डौक्यूमैंट्री देखने का अधिकार नहीं है? लोकतंत्र मुख्यरूप से स्वतंत्र बातचीत और बहस पर आधारित होता है. बौद्धिक अधिकार के लिए सार्वजनिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार, चर्चा और बहस जरूरी है. सरकार ने बैन के जरिए नए नजरिए की गुंजाइश खत्म कर दी. समाज की सोच पर सरकार ताला जड़े रखना चाहती है. बलात्कार की समस्या विश्वभर में है. कितना ही खुला समाज हो, महिलाओं के प्रति उस का नजरिया अकसर दोयम दरजे का ही नजर आता है. औरतों का उत्पीड़न, यौन शोषण, घरेलू हिंसा और कदमकदम पर अपमान जारी है. दुनियाभर के लोगों की रुचि निर्भया मामले में थी और वे कारण जानना चाहते हैं कि  आखिर स्त्री के साथ बलात्कार के पीछे मानसिकता क्या है. क्या इस विश्वव्यापी गंभीर समस्या पर बहस नहीं होनी चाहिए?

सरकार ने डौक्यूमैंट्री पर प्रतिबंध नहीं लगाया है, उस ने उस तार्किक विचारधारा को उत्पन्न होने से रोकने की कोशिश की है जिस के बिना कोई भी समाज और व्यक्ति सही निर्णय नहीं ले सकता. होना तो यह चाहिए था कि डौक्यूमैंट्री का प्रदर्शन किया जाता. उस पर चर्चा की जाती कि आखिर कहां कमी है समाज में? हमारी सोच में?

कहीं पोल न खुल जाए

धर्म में किस बलात्कारी को सजा मिली? सीता को ही उलटा दोषी माना गया. अग्निपरीक्षा ही नहीं ली गई, गर्भावस्था में घर से निकाल दिया गया और उसे धरती की गोद में समा जाना पड़ा. द्रौपदी का दर्द कौन सा कम था. उसे धर्म बता कर बांट कर उपभोग करने का हुक्म दे दिया गया. अहल्या को शिला बन कर श्राप भुगतना पड़ा. इंद्र को सजा नहीं दी गई. धर्म की किताबों में देवताओं, अवतारों के दुष्कर्मों की गाथाएं भरी पड़ी हैं. औरतों के उपभोग, अत्याचार, शोषण की अनगिनत कथाएं हैं जिन्हें समाज पूरी श्रद्धा, आस्था के साथ सुनता और गौरवान्वित होता आया है.

अगर इन सब बातों की पोल खुलेगी और लोग समझदार हो जाएंगे तो धर्म का धंधा कैसे चलेगा. शंकराचार्य को कौन पूछेगा? देवीदेवताओं को कौन पूजेगा? स्त्री के साथ भेदभाव, शोषण, बलात्कार धर्मजनित बुराइयां हैं. बलात्कार होने पर या शादी से पहले यौन संबंध बना लेने पर लड़की को समाज स्वीकार नहीं करता. इसीलिए लड़की को प्रेम करने की इजाजत नहीं है, मरजी से शादी की इजाजत नहीं है. आज उच्च शिक्षित युवा पीढ़ी भी अक्षत योनि की कामना रखती है. शास्त्रों में कन्या से विवाह की बात का अर्थ ही अक्षत योनि लड़की से है. यानी शादी के लिए कौमार्य एक जरूरी मानक माना गया है.

हमारे यहां सैकड़ों लड़कियों के पत्र व फोन आते हैं जो पूछती हैं कि यदि उन का विवाहपूर्व यौन संबंध बन गया तो पति को पता तो नहीं चलेगा? पर एक भी फोन या पत्र युवक का नहीं आता कि अगर उस का विवाहपूर्व या विवाह बाद किसी पराई स्त्री से संबंध हो तो क्या पत्नी को पता चल जाएगा? भू्रण हत्या, औनर किलिंग, दहेज हत्या बाकायदा शास्त्रसम्मत धर्मकर्म के अपराध हैं. 10 बच्चे पैदा करने का फतवा, बहुविवाह, देवदासियां धर्म की ही भेंट हैं. बच्चों को पैदा होने से रोकना तो खुदा के हुक्म को न मानना करार दिया गया है. सरकार के इस फैसले से विश्वभर में भारत की और बदनामी हुई है. क्या सरकार ने कभी किसी धार्मिक सीख, धार्मिक नेता के बयान को प्रतिबंधित करने की कोशिश की है? हर धर्म सम्मेलन में सैकड़ों दकियानूसी और समाज को विभाजित करने वाली बातें कही जाती हैं. उन से क्या समाज का सिर नीचा नहीं होता?

मुकेश सिंह और उस के वकीलों के बयान शाश्वत सामाजिक यथार्थ हैं. वे बुरे लगे हैं पर एक सच को उजागर करते हैं. फिल्म निर्माता को बधाई देनी चाहिए कि निर्भया के बहाने एक बार फिर देश की सोच को हिला दिया है. इस समूचे हंगामे में वे चेहरे सामने आ गए हैं जो आज भी स्त्री को पैरों की जूती बनाए रखने के हामी हैं. इन में सरकार सब से आगे खड़ी दिखाई दी है. ऐसी सरकारों से सुधार की क्या कोई उम्मीद की जा सकती है? जब तक हम समाज की इस भयावह सचाई को स्वीकार कर उसे बदलने के लिए संघर्ष नहीं करते, तब तक बदलाव मुश्किल है.

इतिहास का पुनर्लेखन क्यों

दिल्ली विश्वविद्यालय का संस्कृत विभाग वैदिक इतिहास के पुनर्लेखन का एक शोध प्रोजैक्ट शुरू कर रहा है जिस का परिणाम उन्होंने शायद पहले ही निकाल लिया है. इसे थोपने का उद्देश्य यह साबित करना है कि भारत में आर्य बाहर से मध्य एशिया से नहीं आए, वे ईसापूर्व 1500 से नहीं, बल्कि 2800 से यहां हैं. कार्यक्रम के अंतर्गत देशभर के अनेक संस्कृत विद्वानों को बुलाया जाएगा कि वे वैदिक साहित्य से भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथ्य निकालें जो वह सिद्ध कर सकें जो इस अभियान को चलाने वाले सिद्ध कराना चाहते हैं. उस अभियान के योजकों, जिन में शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी हैं, की सोच है कि अब तक जो इतिहास लिखा गया है वह विदेशी इतिहासकारों का लिखा है और वह भारतीयों के साथ न्याय नहीं करता.

यह काम हर बार तब शुरू होता है जब भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी तरह सत्ता में आता है. उन्हें यह बेचैनी होने लगती है कि वे कैसे देश में व्याप्त रंग भेद (गोरे उत्तर भारतीय ब्राह्मणों और दक्षिण के काले लोगों) व जाति भेद (हजारों जातियों में बंटा भारतीय समाज) को ऐतिहासिक तौर पर सही ठहराएं. यदि विदेशी इतिहासकारों की बात मानी जाए तो यह सिद्ध करना आसान हो जाता है कि गौरवर्णीय लोग विदेशी आक्रमणकारी थे जिन्होंने लगभग 1500 ईसापूर्व भारत में आ कर अपने पैर जमाए और मोहन जोदड़ो व हड़प्पा जैसी सभ्यताओं को नष्ट कर के अपना राज स्थापित किया. जो हार गए उन्हें हमेशा के लिए जाति के चतुर तरीके से अपना गुलाम बना डाला.

आज लोकतंत्र में यह बात निचली जातियों को बुरी लगती है और वे इस का विरोध करते हैं. तमिलनाडु द्रविड़ों व दलितों को आज भी भारतीय जनता पार्टी अगर कतई नहीं सुहा रही तो यही कारण है. आज भी 3 हजार वर्षों का भेदभाव चला आ रहा है. दिल्ली विश्वविद्यालय जो कर रहा है वह अनूठा नहीं है. हर विजेता सत्ता दल इस तरह इतिहास लिखवाता रहा है पर इतिहास इस तरह का कैक्टस है जो जितना मारो, जिंदा रहता है. आप देश के विश्वविद्यालयों से पुराना इतिहास निकाल कर फेंक दीजिए पर कहीं न कहीं बीज फूलते रहेंगे और जैसे ही सत्ता बदलेगी, फिर वही इतिहास अपने पैर उठा लेगा जो तर्कसंगत है, तथ्यात्मक है और स्वीकार्य है.

यह बात समझ लेनी चाहिए कि न आज और न पहले कभी विदेशी इतिहासकार किसी के कहने पर आर्यों को विदेशी आक्रमणकारी कहते रहे हैं. उन्हें भारत से न कोई खास प्रेम है न विद्वेष. वे तो केवल तथ्यों की जांच करते हैं. वे अपने खुद के पूर्वजों की खाल खींचने में कभी पीछे नहीं रहते. अमेरिका का तो इतिहास ही 300 साल पुराना है. यूरोप में इतिहासकार देश व जगह बदलते रहे हैं और वे कभी एक शासक के अधीन नहीं रहे. भारत के शासक वर्ग को इस इतिहास से राजनीतिक हानि होती हो तो हो पर आम लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे आज में जीना चाहते हैं.

हम आज यूनानियों, हूणों, शकों, अफगानों, मुगलों या अंगरेजों के निशान चाह कर भी नहीं मिटा सकते. फिर क्या फर्क पड़ता है कि हम मान लें कि आर्य विदेशी थे. आज हर भारतीय अपना है. उस का धर्म, उस की जाति, उस की बोली क्या है, यह बात बेमतलब है. हां, अगर इस शोध कार्यक्रम का उद्देश्य संस्कृत के विद्वानों, जो एक जाति विशेष के हैं, को सरकारी पैसा दिलाना है तो बात दूसरी.

चुनावी वादे, सरकार, नौकरशाही

चुनावों में वादे करना आसान है पर उन्हें सुस्त, भारीभरकम, जिद्दी और ताकतवर नौकरशाही से पूरा करवाना लगभग असंभव है. नरेंद्र मोदी का वादा कि वे व्यापार करना आसान कराएंगे, एचडीएफसी बैंक के प्रमुख दीपक पारेख के अनुसार अभी तक यह वादा ही है और जमीनी तौर पर कुछ नहीं हुआ है. नौकरशाही अपने खुद के बनाए जालों को अभी तक समाप्त करने के मूड में नहीं है. वह हर तरह का रोड़ा अटकाती रहती है. भारत में व्यापार करना कभी आसान नहीं रहा. व्यापारियों को यहां हमेशा नीची नजरों से देखा जाता रहा है और शायद इसी कारण वे अपने पापों को धोने की कोशिश दूसरों से ज्यादा करते हैं. आप किसी भी मंदिर में चले जाएं, व्यापारियों के दान दिए पैसे के संगमरमर पर उन के खुदे नाम दिख जाएंगे. व्यापारी हर समय डरे रहते हैं मानो वे कोई सामाजिक या कानूनी अपराध कर रहे हैं. 1947 के बाद कांगे्रस ने उन के डर का भरपूर लाभ उठाया और सामाजिक जंजीरों के साथ नियमों, कोटों, परमिटों, लाइसैंसों व भिन्न करों के जाल में उन्हें फंसा दिया.

नरेंद्र मोदी ने वचन दिया था कि वे इन जंजीरों को खोल देंगे पर अभी तक प्रयास भी नहीं दिखा है. यह काम आसान भी नहीं. पर जनता ने भारतीय जनता पार्टी को कठिन काम करने के लिए ही तो वोट दिए थे. सरकारी तंत्र ने जनता को गुलाम बनाने के लिए बड़ी चतुराई से उन पर नियंत्रण रखने के लिए सुचारु रूप से काम करने के नाम पर सैकड़ों कानून बना रखे हैं जिन के चक्कर से निकलना केवल उन के बस में है जो ऊपर से नीचे तक रिश्वतखोरी को आसानी से हैंडल कर सकते हैं, उन्हें मालूम रहता है कि किस जगह कितना देने पर कितना बनेगा. ऐसे लोगों के लिए व्यवसाय करने में आने वाली कठिनाइयां वरदान हैं क्योंकि छद्म व्यापारिक पूंजीवाद और नियंत्रित शासन से पैसा बरसता है. ये लोग नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल जैसे सैकड़ों को निगल जाएंगे और डकार भी न लेंगे.

नरेंद्र मोदी को बहुमत मिला, ठीक है पर असल ताकत कहां मिली है. वह न जनता की मतपेटियों में है, न नागपुर में, न जंतरमंतर में. वह तो अदालतों की पहुंच से भी दूर सरकारी फाइलों में दबी है. नरेंद्र मोदी चाहें भी तो कुछ नहीं कर सकते. जो सुधार वे आज लाएंगे, कल उस के दुष्परिणाम दिखाए जाने शुरू कर दिए जाएंगे. अंगरेजी मीडिया, जो क्रोनी कैपिटलिस्टों को शह देता है, समाचार देना शुरू कर देगा कि अनियंत्रित व्यापार कितना कहर ढा रहा है. 9 माह में जो सुधार हुआ भी है, वह धराशायी हो जाएगा. दीपक पारेख को हम संतुष्ट कर देना चाहेंगे कि भाया, यहां तो ऐस्सै ही चलेगा, या तो इस रंग में रंग जा वरना अपना रास्ता नाप. हम सब सैकड़ों गांधी, मोदी, केजरीवाल देख चुके हैं.

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