दिल्ली विश्वविद्यालय का संस्कृत विभाग वैदिक इतिहास के पुनर्लेखन का एक शोध प्रोजैक्ट शुरू कर रहा है जिस का परिणाम उन्होंने शायद पहले ही निकाल लिया है. इसे थोपने का उद्देश्य यह साबित करना है कि भारत में आर्य बाहर से मध्य एशिया से नहीं आए, वे ईसापूर्व 1500 से नहीं, बल्कि 2800 से यहां हैं. कार्यक्रम के अंतर्गत देशभर के अनेक संस्कृत विद्वानों को बुलाया जाएगा कि वे वैदिक साहित्य से भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथ्य निकालें जो वह सिद्ध कर सकें जो इस अभियान को चलाने वाले सिद्ध कराना चाहते हैं. उस अभियान के योजकों, जिन में शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी हैं, की सोच है कि अब तक जो इतिहास लिखा गया है वह विदेशी इतिहासकारों का लिखा है और वह भारतीयों के साथ न्याय नहीं करता.
यह काम हर बार तब शुरू होता है जब भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी तरह सत्ता में आता है. उन्हें यह बेचैनी होने लगती है कि वे कैसे देश में व्याप्त रंग भेद (गोरे उत्तर भारतीय ब्राह्मणों और दक्षिण के काले लोगों) व जाति भेद (हजारों जातियों में बंटा भारतीय समाज) को ऐतिहासिक तौर पर सही ठहराएं. यदि विदेशी इतिहासकारों की बात मानी जाए तो यह सिद्ध करना आसान हो जाता है कि गौरवर्णीय लोग विदेशी आक्रमणकारी थे जिन्होंने लगभग 1500 ईसापूर्व भारत में आ कर अपने पैर जमाए और मोहन जोदड़ो व हड़प्पा जैसी सभ्यताओं को नष्ट कर के अपना राज स्थापित किया. जो हार गए उन्हें हमेशा के लिए जाति के चतुर तरीके से अपना गुलाम बना डाला.
आज लोकतंत्र में यह बात निचली जातियों को बुरी लगती है और वे इस का विरोध करते हैं. तमिलनाडु द्रविड़ों व दलितों को आज भी भारतीय जनता पार्टी अगर कतई नहीं सुहा रही तो यही कारण है. आज भी 3 हजार वर्षों का भेदभाव चला आ रहा है. दिल्ली विश्वविद्यालय जो कर रहा है वह अनूठा नहीं है. हर विजेता सत्ता दल इस तरह इतिहास लिखवाता रहा है पर इतिहास इस तरह का कैक्टस है जो जितना मारो, जिंदा रहता है. आप देश के विश्वविद्यालयों से पुराना इतिहास निकाल कर फेंक दीजिए पर कहीं न कहीं बीज फूलते रहेंगे और जैसे ही सत्ता बदलेगी, फिर वही इतिहास अपने पैर उठा लेगा जो तर्कसंगत है, तथ्यात्मक है और स्वीकार्य है.
यह बात समझ लेनी चाहिए कि न आज और न पहले कभी विदेशी इतिहासकार किसी के कहने पर आर्यों को विदेशी आक्रमणकारी कहते रहे हैं. उन्हें भारत से न कोई खास प्रेम है न विद्वेष. वे तो केवल तथ्यों की जांच करते हैं. वे अपने खुद के पूर्वजों की खाल खींचने में कभी पीछे नहीं रहते. अमेरिका का तो इतिहास ही 300 साल पुराना है. यूरोप में इतिहासकार देश व जगह बदलते रहे हैं और वे कभी एक शासक के अधीन नहीं रहे. भारत के शासक वर्ग को इस इतिहास से राजनीतिक हानि होती हो तो हो पर आम लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे आज में जीना चाहते हैं.
हम आज यूनानियों, हूणों, शकों, अफगानों, मुगलों या अंगरेजों के निशान चाह कर भी नहीं मिटा सकते. फिर क्या फर्क पड़ता है कि हम मान लें कि आर्य विदेशी थे. आज हर भारतीय अपना है. उस का धर्म, उस की जाति, उस की बोली क्या है, यह बात बेमतलब है. हां, अगर इस शोध कार्यक्रम का उद्देश्य संस्कृत के विद्वानों, जो एक जाति विशेष के हैं, को सरकारी पैसा दिलाना है तो बात दूसरी.