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सुबूत मांगते हैं

मुझ से, मेरे जिंदा होने का

सुबूत मांगते हैं

सामने खड़ा हूं, मरा नहीं,

इस का सुबूत मांगते हैं

 

मरा होता, तो श्मशान में

जला दिया होता

आग में नहीं जला,

इस का सुबूत मांगते हैं

जमीनजायदाद के कागज

भी दिखा दिए

कागज झूठे नहीं,

इस का सुबूत मांगते हैं

 

गवाह भी एकएक कर

कई खड़े कर दिए

हर गवाह सच्चा है,

इस का सुबूत मांगते हैं

 

कागज पर लिख

‘मैं जिंदा हूं’ सही कर दिए

हैं ये हस्ताक्षर मेरे,

इस का सुबूत मांगते हैं

अंदर बड़े सा’ब से लिखवा लाओ

कहा उस ने

प्रमाणपत्र नहीं, दे दी घूस

इस का सुबूत मांगते हैं

 

कब तक सहता,

साफ कह दिया

हजार लेके मुकरोगे नहीं,

इस का सुबूत मांगते हैं.

            – अलोकार

फैसला

कौशल्या जिसे प्यार से सभी कोशी बुलाते थे. वह पढ़ना चाहती थी लेकिन कन्नू मौसी अकसर उस की मां को उकसाया करती थीं, ‘मनोरमा, कोशी बड़ी हो गई है. उस के हाथ समय रहते पीले कर. आगे परेशानी हो जाएगी. उम्र निकल जाने पर एक तो लड़के नहीं मिलेंगे, मिलेंगे भी तो वे जिन की किन्हीं कारणों से शादी नहीं हो पाती है. फिर समझौता करना पड़ेगा और कोशी को जहां तक मैं जानती हूं वह समझौता करने वालों में से नहीं है.’

‘दीदी, मैं समझती हूं, उस की उम्र हो गई है, सोचती भी हूं कि जल्द से जल्द कोई अच्छा सा लड़का देख कर हाथ पीले कर दूं लेकिन वह जिद पर अड़ी है कि एमएससी करने के बाद पीएचडी करेगी फिर शादी करेगी.’

एक दिन कौशल्या कहने लगी, ‘‘मम्मी, शादी के बाद मैं नौकरी करूंगी. जिंदगी में कुछ बनना चाहती हूं, केवल हाउसवाइफ बन खाना बना कर खिलाने वाली नहीं.’’

मैं ने समझाया, ‘‘देख बेटा, शादी के बाद ससुराल में तू बहू बन कर जाएगी, सास बन कर नहीं. तुझे वही करना है जो वे लोग चाहेंगे.’’

‘‘मां, मैं जब शादी इसी शर्त पर करूंगी तो वे कैसे रोक सकेंगे मुझे?’’ कौशल्या का कहना था.

‘‘खैर, मुझे तुझ से बहस नहीं करनी. मैं तो इतना जानती हूं कि परीक्षा के बाद तेरी शादी हम लोग हर हाल में कर देंगे. पीएचडी वीएचडी जो भी करना है बाद में भी तो कर सकती है?’’ फिर कई दिनों तक बात नहीं हुई. हां, मम्मीपापा की खुसुरफुसुर चलती रहती थी और वह जानती थी, यह उस के बारे में ही होती होगी.

एक दिन कालेज जाते समय पापा ने कोशी को रोका, ‘‘कोशी, तुझ से कुछ बात करनी है. थोड़ा रुक सकती है?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, पापा. बोलिए, क्या कहना चाहते हैं?’’

उसे ठीक से मालूम था कि वे क्या कहने वाले हैं. उस की शादी की चर्चा के अलावा कोई दूसरी बात हो ही नहीं सकती.

‘‘देख बेटा, तेरे लायक एक अच्छा लड़का देखा है. पुणे में एक बड़ी कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर है. एमबीए है. उस के घर वाले तैयार हैं. लड़के ने तुझे देख लिया है और उसे तू पसंद भी है. वेतन अच्छा है, घर भी संपन्न है. तू कहे तो बात चलाऊं?’’

‘‘पापा, मैं ने मम्मी को बता दिया है कि मैं क्या चाहती हूं.’’

‘‘हां बेटा, तेरी मम्मी ने मुझे बता दिया है लेकिन मैं चाहता हूं कि तू हां कर दे. लड़का दिखने में अच्छा है, हाथ से निकल जाएगा. फिर ऐसा लड़का मिले न मिले. सोच कर शाम तक जवाब देना.’’

कालेज में सहेलियों से चर्चा की तो उन का भी यही कहना था कि लड़का अच्छा है तो हां कर दे वरना बाद में न जाने कैसा लड़का मिले. घर आ कर उस ने हां कर दी. आखिर देखनेदिखाने की रस्म पूरी हुई. दहेज में उन की इच्छानुसार 1 लाख रुपए सगाई के अवसर पर नकद. शेष सामानों में मोटरसाइकिल, फ्रिज और बड़ा एलसीडी टीवी शादी के समय दिया जाना तय हुआ.

कोशी दहेज देने के पक्ष में नहीं थी लेकिन जब कोशी ने लड़के को देखा तो उस ने दहेज देने का विरोध इसलिए नहीं किया कि कहीं लड़के वाले इनकार न कर दें. गोराचिट्टा, तीखे नाकनक्श, स्वस्थ, हंसमुख. उसे लगा उस के सपनों का राजकुमार यही तो है. वह उसे इतना भा गया कि वह उस से शादी के बाद नौकरी करने की बात करना भूल ही गई. मनोज के जाने के बाद उसे अपनी शर्त याद आई लेकिन अब देर हो चुकी थी. खैर, ‘मना लूंगी’ सोच स्वयं को उस ने आश्वस्त किया. विवाह की तारीख तय भी हो गई, 15 अप्रैल. अभी तो दिसंबर चल रहा है. फिर भी विवाह की तैयारियां शुरू कर दी गईं.

मनोज एकदो बार घर भी आया, बातचीत में एकदो वाक्यों को छोड़ कर उसे हंसमुख और संस्कारित लगा. मनोज के जाते ही वह सुनहरे सपनों के रंगीन तानेबाने बुनने लग जाती. तभी उसे याद आया कि उस की सब से प्रिय सहेली मीनाक्षी के पिताजी का स्थानांतरण पुणे होने के कारण वह भी तो पुणे में है और वहीं से एमएससी कर रही है.

कोशी ने उसे फोन से खुशखबरी सुनाते हुए आग्रह भी कर डाला कि शादी में तुझे हर हालत में आना है वरना झगड़ा हो जाएगा और जिंदगीभर तुझ से बात नहीं करूंगी. शादी 15 अप्रैल को तय हुई है.

‘‘तू ने कैसे मान लिया कि मैं तेरी शादी में नहीं आऊंगी? आऊंगी और जरूर आऊंगी बाबा. लेकिन तू ने यह तो बताया ही नहीं कि श्रीमानजी हैं कहां के?’’

‘‘तू अभी जिस शहर में रह रही है, वहीं के हैं. उन का नाम और पता मैं मैसेज कर रही हूं.’’

‘‘तू नामपता भेज, मैं जल्द ही तुझे विस्तृत रिपोर्ट दूंगी.’’

बात खत्म होते ही कोशी ने सब से पहले मीनाक्षी को नामपते का मैसेज किया. फिर परीक्षा की तैयारियों में जुट गई लेकिन पढ़ाई में पहले जैसा मन कभी लगा ही नहीं. बीचबीच में मनोज के फोन और उस से होने वाली हलकीफुलकी प्यारभरी बातें. शादी के बाद हनीमून पर जाने के स्थान की चर्चा. उसे अपने भविष्य की दुनिया रंगीन व झिलमिलाती दिखाई देती. वह अकेले में मुसकराती और स्वयं शरमा जाती. कई बार अपनेआप में इतनी खोई रहती कि मांबाबूजी की आवाजें तक कान में आना बंद होने लगीं. मां कहतीं भी, ‘‘कोशी दिनरात क्या सोचती रहती है तू आजकल? कब से आवाज लगा रही हूं.’’

कोशी को लगा मानो चोरी करते जैसे पकड़ी गई हो. वह यह कह कर सफाई देती थी कि मां, पढ़ रही थी. ध्यान पढ़ाई में था, इसलिए सुनाई नहीं दिया.अप्रैल की 5 तारीख आ गई. शादी की तैयारियां और जोरशोर से चल ही रही थीं. कपड़े आभूषण आदि खरीद लिए गए. बरात के ठहरने का स्थान, खाना बनाने के लिए रसोइया, बिजली वाला, बैंडबाजा, दूल्हे के लिए बग्गी आदि सबकुछ अग्रिम दे कर तय कर दिए गए. डाक से भेजे जाने वाले विवाह के निमंत्रणपत्र पोस्ट किए जा चुके थे. स्थानीय निमंत्रणपत्र कुछ बंट चुके थे. कालेज की सहेलियां लगभग रोज ही मिलने आतीं. हंसीठिठोली खूब चलती. सहेलियों की हास्य और व्यंग्यभरी बातें उसे रोमांचित करतीं. उन की सलाह और सुझावों की उस पर बारिश हो रही थी.

आखिर विवाहबेला दरवाजा खटखटाने लगी. 12 अप्रैल हो गई थी. 14 को तो बरात आ जाएगी. 2 दिन ही तो बचे हैं. शादी के सपने बुनना जारी था. इन दिनों वह गाने कुछ ज्यादा ही गुनगुनाने लगी थी. शाम के लगभग 5 बजे थे. गाना गुनगुना रही थी, ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए…’ एकाएक मोबाइल घनघना उठा. देखा, मीनाक्षी का फोन था.

‘‘कोशी, माफ करना एकडेढ़ महीना हो गया तुझ से बात ही नहीं हो पाई. सतीश की बूआ का अचानक देहांत हो गया था, इसलिए वहां जाना पड़ा. 4-5 दिन पहले ही पुणे पहुंचे हैं. तेरा काम भी तो करना था. तेरी होने वाली ससुराल की तलाश की. जानकारी निकाली. अब सोच रही हूं कि तुझे बताऊं कि नहीं. बताती हूं तो तुझे बहुत दुख होगा, नहीं बताती हूं तो तेरे साथ जो कुछ भी होगा उस के लिए मैं ही जिम्मेदार ठहराई जाऊंगी. शादी के 2 दिन ही बचे हैं, सुन कर तुझ पर क्या बीतेगी और तू क्या करेगी, यही सोच कर चिंतित हूं.’’

अप्रत्याशित आशंका से कोशी के रोंगटे खड़े हो गए. सांस रुकती सी लगी.

‘‘बता तो सही, क्या पता लगा है तुझे उन लोगों के बारे में? लगता है तू कुछ बहुत बुरा बताने वाली है, यह सोचसोच कर ही मेरा तो दिमाग सुन्न हुआ जा रहा है. जल्दी बता.’’

‘‘कोशी, समझ ले तेरी जिंदगी बरबाद होने जा रही है. ये बहुत झगड़ालू प्रवृत्ति के लोग हैं. महल्ले में अधिकांश परिवारों से इन की बातचीत ही नहीं है. बड़े भाई की शादी में दहेज कम मिला था, इसलिए 50 हजार रुपए की मांग करते हुए बहू को असहनीय यातनाएं दे रहे थे. तंग आ कर बिना बताए 3-4 महीने पहले वह पति को छोड़ कर बच्चे सहित अपने मायके चली गई. तलाक का केस चल रहा है. तुम्हारी होने वाली सास अनपढ़, लालची और झगड़ालू प्रकृति की महिला है. मनोज और बड़े भाई पवन के बीच आपस में बातचीत नहीं है. मनोज केवल दिखने में ही सुंदर है लेकिन अवगुणों और बुराइयों की टकसाल है. शायद ही कोई व्यसन ऐसा हो जो उस में न हो. शराब रोज पीता है.

‘‘उस के दोस्त नामीगिरामी बदमाश टाइप के हैं जो पीने के बाद महल्ले में ऊधम मचाते रहते हैं. कुछ दिन तेरे होने वाले महाशय जेल में रह चुके हैं. सालभर पहले इन्हीं आदतों के कारण उसे नौकरी से भी निकाल दिया गया. हां, एक बात और, वह एमबीए नहीं बीकौम है. यहां वह मार्केटिंग मैनेजर नहीं सेल्समैन था. अब हर जगह से दुत्कारा जा रहा है. हालफिलहाल बेरोजगार है.’’ये सब सुन कर कोशी पर तो जैसे आकाश ही टूट पड़ा. उस के कानों में आग सी लग गई, पूरे शरीर में सनसनी सी दौड़ गई.

मीनू हैलोहैलो करती रही लेकिन वह तो जैसे बहरी और गूंगी हो चुकी थी. उस की सारी इंद्रियां ही जैसे सो गई थीं. मस्तिष्क में उस के मानो बर्फ जम गई थी. पलभर में उसे लगा जैसे आसमान में उड़तेउड़ते उस के पंख किसी ने काट दिए हैं और वह बहुत तेजी से जमीन पर गिर कर खंडखंड हो कर बिखरने वाली है. उसे अपना अस्तित्व ही समाप्त होता सा लगा. मोबाइल बंद भी नहीं कर पाई और अचेत हो गई. होश आया तो मम्मीपापा सिरहाने खड़े थे. डाक्टर बुला लिया गया था. कुछ देर बाद वह ठीक हो गई. आंखें बंद कर अपने अंधकारमय भविष्य के बारे में सोचसोच कर वह कंपकंपा रही थी. स्वयं को वह असहाय सा महसूस करने लगी. मेरा क्या होगा? अब हो भी क्या सकता है? सारी तैयारियां तो हो चुकी हैं. शादी के निमंत्रणपत्र भी बंट चुके हैं. मांबाबूजी खुशी के झूले में झूल रहे हैं. सहेलियां विवाह समारोह के अवसर पर नियमित रूप से रोज ढोलक पर गाने, बजाने और फिल्मी गानों पर नाचनेगाने आ रही हैं.

मां ने चिंतित हो पूछा, ‘‘बेटा, क्या हो गया था तुझे?’’

‘‘कुछ नहीं, मम्मी, थोड़ा चक्कर आ गया था.’’

‘‘पहले तो ऐसा कभी हुआ नहीं, आज ऐसा क्यों हुआ, बेटा?’’ पिताजी ने भी चिंतित होते हुए पूछा.

‘‘बाबूजी, अब ठीक हूं.’’

लेकिन अंदर ही अंदर बरबाद होती जिंदगी सांयसांय कर रही थी. क्या करूं? किस से पूछूं. कैसे बचाऊं खुद को इस संकट से? कौन रास्ता दिखाएगा? शादी के निमंत्रणपत्र भी बंट चुके हैं. इनकार करती हूं तो मांबाबूजी पर क्या बीतेगी? समाज, रिश्तेदार, परिचित, महल्ले वाले, सहेलियां, कालेज के सहपाठी, कालेज के टीचर क्या सोचेंगे? कुछ भी तो तय नहीं कर पा रही थी वह. सोचतेसोचते रात गुजर गई. कल तो बरात आ जाएगी. कोशी यह सब सोच ही रही थी कि सुबहसुबह मीनाक्षी का फोन आ गया.

‘‘कोशी, क्या सोचा तू ने? कुछ किया कि नहीं? जानबूझ कर कुएं में धकेल रही है अपनेआप को. मैं कल पूरी रात सो नहीं पाई.’’

‘‘मीनू, मैं ही कहां सो पाई. तय ही नहीं कर पा रही हूं क्या करूं? इनकार अब कर नहीं सकती. यहां से भाग नहीं सकती. आत्महत्या करना नहीं चाहती. विवाह करने के बारे में सोच भी नहीं सकती. मीनू, मैं ऐसे चौराहे पर खड़ी हूं जिस के सारे रास्ते मेरी बरबादी के हालात बयां कर रहे हैं. तू ही बता, मैं क्या करूं?’’ बोलतेबोलते उस की आंखें भर आईं. शब्द उस के मुंह में लड़खड़ाने लगे.

‘‘देख कोशी, जो भी करना है तुझे ही करना है और जल्दी करना है. समय बहुत कम बचा है.’’ फोन रखने के बाद वह फिर से अंधेरे में छटपटाने लगी. अपने कमरे में जा लेटी और विभिन्न पहलुओं पर विचार करने लगी. कई विचार आए. लेकिन अंतिम निर्णय कर ही नहीं पाई. लेकिन यह जरूर तय कर लिया कि किसी भी हाल में खुद को बचाना है मुझे.

दूसरे दिन बरात आ गई. बैंडबाजों के बीच बराती नाचकूद रहे थे. महल्ले के मकानों की खिड़कियों से कई चेहरे बरात को देखते हुए हंस रहे थे. उन्हें कोशी के दूल्हे को देखने की उत्सुकता जो थी. बच्चे मस्ती करते हुए शोरगुल मचा रहे थे. मेहमानों के चेहरे खिलेखिले थे. लेकिन खुद कोशी के चेहरे पर खुशी और चमक गायब थी. मुख्यद्वार पर दूल्हे और बरात का स्वागत किया जा रहा था. दूल्हे को मंडप में लाया गया. पंडितजी ने आवाज लगाई, ‘‘दुलहन को लाइए.’’

वरमाला पहनाने की तैयारी पहले ही हो चुकी थी. उस के बाद सात फेरे होने थे. कोशी को अपने दिल की धड़कनें साफसाफ सुनाई दे रही थीं. कैसे अंजाम देगी अपने निर्णय को? कैसे बचा पाएगी खुद को?  पंडाल खुशी के वातावरण से लबरेज था. महिलाओं की ओर से हंसीठहाकों की आवाजें कुछ अधिक ही आ रही थीं. दूल्हेदुलहन को आमनेसामने खड़ा कर दिया गया. हाथों में वरमाला दे दी गई. कोशी को पहले वरमाला पहनानी थी. उस ने देखा, दूल्हे के बदमिजाज, दुबलेपतले मरियल से दोस्तों ने दूल्हे को पहले ही कंधों पर उठा लिया ताकि कोशी सरलता से हार न पहना सके. इस के साथ ही उन्होंने अपनी तुच्छ मानसिकता का परिचय देते हुए घटिया नारे लगाने शुरू कर दिए थे.

‘‘मनोज, संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं.’’

वह सोचने लगी, बेवकूफो, संघर्ष तो मुझे करना है, खुद को बचाने का. उस ने वरमाला पहनाने का कोई उपक्रम नहीं किया. आखिर कब तक उठा कर रखते. उस भारीभरकम शरीर को. थक गए. उतारना पड़ा. मंत्रोच्चार के बीच पंडितजी ने वरमाला पहनाने को कहा. वह गुमसुम खड़ी रही.

मां ने कान में कहा, ‘‘बेटा, दूल्हे को वरमाला पहना.’’

वह तब भी खड़ी रही. बरातियों और उपस्थित लोगों की उत्सुकता चरम पर थी. वरमाला पहनाते ही बैंड बजने के लिए तैयार था. आखिर कोशी वरमाला क्यों नहीं पहना रही है? इस बार बाबूजी बोले, ‘‘कोशी, हार पहनाओ, बेटा. मुहूर्त बीता जा रहा है.’’

उस ने एक क्षण के लिए मनोज की ओर देखा. आंखें मिलीं. उसे मनोज की आंखों में लाल डोरे तैरते दिखाई दिए. चेहरे पर वहशीपन. मुसकान कुटिल, जहरीली और व्यंग्यात्मक. उस के रोमरोम से गुस्सा उफनने लगा. उस की सूखी आंखों में जैसे आग भर आई थी. दूल्हे को लगा, शायद कोशी नाराज हो गई है, इसलिए उस ने अधखुली नशीली आंखों से, बेहद बेशर्मी से मुसकराते और घूरते हुए अपनी गरदन हार पहनाने के लिए एक हाथ सीने पर रखते हुए आगे झुका दी. फिर आंखें मिलीं. उस पल कोशी को वह इंसान बेहद शातिर और वीभत्स लगा.

कोशी को उस के वे वाक्य याद हो आए जो उस ने सगाई के अवसर पर अकेले में अत्यंत निम्न स्तर के शब्दों का प्रयोग करते हुए कहे थे :

‘अरे भाई, हमारी कोई सालीवाली है कि नहीं? हंसीमजाक और मन बहलाने के लिए बहुत जरूरी होती है साली. वैसे भी कहते हैं साली आधी घरवाली होती है.’ उस समय तो उस ने हंस कर टाल दिया था लेकिन आज याद कर उस का क्रोध उफनने लगा. वह अंदर तक झनझना उठी. उस के भीतर ही भीतर अस्फुट सा आर्तनाद गूंज उठा. एक पल के शतांश में उस ने साहस जुटाया और अनायास एक ऐसे अप्रत्याशित काम को अंजाम दे डाला जिस की उम्मीद किसी को भी न थी. उसे खुद को भी नहीं. एक ही झटके में वरमाला तोड़मरोड़ कर दूल्हे के मुंह पर मारते हुए वह जोर से चीखी, ‘‘मुझे नहीं करनी शादी तुझ से.’’

सभी अवाक्. हंसते चेहरे बुझ से गए. हौल में सन्नाटा पसर गया. बौखलाहटों का तूफान सब पर टूट पड़ा.

‘‘कोशी क्या कह रही है तू? दिमाग तो ठीक है तेरा? पागल तो नहीं हो गई है तू?’’ मां चिल्लाईं.

‘‘मां, न तो मेरा दिमाग खराब है और न मैं पागल हूं. इन लोगों के बारे में कैसी खोजबीन की आप लोगों ने? इस का पूरा परिवार झूठा, मक्कार, झगड़ालू, लालची और असंस्कारित है. ये महाशय बहुत बड़े नशेबाज हैं. शराब रोज पीते हैं. अभी भी ये पी कर आए हैं. ये जेल भी जा चुके हैं. ये एमबीए नहीं, केवल बीकौम हैं और पुणे में मार्केटिंग मैनेजर नहीं सेल्समैन थे. हालफिलहाल बेरोजगार हैं. इन लोगों ने सबकुछ झूठ बताया आप लोगों को और आप ने विश्वास भी कर लिया,’’ फिर मनोज की ओर मुड़ कर उस से पूछा, ‘‘बोल, क्या मैं झूठ कह रही हूं?’’

मनोज सिर झुकाए खड़ा रहा. मुंह में मानो बर्फ जम गई थी उस के. एक शब्द भी उस के मुंह से नहीं निकला.

कोशी मम्मी की ओर मुड़ कर बोली, ‘‘मम्मी, इस आदमी से शादी करने के बजाय मैं मर जाना ठीक समझूंगी,’’ फिर मनोज की ओर मुड़ी और दीर्घश्वास ले कर आग बरसाती आंखों से उसे संबोधित कर चीखी, ‘‘निकल यहां से. नहीं करनी तुझ से शादी. दहेज में मुंह फाड़फाड़ कर जो मांगा और जो लिया, 7 दिनों में लौटा देना,’’ कह कर दौड़ते हुए अपने कमरे में बिस्तर पर जा गिरी. बाहर तूतू मैंमैं शुरू हो चुकी थी.

बरातियों में से कोई बाबूजी को कह रहा था, ‘‘ये आप ने ठीक नहीं किया, प्रमोदजी. बहुत बेइज्जती की है आप ने हमारी.’’

प्रत्युत्तर में प्रमोदजी बोले, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं नरेशजी, लड़की बालिग है, पढ़ीलिखी है. वह जब शादी नहीं करना चाहती तो मारपीट कर जबरन तो मंडप में नहीं बैठाया जा सकता न? वैसे मुझे भी लड़की की बातें सही लग रही हैं. बताइए, जो भी उस ने कहा, क्या वह गलत है? आप लोगों ने कितना बड़ा झूठ बोला हम से और हम ने आप पर विश्वास भी कर लिया. बेइज्जती हम ने नहीं, आप लोगों ने की है हमारी. वह तो मेरी बेटी बहादुर है जो उस ने इनकार करते हुए खुद को बचा लिया. आप के लिए यही ठीक होगा कि आप लोग चुपचाप लौट जाएं. यह शादी नहीं हो सकती.’’

सुन कर सब के सिर झुक गए. बरातियों में से कोई एक शब्द तक नहीं बोल पाया. मानो गूंगे हो गए थे वे लोग. बोलने के लिए उन लोगों के पास कुछ था भी नहीं. किस मुंह से बोलते और क्या बोलते. आमंत्रित लोगों के बीच खुसुरफुसुर की आवाजें बढ़ने लगीं. पिताजी और मां सब से हाथ जोड़ कर असुविधा के लिए क्षमा मांगते हुए लौट जाने का अनुरोध कर रहे थे. कोशी कमरे में सुबक रही थी लेकिन खुश थी कि उस ने अपने साहसिक फैसले के बलबूते खुद को बरबाद होने से बचा लिया था.

सामान्य होते ही आंसू पोंछे और तुरंत मीनाक्षी को फोन लगाया, ‘‘हैलो, मीनू, मैं बोल रही हूं, कोशी. आभारी हूं तेरी. मीनू, कुएं की मुंडेर पर खड़ी हो भी गई थी मैं लेकिन कुएं में गिरने से पहले बचा लिया अपनेआप को,’’ कुछ रुक कर पूछा, ‘‘तुझे खुशी हुई न?’’

‘‘बहुत. लेकिन कोशी, इतनी जल्दी कैसे किया यह सब तू ने?’’

‘‘फुरसत में बताऊंगी सबकुछ.’’

बाहर दालान में वातावरण बोझिल था जबकि भीतर कमरे में कोशी की आंखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ने के पहले की खामोशी थी लेकिन उस के भीतर का रेशारेशा खुशी से झूम रहा था.

किताबों के बाजार में विवादों पर टिके अंगरेजी बैस्टसैलर्स

पूर्व कांगे्रसी और गांधी परिवार के करीबी नेता नटवर सिंह की आत्मकथा की शक्ल में आई किताब ‘वन लाइफ इज नौट एनफ’ औपचारिक तौर पर रिलीज भी नहीं हुई थी फिर भी किताब की 50 हजार प्रतियां बुक हो चुकी थीं. ऐसा भी नहीं था कि नटवर सिंह बहुत बड़े साहित्यकार या बैस्टसैलर हों. बावजूद इस के उन की इस किताब की डिमांड समकालीन लेखकों को काफी पीछे छोड़ गई. कुछ इसी अंदाज में पिछले दिनों क्रिकेटर और भारतरत्न सचिन तेंदुलकर की आत्मकथा के साथ हुआ. ‘प्लेइंग इट माइ वे’ नाम की उन की किताब औपचारिक तौर पर बाजार में आने से पहले अपने कुछ अंशों, जिन्हें प्रकाशक कंपनी ने लीक किया था, के चलते न सिर्फ चर्चा में आई बल्कि रातोंरात उस की प्रीबुकिंग भी बढ़ी.

ऐसा ही कुछ पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह की किताब ‘जिन्ना : इंडिया पार्टिशन इंडिपैंडेंस’ के साथ हुआ. उन्हें इस किताब के लिए भले ही अपनी ही पार्टी की आलोचना झेलनी पड़ी हो, लेकिन किताब के कुछ अंशों को विवादित बना कर इस की 3 सप्ताह में ही करीब 49 हजार प्रतियां बिक गई थीं, जिन में 13 हजार प्रतियां अकेले पाकिस्तान में बिकी थीं. इसी तरह कुलदीप नैयर की विवादित किताब ‘बियौंड द लाइन्स’ की भी 1 माह से कम समय में 20 हजार से अधिक प्रतियां बिकी थीं. दरअसल, इन तमाम किताबों की जोरदार बिक्री व चर्चा के पीछे जिस रसायन ने उत्प्रेरक का काम किया वह था कंट्रोवर्सी पैदा करना. इन किताबों की तरह, यह फार्मूला इस से पहले कई प्रकाशक कंपनियां अपना चुकी हैं और हर बार उन का तीर निशाने पर लगा है. सचिन ने जहां अपनी किताब में तत्कालीन भारतीय क्रिकेट टीम के कोच गे्रग चैपल के सौरभ गांगुली जैसे सीनियर प्लेयर के अपमान, राहुल द्रविड़ की कप्तानी पर नजर, मंकी गेट विवाद और टीम को तोड़ने जैसे खुलासे किए तो वहीं नटवर सिंह ने सोनिया गांधी के पीएम न बनने के फैसले पर खुलासा कर हंगामा मचा दिया.

यही हंगामा हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब ‘द ऐक्सीडैंटल प्राइम मिनिस्टर’ पर मचा, जब संजय बारू ने किताब में मनमोहन सिंह को कमजोर पीएम और सोनिया गांधी को ताकतवर बताया. स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की एक किताब ‘द रैड साड़ी’ (एल सारी रोजो) भी ऐसी ही किताब थी. सोनिया गांधी की जिंदगी पर आधारित इस किताब में दावा किया गया था कि राजीव गांधी की मौत ने सोनिया को झकझोर कर रख दिया और उस के बाद ही वे सबकुछ समेट कर वापस अपने मुल्क जाने की सोचने लगीं.

भारत में आने से पहले ही विवादों में घिर गई किताबों में स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की किताब ‘द रैड साड़ी’, रिकी पोंटिंग की आत्मकथा ‘पोंटिंग ऐट द क्लोज औफ प्ले’, मैथ्यू हेडन की ‘स्टैंडिंग माया ग्राउंड’, डोनिगर की पुस्तक ‘द हिंदूज : ऐन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’, तसलीमा नसरीन की आत्मकथा ‘निर्वासन का बुधवार’ और भारतीय मूल के कनाडाई लेखक रोहिन्टन मिस्त्री की किताब ‘सच ए लौंग जर्नी’ के नाम लिए जा सकते हैं. इन सभी किताबों ने बाजार में आने से पहले विवादों की पब्लिसिटी चखी और खासी बिक्री की.

मार्केटिंग और प्लानिंग का खेल

जैसे टीवी को टीआरपी और फिल्मों को बौक्स औफिस के पैमाने पर तौला जाता है वैसे ही किताबों की दुनिया में बैस्टसैलर नाम के टर्म ने मार्केटिंग रूपी सांड को खुला छोड़ दिया है. किताब अच्छी हो या बुरी, उसे बेचने के लिए हर तरह की रणनीति बनाई जाती है. मसलन, संबंधित धर्म की आड़ ले कर. सारा ध्येय सिर्फ किताब की बिक्री को बढ़ाने को ले कर होता है. यहां नैतिकता की कोई जगह नहीं होती. यही वजह है आज लेखक किताब लिखने से पहले प्रकाशक फर्म से ले कर पब्लिक रिलेशन के दफ्तरों के चक्कर लगाता है, फिर उन के बनाए मार्केटिंग प्लान्स के आधार पर लिखता है. कई बार तो ये फर्में लिखीलिखाई किताब में अपने हिसाब से काटछांट तक कर देती हैं.

अगर किसी बड़ी शख्सीयत ने अपनी जिंदगी की किताब लिखी है तो उस के विवादित अंशों को सब से पहले जारी किया जाता है. इस से नए पाठक तो मिलते ही हैं, विवाद को सुर्खियां बना कर किताब की बिक्री को भी बढ़ा लिया जाता है. प्रकाशक को फायदा होता है वह अलग. पहले जब नई किताब बाजार में आनी होती थी तो रिलीज के वक्त तक गुप्त रखी जाती थी. तब लेखक की प्रतिभा और बाजार में उस की साहित्यिक छवि के मुताबिक अमुक किताब बिकती थी. प्रचार के नाम पर पाठकों के बीच साहित्य के गलियारों में पोस्टरबाजी हो जाती थी. अब किताबों के बाजार में मार्केटिंग का खेल शुरू हो गया है जिस की किताब पर जितना हंगामा, वही बैस्टसैलर्स बन जाता है.

क्रिकेटरों की कंट्रोवर्सी

सचिन तेंदुलकर की किताब को ले कर कई लोगों का मत है कि उन्होंने रिटायरमैंट के बाद इसे बेचने के लिए वे खुलासे किए जो उन्हें पहले करने चाहिए थे. उन की इस कवायद को पब्लिसिटी स्टंट मानते हुए आस्ट्रेलिया में फौक्स स्पोर्ट्स पर छपे लेख में रौबर्ट क्रेडौक ने सचिन को खुदगर्ज और ‘पौलिटिकल एनिमल’ कह डाला. हालांकि इस तरह की आलोचना किताब की डिमांड बढ़ा ही रही है. इस से पहले भी कई क्रिकेटरों ने किताबें लिखीं और कंट्रोवर्सी का तड़का लगाया. जहां इंगलैंड क्रिकेटर केविन पीटरसन की आत्मकथा में पूर्व कोच और खिलाडि़यों पर बदसलूकी का आरोप लगा वहीं आस्टे्रलिया के पूर्व कप्तान रिकी पोंटिंग ने अपनी आत्मकथा में मंकी गेट विवाद पर बीसीसीआई और भारतीय टीम की आलोचना की. शोएब अख्तर ने अपनी आत्मकथा में पाक क्रिकेट की पोल खोली तो हर्शल गिब्स ने अपनी किताब ‘टू द पौइंट’ में सीनियरों पर गुटबाजी के आरोप से ले कर टीम होटल में लड़कियों के बेरोकटोक आने की कहानी लिखी. मैथ्यू हेडन ने आत्मकथा के जरिए बताया कि कैसे स्लेजिंग आस्ट्रेलिया क्रिकेट का एक बड़ा हिस्सा रहा है. आस्ट्रेलियाई क्रिकेटर एडम गिलक्रिस्ट ने ‘ट्रू कलर्स’ में लिखा कि सचिन तेंदुलकर में खेलभावना की कमी है. जौन राइट ने ‘इंडियन समर्स’ नाम की किताब में इंडियन टीम के ड्रैसिंगरूम की कई बातें जगजाहिर कर दीं.

धार्मिक विवाद बेचती किताबें

सिर्फ खेल के मैदान के खिलाड़ी ही किताबों को विवादों में लपेट कर नहीं बेच रहे हैं बल्कि राजनेता भी अपने आखिरी दिनों में अपने अनुभव का इस्तेमाल कर सियासी राज खोल कर बैस्टसैलर बन जाते हैं. संजय बारू ने ‘द ऐक्सीडैंटल प्राइम

मिनिस्टर’ उस वक्त लिखी जब वे मनमोहन सिंह के बेहद करीब थे. जाहिर है, उन्होंने काफी कुछ देखा होगा. स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की किताब ‘द रैड साड़ी’ के लेखक को कांगे्रस की तरफ से कानूनी नोटिस भेजा गया है. विवादों ने इसे भी बाजार में गरम कर दिया. लिहाजा, किताब का इतालवी, फ्रैंच और डच भाषा में अनुवाद भी हुआ. यह किताब अंतर्राष्ट्रीय बैस्टसैलर का मुकाम हासिल कर रही है.

इसी तरह पेंगुइन द्वारा प्रकाशित डोनिगर की पुस्तक ‘द हिंदूज : ऐन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ भी ऐसे ही विवादों के चलते सुर्खियों में रही. बीच में ज्यादा विरोध होता देख इस का कवरपेज बदल दिया गया. गौरतलब है कि शिक्षा बचाओ आंदोलन संगठन ने इस किताब पर हिंदू भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया था. बाद में दोनों ने अदालत के बाहर समझौता कर लिया था. मामला मुनाफे को ले कर था, लिहाजा सब शांत हो गए.

विवादास्पद लेखिका तसलीमा नसरीन तो धर्म और पोंगापंथियों की पोल खोल कर सब से विवादित लेखिका बन गईं. उन की लिखी ‘लज्जा’ दुनियाभर में मशहूर हुई और उस ने उन का कद बढ़ाया. पिछले दिनों उन की आत्मकथा ‘निर्वासन का बुधवार’ भी इसी तरह विवादों से घिरी और नतीजा देखिए कि विवादों के बीच विमोचन होने के बाद इस की बिक्री आसमान छू रही है. भारतीय मूल के कनाडाई लेखक रोहिन्टन मिस्त्री की किताब ‘सच ए लौंग जर्नी’ भी ऐसी ही किताब रही. इस मसले पर नटवर सिंह कह चुके हैं कि आलोचनाओं से उन की किताब को काफी फायदा मिला.

प्रचार और विदेशी रुझान

सूचना और प्रौद्योगिकी के आगमन से देश में सिर्फ स्मार्टफोन, कंप्यूटर और डिजिटल मीडिया ही पैदा नहीं हुआ बल्कि इस ने जंग लग चुके किताबों के बाजार को भी औनलाइन प्लेटफौर्म में ला कर उसे जिंदा कर दिया है. आज कोई भी किताब लेने के लिए बुक स्टाल जाना नहीं पड़ता बल्कि औनलाइन बाजार में कोई भी किताब और्डर कीजिए और घर बैठे पढि़ए. इस का एक फायदा यह भी है कि पहले यदि किसी किताब पर बैन के चलते उसे पढ़ना मुश्किल होता था तो अब बैन होने पर भी पाठक औनलाइन उन्हें पढ़ सकते हैं.

मैडबुक्स डौट कौम, सैकंडहैंड बुक्स इंडिया डौट कौम, इन्फीबीम डौट कौम, बुक अड्डा डौट कौम और फ्लिप्कार्ट, अमेजन जैसी न जाने कितनी वैबसाइटें सस्ते दामों पर देशविदेश की किताबें मुहैया कराती हैं. देश के बड़े पब्लिशर्स, किताब के बाजार में आने से पहले औनलाइन बुकिंग और बिक्री शुरू कर देते हैं. एक अनुमान के मुताबिक, भारत में किताबों का कारोबार करीब 2 अरब डौलर का है जो करीब 20 फीसदी की दर से बढ़ रहा है. इस पूरे उद्योग में 10 फीसदी से ज्यादा हिस्सा पुरानी किताबों का होता है. एक आंकड़े के मुताबिक, अमेरिका में वर्ष 2008 में 24.3 अरब डौलर और ब्रिटेन में 3 अरब पाउंड मूल्य की किताबों की बिक्री हुई लेकिन वर्ष 2007 की तुलना में यह क्रमश: 6 और 2.5 फीसदी कम थी, जबकि बीते सालों में भारत के पुस्तक बाजार में उत्साहजनक वृद्धि हुई है.

इंगलिशविंगलिश की डिमांड

भारत की राष्ट्रभाषा भले ही हिंदी हो लेकिन यहां के लिटरेचर बाजार में अंगरेजी की किताबों और लेखकों का ही बोलबाला है, फिर चाहे वे भारतीय लेखक हों या विदेशी. अंगरेजी भाषा की किताब ही बिक्री में अव्वल रहती हैं. चेतन भगत, सलमान रुश्दी, तसलीमा नसरीन, शोभा डे, किरण मेहता जैसे नाम अंगरेजी नौवेल्स के दम पर खास मुकाम पा चुके हैं. इस के पीछे के कारणों की बात करें तो पहली वजह, भारतीयों का अंगरेजी के प्रति बढ़ता रुझान है और दूसरी, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का व्यावसायिक कारणों से भारतीय बाजार में पुस्तकों के प्रकाशन और विक्रय में रुचि लेना है.

यूके ट्रेड ऐंड इन्वैस्टमैंट के शोधकर्ताओं द्वारा लंदन बुक फेयर में किए गए शोध के मुताबिक, पब्लिशर्स एसोसिएशन का अनुमान है कि वर्ष 2007 में भारत में पुस्तक बाजार लगभग 1.25 अरब मूल्य का था जिस में आधे से अधिक अंगरेजी पुस्तकों का था. किताबों के बढ़ते बाजार में फिल्में भी अहम भूमिका निभा रही हैं. आएदिन किसी न किसी किताब पर आधारित फिल्म रिलीज हो ही जाती है. अंगरेजी फिल्मों में लगभग हर दूसरी फिल्म किसी किताब पर आधारित होती है, जैसे ‘लाइफ औफ पाई’, हैरी पौटर’, ‘लौर्ड औफ द रिंग्स’ आदि. इन फिल्मों के रिलीज होते ही मूल किताबों की बिक्री में जबरदस्त उछाल देखा गया था.

अगर हिंदी फिल्मों की बात करें तो चेतन भगत अंगरेजी के ऐेसे लेखक हैं जिन के लगभग सभी उपन्यासों पर या तो फिल्में बन चुकी हैं या बन रही हैं. जैसे ही इन के किसी नौवेल पर फिल्म बनने की खबर आती है, उस की बिक्री एकदम से बढ़ जाती है, फिर चाहे वह ‘फाइव पौइंट समवन’, ‘थ्री मिस्टेक्स औफ माई लाइफ’, ‘टू स्टेट्स’ और ‘वन नाइट इन कौलसैंटर’ हो या हालिया रिलीज ‘हाफ गर्लफ्रैंड’ हो, सब बैस्टसैलर्स हैं. भारत इस समय एक बड़ा बाजार है जहां बहुराष्ट्रीय प्रकाशक कंपनियां पुस्तकों के प्रकाशन और विक्रय में रुचि ले रही हैं. इस कारण भारत में प्रकाशन अब एक बहुत बड़ा व्यवसाय बन गया है.

लिहाजा, प्रकाशक हर पुस्तक को बैस्टसैलर बनाने के साम, दाम, दंड, भेद सभी तरीके अपनाने से गुरेज नहीं करते. इस के लिए भले ही किसी की छवि खराब की जाए, पोल खोली जाए, धार्मिक विवादों को हवा दी जाए या फिर गड़े मुरदे उखाड़े जाएं. ‘जो दिखता है वह बिकता है’ की बाजारू मानसिकता यहां भी काम कर रही है.

बेखबर न रहें औरत समझ कर

दीवाली का समय था. लखनऊ के भूतनाथ बाजार की हर दुकान में ग्राहकों की भीड़ लगी थी. सेल्समैन हर ग्राहक को बड़ी लालसाभरी नजरों से देख रहा था. उसे उम्मीद थी कि हर ग्राहक कुछ न कुछ खरीदारी जरूर करेगा, जिस से न केवल दुकानदारी होगी बल्कि उसे भी ज्यादा कमीशन मिलेगा. तभी एक ज्वैलरी शौप में 3 महिलाएं दाखिल होती हैं. तीनों महिलाएं पहाड़ी वेशभूषा में हैं. सिर पर टोपी भी लगा रखी है. आमतौर पर धारणा होती है कि पहाड़ी लोग मेहनती और ईमानदार होते हैं. ऐसे में उन पर शंका की गुंजाइश कम होती है. तीनों महिलाएं सोने के जेवर देखने लगीं. कई तरह के जेवर देखे. मोलतोल किया. कुछ देर बाद जेवर पसंद न आने की बात कह कर वे दुकान से बाहर चली गईं.

जेवर दिखाने वाले सेल्समैन ने जब अपने जेवर रखने शुरू किए तो उसे पता चला कि 2 जोड़ी कंगन यानी 4 कंगन गायब हो चुके थे. सेल्समैन उन तीनों महिलाओं के झांसे में आ चुका था. मामला पुलिस तक गया. पुलिस की जांच में दुकान में लगे सीसीटीवी फुटेज में पाया गया कि कंगन उन महिलाओं ने ही चोरी किए थे. कुछ समय पहले इसी तरह एक ज्वैलरी शौप में एक लड़का और एक लड़की आए. सोने की चेन खरीदने की बात की. सेल्समैन ने सोने की चेन दिखानी शुरू की. लड़की ने मुसलिमों वाला बुरका पहन रखा था. कई तरह के जेवर देखने के बाद उन लोगों ने 10 हजार रुपए की एक चेन खरीदी और चले गए. सेल्समैन को उस समय तक कुछ पता ही नहीं चल पाया था. बुरका पहने उस लड़की ने सोने के तमाम जेवर अपने पास रख लिए थे. पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज को देख कर उस को पकड़ा. लड़की लखनऊ से 60 किलोमीटर दूर उन्नाव जिले की रहने वाली थी. उस का नाम ज्योति था. वह अपने प्रेमी के साथ मुंबई भाग गई थी. मुंबई जा कर जब पैसों की जरूरत महसूस हुई तो उस ने अपने प्रेमी के साथ इस तरह की घटनाएं करनी शुरू कीं. वह अपनी वेशभूषा बदलबदल कर अलगअलग शहरों में ऐसी घटनाओं को अंजाम देने लगी.

सोच का लाभ उठाने की कोशिश

अपराध की दुनिया में छोटीबड़ी तमाम तरह की ऐसी घटनाएं घटने लगी हैं जिन में महिलाएं शामिल होती हैं. ऐसे में जरूरी है कि महिला समझ कर बेखबर न रहें. महिलाएं भी वैसे ही अपराध की घटनाओं को अंजाम दे सकती हैं जैसे कोई दूसरा अपराधी देता है. दरअसल, महिलाओं को ले कर एक सोच बनी हुई है कि वे गलत काम नहीं कर सकतीं, क्रूर नहीं हो सकतीं और आपराधिक घटनाओं में हिस्सेदारी नहीं कर सकतीं. ऐसे तमाम मामलों की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘‘महिलाएं अगर काम करने की ठान लें तो वे अपराध की हर गतिविधि में शामिल हो सकती हैं. महिला अपराधियों से घटना की सचाई कुबूल करवा पाना ज्यादा कठिन होता है. वे अपनी मार्मिक बातों के साथ ही साथ आंसुओं से भी जांच की दिशा को भटकाने का काम करती हैं. महिलाओं के प्रति समाज में जो सोच बनी है उस का वे लाभ लेने की कोशिश करती हैं.’’

बात केवल साधारण चोरी और धोखा देने की नहीं है. हत्या, अपहरण और देहधंधा चलाने जैसे गंभीर अपराधों में भी महिलाओं की भूमिका दिखती रही है. खासकर अवैध संबंधों के खुलने पर जिस तरह से वे आक्रामक  हो कर अपराध करती हैं, यह सोचने की बात है. 

न रहें बेखबर

औरत अपराध नहीं कर सकती, यह धारणा बनानी गलत है. जिस तरह से समाज की सोच और नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है, उस का प्रभाव महिलाओं पर भी पड़ रहा है. गुस्से और जरूरत के चलते वे भी अपराध की दलदल में धंसती जा रही हैं. ऐसे में इन से बेखबर रहने की जरूरत नहीं है. समाजशास्त्री डा. प्रभावती राय कहती हैं, ‘‘महिलाएं जब तरक्की की राह में आगे बढ़ रही हैं तो दुनियाभर की बुराइयां भी उन में आने लगी हैं. वे पहले जैसी संवेदनशील सोच से बाहर निकल रही हैं. वे वैसे ही अपराध कर रही हैं जैसे कोई पुरुष करता है. अपराध करने वाले इंसान की सोच एक जैसी ही होती है, उस में आदमी और औरत का फर्क खत्म हो चला है.’’

महिला अपराधों पर अध्ययन करने वाली वकील कीर्ति जायसवाल कहती हैं, ‘‘कई बार तो अपराध का ग्लैमर भी महिलाओं को लुभाता है. दूसरे, अब महिलाओं की जरूरतें भी बढ़ गई हैं. चोरी, लूट और धोखाधड़ी जैसे अपराधों में तो ज्यादातर महिलाएं पुरुषों के कहने पर ही आती हैं. पुरुष अपराधी महिलाओं की छवि का लाभ उठाने के लिए उन को आगे कर देते हैं जिस से उन का काम करना सरल हो जाए. महिलाएं शुरुआत में थोड़े से लालच में इस तरह के काम करने लगती हैं. लेकिन एक बार अपराध की दलदल में फंसने के बाद वे इस से दूर नहीं जा पाती हैं और  अपराधियों का मोहरा बन कर रह जाती हैं.’’

कीर्ति बताती है, ‘‘हम ने कई ऐसे मामले भी देखे हैं जहां महिलाएं शातिर अपराधियों की तिकड़म का शिकार हो जाती हैं. उन को जबरन अपराध में फंसा दिया जाता है. यह बात सच है कि अपराध में औरतों की भूमिका बढ़ती जा रही है. यह समाज के लिए सोचने की बात है.’’

बचना सरल नहीं

अपराध करने से पहले औरतों को यह लगता है कि वे अपराध कर के बच सकती हैं. लेकिन अब ऐसा नहीं है. जिस तरह से पुलिस की जांच से ले कर मीडिया की रिपोर्ट तक में महिला अपराधी होने पर मामला बढ़ जाता है. महिला अपराधी के शामिल होने से घटना पर मीडिया का रुख अलग ही हो जाता है. उस घटना को स्पैशल दरजा हासिल हो जाता है. जिस से पुलिस पर दबाव पड़ता है और उसे घटना की तहकीकात जल्द से जल्द करनी होती है. यह बात ठीक है कि कुछ अपराधों में यदि महिला की उम्र कम है तो उस की पहचान को छिपाने की कोशिश मीडिया द्वारा की जाती है लेकिन उस के बाद भी महिला अपराधी के शामिल होने से घटना को ज्यादा कवरेज मिलने लगती है.

इसलिए अब यह नहीं सोचना चाहिए कि औरत होने का लाभ मिल सकेगा. महिलाओं को ऐसे अपराधों में शामिल होने से बचने की कोशिश करनी चाहिए. अपराध में शामिल होने से अपराधी के परिवार को तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. अगर अपराधी महिला हो तो ये मुश्किलें और बढ़ जाती हैं. इस से न केवल उस को बल्कि उस के घर वालों को भी समाज के सामने शर्मिंदा होना पड़ता है. आज भी समाज में पुरुषप्रधान सोच है. यहां पर औरत के अपराध करने को अलग नजर से देखा जाता है. उस की अलग आलोचना होती है. औरत की आलोचना करते समय उस के घरपरिवार और बच्चों को भी शामिल कर लिया जाता है. महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील होती हैं इसलिए उन को अपराध के लिए सरलता से उकसाया जा सकता है. जरूरी है कि महिलाएं किसी भी तरह की आपराधिक घटना में पड़ने से पहले अपने घरपरिवार, बच्चों और खुद के बारे में जरूर सोचें. अपराध कर के बचना सरल नहीं है.

समाज में होती बेइज्जती

महिलाओं के अपराधी होने से समाज में घरपरिवार की इज्जत को बहुत नुकसान होता है. उन को सही निगाह से नहीं देखा जाता. थानाकचहरी और अस्पताल में जब जांच और पूछताछ के नाम पर महिलाओं को पेश किया जाता है तो उन को गिरी हुई नजर से देखा जाता है. महिलाओं के करीबी से करीबी दोस्त तक उन से पल्ला झाड़ने लगते हैं. बहुत मजबूरी में घर के लोग ही उन का साथ देते हैं. ऐसी महिलाओं को कचहरी से जेल और अस्पताल लाने, ले जाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाली महिला सिपाही दुर्गेश कुमारी कहती हैं, ‘‘जेल में पहले से बंद महिला अपराधी नई आने वाली महिला अपराधी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करती है. जब उन को कचहरी में पेश किया जाता है तो वहां वकील से ले कर दूसरे लोग भी ऐसी महिलाओं को अच्छी नजरों से नहीं देखते हैं.’’पुलिस के एक अधिकारी कहते हैं ‘‘हत्या के एक मामले में जांच करते समय हम ने महिला आरोपी के परिवार वालों को भी बुलाया था. उन के  सामने महिला आरोपी ने अपना अपराध कुबूल किया. जिस समय महिला अपराधी ने अपराध कुबूल किया, उस के घर वाले बाहर टीवी पर देख रहे थे. वे रोने लगे. महिला आरोपी के परिवार की महिलाएं तो उसे बुराभला भी कहने लगी थीं. ऐसे में अगर बाद में महिला आरोप से मुक्त भी हो जाए तो भी उस की सचाई को कोई महसूस नहीं करता.’’  

महिला के अपराध में शामिल होने का सब से बड़ा प्रभाव उस के बच्चों पर पड़ता है. वे घरपरिवार, गलीमहल्ले से ले कर स्कूल तक में अलगथलग पड़ जाते हैं. एक ऐसे ही बच्चे ने मां के जेल जाने के बाद स्कूल जाना बंद कर दिया. उस के घर वालों ने उसे बहुत समझाया. इस के बाद भी वह स्कूल नहीं गया. उस ने कहा, ‘मुझे स्कूल के सभी बच्चे चिढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि मेरी मां ने अपराध किया है.’ बहुत प्रयासों के बाद भी जब यह बच्चा स्कूल नहीं गया तो उस की एक साल की पढ़ाई खराब हो गई. अगले साल उस का ऐडमिशन दूसरे शहर के स्कूल में कराया गया. इस के बाद भी वह बच्चा हमेशा गुमसुम सा रहता और दूसरे बच्चों के बीच जाने से बचता रहता.

एक स्कूल की पिं्रसिपल कहती हैं, ‘‘हमें ऐसे बच्चों को संभालने में बड़ा प्रयास करने की जरूरत होती है. बच्चे मां के सब से करीब होते हैं. इस कारण से उन पर मां के कामकाज का सब से अधिक प्रभाव पड़ता है. देश की कानून व्यवस्था ऐसी है कि जिस में न्याय देर से होता है. ऐसे में अगर महिला अपराध से मुक्त भी हो जाए तो उस के खोए हुए मानसम्मान को वापस नहीं लौटाया जा सकता है. मीडिया और दूसरी जगहों पर उन खबरों को जगह कम ही दी जाती है जिन में महिला अपराध से मुक्त हो जाती हैं. ऐसे में समाज को सच का पता ही नहीं चल पाता है.’

महिलाओं को अपराध से खुद को अलग रखना चाहिए.  किसी के बहकावे और षड्यंत्र में शामिल नहीं होना चाहिए. महिलाओं के अपराध में शामिल होने से केवल उन का भविष्य ही खराब नहीं होता, उन के  घरपरिवार और बच्चोंका भविष्य भी प्रभावित होता है. ऐसे में जरूरी है कि  महिलाएं खुद ही अपराधों से दूर रहें ताकि उन का जीवन सुखमय रहे, घरपरिवार का मानसम्मान बना रहे और बच्चों का भविष्य उज्ज्वल रहे, साथ ही समाज व वातावरण भी खुशनुमा बना रहे.

नसबंदी मामला जानलेवा औपरेशन

नसबंदी का औपरेशन अब केवल गरीब लोग कराते हैं इसलिए यह अभियान भी उन्हीं के इर्दगिर्द सिमट कर रह गया है. कंडोम और गर्भ निरोधक गोलियों के चमचमाते इश्तिहार, नई तकनीकें और सुविधाएं उन ग्राहकों के लिए रह गए हैं जिन की जेब में पैसा है, वे इन्हें खरीदते भी हैं. मुख्यधारा से कटे गरीबों के हिस्से में हमेशा ही सरकारी सेवाएं आती हैं जिन की घटिया क्वालिटी किसी सुबूत की मुहताज नहीं.

जागरूक वर्ग को परिवार नियोजन की महत्ता के साथसाथ यह भी मालूम है कि इसे कब और कैसे अपनाया जाना है. यह 25 फीसदी वर्ग सरकारी अभियानों से काफी दूर है. उलट इस के, 75 फीसदी लोग, जिन्हें परिवार सीमित रखने में पैसा आड़े आता है, पूरी तरह सरकार पर निर्भर हैं. यह वर्ग भी छोटे परिवार की अहमियत को जानतासमझता है लेकिन अस्थायी तरीके नहीं अपना पाता. एक तीसरा वर्ग उन लोगों का है जो न तो परिवार नियोजन की अहमियत समझते हैं और न ही जरूरत. लिहाजा, बच्चे पैदा करने में वे हिचकिचाते नहीं हैं. इस वर्ग, जो कुल आबादी का तकरीबन 40 फीसदी है, को थाम पाना दुष्कर काम है.

इस वर्ग को बेहतर जिंदगी मिले और परिवार नियोजन भी लोग अपनाते रहें, इस बाबत सरकार ने नसबंदी औपरेशनों का जो लक्ष्य तय कर रखा है उसे पूरा कर पाना आसान काम कहीं से नहीं लगता. देश की बहुसंख्यक आबादी दूरदराज के इलाकों में रहती है जहां पहुंच कर लोगों को जागरूक करना, समझा पाना बेहद खर्चीला काम है. इसलिए अघोषित तौर पर सरकार ने यह तय कर लिया है कि जैसे भी हो, नसबंदी के ज्यादा से ज्यादा औपरेशन किए जाएं. चिंताजनक बात परिवार नियोजन और नसबंदी में फर्क खत्म हो जाना है.

प्रदेशों से ले कर ग्राम पंचायतों तक का लक्ष्य तय है कि चालू वर्ष में इतने औपरेशन होने ही हैं. इस लक्ष्य से कोई समझौता सरकार नहीं करती. अरबों रुपए नसबंदी शिविरों पर सालाना खर्च किए जाते हैं और जो राज्य, जिला या पंचायत अपना लक्ष्य पूरा कर लेते हैं उन की पीठ भी सार्वजनिक रूप से थपथपाई जाती है. जो कर्मचारी और सर्जन अपना कोटा वक्त रहते पूरा कर लेते हैं उन्हें सम्मानित तो किया ही जाता है, इनाम भी दिया जाता है. अब यह मान लिया गया है कि पढ़ालिखा मध्यवर्ग तो परिवार नियोजन के अस्थायी साधनों को अपनाते हुए 1 या 2 बच्चे ही पैदा करेगा लेकिन गांवदेहातों, जहां निम्न और उस से भी नीचे का वर्ग रहता है, में जागरूकता के अभाव में इकलौता रास्ता नसबंदी का औपरेशन है. बात सच भी है इसलिए नसबंदी औपरेशन के शिविर रोजमर्रा की बात हैं जिन से मुख्यधारा से जुड़े लोगों का कोई लेनादेना नहीं होता.

यह कैसा शिविर

छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर शहर से लगे पिंडारी गांव के नेमीचंद जैन हौस्पिटल में 8 नवंबर को एक ऐसा ही शिविर लगा था जिस में 83 आदिवासी महिलाओं ने नसबंदी औपरेशन कराया था. महिलाओं की उम्र 20 से 28 वर्ष के बीच थी. एक ट्रस्ट के अधीन संचालित होने वाला यह अस्पताल यानी शिविरस्थल मुद्दत से बंद पड़ा है, जिस के परिसर में आवारा मवेशियों ने बसेरा कर लिया है. इस के चारों तरफ गंदगी और बदबू का साम्राज्य है जिस की साफसफाई की कभी जरूरत ही नहीं समझी गई. औपरेशन कराने वाली 83 महिलाओं को झोलाछाप दाइयां घेर कर लाई थीं. इन महिलाओं को नसबंदी औपरेशन के एवज में 1,400 रुपए नकद मिलने का लालच दिया गया था. यह प्रोत्साहन राशि आमतौर पर दी भी जाती है.

स्वास्थ्य सहित तमाम सरकारी विभागों में झोलाछाप दाई, स्वास्थ्य कार्यकर्ता और नौन मैडिकल असिस्टेंट जैसे दर्जनभर नामों से कर्मचारियों की भरमार है जिन का मुख्य काम गांव में घरघर जा कर नसबंदी के मामले लाना है. ये औपरेशन एक मशहूर सर्जन डा. आर के गुप्ता को करने थे जो 50 हजार से भी ज्यादा नसबंदी औपरेशन करने का रिकौर्ड बना चुके हैं. इस उपलब्धि के चलते 26 जनवरी को छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया था. कहने की जरूरत नहीं कि इस सर्जन के पास पर्याप्त अनुभव था और इतना था कि इस ने महज 6 घंटे में सभी महिलाओं के औपरेशन कर डाले यानी 5 मिनट से भी कम वक्त में एक औपरेशन हुआ. यह सरासर स्वास्थ्य अधिनियम को धता बताती बात थी जो यह कहता है कि एक सर्जन को 1 दिन में 32 से ज्यादा नसबंदी के औपरेशन नहीं करने चाहिए.

दूसरे सरकारी शिविरों की तरह यह शिविर भी खामियों से लबरेज था. इस सर्जन ने न तो अस्थायी औपरेशन थिएटर को स्टरलाइज किया, न ही औपरेशन के पहले की जाने वाली अनिवार्य हिदायतों पर अमल किया था. जानवरों की तरह आदिवासी महिलाओं को लिटा कर एक ही सूई से टांके सिले गए और एक ही कैंची से बगैर स्प्रिट का इस्तेमाल किए वे टांके काटे गए. ये व ऐसे और कई सच उजागर न होते अगर औपरेशन के दूसरे दिन इन 83 महिलाओं की हालत इतनी न बिगड़ी होती कि उन्हें उन के परिजन गंभीर हालत में बिलासपुर इलाज के लिए लाते. औपरेशन के चंद घंटे बाद देर रात इन्हें दवाएं दे कर चलता कर दिया गया था जबकि औपरेशन के 24 घंटे बाद तक इन्हें चिकित्सकीय देखरेख में रखा जाना चाहिए था. पैसे भी 1,400 रुपए की जगह 600 रुपए ही दिए गए. आदिवासी इलाकों में सरकारी पैसे की किस तरह लूटखसोट होती है, यह हकीकत भी उजागर हुई.

एकएक कर जब ये महिलाएं जिला अस्पताल, बिलासपुर आईं या लाई गईं तो लोग चौंक उठे. इन्हें लगातार उल्टीदस्त हो रहे थे और चक्कर भी आ रहे थे. यह बात सामने आ चुकी थी कि इन तमाम महिलाओं ने बीती रात नसबंदी शिविर में औपरेशन कराया है. 9 नवंबर की देर रात तक 16 महिलाएं इलाज के दौरान दम तोड़ चुकी थीं, 2 ने दूसरे दिन आखिरी सांस ली.

इन की मौत की वजह सस्पैंस बन गई थी. पहला अंदाजा यह लगाया गया कि ये संक्रमण से मरीं लेकिन यह बात एकदम से गले उतरने वाली नहीं थी क्योंकि इन्फैक्शन के लक्षण अलग होते हैं और औपरेशन के तुरंत बाद से दिखने लगते हैं. जैसे ही आदिवासी औरतों की मौत की खबर विदेशयात्रा पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिली, उन्होंने तुरंत फोन पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के कान उमेठे. रमन सिंह फौरन बिलासपुर पहुंचे और पीडि़ताओं के हालचाल जाने. मृतिकाओं के परिजनों से भी उन्होंने मुलाकात की और उन्हें 4-4 लाख रुपए का मुआवजा देने का एलान कर डाला.

लेकिन सूबे के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल को हटाए जाने पर वे यह कहते हुए मुकर गए कि औपरेशन स्वास्थ्य मंत्री नहीं, डाक्टर करता है. कहतेकहते उन्होंने डा. आर के गुप्ता को न केवल निलंबित कर दिया बल्कि गैर इरादत हत्या के आरोप में गिरफ्तार भी करवा डाला. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा ने एम्स दिल्ली के विशेषज्ञों की एक टीम जांच के लिए बिलासपुर रवाना कर दी. चिकित्सक हैरान थे और यह बात भी सभी को समझ आ गई थी कि मौतें इन्फैक्शन से नहीं हुई हैं, लिहाजा, विशेषज्ञों का ध्यान दी गई दवाओं पर गया, जिन की जांच बिलासपुर के साइंस कालेज प्रयोगशाला में की गई तो पता चला कि सिप्रोसिन 500 मिलीग्राम वाली गोली में खतरनाक चूहानाशक जहर जिंक फौस्फाइड मिला हुआ था.

रिपोर्ट आते ही दवा बनाने वाली कंपनी महावर, फार्मा के निदेशकों, रमेश और सुमित महावर, को भी गिरफ्तार कर लिया गया. इन दोनों ने साफ कहा कि हमें फंसाया जा रहा है और अगर हम मुंह खोलेंगे तो कई बड़े लोगों के नाम उजागर होेंगे. अहम सवाल जो अब तक मुंहबाए खड़ा है वह यह है कि फिर इन मौतों का जिम्मेदार कौन है, डा. आर के गुप्ता ने तो यह भी कहा कि औपरेशन नहीं, बल्कि नकली दवाएं इन मौतों की जिम्मेदार हैं. इस सर्जन ने यह भी माना कि उस पर टारगेट पूरा करने का दबाव था. इसी दबाव के चलते उन्होंने चिकित्सा मानकों का उल्लंघन करते हुए ताबड़तोड़ जरूरत से ज्यादा आपरेशन कर डाले.

लक्ष्य का जानलेवा दबाव

इस में कोई शक नहीं कि न केवल स्वास्थ्य, बल्कि दूसरे विभागों, मसलन, पंचायत, कृषि ग्रामीण विकास और राजस्व के भी कर्मचारियों को सरकार ने लक्ष्य दे रखा है कि उन्हें इतने लोगों को औपरेशन के लिए तैयार कर शिविर तक लाना ही है. डा. आर के गुप्ता जैसे सर्जनों की खिंचाई और बेइज्जती जिले की समीक्षा बैठकों में कलैक्टर द्वारा की जाती है. मीटिंगों से तनाव ले कर आते हैं तो सर्जन और मुख्य चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारी इसे ब्याज सहित अपने मुलाजिमों में बांट देते हैं. हर एक की नौकरी पर टारगेट की तलवार लटकती रहती है. टारगेट यानी लक्ष्य के पूरा न होने पर वेतनवृद्धि रोक दी जाती है और दूसरे कई तरीकों से भी परेशान किया जाता है. छोटे मैदानी कर्मचारी गांवों में जाते हैं तो लक्ष्य पूरा करने के लिए धौंसधपट का भी सहारा लेते हैं. आदिवासी बाहुल्य इलाकों में वे आदिवासियों को धमकाने से नहीं चूकते कि औपरेशन कराओ वरना नतीजा अच्छा नहीं होगा.

अगर परिवार नियोजन अभियान यही है तो इसे बंद होना चाहिए. भोपाल के एक पटवारी की मानें तो, हां हम पर दबाव रहता है और जो किसान नसबंदी का औपरेशन नहीं करवाते, हम नामांतरण, सर्वे वगैरह के उन के काम नहीं करते ताकि वे परेशान हो कर नसबंदी करवाने को तैयार हो जाएं और वे होते भी हैं. यह सच बिलासपुर की मौतों के बाद भी उजागर हुआ यानी खामी सरकारी तरीके में है, हालात तकरीबन आपातकाल जैसे हैं जब इंदिरा गांधी की सरकार ने ताबड़तोड़ नसबंदी औपरेशन जबरिया करवाए थे. उस वक्त बगैर टिकट यात्रा करने वालों से जुर्माना नहीं वसूला जाता था बल्कि उन्हें किसी कोने में ले जा कर उन का औपरेशन कर दिया जाता था.

आज भी धड़ल्ले से यह हो रहा है पर सामने नहीं आता क्योंकि पीडि़त मुख्यधारा से कटे होते हैं और इतने गरीब होते हैं कि उन्हें 1,400 रुपए भी बहुत ज्यादा लगते हैं. बिलासपुर में बेगा समुदाय की महिलाओं के भी औपरेशन कर दिए गए जिन की तादाद  लगातार घट रही है. 1993 में केंद्र सरकार एक आदेश जारी कर चुकी है कि बैगा आदिवासियों के नसबंदी औपरेशन न किए जाएं. गौरतलब यह है कि केंद्र सरकार बैगा प्रोजैक्ट के तहत बैगाओं के संरक्षण के लिए काफी पैसा खर्च कर रही है. एक बैगा ही नहीं, बल्कि दर्जनभर जातियों के लिए नसबंदी औपरेशन की मनाही है.

बिलासपुर के ही एक ग्रामीण कृषि विस्तार अधिकारी का कहना है, मैं मध्य प्रदेश में भी रह चुका हूं, हर जगह हालात एक जैसे हैं. हमें अफसरों द्वारा कहा जाता है कि जो औपरेशन के लिए तैयार न हो उसे जितना हो सके, जैसे हो सके परेशान करो. कई बार तो हमें जेब से पैसे खर्च करने पड़ते हैं. हमें लगता है हम सरकारी मुलाजिम नहीं, जल्लाद और कसाई हैं जो इन आदिवासियों की नस काटने के लिए दिनरात दौड़ा करते हैं, उन्हें लालच देते हैं, समझाते हैं.

घटते आदिवासी

बिलासपुर नसबंदी कांड ने किसी को नहीं झकझोरा है सिवा उन 5 फीसदी पढ़ेलिखे आदिवासियों के जो पढ़लिख कर शहरों में बसे मुख्यधारा से जुड़ गए हैं. इस वर्ग की स्थिति ‘न घर के न घाट के’ जैसी हो गई है. सबकुछ जानते हुए भी वह सरकारी तंत्र के सामने बेबस है.

भोपाल में रह रहे आदिवासी समुदाय के समाजशास्त्र के एक प्राध्यापक  का कहना है कि इस नसबंदी कांड के बाद इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि आदिवासी क्षेत्रों में नसबंदी औपरेशन किए जाएं या नहीं. किसी का ध्यान आदिवासियों की घटती आबादी की तरफ नहीं जा रहा. कम होते बैगा आदिवासियों का उदाहरण सामने है. अब गौंड, कोरकू और भीलों की आबादी भी कम हो चली है. आज जो सरकार अरबों रुपए इन की नसबंदी पर खर्च कर रही है वही कल को चिंतित हो कर कहेगी कि अरे, आदिवासी कम हो गए हैं. उन्हें बढ़ाओ, उन के औपरेशन मत करो, हम इन्हें संरक्षित घोषित करते हैं.

बात सच है. दरअसल, शहरी लोगों के नसबंदी न कराने की जिद का खमियाजा देहातियों और आदिवासियों को भुगतना पड़ रहा है. मैदानी मुलाजिम टारगेट पूरा करने के लिए इन्हें बहलातेफुसलाते और डराते हैं. वे आंकड़ेबाजी में जुटे हैं. घटिया मिलावटी दवाएं इन्हें दी जाती हैं. इन के इलाज के लिए घटिया उपकरणों की खरीद की जाती है. इन की सेहत तो दूर की बात है, इन की जान की भी किसी को परवा नहीं. ऐसे में इस नसबंदी कांड की सीबीआई जांच की जाए तो कई और चौंका देने वाली बातें सामने आएंगी. लग नहीं रहा कि ऐसा कुछ होगा.

क्या मुसलमानों की बदलेगी सोच?

वर्ष 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मुसलिम विधायकों की संख्या 11 से घट कर 9 हो गई. कहने को 2 सीटों का नुकसान हुआ लेकिन राज्य में जिस तरह मजलिस इत्तेहादुल मुसलेमीन यानी एमआईएम ने 2 सीटें हासिल कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, उस से सियासी पंडितों की बेचैनी बढ़ी है. यह सवाल चर्चा का विषय बना हुआ है कि क्या मुसलिम मतदाताओं की सोच में तबदीली आ रही है? क्या अब मुसलमानों ने भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना से डरना छोड़ दिया है? क्या एमआईएम के पीछे भाजपा है ताकि हिंदू वोटरों को एकजुट रखा जा सके?

ये सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि एमआईएम ने न केवल 2 सीटों पर कामयाबी हासिल की बल्कि कई सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही और कुछ सीटों पर तीसरे स्थान पर. पार्टी इस कामयाबी से इतनी खुश है कि वह अब देश के अन्य राज्यों–दिल्ली, बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी अपने उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारने की तैयारी कर रही है. जबकि मुंबई नगर निकाय चुनाव में हिस्सा लेने की घोषणा ने सियासी तापमान को बढ़ा दिया है. महाराष्ट्र में मुसलमानों की जनसंख्या कुल आबादी की 10.6 फीसदी है और वह राज्य का सब से बड़ा अल्पसंख्यक समूह है लेकिन यदि उन का सियासी प्रतिनिधित्व आंकड़ों में देखा जाए तो 1999 की विधानसभा में मुसलिम विधायकों की संख्या 12 थी, 2004 में यह संख्या 11 रह गई, 2009 के चुनाव में 1 मुसलिम विधायक और कम हो कर 10 रह गई जिस में 6 विधायक मुंबई शहर से निर्वाचित हुए थे. 288 सदस्यीय विधानसभा में कम से कम 40 क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुसलिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं.

हालिया चुनावी नतीजे इस की पुष्टि नहीं करते. इस से मुसलिम वोटबैंक का भ्रम टूट गया व मुसलिम वोट सिर्फ कांगे्रस और राष्ट्रवादी कांग्रेस यानी एनसीपी को नहीं मिले बल्कि भाजपा और शिवसेना को भी मिले. मुसलिम उम्मीदवारों की भीड़ ने वोटरों को बुरी तरह विभाजित किया और भिवंडी, जहां हमेशा मुसलिम उम्मीदवार चुनाव जीतता था इस बार वहां शिवसेना और भाजपा को कामयाबी मिली. मजलिस इत्तेदाउल मुसलेमीन ने कुल 24 उम्मीदवार विधानसभा चुनाव में उतारे थे जिन में से 2 सीटों पर उसे कामयाबी मिली. मुंबई के बाइकला से एडवोकेट वारिस पठान जीते हैं और औरंगाबाद सैंट्रल से एक महीने पहले सियासत में आए पत्रकार इम्तियाज जलील कामयाब हुए हैं जबकि 3 अन्य उम्मीदवारों ने अपने प्रतिद्वंद्वी को कड़ी टक्कर दी है.

इन में शोलापुर (सैंट्रल), प्रबनी और औरंगाबाद (ईस्ट) सीटें शामिल हैं. 8 सीटों पर इस के उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे. इन में नांदेड़ (साउथ), औरंगाबाद (वैस्ट), वडेंदा (ईस्ट), सोनार, मालेगांव, मुंबरा और मुंबादेवी सीटें शामिल हैं.

अहम रहे चुनाव

इन में सभी उम्मीदवार मुसलिम नहीं थे बल्कि कुछ गैरमुसलिम भी उम्मीदवार थे. कांगे्रस, एनसीपी, भाजपा, शिवसेना, एमएनएस और समाजवादी पार्टी सभी ने मुसलिम उम्मीदवार उतारे थे जिन्हें कुल मिला कर 19 लाख वोट हासिल हुए जबकि मजलिस के 24 उम्मीदवारों को कुल 5,16,632 वोट मिले. यानी कुल वोटों का 27 फीसदी मजलिस को मिला.  कांगे्रस को 31 फीसदी मुसलिम वोट मिले और एनसीपी को 21 फीसदी मुसलिम वोट हासिल हुए. 2009 के विधानसभा चुनाव में मुसलिम वोटों का 70 फीसदी कांग्रेस-एनसीपी गठजोड़ को मिला था.

महाराष्ट्र विधानसभा का यह चुनाव इस प्रसंग में बहुत अहम रहा कि मुसलिम मतदाताओं के विभाजन से मुसलमानों से ज्यादा नुकसान कांगे्रस और एनसीपी अथवा तथाकथित सैक्युलर पार्टियों को हुआ. कांगे्रस और एनसीपी के बहुत से नेता सिर्फ इसलिए चुनाव हार गए कि मुसलमानों ने उन्हें निरस्त कर दिया. मुसलिम वोट जो एकजुट हो कर उन्हें मिलते थे, इस बार उन्हें नहीं मिले बल्कि विभिन्न उम्मीदवारों में बंट गए. कांगे्रस विधायक आरिफ नसीम खां इस के लिए मजलिस को दोषी ठहराते हैं. वे इसे वोट कटवा पार्टी बताते हैं कि जिस की वजह से सैक्युलर वोट बंट गया और सांप्रदायिक ताकतों को फायदा हुआ.

आम मुसलमानों की धारणा है कि कांगे्रस हमेशा भाजपा और शिवसेना का डर दिखा कर मुसलिम वोट हासिल करती रही है. जहां तक मुसलमानों के लिए काम करने की बात है तो 11 फीसदी मुसलिम आबादी वाले इस राज्य की जेलों में बंद मुसलमानों की संख्या 27 फीसदी है. चुनावी मुहिम में मजलिस ने इस मामले को बड़े जोरशोर से उठाया था.

हो गया मोहभंग

इन चुनावों से यह बात खुल कर सामने आ गई है कि मुसलमानों के लिए कोई सियासी पार्टी अछूत नहीं रह गई है और वह सैक्युलरिज्म के नाम पर बंधुआ मजदूर बनने को तैयार नहीं है. इन तथाकथित सैक्युलर पार्टियों से उस का मोह भंग होता जा रहा है. शिवसेना और भाजपा को भी वह अब आजमाने लगा है. मजलिस अपनी इस कामयाबी से उत्साहित हो कर मुंबई कौर्पोरेशन में अपने उम्मीदवार खड़े करने की तैयारी कर रही है. मुंबई कौर्पोरेशन में समाजवादी पार्टी को काफी सीटें मिल जाया करती थीं और वे आमतौर पर मुसलिम क्षेत्रों से ही जीत कर जाती थीं. मजलिस के इस फैसले से यह संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि इन सीटों पर एमआईएम का कब्जा हो जाएगा. इस डर से मजलिस को भाजपा का एजेंट बताया जा रहा है. यह खतरा सभी सैक्युलर कहलाने वाली पार्टियों को हो गया है. हालिया दिनों में हुए जनता परिवार के महामोरचा गठन को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए जो अपने वजूद को बचाने के लिए सैक्युलरिज्म की दुहाई देते हुए एक बार फिर एकजुट होने की जुगत में है.

भारत भूमि युगे युगे

राज्यपाल की लाटसाहबी

कल्पना करें कि आप को विदेश जाना है और एअरपोर्ट जा कर अपनी जेब व सामान टटोलने के बाद आप को समझ आता है कि अरे, पासपोर्ट तो घर पर ही रह गया, तब आप पर जो गुजरेगी उसे कोई दूसरा नहीं समझ सकता. कभी खुद को तो कभी पत्नी या सेक्रैटरी को कोसते आप की नाकाम कोशिश यही होगी कि अधिकारी आप की बात का यकीन करते हुए आप को यात्रा की अनुमति दे दें.पासपोर्ट का कोई विकल्प नहीं होता, इसलिए यह इजाजत तो छत्तीसगढ़ के राज्यपाल गौरीशंकर अग्रवाल को भी नहीं मिली जो 19 नवंबर को रायपुर से ढाका जाने के लिए निकले थे. कोलकाता हवाईअड्डे पर उन्हें याद आया कि पासपोर्ट तो राजभवन में ही रह गया है. चूंकि वे आम आदमी नहीं थे इसलिए तुरंत ही एक हवाई जहाज रायपुर से उड़ कर पासपोर्ट ले कर आया. इसे कहते हैं लाटसाहबी.

महादलित की महा इच्छा

बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी बड़े दिलचस्प बयान देते हैं, कभीकभी तो लगता है कि वे मजाक कर रहे हैं. इसी श्रृंखला में उन्होंने पटना में कह डाला कि कल को मैं पीएम भी बन सकता हूं. बकौल जीतनराम, ‘चूंकि मैं महादलित हूं इसलिए ताकतवर लोग मेरा मजाक बनाते हैं,’ जाति का यह टोटका अब पुराना हो चला है. दलित या महादलित होना प्रधानमंत्री बनने की योग्यता होती तो मायावती एकांतवास न काट रही होतीं. भाग्यवाद से खुद को ऊपर उठा पाएं तो जीतन के लिए यह भी मुश्किल नहीं कि राजनीति में सबकुछ इत्तफाक से होता है. जो मौके भुनाता है और नए मौके बनाता है वह शीर्ष पर भी पहुंच जाता है. इस में न जाति आड़े आती है न पेशा.

ब्रैंड और राजनीति

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सुप्रीमो शरद पवार की पूछ अभी भी है. वजह, महाराष्ट्र की राजनीति पर उन की जमीनी पकड़ है, जहां त्रिशंकु विधानसभा की समस्या हल होते नहीं दिख रही. मध्यावधि चुनाव की भविष्यवाणी कर चुके पवार की नजर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रोडक्ट नहीं जानते लेकिन मार्केटिंग अच्छी कर लेते हैं. अर्थ बाजार में इस शब्दकोश का एक और महत्त्वपूर्ण शब्द ब्रैंडिंग है और अब हर कोई मानने लगा है कि मोदी एक अच्छे ब्रैंड हैं. राजनीति की भाषा का कारोबार के इर्दगिर्द आते जाना हैरत की बात नहीं है. अब हर कोई पैसा कमाने के लिए सेवा करना चाहता है, इसलिए ब्रैंड, प्रोडक्ट और मार्केटिंग जैसे शब्द चलन में आने लगे हैं. शुक्र है पवार को समझ तो आया कि बेचने के लिए हाथ में कुछ न कुछ हमेशा रहना चाहिए. मोदी तो 5 साल बाद विश्व गुरु बनने का सपना भी अभी से विदेशों में जाजा कर बेचने लगे हैं.

रामदेव पर मेहरबान सरकार

पद्म उपाधियों की तरह अब सुरक्षा श्रेणियां भी सरकार खैरात की तरह बांटने लगी है जो जरूरत पर नहीं बल्कि सरकार से नजदीकी और दूरी के हिसाब से मिलती हैं. रामदेव को यों ही, खामख्वाह जेड प्लस सुरक्षा दे दी गई तो कुछ नासमझ से लोगों ने सोचा कि इन्हें किस से खतरा, ये तो खुद भगवानटाइप के व्यक्ति हैं. ऐसा सोचने व सवालजवाबों के कुछ माने नहीं होते. माने इस बात के होते हैं कि जिस के पास धन होता है उसे ज्यादा खतरा रहता है. अब जब सरकार के लिए रामदेव जैसी खासमखास शख्सीयत हो तो इस में हैरानी किस बात की. सरकारी सुरक्षा अब शान और रसूख की बात हो चली है, जिसे सरकार किसी एक से छीन कर अपने वाले को दे देती है ताकि सुरक्षा लेने वाला एहसान से दबा रहे.

सारदा चिटफंड घोटाला जांच : अब बड़ी मछली की बारी

कोलकाता के प्रेसीडेंसी जेल में बंद सारदा चिटफंड घोटाला मामले के अभियुक्त व तृणमूल कांगे्रस के बहिष्कृत सांसद कुणाल घोष ने 14 नवंबर को 5 मिलीग्राम की एलजोलम नामक नींद की 54 गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की थी. इस से पहले कुणाल ने अदालत में सुनवाई के दौरान सारदा ग्रुप से आर्थिक फायदा उठाने वाले राज्य के अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों की गिरफ्तारी न किए जाने पर आत्महत्या करने की धमकी दी थी. यानी कुणाल द्वारा घोषित रूप से आत्महत्या की यह कोशिश थी. जेल प्रशासन ने धमकी को गंभीरता से नहीं लिया था. सुबह इलाज के बाद अस्पताल से बाहर निकलते हुए कुणाल ने पत्रकारों से बात करने की कोशिश की तो पुलिस ने अति तत्परता के साथ रोक दिया. कुणाल को धक्का दिया गया और उन के मुंह पर पुलिस ने अपनी टोपी रख कर मुंह खोलने से रोक दिया.

हालांकि अगले दिन कुणाल अपनी बात पत्रकारों तक पहुंचाने में सफल रहे. सीबीआई की पूछताछ के लिए जाते समय कुणाल ने यह बयान दे ही दिया कि प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सारदा चिटफंड से अगर किसी को सब से अधिक लाभ हुआ है तो वे हैं ममता बनर्जी. आत्महत्या की कोशिश से पहले सीबीआई को लिखे 4 पन्ने के पत्र में कुणाल ने ममता बनर्जी, मुकुल राय, मदन मित्र, मुख्य सचिव संजय मित्र, मुख्यमंत्री के सचिव गौतम सान्याल, कोलकाता पुलिस कमिश्नर सुरजीत पुरकायस्त, विधाननगर पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार, ‘प्रतिदिन’ अखबार के मालिक व तृणमूल के पूर्व राज्यसभा सांसद स्वप्न साधन बोस और उन के बेटे व तृणमूल के वर्तमान राज्यसभा सांसद सृंजय बोस जैसे तृणमूल के बड़े नेताओं के नाम लिए हैं. पत्र के अंत में कुणाल ने इसे सुसाइड नोट मानने का अनुरोध सीबीआई से किया था.

ममता पर सीधा निशाना

आत्महत्या की कोशिश से पहले भी पूछताछ के लिए सीबीआई दफ्तर आतेजाते कुणाल ने पत्रकारों को आगाह करते हुए कहा था कि तृणमूल के 9 बड़े नेताओं को, सारदा से आर्थिक लेनदेन कर के, सब से अधिक लाभ हुआ है, लेकिन उन से पूछताछ नहीं की जा रही है. कुणाल का यह भी कहना था कि सुदीप्त सेन भले ही इन नेताओं का नाम लेने से डर रहा हो, पर उन्हें किसी का डर नहीं है. कुणाल ने अदालत में खड़े हो कर सुदीप्त सेन, आसिफ खान को उन के सामने बिठा कर पूछताछ करने के लिए कई बार कहा है. आसिफ खान और कुणाल घोष को आमनेसामने बिठा कर जिरह हो चुकी है. रही बात सुदीप्त सेन की तो वह कुणाल के साथ आमनेसामने बैठने को राजी नहीं है.

कुणाल घोष ने जब ममता बनर्जी को उस के सामने बिठा कर जिरह करने की चुनौती दे डाली तो विरोधी पक्ष को चर्चा का मौका मिल गया. विधानसभा में विरोधी पार्टी के नेता सूर्यकांत मिश्र, कांगे्रस प्रदेशाध्यक्ष अधीर चौधरी और भाजपा प्रदेशाध्यक्ष राहुल सिन्हा ने कुणाल के प्रस्ताव का स्वागत करते हुए कहा कि अगर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी वाकई निर्दोष हैं और सारदा चिटफंड घोटाले से उन का कोई लेनादेना नहीं है तो उन्हें कुणाल की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए. गौरतलब है कि कुणाल से अब तक सीबीआई ने 14 बार, प्रवर्तन निदेशालय ने 9 बार और एसएफआईओ यानी सीरियस फ्रौड इन्वैस्टिगेशन औफिस की ओर से पूछताछ की जा चुकी है.

सारदा चिटफंड मामले के एक और आरोपी व तृणमूल से बहिष्कृत आसिफ खान ने भी इशारे ही इशारे में ममता को कठघरे में खड़ा किया है. आसिफ का कहना है, ‘‘पूरा तृणमूल कांगे्रस ही ममता की संतान है. संतान की समृद्धि देख मां को आनंद होता ही है. यह आनंद और फायदा दोनों एक ही चीज हैं.’’ गौरतलब है कि अप्रैल 2013 में सारदा चिटफंड मामले का खुलासा होने के बाद यह पहला मौका है जब ममता बनर्जी का नाम ले कर कीचड़ उछाला गया. इस से पहले आसिफ खान यह भी बयान दे चुका है कि 2009 से 2013 तक पार्टी के विभिन्न नेताओं के साथ उठनेबैठने और उन के लिए चाय परोसने के दौरान उस ने जितना कुछ देखा, समझा और जाना, वह सब सीबीआई को बता दिया है.

आसिफ खान ने तो यहां तक कह दिया कि सारदा का करोड़ों रुपया ममता बनर्जी के काफिले में शामिल एंबुलैंस में भर कर हटा दिया गया है. गौरतलब है कि जांच में रुपए से भरे 10 सूटकेसों के गायब होने का मामला सामने आ चुका है. ममता की पेंटिंग्स सुदीप्त सेन को जबरन बेचे जाने का भी मामला सामने आया है. कुणाल से पूछताछ में जांच अधिकारियों को पता चला कि सृंजय बोस के दबाव में सुदीप्त सेन को ममता की पेंटिंग 180 लाख रुपए में खरीदनी पड़ी. मगर पेंटिंग्स सुदीप्त सेन को कभी मिली नहीं.

चिदंबरम से जुड़े तार

सारदा घोटाले के तार पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम से भी जुड़े. दरअसल, पी. चिदंबरम की पत्नी नलिनी चिदंबरम असम के पूर्व कांगे्रसी सांसद मतंग सिंह की पूर्व पत्नी मनोरंजना सिंह की वकील के रूप में सारदा के मालिक सुदीप्त सेन के संपर्क में आईं. मनोरंजना सिंह और मतंग सिंह ने पूर्वोत्तर में एक टीवी चैनल खोलने के लिए सुदीप्त पर दबाव बनाया. इस के लिए मनोरंजना से 800 करोड़ रुपए के एवज में नलिनी चिदंबरम के जरिए एक करार हुआ. एक तरफ मनोरंजना सिंह ने नलिनी के जरिए सारदा को वित्त मंत्रालय से लाभ पहुंचाने का भरोसा दिया तो दूसरी तरफ नलिनी चिदंबरम ने डेढ़ साल तक तमाम कानूनी पक्षों से निबटने के लिए 1 करोड़ रुपए हर महीने लेने का करार किया था. मामले का खुलासा कुणाल द्वारा सीबीआई को 92 पन्ने के पत्र में पहले ही हो चुका था. लेकिन मालदह के पूर्व कांगे्रसी सांसद और पूर्व राज्यमंत्री अबु हसीम चौधरी ने 15 मार्च, 2012 को सारदा को आरबीआई के दायरे में लाने की मांग करते हुए एक शिकायतीपत्र लिखा था. लेकिन पी चिदंबरम और उन की पत्नी का नाम आने के बाद उन पर दबाव डाला गया. इस के बाद अबु हसीम चौधरी ने अपनी शिकायत वापस ले ली.

बंगाल के मालदह से कांगे्रस सांसद और राज्यमंत्री अबु हसीम चौधरी ने सारदा ग्रुप के खिलाफ लिखी अपनी सारी शिकायतें वापस ले ली थीं. चौधरी ने पहले सारदा ग्रुप के खिलाफ शिकायती चिट्ठी लिखी थी और कहा था कि इस चिटफंड कंपनी को आरबीआई के दायरे में लाना चाहिए. लेकिन 15 मार्च, 2012 को उन्होंने अपनी शिकायत वापस ले ली. सारदा ग्रुप औफ कंपनी से तृणमूल नेताओं के अलावा पार्टी के समर्थक फिल्मी हस्ती से ले कर पेंटर तक ने खूब पैसा बटोरा. प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई के जांच के घेरे में अपर्णा सेन, मिथुन चक्रवर्ती और शुभाप्रसन्न भट्टाचार्य तक के नाम शामिल हैं. अपर्णा सेन का नाम सारदा मीडिया की एक पत्रिका के संपादक के रूप में और मिथुन चक्रवर्ती पर सारदा मीडिया के न्यूज चैनल के ब्रैंड एंबैसेडर के रूप में हर महीने एक बहुत ही मोटी रकम लेने का आरोप है.

राज्य में सत्ता परिवर्तन के साथ वाम समर्थक माने जाने वाले मिथुन चक्रवर्ती ने पाला बदला और वे तृणमूल समर्थक बन गए. इस का फायदा उन्हें सारदा के वेतनभोगी के रूप में मिला. वहीं सिंगूरनंदीग्राम आंदोलन से जुड़ने के साथ अपर्णा सेन ने माओवादियों के साथ मध्यस्थता भी की थी. इसी तरह नंदीग्रामसिंगूर आंदोलन के दौरान तृणमूल बुद्धिजीवियों के अगुआ बने तृणमूल समर्थक पेंटर शुभाप्रसन्न भट्टाचार्य खूब फलेफूले. जांच से साफ हो गया है कि पहले वामपंथी और फिर तृणमूल समर्थक शुभाप्रसन्न ने सारदा का खूब दोहन किया. उन्होंने देवकृपा व्यापार प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक फर्जी कंपनी को सुदीप्त सेन को बेचा. ममता के करीबी माने जाने वाले पेंटर ने सारदा से इस के अलावा भी खूब पैसा बटोरा. गौरतलब है कि प्रवर्तन निदेशालय अब तक शुभाप्रसन्न के 26 बैंक अकाउंट फ्रीज कर चुका है. साथ ही मुंबई में उन के 3 होटल और 2 फ्लैटों को जब्त करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.

श्यामल सेन कमीशन

श्यामल सेन कमीशन की जांच अवधि को बढ़ाने से अक्तूबर में राज्य गृह विभाग ने इनकार कर दिया. गृह विभाग का कहना है कि चूंकि सारदा मामले की जांच सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय कर रहा है, इसलिए प्रताडि़तों को रकम लौटाने की जिम्मेदारी अब सरकार की नहीं है. इस से पहले सारदा की संपत्ति की बिक्री कर के श्यामल सेन कमीशन ने 17 लाख प्रताडि़त लोगों को पूंजी लौटाई. इन में से 5 लाख लोगों ने 10 हजार रुपए से कम की रकम सारदा में जमा की थी. बहरहाल, सरकार के इस फैसले के खिलाफ प्रताडि़त लोगों ने यह कहते हुए हाईकोर्ट में मामला दायर किया है कि श्यामल सेन कमीशन न केवल सारदा चिटफंड की जांच कर रहा था, बल्कि इस जैसी अन्य 108 कंपनियों की भी जांच कर रहा है. मामला अभी भी विचाराधीन है.

जांच में प्रगति

इस बीच कई केंद्रीय जांच संस्थाओं को सारदा घोटाले का जिम्मा सौंपा गया है. प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय इस की जांच कर रहे हैं. इस दौरान, सीबीआई की ओर से 2 चार्जशीट जमा कर दी गई हैं. पहली चार्जशीट में सुदीप्त सेन, देवजानी मुखर्जी, कुणाल घोष, रजत मजूमदार, असम गायक सदानंद गोगई, ईस्ट बंगाल फुटबाल क्लब के पदाधिकारी देवव्रत उर्फ नीतू सरकार, कोलकाता कारोबारी सज्जन अग्रवाल और उस का बेटा संधीर अग्रवाल के नाम हैं. इन में सज्जन अग्रवाल को छोड़ कर बाकी सब गिरफ्तार किए जा चुके हैं. बताया जाता है कि सीबीआई की दूसरी चार्जशीट में कोई बड़ा नाम नहीं है. हालांकि सीबीआई जल्द ही अगली चार्जशीट जमा करेगी. आशंका व्यक्त की जा रही है इस में सृंजय बोस के अलावा कई चौंकाने वाले नाम हो सकते हैं.

सीबीआई के अलावा प्रवर्तन निदेशालय की ओर से भी जांच का काम चल रहा है. प्रवर्तन निदेशालय को पहले चरण में सारदा के 350 करोड़ रुपए की संपत्ति का पता चला था. इस के बाद 150 करोड़ रुपए की और भी संपत्ति का पता चला. फिलहाल इन संपत्तियों से जुड़े तमाम तथ्यों की भी जांच की जा रही है. पता यह भी चला है कि सारदा टूर ऐंड ट्रैवेल्स के नाम पर बाजार से 1,259 करोड़ रुपए की उगाही की गई और इस रकम को सारदा मीडिया ग्रुप में लगाया गया. गौरतलब है कि सारदा मीडिया ग्रुप का इस्तेमाल ममता के पक्ष में जनसमर्थन बनाने के लिए भी किया गया. इस का फायदा विधानसभा चुनाव में देखने को मिला.

बहरहाल, सारदा मीडिया में बड़े नुकसान का हवाला दे कर सुदीप्त सेन ने कई अखबार और चैनल को बंद करने व उन में आगे रकम झोंकने से मना कर दिया. सुदीप्त सेन ने सारदा मीडिया के कर्मचारियों के वेतन भी रोक दिए. यहीं से कुणाल घोष और सृंजय बोस के साथ सुदीप्त के संबंध बिगड़ने लगे. अर्पिता घोष ने कर्मचारियों के वेतन के लिए पुलिस में एफआईआर दर्ज करा दी.

कई राज्यों से जुड़े तार

पश्चिम बंगाल के सारदा घोटाले के तार असम तक जा पहुंचे. सारदा से प्रताडि़त लोगों को न्याय दिलाने के लिए असम विधानसभा ने असम निवेशक हित संरक्षण बिल (2013) को आम सहमति से पारित किया. असम सरकार ने स्वत:प्रेरित हो कर सारदा ग्रुप के खिलाफ मामला दायर किया है. इस के अलावा, असम सरकार ने अन्य 127 चिटफंड कंपनियों के खिलाफ भी मामला दायर किया. 303 लोगों की गिरफ्तारी हुई और उन के पास से 94 लाख रुपए जब्त किए गए. इस के अलावा विभिन्न बैंकों के अकाउंट में जमा 24 करोड़ रुपए भी जब्त किए गए. फिलहाल, मामला सीबीआई जांच के दायरे में है.

बंगाल के सीमांत इलाके के गांवकसबे के लगभग 6 हजार निवेशकों की शिकायत पर ओडिशा सरकार ने राज्य पुलिस के अंतर्गत आर्थिक अपराध शाखा को जांच का निर्देश दिया. इस बीच, शारदा ग्रुप के खिलाफ 207 मामले दायर किए गए. सारदा के दफ्तर के अधिकारियों और एजेंटों को मिला कर 440 लोगों को गिरफ्तार किया गया. भारतीय दंड विधान, प्राइस चिट ऐंड मनी सर्कुलेशन स्कीम ऐक्ट, ओडिशा निवेशक हित संरक्षण बिल के तहत 120 मामले में चार्जशीट जमा की जा चुकी है. मई, 2014 में सारदा घोटाले का मामला सीबीआई को सौंप दिया गया. वहीं, त्रिपुरा में भी सारदा द्वारा लोगों को सब्जबाग दिखा कर निवेशकों को उल्लू बनाने का मामला सामने आया है. त्रिपुरा सरकार ने सारदा से जुड़ी तमाम शिकायतों को 9 मई, 2014 को सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग को सौंप दिया है.

पूर्वोत्तर से बंगलादेश तक पहुंचा

आरोप है कि असम के पूर्व कांगे्रसी सांसद हेमंत विश्वकर्मा के जरिए आसू, अल्फा और नगालैंड के अलगाववादी संगठन एनएससीएन (आईएम) के साथ सारदा का समझौता हुआ, ताकि पूर्वोत्तर के राज्यों में सारदा अपनी पहुंच बना सके. बंगाल ही नहीं, असम और त्रिपुरा के रास्ते भी सारदा के पैसे बंगलादेश तक पहुंचे जिस का इस्तेमाल बंगलादेश की शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग की सरकार को अस्थिर करने में हुआ. हाल ही में शेख हसीना सरकार ने भारत की केंद्र सरकार को एक खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट भी भेजी है. रिपोर्ट में तृणमूल कांगे्रस का इस में सीधे हाथ होने की बात कही गई है. रिपोर्ट में तृणमूल सांसद अहमद हसन इमरान का संपर्क जमात-ए-इसलामी से जुड़े होने की बात कही गई है.

गौरतलब है कि 1970 के युद्ध अपराधियों को बंगलादेश विशेष अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी. बंगलादेश की विपक्षी नेता खालिदा जिया समर्थक  जमात-ए-इसलामी ने 2013 में ढाका के शाहबाग मैदान समेत पूरे बंगलादेश में उपद्रव मचाया था. आएदिन हिंसक झड़पों, लूटपाट, विरोधप्रदर्शन और आगजनी के दौरान सैकड़ों लोग मारे गए थे. यह उपद्रव शाहबाग आंदोलन के नाम से जाना जाता है. दरअसल, 1971 के मुक्ति संग्राम के बाद शेख हसीना ने जमात-ए-इसलामी को प्रतिबंधित घोषित कर दिया है. केंद्र को भेजी गई रिपोर्ट में बंगलादेश खुफिया एजेंसी का आरोप है कि पश्चिम बंगाल के सीमा से सटे बनगांव, हासनाबाद, बशीरहाट, लालगोला, हबीबपुर, कालियागंज, बालूरघाट जैसे इलाके के जरिए तृणमूल सांसद अहमद हसन इमरान ने बंगलादेश में हथियार और गोलाबारूद सप्लाई किए थे.

बंगलादेश ने ममता बनर्जी पर यह भी आरोप लगाया है कि अपने मुसलमान वोटबैंक को बनाए रखने के लिए उन के द्वारा जमात-ए-इसलामी को मदद दी जाती रही. यही नहीं, जमात-ए-इसलामी के इशारे पर ममता बनर्जी तिस्ता जल बंटवारे में अड़चन डाल रही हैं. ममता के कारण भारत के बंगलादेश के साथ और भी कई समझौते अधर में लटक गए हैं. अब तक की जांच से साफ हो चुका है कि सारदा की बहती गंगा में तृणमूल से जुड़े तमाम नेताओं से ले कर विधायकों, सांसदों, पत्रकारों, संपादकों, बौलीवुड से ले कर टौलीवुड के अभिनेताअभिनेत्रियों और पेंटर तक सब ने हाथ धोए. न केवल हाथ धोए, बल्कि आकंठ डुबकी भी लगाई. दरअसल, सत्ता में आने के बाद ममता ने इन सभी को सारदा के जरिए फायदा पहुंचाया. वहीं, सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के हाथ धीरेधीरे प्रभावशाली लोगों तक पहुंच रहे हैं. इस बीच, वामपंथी संगठनों ने सीबीआई को ज्ञापन दे कर जल्द से जल्द सारदा से जुड़ी बड़ी मछलियों को पकड़ने की मांग की है.

सार्क का मकसद फेल : नहीं चली भारत की

‘कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से, ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो’. कहना गलत न होगा कि बशीर बद्र की शायरी की ये लाइनें सार्क सम्मेलन के दौरान नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ के बीच सच होती दिखीं. नेपाल की राजधानी काठमांडू से 30 किलोमीटर दूर धुलीखेल में 26 नवंबर को शुरू हुआ 18वां सार्क शिखर सम्मेलन 27 नवंबर को खत्म हो गया पर पाकिस्तान के अक्खड़पन की वजह से सार्क देशों के बीच आपसी सहयोग और व्यापार की कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकीं. प्रधानमंत्री बनने के बाद जिन मोदी ने पाकिस्तान की करतूतों को भुला कर गले मिलने के लिए नवाज को भारत बुला कर खातिरदारी की थी, उन्हीं से सार्क सम्मेलन में मोदी कटेकटे रहे.

दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संघ यानी दक्षेस का 18वां शिखर सम्मेलन भारत और पाकिस्तान की तनातनी का शिकार हो कर रह गया. सम्मेलन पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस उत्साह से पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने शपथग्रहण समारोह में न्योता दिया था और नवाज ने जिस गर्मजोशी से मोदी का बुलावा कुबूल किया था, वह सार्क सम्मेलन में पूरी तरह से ठंडा दिखा. पाकिस्तान के अडि़यल रवैए की वजह से सार्क सम्मेलन में कोई ठोस फैसले नहीं लिए जा सके और सार्क के सदस्य देशों को यह बात साफ हो गई कि जब तक भारत और पाक के बीच के रिश्ते नहीं सुधरेंगे तब तक सम्मेलन का मकसद और घोषणापत्र पर कागजों से बाहर निकल पाना मुमकिन नहीं है.

सार्क शिखर सम्मेलन के आखिरी दिन आखिरी समय में सार्क देशों के बीच बिजली व्यापार को ले कर समझौता हुआ, जिस ने सम्मेलन की लाज बचा ली. मोटर गाडि़यों की आवाजाही और रेल सदस्य देश इन समझौतों को आगे बढ़ाने को सहमत थे. पाकिस्तान ने इन करारों के प्रस्ताव से खुद को जहां अलगथलग रखा वहीं बिजली व्यापार को ले कर भी आंतरिक कार्यवाही पूरी न होने का हवाला दे कर आखिरी पल तक रोड़े अटकाने की पुरजोर कोशिश की. सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला ने घोषणापत्र पर सहमति बनाने की पूरी कोशिश की पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने उन की उम्मीदों और कोशिशों पर पानी फेर दिया. 

दरअसल, पाकिस्तान इस बात से खार खाए बैठा है कि भारत ने विदेश सचिव स्तर की बातचीत को पिछले दिनों रद्द कर दिया था. गौरतलब है कि भारत ने दोनों देशों के बीच सचिव स्तर की होने वाली बातचीत को यह कह कर रद्द कर दिया था कि जब तक पाकिस्तान कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से बात करना, आतंकवाद को बढ़ावा देना और सीमा पर गोलीबारी करना बंद नहीं करेगा तब तक किसी भी तरह की बातचीत बेकार है. पाकिस्तान भारत के इस फैसले को एकतरफा करार दे कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को घेरने की फिराक में लगा है, पर कहीं उस की दाल गल नहीं पा रही है. भारत में तेजी से बढ़ते बाजार के साथ सार्क के सभी देश जुड़ना चाहते हैं पर अकेला पाकिस्तान ही भारत से ‘कभी हां तो कभी ना’ वाला रिश्ता बनाए हुए है.

पिछले 29 सालों मेें सार्क की कुल 18 बैठकें ही हो सकी हैं. शुरू के 4 सालों में तो हरेक साल सार्क सम्मेलन आयोजित हुआ. उस के बाद कभी 2 साल तो कभी 3 साल के अंतराल पर इस का आयोजन किया जा सका. 17वां सम्मेलन 2011 में हुआ और 18वां अब हो सका. अर्थशास्त्री हेमंत राव मानते हैं कि सार्क देशों की समस्याएं और जरूरतें करीबकरीब एक जैसी हैं. सभी देशों में बिजली, सड़क, रेल, पानी आदि मूलभूत सुविधाओं की हालत खराब है. इन में भारत की हालत ही कुछ बेहतर है. इस वजह से सार्क देश भारत से जलतेभुनते रहे हैं.

पिछले कुछेक सालों में पाकिस्तान को छोड़ कर बाकी देशों का रवैया भारत के प्रति बदला है. 18वें सार्क सम्मेलन में यह साफ दिखा भी. सम्मेलन में सभी सदस्य देश चाह रहे थे कि भारत और पाकिस्तान के रिश्तों पर सालों से जमी बर्फ पिघले और सार्क के गठन का मकसद पूरा हो सके. लेकिन पाकिस्तान की जिद और अकड़ की वजह से ऐसा मुमकिन नहीं हो सका.

भारत ने भरी नेपाल की झोली

सार्क सम्मेलन के दौरान ही नेपाल के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए भारत ने 600 करोड़ रुपए की मदद देने का ऐलान किया. सार्क सम्मेलन में हिस्सा लेने काठमांडू पहुंचे नरेंद्र मोदी ने नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला के साथ 40 मिनट की बातचीत में 10 समझौते किए. नेपाल में अरुण नदी पर 900 मेगावाट पनबिजली घर लगाने को ले कर करार किया गया. साल 2021 तक इस योजना को पूरा कर लिया जाएगा और इस से पैदा होने वाली कुल बिजली का 21 फीसदी हिस्सा नेपाल को मुफ्त में मिलेगा. मोटर वाहन को ले कर हुए समझौते में कहा गया है कि दोनों देशों के मुसाफिर एकदूसरे देश में आसानी से आजा सकेंगे और दोनों देशों के तयशुदा मार्गों पर चलने के लिए गाडि़यों को परमिट दिए जाएंगे. इस के साथ ही, भारतीय पर्यटकों को यह राहत दी गई कि वे 1000 और 500 रुपए के नोट ले कर नेपाल जा सकेंगे पर यह रकम 25 हजार रुपए से ज्यादा नहीं होगी.

डेढ़ अरब रुपए की लागत से बना 200 बैड वाला ट्रामा सैंटर मोदी ने नेपाल को भेंट किया. इस की नींव 1997 में तब के भारतीय प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने रखी थी. इस के अलावा काठमांडू और दिल्ली के बीच बस सर्विस की शुरुआत भी की गई. नेपाल पर मदद की बौछार करने के बाद मोदी ने मुसकराते हुए नेपाल के प्रधानमंत्री से कहा, ‘‘अगर नेपाल मुसकराता है तो भारत को खुशी होगी.’’ नेपाल के लिए मदद की झोली खोल भारत ने नेपाल को जहां अपना मुरीद बनाने की कोशिश की है वहीं नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने का भी उस ने दांव खेला है. पिछले जुलाई महीने में भी भारत सरकार ने नेपाल को 1 अरब डौलर का रियायती कर्ज दे कर यह साफ तौर पर बता दिया कि माली मदद के लिए उसे चीन के सामने हाथ पसारने की दरकार नहीं है.

रिटायर्ड आईएएस अफसर कमला प्रसाद कहते हैं कि भारत ने काफी लंबे समय तक नेपाल की अनदेखी करने का खमियाजा भुगता है. पिछले 17 सालों से भारत के प्रधानमंत्री का वहां नहीं जाना तो यही साबित करता है कि भारत लंबे समय से उसे हलके में लेता रहा है. इस से मजबूर हो कर नेपाल ने चीन की ओर ताकना शुरू किया और चीन ने नेपाल की कमजोरी और गरीबी का भरपूर फायदा उठा कर उस के सामने रुपयों का पिटारा खोलना चालू कर दिया. इसी बेचैनी में भारत ने अब नेपाल पर ध्यान देना शुरू किया है.

नेपाल की परेशानी

भारत और चीन के धौंस और पुचकार के बीच उस की हालत सांपछछुंदर वाली बनी हुई है. नेपाल की मजबूरी है कि वह न भारत की अनदेखी कर सकता है, न ही चीन की. नेपाल के लिए सब से बड़ी परेशानी यह रही है कि भारत और चीन दोनों उसे अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं और वे एकदूसरे पर रौब व धौंस जमाने के लिए नेपाल की जमीन का बेजा इस्तेमाल करते रहे हैं. 2 बड़े एशियाई देशों की नाक की लड़ाई में नेपाल पिछले कई सालों से जंग का मैदान बना हुआ है.

ध्वस्त हो गया रामपाल का सामंती साम्राज्य

संतों की भारत भूमि पर आजकल एक और ‘संत की लीला’ के चर्चे गरम हो रहे हैं. एक हफ्ते तक न्यायिक और राजसत्ता को अपने किलेनुमा आश्रम से किसी राजशाही सामंत की तरह टक्कर और चुनौती देने वाला कथित संत रामपाल आखिर धरा गया. अपने निजी सुरक्षा कर्मचारियों और अनुयायियों की फौज को आगे कर वह पुलिस और सुरक्षा जवानों को लगातार छकाने में कामयाब हो रहा था. 19 नवंबर को आखिर उसे राजसत्ता के जवानों के आगे पस्त होना ही पड़ा. जब यह प्रतिनिधि गिरफ्तारी के 2 रोज बाद हरियाणा के बरवाला से 3 किलोमीटर दूर चंडीगढ़टोहाना मार्ग पर बने विशाल महलनुमा आश्रम पर पहुंचा तो भी देखा कि बाहर सैकड़ों लोगों की भीड़ है. भीड़ में आश्रम के किसी रहस्य के उजागर होने जैसी उत्सुकता दिखाई दे रही थी. लोग खुशी और रोमांच से भरे हुए थे. भीड़ में ज्यादातर आसपास के गांवों के लोग थे जो आश्रम की गतिविधियों पर संदेह करते आ रहे थे और इस से परेशान थे.

रामपाल को ले कर तरहतरह की चर्चाएं हैं. रामपाल आखिर आश्रम में क्या करता था? उस ने अपनी कमांडो फोर्स क्यों बनाई? पुलिस और सुरक्षा बलों के जवानों के साथसाथ आश्रम के बाहर मौजूद हर व्यक्ति जानना चाहता है कि आश्रम के भीतर से क्या कुछ नया रहस्य बाहर निकल कर आ रहा है. सतलोक आश्रम के तिलिस्म से परदा उठ रहा है. आश्रम के प्रमुख रामपाल और उस के 800 से ज्यादा समर्थकों की गिरफ्तारी के बाद आश्रम में सर्च अभियान चलता रहा. नएनए खुलासे होते रहे. पहले आश्रम के भीतर क्या चल रहा था, अब तक किसी को पता न था. 

इस प्रतिनिधि ने देखा कि करीब 12 एकड़ में फैले और सामने 3 दीवारों से मजबूत किलेबंदी वाले विशाल सतलोक आश्रम के मुख्य दरवाजे पर खड़े अधिकारी भीतर से आ रहे सामान पर गहराई से निगाह रख रहे हैं और फिर उस सामान को टै्रक्टरों में भर कर पुलिस के संरक्षण में भेजा जा रहा था. आश्रम के अंदर केवल जांच टीम के सदस्य मौजूद थे. अन्य किसी को भी अंदर जाने की इजाजत नहीं थी. 3 दिन पहले पुलिस से पिट चुका मीडिया 30 फुट दूर से ही तमाशा देख रहा था.

संदेहास्पद आश्रम

4-5 दिन तक आश्रम समर्थकों और पुलिस के बीच हुई हिंसक झड़प के बाद आश्रम से हजारों महिला, पुरुष, बच्चे, अनुयायियों को बाहर निकाला गया. इन में से 6 लोगों की मौत हो गई. मरने वालों में 4 महिलाएं थीं. आश्रम के भीतर से भारी मात्रा में हथियार, लाठियां, तेजाब की बोतलें, पैट्रोल बम, हजारों गुलेल, कमांडो ड्रैसें मिलने से सनसनी व्याप्त है. हजारों भक्तों को बाहर निकालने के 2 दिन बाद आश्रम में महिलाओं के अंत:वस्त्र, कंडोम, नशीली दवाएं, गर्भपात कराने की किट और एक बेहोश महिला के मिलने की खबर से आश्रम और भी संदेहास्पद लग रहा था. आश्रम से लैपटौप, कंप्यूटर, हार्डडिस्क, सीडी, डायरियां भी बरामद हुईं.

आश्रम के आगे की बाहरी दीवार टूटी हुई है. अंदर भक्तों के रहने की जगह नजर आ रही थी. टूटी दीवार के पास दर्जनों धूलभरी मोटरसाइकिलें खड़ी थीं. ये शायद आश्रम के कर्मचारियों की हैं. दावा किया जा रहा है कि आश्रम में सुरक्षा, सफाई, खानपान, हिसाबकिताब देखने वाले आदि सैकड़ों कर्मचारी थे. दीवार को पुलिस द्वारा जेसीबी मशीनें लगा कर तोड़ दिया गया क्योंकि इस दीवार समेत भीतर तहखाना और मंजिलें बनाने के लिए कोई अनुमति नहीं ली गई थी. आश्रम को हाईवोल्टेज का कनैक्शन भी दे दिया गया था. क्यों और कैसे का जवाब कोई देने को तैयार नहीं. लग रहा है, प्रशासन ने इस पूरे निर्माण पर पहले आंखें  मूंदे रखीं.

रामपाल के रोहतक जिले के करौंथा आश्रम में गोलीबारी से एक आदमी की मौत के बाद उस के खिलाफ 2006 में रोहतक के सदर थाना में हत्या का मामला दर्ज हुआ था. वहां रामपाल का पहला सब से बड़ा हिंसक संघर्ष हुआ था. वह कुछ समय जेल में भी रहा. फिर उसे जमानत मिल गई पर अदालत में पेशियों पर गैरहाजिर रहने लगा. इसी वजह से उस की जमानत रद्द कर दी गई. इस संघर्ष की वजह, उस का भक्तों को अपने प्रवचन में आर्यसमाजियों के विरुद्ध खूब विषवमन करना था. उस की लिखी किताबों में भी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की खिल्ली उड़ाई गई है. इस से आर्य समाज के लोग भड़क गए थे और रामपाल को बाज आने की चेतावनी दी थी. रामपाल ने 2008 के बाद अदालत में पेशी पर जाना बंद कर दिया और उस के समर्थक वकीलों से उलझ पड़ते थे. रामपाल द्वारा जजों के खिलाफ पर्चे बांटे गए जिस में लिखा होता था,  ‘भ्रष्ट जज कुमार्ग पर’ है. ऐसा कर के उस ने न्यायपालिका व शासनप्रशासन से सीधा टकराव मोल ले लिया.

हिसार जिला अदालत के एडवोकेट सुंदरलाल सैनी कहते हैं, ‘‘अदालत की तारीख के आसपास वह जानबूझ कर आश्रम में सत्संग रखता था और अपने हजारों अनुयायियों को इकट्ठा करता था. उस के हजारों अनुयायी अदालत में हंगामा करते थे. वकीलों से बदसलूकी करते थे और जजों पर दबाव बनाते थे, धमकाते भी थे. वकीलों को उस के खिलाफ हड़ताल करनी पड़ी. पुलिस जब वारंट तामील कराने जाती तो समर्थकों द्वारा पुलिस को धमकाया जाता था. हम ने उस की ज्यादती की शिकायत चंडीगढ़ हाईकोर्ट में भेजी थी. फिर भी उस ने कोई परवा नहीं की. वह खुद को सरकार और न्यायपालिका से ऊपर समझने लगा था और अदालती आदेश की अवहेलना करता रहा. वह सरकार और अदालत को चुनौती देने लगा था.’’

2008 के बाद रामपाल अदालत में हाजिर नहीं हुआ. उस के खिलाफ 40 से अधिक बार वारंट जारी किए जा चुके थे फिर भी वह टालमटोल करता रहा. बीमारी का बहाना खोजता था. आखिर पंजाब ऐंड चंडीगढ़ हाईकोर्ट ने इस पाखंडी की मंशा को समझा और गैरजमानती वारंट जारी किए. पुलिस बारबार वारंट तामील कराने में नाकाम रही तो पुलिस को कई बार फटकार सुननी पड़ी. ताजा वारंट जारी करने के बावजूद पुलिस उसे पकड़ने में नाकाम रही तो अंत में हाईकोर्ट को कहना पड़ा कि सरकार अगर रामपाल को पेश नहीं कर सकती तो मुख्यमंत्री को अदालत में पेश किया जाए. इस से आश्रम के बाहर तनाव फैल गया क्योंकि रामपाल के समर्थक कहते थे कि वे कानून और सरकार को नहीं मानते, वे तो कथित ईश्वर के दूत की मानते हैं जो रामपाल ही है.

सोचीसमझी रणनीति

अदालत की सख्ती के बाद सरकार को रामपाल की गिरफ्तारी के पक्के इंतजाम करने पड़े. क्योंकि हजारों समर्थक सतलोक आश्रम में डेरा डाले रामपाल की हिफाजत के लिए जान देने की बात कर रहे थे. प्रशासन द्वारा इस से निबटने के लिए भारी संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया लेकिन रामपाल को शायद पहले से अंदेशा था कि अब वह अदालती शिकंजे से बच नहीं पाएगा, इसीलिए उस ने 7 दिन का सत्संग का आयोजन रखा और अपने हजारों समर्थकों को आश्रम में इकट्ठा कर लिया. आश्रम की किलेबंदी कर दी गई. हथियार, लाठियां, पैट्रोल बम, गुलेल, ईंट, पत्थर आदि सामान पुलिस से मुकाबले के लिए तैयार कर लिए गए. रामपाल की ‘सेना’ आश्रम की छत व दीवारों पर जंग के लिए आ डटी. महिलाएं और बच्चों को भी आगे कर दिया गया. रामपाल आश्रम में छिपा रहा. पुलिस ने आश्रम के संचालकों से बारबार रामपाल को उसे सौंपने के लिए कहा. बारबार चेतावनी दी गई लेकिन रामपाल हठधर्मिता ओढे़ अंदर घुसा रहा. रामपाल ने लोगों को इकट्ठा करने के लिए आश्रम में 7 दिन का सत्संग रखा था और भक्तों को संदेश भेजे गए कि सभी गुरुमर्यादा को ध्यान में रख कर सत्संग में पहुंचें. वह भक्तों को मर्यादा में बांध कर रखता था. वह कहता था कि भक्तों को गुरुमर्यादा में रहना जरूरी है. वह अपनी हर बात मानने के लिए कहता था. हर बाबा की तरह रामपाल भी अपने भक्तों से सुख, शांति, समृद्धि के लिए पूजापाठ के एवज में 8 से 10 हजार रुपए लेता था.

पुलिस ने आत्मसमर्पण कराने के लिए रामपाल के भरोसेमंद 2 नेताओं के जरिए उस से बात भी की पर कोई फायदा नहीं हुआ. पुलिस ने रामपाल के बेटे को कब्जे में ले कर धमकाया तो उस ने अपने पिता से बात की, तब जा कर वह समर्पण को राजी हुआ.  रामपाल की गिरफ्तारी के बाद उस के पाखंड के किस्से खुलने शुरू हो गए. उस के खिलाफ हत्या के प्रयास, देशद्रोह सहित विभिन्न धाराओं में 2 दर्जन से अधिक मामले दर्ज किए गए हैं. आश्रम की तलाशी में तरहतरह के सामान मिल रहे हैं. जांच का काम एक एसआईटी गठित कर उसे सौंपा गया है. जांच से पता चला है कि रामपाल के 3 में से 2 ट्रस्ट ही पंजीकृत हैं. एक, कबीर परमेश्वर भक्ति ट्रस्ट (हिसार) तथा दूसरा, बंदी छोड़ भक्ति मुक्ति ट्रस्ट (लुधियाना).

अकूत संपत्ति का मालिक

रामपाल की ज्यादातर संपत्तियां बंदी छोड़ भक्ति मुक्ति ट्रस्ट के अंतर्गत हैं. इस ट्रस्ट के नाम से उस ने मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के निकट उड़दन गांव में 50 एकड़ जमीन ली थी जिस पर आश्रम निर्माणाधीन है. साढे़ 4 एकड़ की जमीन पर बना करौंथा आश्रम, दौलतपुर में 2 एकड़ और सतलोक आश्रम क 12 एकड़ जमीन खरीदी गई कीं. जांच में अभी तक कबीर परमेश्वर भक्ति ट्रस्ट की संपत्ति नहीं आंकी गई है. अनुमान है कि रामपाल के पास 250 करोड़ से ज्यादा की संपत्ति है. पूर्व सरपंच धर्मपाल कहते हैं, ‘‘लोगों को इस बात का भी डर रहता था कि उन्हें कहीं अपनी जमीन, घर बेच कर न जाना पड़ जाए. लोकल गांव का कोई भी आदमी रामपाल का चेला नहीं है, सब बाहर के हैं. अंदर क्या चल रहा होता था, किसी को कुछ पता न रहता था.’’

निकटवर्ती बरवाला के बलबीर सिंह कहते हैं, ‘‘गांववासी खुश हैं. उन जज को शुक्रिया, जिन्होंने सही निर्णय लिया. सचाईर् के प्रति आम जनता में खुशी का माहौल है.’’ कुछ समझदार लोग चकित हैं कि कैसे हजारों, लाखों लोग इन बाबाओं के झांसे में फंस जाते हैं. इन के गीत गाने लगते हैं और इन के लिए जान देने को तैयार रहते हैं. आखिर किस तरह रामपाल ने भक्तों पर अपना प्रभाव जमा रखा था. 1995 में राज्य के सिंचाई विभाग में जेई की नौकरी छोड़ कर रामपाल ने अपने गांव घनाना में ही सत्संग की शुरुआत की थी. शुरू में यहां 10-12 परिवार उस के साथ जुड़े लेकिन गांव के दूसरे परिवार उस के विरुद्ध हो गए. इस के बाद रामपाल को वहां से जाना पड़ा.

हत्या के मुकदमे के बाद रामपाल धर्म की ओट में झूठे चमत्कारों के दिखावे और फर्जी किस्सों के जरिए भोलीभाली जनता की भीड़ जुटाने में लग गया. इस के लिए वह तरहतरह के टोटके आजमाने से नहीं चूका. गुफा के जरिए लोगों में अंधविश्वास फैलाने में कामयाब हो गया और उस के अनुयायियों की भीड़ बढ़ती गई. रामपाल एक ट्रौलीनुमा हाइड्रोलिक लिफ्ट के जरिए एक जगह से दूसरी जगह अनुयायियों के बीच प्रकट होता था. इसी अंधविश्वास के कारण लोग उसे चमत्कारी, भगवान का अवतार समझने लगे थे.

वह अपने सिंहासन के पास बने कमरे में हजारों शीशियां रखता था, जो तलाशी में बरामद हुई हैं. पूछताछ में उस के समर्थक बताते हैं कि वह भक्तों को जो पानी चमत्कारी तथा दुख निवारक बता कर चरणामृत के रूप में देता था वह असल में ट्यूबवैल का पानी होता था. इन शीशियों में वह यही पानी भर कर रखता था. रामपाल टैलीविजन पर धार्मिक चैनलों में भी अपने प्रवचनों के माध्यम से लोगों को आकर्षित करता था. टीवी के अलावा खुद की साहित्य प्रचार सामग्री के जरिए वह लोगों तक पैठ बनाता था. वह आश्रम में अपने भक्तों को अपनी फोटो वाले स्टिकर, तसवीर वाले लौकेट, अंगूठी बेचता था. आश्रम की दीवारों पर उस के छोटेबड़े पोस्टर, बोर्ड लगे हैं जिन में उसे जगद्गुरु, भगवान बताया गया है. अनेक लोग चैनल पर उस के प्रवचन सुन कर आश्रम से जुड़ गए. इस तरह उस के भक्तों की तादाद बढ़ती गई. रामपाल के विभिन्न राज्यों में 12 लाख से ज्यादा अनुयायी बताए जाते हैं. उस के एजेंट अनुयायियों को खराब किडनी, कैंसर से ठीक करने और मृत अवस्था में पहुंच चुके व्यक्ति को जीवित करने जैसे चमत्कारी किस्से सुनाते हैं. बलबीर सिंह के अनुसार, रामपाल खुद को कबीरपंथी बताता है लेकिन कबीर ने अपने साहित्य में जो मानवता की सीख दी थी, रामपाल के प्रवचनों में वे बातें कहीं नहीं कही जातीं. वह तो कबीर की आड़ में धर्म की दुकान चला रहा था.

और भी हैं ऐसे बाबा  

हरियाणा में यह पहला मामला नहीं है. इस से पहले भी बाबाओं और उन के विरोधियों तथा बाबाओं में ही आपस में गैंगवार चलती रही है. डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम सिंह और सिखों के बीच काफी समय से तनाव के हालात हैं. खूनी संघर्ष भी हो चुके हैं. राम रहीम पर कई मामले दर्ज हैं. उस के भक्तों की तादाद भी हजारों में है. डेरा सच्चा सौदा के बाबा राम रहीम सिंह को अंबाला कोर्ट में पेश करने में पुलिस प्रशासन को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी. उस के समर्थक भी बाबा को अदालत से  बड़ा मानते थे. एक  वक्त लोगों की नजरों में कथित भगवान का अवतार बन चुका आसाराम जब बलात्कारी का रूप निकला तो भक्तों की आंखें खुलीं. आसाराम को भी इंदौर आश्रम में राजस्थान और गुजरात पुलिस पकड़ने गई तो विरोध में उस के हजारों समर्थक सड़कों पर उतर आए थे. आखिर वह पकड़ा गया और उस के ईश्वरत्व का मुलम्मा उतर गया. उस के लाखों भक्तों की आंखों पर पड़ा श्रद्धा का परदा भी हट गया. आज 1 साल से अधिक समय बाद भी आसाराम जेल के सीखचों से बाहर नहीं आ पाया है.

कुछ समय पहले निर्मल बाबा के खिलाफ धोखाधड़ी के मामले ने तूल पकड़ा था. वह चुटकुलेनुमा टोटके बता कर लोगों से करोड़ों रुपए ऐंठ चुका है और अब फिर टैलीविजन चैनलों पर बेशर्मी के साथ धर्मांधों को बेवकूफ बना रहा है. वह अपने दरबार में प्रवेश की 2 हजार रुपए फीस वसूलता है. संत की शक्ल में आज जो रामपाल गिरफ्तार किया गया है वह एक इंजीनियर था. एक मामूली से इंजीनियर का इस वक्त 250 करोड़ रुपए से ऊपर का टर्नओवर बताया जाता है. इसी तरह, स्वामी नित्यानंद की रंगीन लीलाओं से कौन परिचित नहीं है. शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती पर अपने मठ के मैनेजर की हत्या का मामला चला था और वह जेल में रहा था. योग और आयुर्वेद के नाम पर रामदेव का धार्मिक कारोबार अरबों में पहुंच गया है और सरकार की जेड प्लस सुरक्षा हासिल कर वह वीवीआईपी बाबा कहलाने का गौरव हासिल कर चुका है.

सरकारें अदालतों के भय से रामपाल, आसाराम जैसे बाबाओं को चाह कर भी नहीं बचा पा रही हैं. रामपाल की घटना के बाद पंजाबहरियाणा हाईकोर्ट को इन दोनों राज्य सरकारों को आदेश देना पड़ा कि वे अपने यहां के आश्रमों, डेरों का जायजा ले कर एक मुकम्मल रिपोर्ट पेश करें. उत्तर भारत में छोटेमोटे हजारों आश्रम, डेरे हैं और इन के अनुयायियों की संख्या लाखोंकरोड़ों में है. हर समय एक न एक बाबा लोगों के दिलोदिमाग पर छाया रहता है. फिर कुछ समय बाद उस की पोल खुलती है तो कोई दूसरा उठ खड़ा होता है. तब लोग उस की ओर भागने लगते हैं. यह सिलसिला चलता आया है. एक ही धर्र्म के बाबाओं के बीच आए दिन भिडं़त होती रहती है. हिंसा, मारपीट, मुकदमेबाजी आम बात है. ये बाबा अपने प्रवचनों में भी एकदूसरे की निंदा करते नहीं थकते. खुद को धर्म का असली अलंबरदार, बाकी को नकली साबित करने पर तुले देखे जा सकते हैं.

सवाल उठता है कि देश भर में इस तरह के आश्रम चलते कैसे हैं? असल में संत बन कर आश्रम को संचालित करना एक गजब की कला है. बाबा, संत, गुरु लोग तिकड़मों के उस्ताद होते हैं. हजारोंलाखों लोगों के बीच ढोंग, पाखंड का प्रचारप्रसार करना और झूठ को सच के रैपर में पैक कर के बेचना किसी कुशल प्रबंधक के ही वश की बात है. बाबा के साथ ऐसे कई लोग होते हैं जो तमाम तरह के प्रबंधन में कुशल होते हैं. उन में चतुराई, शातिरपन, कुटिलता, बेईमानी, झूठ, पैसा बटोरने की कला, माफियागीरी, गुंडागर्दी जैसे हर तरह के गुण होते हैं.

कैसे मिले निजात

बाबा लोग लोगों की अज्ञानता की वजह से पनपते हैं क्योंकि सुख, शांति, समृद्धि की कामना के लिए और दुख, अभाव, असुरक्षा से निजात पाने के लिए भोली जनता इन के पास जाने को मजबूर महसूस करती है. बाबाओं को नेताओं और शासन का पूरा संरक्षण मिलता है. ये आश्रम इन के वोटबैंक बन चुके हैं. यही वजह है कि रामपाल ने अपने कारोबार का विस्तार हरियाणा से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, पंजाब, हिमाचल प्रदेश तथा नेपाल व भूटान तक फैला लिया था. यह हालत विश्वव्यापी है. अमेरिका, चीन, जापान जैसे देशों में भी चमत्कारी संत, छोटेछोटे अलगअलग कल्ट यानी पंथ के लोगों के मनमस्तिष्क पर छाए रहते हैं. यहां भी धार्मिक ढकोसलों की पोल खुलती रहती है. पादरी, मुल्ला, ग्रंथी खुद को कथित ईश्वर का एजेंट बता कर, लोगों को मुक्ति, सुखसमृद्धि का मार्ग बताते  अपना उल्लू सीधा करते आ रहे हैं. इन सब में एक समानता जरूर है और वह यह कि ये तिकड़मों में माहिर होते हैं. जनता को बेवकूफ बनाने की कला इन में कूटकूट कर भरी होती है. ये आश्रम, बाबा तब तक फलतेफूलते रहेंगे जब तक जनता अज्ञानता के कुएं से बाहर नहीं निकल आती.

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