केंद्र में मोदी की सरकार बनने के बाद सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति करने वालों ने जनता परिवार को एक बार फिर से एकजुट करने की कोशिश शुरू कर दी है. जनता परिवार 1988 में लोकदल, कांग्रेस (एस) और बोफोर्स मसले पर कांग्रेस सरकार को घेरने वाले पूर्व कांग्रेसी नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोरचा के गठजोड़ से उपजा था. समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव, जनता दल युनाइटेड के नीतीश कुमार, जनता दल (सैक्युलर) के एच डी देवगौड़ा, समाजवादी जनता पार्टी के कमल मोरारका और इंडियन नैशनल लोकदल के ओम प्रकाश चौटाला ने हाथ मिलाते हुए एकजुटता का संदेश देने की कोशिश की. इन नेताओं ने मुलायम सिंह को अपना नेता भी चुन लिया है.
ये वही लोग हैं जो जनता दल से समयसमय पर अलग होते थे. जनता दल की सरकार में प्रधानमंत्री वी पी सिंह का मंडल कमीशन की रिपोर्ट को स्वीकारने को ही इन नेताओं ने अपनी सब से बड़ी उपलब्धि कह कर, अलगअलग कुनबों में बंटते हुए राजनीति के निजीकरण का फुटकर खेल खेलना शुरू कर दिया था.
2006-07 में जब अंबानी बंधुओं के लिए सपा सरकार दादरी में भूमि अधिग्रहण कर रही थी तो वी पी सिंह ने इसे जनविरोधी बता कर जमीन में किसानों के हक में हल चलाया तो मुलायम सिंह ने उन की गिरफ्तारी करवा दी. ऐसे में मंडलवादी राजनीति के ये पैरोकार जब मंडलवादी राजनीति की सीमाओं के साफ होने और प्रस्तावित नई पार्टी हेतु जनसमर्थन जुटाने के लिए दूसरे मुद्दों को तलाशने की बात कह रहे हैं तो इस पर शक होना स्वाभाविक है.
संघ की नीति
आज जब आरएसएस भी आरक्षण समर्थक हो गया है तब ऐसे में किसी जनता परिवार की एकजुटता की समीक्षा जरूरी हो जाती है. अक्तूबर 2014 में लखनऊ में हुई आरएसएस की अखिल भारतीय केंद्रीय कार्यकारी मंडल की बैठक के पूर्व ही कोर कमेटी में उस के परिवारी संगठनों की तरफ से आ रहे एजेंडों ने साफ कर दिया था कि वे दलितोंपिछड़ों को खास तरजीह देंगे.
इसे सिर्फ हिंदुत्ववादी छवि के साथ लगे कट्टरता के टैग को हटाने की प्रक्रिया से हट कर उस के समरसता जैसे अभियानों का कथित सामाजिक न्याय और सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति करने वालों के समक्ष एक सुनियोजित, संगठित रणनीति के रूप में देखने की जरूरत है, जिस की कोई काट फिलहाल किसी जनता परिवार के सदस्य के पास नहीं है.
दीवाली को छुआछूत मुक्ति को समर्पित करते हुए विश्व हिंदू परिषद यानी विहिप ने साफ किया कि वह ऐसे संबंध निर्माण करना चाहता है जो किसी भी राजनीतिक प्रक्रिया से न टूटें. अपने राजनीतिक चेहरे भाजपा को मजबूती देने में संघ को दलितोंपिछड़ों का साथ दूर तक और स्थायी चाहिए. इसी के तहत विहिप ने दलितों से चौकाभोजन का नाता जोड़ने और हिंदू परिवार मित्र की रणनीति अपनाई है.
युवाओं में संघ की लोकप्रियता और हिंदुत्व की भावना मजबूत करने के लिए तीर्थस्थलों को पर्यटन स्थल की तरह विकसित करने का भी प्रस्ताव पेश किया है.
पिछड़ों की गोलबंदी
दलितोंपिछड़ों को संघ ढांचे में स्थायी स्वरूप देने की प्रक्रिया, उस सामाजिक न्याय की राजनीति, जो हिंदू धर्म में ससम्मान स्थान पाने के लिए या समाहित होने के लिए ही थी, को संकट में ला देगा. इसीलिए सामाजिक न्याय के नाम पर दलितों और पिछड़ों को गोलबंद करने वाली राजनीतिक पार्टियां इसे संघ द्वारा वंचित तबके को गुमराह करने की कोशिश बता रही हैं. पर अगर हम इन अस्मितावादी रुझानों से हट कर देखें तो संघ जो कर रहा है, उसे ईमानदारी से पूरा कर देगा तो क्या होगा?
आखिर सवाल साथ बैठने, खानेपीने का ही तो था? आखिर दलित और पिछड़ों को इस वक्त क्या चाहिए? इस का आकलन करने की जरूरत है.
दूसरे, जनता परिवार के सदस्यों ने जो गोलबंदी की थी वह सवर्णवादी राजनीति के खिलाफ थी. उसे मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आने के बाद सवर्णों की प्रतिक्रिया के रूप में उग्र प्रदर्शनों ने मजबूती दी थी.
इन दिनों उत्तर प्रदेश और बिहार को केंद्रित करते हुए भाजपा ने लगातार कई फेरबदल सिर्फ इसलिए किए कि सामाजिक न्याय के नाम पर जो राजनीति की जा रही है, उस से वह निबट सके. ऐसे में भाजपा को सिर्फ सांप्रदायिक कह कर अनदेखा नहीं किया जा सकता. धार्मिकता भाजपा का गुप्त एजेंडा नहीं है. देखना यह चाहिए कि वह जिस दलितपिछड़े समूह को आकर्षित कर रही है उस की कहीं यही इच्छा तो नहीं है जिसे भाजपा पूरा कर रही है?
क्या जमीनी हकीकत
इस बात की विवेचना करने की भी जरूरत है कि लालू यादव द्वारा बिहार के समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी का राम मंदिर रथ रोकने को या फिर उत्तर प्रदेश की तरह मुलायम द्वारा उन को उत्तर प्रदेश की सीमा में न घुसने देने के वादे को बारबार दोहरा कर धार्मिकता के खिलाफ खड़े योद्धा का जो बखान किया जाता है उस की जमीनी हकीकत क्या है?
बिहार में भागलपुर दंगों के 25 साल बाद भी उस के पीडि़त इंसाफ की बाट जोह रहे हैं, वहां पर धार्मिक हमला करने वाले यादव जाति के ही लोग थे. क्या पीडि़ता के साथ इंसाफ हुआ है?
कुछकुछ ऐसा ही मुलायम सिंह के उत्तर प्रदेश में भी है. बाबरी मसजिद के गुनाहगार कल्याण सिंह, जो उस समय भाजपा मुख्यमंत्री थे, को क्या एक दिन की भी सजा हुई है? ऊपर से मुलायम सिंह उन्हें अपने साथ ले लेने की जुर्रत करते हैं. वह किसी जनता की अपील को भांपते हुए ऐसा करते हैं.
झुकाव किस की तरफ
उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में भाजपा और उस के सहयोगियों को 73 सीटों पर मिली अप्रत्याशित जीत के बाद यह धारणा बलवती हुई है कि पिछड़ी व दलित जातियों, खासतौर पर निचली पिछड़ी व दलित जातियों, का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के प्रति आकर्षित हुआ है.
उस के बाद प्रदेश की राजधानी लखनऊ में इन दिनों पिछड़ी जातियों के समाजवादी सम्मेलनों की एक बाढ़ सी आ गई है. जगहजगह बड़ेबड़े होर्डिंगों से राजधानी से यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि निचली पिछड़ी जातियों का झुकाव सपा की तरफ बरकरार है. कभी निषाद तो कभी प्रजापति सम्मेलन करने वाली मुलायम सिंह की सपा को यह समझना चाहिए कि राजनीति में वैचारिक गोलबंदी होती है न कि ठेकेदारों की.
जहां तक राजनीतिक गोलबंदी का सवाल है तो वह आरएसएस, अपनी राजनीतिक विंग भाजपा के लिए कर ही रहा है. ठेकेदारों का क्या, आज सपा का टैंडर पास है तो वह सपा के साथ हैं, कल जिस का होगा, वे उस के यहां होंगे.
ब्राह्मणवाद या मनुवाद विरोधी राजनीति में 2 तरह की सोच आम हैं. एक यह कि मनुवादी वर्ण व्यवस्था जाति आधारित न हो कर कर्म आधारित थी, लेकिन ब्राह्मणवादी ताकतों ने इसे जाति आधारित कर, पूरे दलितपिछड़े समुदाय को समाज के निचले पायदान पर धकेल दिया. तो वहीं दूसरा, आर्य-अनार्य की बहस, जिस के तहत वंचित तबके को अनार्य कहते हुए आर्यों द्वारा उन की पूरी व्यवस्था को कब्जाने की बात कही जाती है.
यादवों की लोरिक सेना, राजभरों की सुहेल देव सेना जैसी अवधारणाओं को ले कर कुछ पिछड़ी जातियां अपनी आक्रामक छवि से अपने वंशजों के क्षत्रिय होने के दावे करती हुई दिखती हैं. ऐसी कई बहसों में उलझी सामाजिक न्याय की राजनीति के बौद्धिक प्रकोष्ठ इस तरह की बहसों को फिर स्थापित करने की कोशिश में हैं.
सब का अपना एजेंडा
उत्तर प्रदेश व बिहार में सामाजिक न्याय के ठेकेदार कमंडल के पीछे पड़ने के बाद अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती धार्मिकता के वैचारिक पहलुओं पर न खुद को टिका पाए और न ही अपने जनाधार को.
मायावती कभी भाजपा के साथ सरकार बनाने को तैयार हो जाती हैं तो कभी बाबरी मसजिद के विध्वंस में गुनाहगार माने जाने वाले कल्याण सिंह को मुलायम सिंह अपने साथ ले लेते हैं.
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. क्योंकि मुलायम व मायावती किसी कट्टर धर्म विरोधी राजनीति की पैदावार नहीं हैं. वे तो हिंदू समाज के अंतर्विरोधों की पैदाइश हैं. जो कांशीराम 1992 में धार्मिकता विरोधी मुहिम में शामिल रहे, जब भाजपा के साथ सरकार बनाने का सवाल आया है तो उन्हीं के साथ चल दिए.
अगस्त 2003 में जब मायावती के सिर से ताज छिना तो मुलायम ने बड़े स्तर पर दलबदल करा कर सत्ता को हथियाया. इस सरकार के पीछे अमर सिंह और राजनाथ सिंह का मुलायम प्रेम कौन भूल सकता है. उस समय संघ ने यह कहा था कि उस के एजेंडे को जो आगे बढ़ाएगा वह उस के साथ है और मौजूदा सरकार उस के माकूल है.
जाति आधारित राजनीति
जब संघ कहता है कि उस के लोग हर राजनीतिक दल में हैं तो उस का अभिप्राय हार्डकोर संघी से नहीं होता. वह उस वैचारिक प्रक्रिया की बात करता है जिस के तहत वह दूसरों को समाहित करता है.
1947 में जो कांग्रेस राज करने आई थी उस में आज के मंत्रियों से ज्यादा कट्टरपंथी थे. संघ को दोष देने से अधिक इस राजनीतिक प्रक्रिया के गुणदोषों की चर्चा करनी होगी. 2013 में मुजफ्फरनगर व आसपास की सांप्रदायिक हिंसा को जाट बनाम मुसलिम बताने वाले मुलायम सिंह को 2012 में फैजाबाद में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर भी अपने विचार रखने चाहिए जहां भाजपा के विधायक रामचंद्र यादव के नेतृत्व में यादवों ने संगठित रूप से मुसलमानों पर हमले किए.
कथित सामाजिक न्याय के आंदोलन के खात्मे की तसवीर साफ होती जा रही है. साथ बैठने, खानेपीने तक की इच्छा पर आधारित इस तबके की राजनीति को फासीवाद के बड़े खतरे के खिलाफ खड़ा करने की कोई कोशिश नहीं हुई.
यह किसी भूल के तहत नहीं, बल्कि सोचीसमझी साजिश के तहत हुआ क्योंकि अगर ऐसा होता तो दलितपिछड़ा, जातियों में नहीं बल्कि अपने वर्गीय गोलबंदी में लड़ता, जो जाति आधारित राजनीति को संकट में ला देता. जातिगत राजनीति की अंतिम शरणस्थली हिंदुत्ववादी ढांचा ही है जो किसी दलित में मुसलमानों के प्रति उसी तरह के घृणाभाव को दिखाता है जितना किसी सवर्ण में उस के प्रति दिखता है.
संघ परिवार को मालूम था कि अब जब मुसलमान अपने हकहुकूक की बात करने लगा है तब वह उस के खिलाफ पिछड़ोंदलितों को खड़ा कर देगी. सच्चर कमेटी के बारे में बिना किसी जानकारी के दलितपिछड़ा रिपोर्ट की सिफारिशों के खिलाफ हो जाता है. वह उस के निर्धारित कोटे से मुसलिम को आरक्षण देने के सवाल को संघ की भाषा में तुष्टीकरण कहने लगता है.
सामाजिक न्याय के नाम पर जनता परिवार से निकले नेताओं और दलों की तरफ से जो कुछ हो रहा था वह हिंदुत्व में पीछे से शामिल होने की प्रक्रिया थी, किसी नए निर्माण की प्रक्रिया नहीं थी. तो अब सामाजिक न्याय के खिलाड़ी फिर से क्यों किसी नए निर्माण की बात कर रहे हैं?