देश की सर्वोच्च राजनीतिक कुरसी की दौड़ में एक तरफ कांग्रेस के अघोषित उम्मीदवार राहुल गांधी हैं तो दूसरी तरफ भाजपा के नरेंद्र मोदी. वहीं, सियासत में तेजी से उभरे अरविंद केजरीवाल भी मजबूत दावेदार माने जा रहे हैं. सवाल यह है कि काबिलीयत और जनसमर्थन के आधार पर हो रही इस चुनावी जंग में अपरिपक्व राहुल का झंडा बुलंद होगा या भगवे में लिपटे नरेंद्र मोदी का सपना साकार होगा या फिर दोनों के अरमानों पर अरविंद केजरीवाल झाड़ू फेरेंगे? पढि़ए यह विश्लेषणात्मक लेख.
राहुल गांधी–उपाध्यक्ष, कांग्रेस
काबिलीयत पर सवाल
देश की सब से बड़ी व पुरानी कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के अघोषित उम्मीदवार राहुल गांधी मीडिया को दिए अपने राजनीतिक कैरियर के पहले इंटरव्यू में कोई छाप नहीं छोड़ पाए. उलटा उन की राजनीतिक अपरिपक्वता और अधकचरा ज्ञान उभर कर लोगों के सामने आया. वह सूझबूझ नहीं दिखी जो देश के शीर्ष पद के दावेदार में होनी चाहिए. राहुल गांधी कोई नई सोच, देश की समस्याओं पर नया दृष्टिकोण पेश नहीं कर पाए.
राहुल गांधी ही क्यों, भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की ‘समझ’ भी देश के सामने समयसमय पर आती रही है. मोदी के आर्थिक, इतिहास, भूगोल और संवैधानिक ज्ञान पर सवाल उठते रहे हैं. मोदी को हवाईर् बातें बनाने में माहिर माना जाता है तो राहुल गांधी को अपरिपक्व, अज्ञानी.
इसीलिए सोशल मीडिया में पढ़ेलिखे खासतौर से युवाओं द्वारा मोदी को ‘फेंकू’ और राहुल गांधी को ‘पप्पू’ कहा जाता है.
युवा भारत यानी सोशल मीडिया में दोनों दावेदारों की काबिलीयत को ले कर एक मजेदार मगर गंभीर टिप्पणी मौजूं है. टिप्पणी राहुल के इंटरव्यू और मोदी को ले कर है जिस में कहा गया है, ‘एक बेवकूफ और दूसरा हत्यारा, भारत का क्या होगा’. हालांकि इस टिप्पणी को ले कर विवाद पैदा हो गया क्योंकि इसे आम आदमी पार्टी के संयोजक व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने रिट्वीट कर दिया था जो कि उन्हीं की पार्टी के समर्थक व संगीतकार विशाल डडलानी की थी.
मगर आश्चर्य की बात है कि सोशल मीडिया के अलावा सब से बड़ी व पुरानी कांग्रेस पार्टी और धर्ममार्गी पार्टी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की काबिलीयत पर बड़े स्तर पर कोई चर्चा नहीं है. न तो पार्टी के भीतर और न ही देश में.
मीडिया से दूरी
राहुल गांधी का राजनीति में आने के यानी पिछले 10 साल के बाद टैलीविजन न्यूज चैनल को दिया गया पहला इंटरव्यू था. राहुल ने कहा कि उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना है तो इंटरव्यूकर्ता ने पूछा, पर आप की पार्टी तो भ्रष्टों के साथ गठबंधन कर रही है, लालू यादव की राजद के साथ. इस पर उन के चेहरे पर खिसियाहट देखी गई.
गुजरात दंगों को ले कर पूछे सवालों पर राहुल में जानकारी का अभाव देखा गया. उन से जब गुलबर्ग सोसायटी मामले में मोदी को अदालत द्वारा बरी किए जाने के संबंध में सवाल किया गया तो वे आगे तर्क नहीं दे सके. यह नहीं बता पाए कि गुलबर्ग के अलावा अन्य मामलों में भी मोदी फंसे हुए हैं.
चैनल ने जब पूछा कि अदालत ने मोदी को क्लीन चिट दे दी है तो वे उन्हें जिम्मेदार क्यों ठहरा रहे हैं? इस पर राहुल ने कहा कि गुजरात दंगे जब हुए थे, वे मुख्यमंत्री थे. गुजरात सरकार दंगों को भड़का और बढ़ा रही थी.
दिल्ली के सिख विरोधी दंगों और गुजरात दंगों में सरकार की भूमिका पर वे कहते हैं कि आमतौर पर यह फर्क है कि 1984 में सरकार जनसंहार में शामिल नहीं थी लेकिन गुजरात में वह शामिल थी. दिल्ली में सरकार दंगों को भड़का नहीं रही थी, उस में मदद नहीं कर रही थी. सरकार ने दंगे रोकने की कोशिश की थी.
राहुल से जब जोर दे कर पूछा गया कि वे गुजरात दंगों पर मोदी पर निशाना कैसे साध सकते हैं? तो उन्होंने कहा कि यह मैं नहीं, बड़ी संख्या में लोगों ने देखा है कि दंगों में गुजरात सरकार सक्रियता से शामिल थी. राहुल ने कहा कि मेरा मतलब है कि लोगों ने इसे देखा है. मैं उन लोगों में नहीं हूं जिन्होंने उसे देखा. आप के सहयोगियों ने उसे देखा. आप के सहयोगियों ने मुझे बताया. उन्होंने प्रशासन को सक्रिय रूप से अल्पसंख्यकों पर हमला करते देखा.
यह पूछे जाने पर कि क्या वे 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए माफी मांगेंगे? राहुल ने कहा कि इस की कोईर् जरूरत नहीं है. मैं इन दंगों में बिलकुल भी शामिल नहीं था. ऐसा नहीं था कि मैं इस का हिस्सा था. उन्होंने यह कह कर भी विवाद खड़ा कर दिया कि उन की पार्टी के कुछ नेता शायद शामिल थे और इस के लिए उन्हें सजा दी गई है.
मोदी से संबंधित राय
आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी के प्रतिद्वंद्वी होने के सवाल पर राहुल ने कहा कि मुझे मोदी से टकराव का कोई डर नहीं है. मैं ने अपनी दादी और पिता को मरते हुए देखा है. मैं किसी चीज से नहीं डरता. पहले मुझे समझ लीजिए. आप को खुद ही यह जवाब मिल जाएगा कि मैं किस से डरता हूं. कांग्रेस चुनावों में भाजपा को परास्त करेगी. राहुल गांधी मीडिया को खुल कर साक्षात्कार क्यों नहीं देते, शायद इस डर से कि उन की कमियां, अज्ञानता खुल कर सामने आ जाएंगी. इसी तरह नरेंद्र मोदी के ज्ञान को ले कर भी प्रश्न उठाए जाते हैं. हाल में जब मोदी ने जम्मूकश्मीर जा कर संविधान के अनुच्छेद 370 पर सवाल खड़ा किया तो उन पर चौतरफा हमला होने लगा. नैशनल कौंफ्रैंस के नेता उमर अब्दुल्ला और पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा था कि अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू और कश्मीर को जो विशेष दरजा प्रदान किया गया था वह राज्य की संविधान सभा द्वारा मंजूरी मिलने के बाद स्थायी हो गया है और इसे हटाया नहीं जा सकता.
वैसे इसी से मिलतेजुलते अनुच्छेद 371, 371ए से आई तक हैं जो अब निरर्थक हो चुके हैं, तो वे हटाए जाने चाहिए. सईद ने यह भी कहा था कि हम भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की संवैधानिक जानकारी की इस गंभीर कमी पर चिंता प्रकट करते हैं. इस से पहले मोदी की अर्थशास्त्र संबंधित जानकारी पर केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम सवाल खड़े कर चुके हैं. उधर, भाजपा नेता अरुण जेटली भी राहुल गांधी द्वारा इंटरव्यू में कही गई बातों पर कहते हैं कि कांग्रेस उपाध्यक्ष को जानकारी का अभाव है लेकिन मोदी की अज्ञानता पर वे कुछ नहीं कहते. स्पष्ट है कि देश की जनता के सामने अज्ञानियों, अल्पज्ञानियों के बीच में से एक को चुनने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है. जनता को सिर्फ लौलीपौप से बहलाने की कोशिश की जा रही है. आज चुनौतियों के दौर में किसी भी देश को विवेकवान, वाक्पटु नेतृत्व की जरूरत है. फिलहाल देश के सामने जो भावी नेतृत्व दिखाई दे रहा है उन पर सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वे समस्याओं से त्रस्त देश को संभालने के काबिल हैं?
जवाब नहीं हैं
सवाल लोगों की खामोशी पर भी है. देश में जबतब मेरिट को ले कर हल्ला मचाया जाता है लेकिन सवाल जब देश के नेतृत्व यानी भविष्य को ले कर हो तब मेरिट की बात करने वाले चुप्पी साधे नजर आ रहे हैं. क्या नेताओं की अज्ञानता, अल्प जानकारी, कट्टर मजहबी विचारधारा, झूठी धर्मनिरपेक्षता, हवाई बातें, वंश, परिवार परंपरा ही मेरिट है? इन पर सवाल क्यों नहीं उठते?
दिक्कत यह है कि राजा नंगा है पर यह बात बताए कौन? पिछले एक दशक में प्रधानमंत्री पद के इस संभावित दावेदार का कोई भी करिश्मा देश को देखने को नहीं मिला. संसद में वे कम बोलते दिखे. न वे जनता से मिलते हैं, न मीडिया से. किसी नेता को अनुभव के लिए, अपनी काबिलीयत जाहिर करने के लिए और कितना वक्त चाहिए? देश के लोगों में प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों के प्रति कितना सम्मान है, सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है. तो क्या देश ‘फेंकू’ और ‘पप्पू’ को अपना भविष्य सौंपने को तैयार है? हमारे नेताओं में बराक ओबामा, व्लादिमीर पुतिन जैसे तेजतर्रार, धर्म, नस्ल, वंशनिरपेक्ष नेता हैं? विश्वगुरु कहलाने वाले भारत में योग्य नेताओं का अकाल कैसे हो सकता है? देश में बहस इस बात पर होनी चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार कितने योग्य हैं.
अरविंद केजरीवाल–आम आदमी पार्टी
भ्रष्ट व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की जिद
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा कुछ पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्यवाही को ले कर धरना देने पर काफी होहल्ला मचा. कई सवाल खड़े किए गए. सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया गया. ऐसा माहौल बना दिया गया मानो केजरीवाल और उन के मंत्रियों ने कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो. विरोधी उन्हें अराजक बताने लगे. सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी उन से जवाब मांगा गया. महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर आमतौर पर चुप्पी साधे रहने वाला दिल्ली महिला आयोग भी अचानक सक्रिय हो उठा और दिल्ली के कानून मंत्री सोमनाथ भारती को पेश होने का फरमान जारी कर दिया गया.
आखिर दिल्ली सरकार का कुसूर क्या है? यही न कि मुख्यमंत्री को धरने पर इसलिए बैठना पड़ा क्योंकि केंद्र के अधीन दिल्ली की पुलिस ने उन के 2 मंत्रियों की शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं की. पुलिस ने निरंकुश रवैया अपनाए रखा. उपराज्यपाल और केंद्रीय गृहमंत्री से मिलने मुख्यमंत्री जब गए तो गृहमंत्री ने उन पुलिस वालों के निलंबन से इनकार कर दिया. उपराज्यपाल ने हाथ खड़े कर दिए कि वे नहीं, गृहमंत्री ही हटा सकते हैं. हार कर केजरीवाल को गृहमंत्रालय पर धरना देने का ऐलान करना पड़ा.
समूचे मामले में विपक्षी दलों और मीडिया द्वारा असली मुद्दे को हाशिए पर फेंक दिया गया और फुजूल की बातों को हवा दी जाने लगी. पुलिस का जैसा स्वभाव है कि उलटे शिकायतकर्ता को ही फंसा दिया जाता है वैसे ही उस का समूचा तंत्र केजरीवाल सरकार को ही दोषी, अराजक साबित करने पर तुला दिखाई दिया.
केजरीवाल और उन के मंत्री का तरीका गलत हो सकता है पर मुद्दा नहीं. लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे उलटे चोर मिल कर कोतवाल को डांट रहे हैं. भ्रष्ट, अकर्मण्य और निरंकुश व्यवस्था असली मुद्दे को हाशिए पर फेंक देने में कामयाब हो गई. भारती के खिलाफ मामला दर्ज हो गया. जितनी फुरती पुलिस ने भारती के खिलाफ मामला दर्ज कराने में दिखाई उतनी खिड़की ऐक्सटैंशन मामले में कार्यवाही करने में नहीं.
इस बात पर कहीं कोई बहस नहीं हो रही कि पुलिस की जवाबदेही कैसे तय की जाए. जनता और जनप्रतिनिधियों की शिकायत पर तंत्र काम न करे तो क्या किया जाए? मामले की शुरुआत दिल्ली के कानून मंत्री सोमनाथ भारती के इलाके से हुई. मालवीय नगर के खिड़की ऐक्सटैंशन में बड़ी तादाद में दक्षिण अफ्रीकी नागरिक रहते हैं. इलाके के लोगों की शिकायतें थीं कि इन में से कई नागरिक सैक्स और ड्रग के धंधे में लिप्त हैं. वे कई दफा पुलिस में शिकायत कर चुके थे कि इन से वे खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं और इलाके की सुरक्षा को भी खतरा है.
लोगों ने अपने क्षेत्र के नए चुने गए विधायक व कानून मंत्री सोमनाथ भारती से भी शिकायत की. भारती ने 16 जनवरी को ड्रग और सैक्स का धंधा करने वाले दक्षिण अफ्रीकी लोगों के यहां छापा मार कर आरोपियों को रंगेहाथों पकड़वाने की कोशिश की. उन्होंने पुलिस को बुलाया पर पुलिस ने सहयोग नहीं किया. पुलिस बिना सुबूतों के कार्यवाही करने से इनकार करती रही. काफी जद्दोजहद हुई.
जांच के आदेश
इसी तरह महिला एवं बाल कल्याण मंत्री राखी बिड़ला ने सागरपुर में दहेज के लिए युवती को जलाने के आरोपियों की गिरफ्तारी की पुलिस से मांग की. इस पर भी पुलिस ने आदत के अनुसार नानुकुर की. इन दोनों मामलों को ले कर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पहले तो उपराज्यपाल नजीब जंग से मिले. उन से उन पुलिस अफसरों को निलंबित करने की मांग की जिन्होंने जनप्रतिनिधियों की शिकायत पर कोई गौर नहीं किया. उपराज्यपाल ने किसी पुलिसकर्मी को हटाना अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर बता कर हाथ खड़े कर दिए. हालांकि उन्होंने न्यायिक जांच के आदेश दे दिए थे. बाद में केजरीवाल केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे से मिलने गए. शिंदे ने भी निलंबन की मांग साफतौर पर ठुकरा दी.
एक मुख्यमंत्री पुलिस के 2 कोतवाल को काम न करने पर हटा नहीं सकता, उसे यहांवहां गिड़गिड़ाना पड़ता है और इस के बावजूद कोई सुनवाई नहीं होती तो ऐसे मुख्यमंत्री बनने का क्या औचित्य हो सकता है? आम आदमी की सुनवाई कैसे होती होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है. इसी भ्रष्ट और निकम्मी व्यवस्था के खिलाफ संघर्र्ष पर उतरे केजरीवाल कहां चुप बैठने वाले थे.
केजरीवाल धरने के लिए मंत्रिमंडल सदस्यों और आम आदमी पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ गृहमंत्रालय की ओर बढे़ पर उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया गया. रेल भवन के पास ही उन के काफिले को रोक दिया गया. केंद्र सरकार द्वारा नई दिल्ली क्षेत्र में पहले से ही निषेधाज्ञा लागू कर दी गई थी और सुरक्षा के कड़े इंतजाम कर दिए गए थे. पुलिस केंद्र सरकार के अंतर्गत है, दिल्ली सरकार के अंतर्गत नहीं. आखिरकार रेल भवन के बाहर सड़क पर ही वे धरने पर बैठ गए.
गृहमंत्री के यहां से निराशा मिलने के बाद बात उचित ही थी कि जब एक मुख्यमंत्री जनता की शिकायतों पर कार्यवाही न करने वाले अपने राज्य के ही 2 पुलिसकर्मियों को निलंबित नहीं कर सकता तो समूचे राज्य की सुरक्षा की जवाबदेही कैसे हो सकती है.
मुख्यमंत्री केजरीवाल लापरवाह और भ्रष्ट पुलिस वालों का कुछ नहीं कर सकते हैं. दिल्ली सरकार को दिल्ली की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार की ओर देखना पड़ता है. दो दिन पहले ही पहाड़गंज क्षेत्र में एक विदेशी महिला के साथ बलात्कार की घटना हो चुकी थी. केजरीवाल ने सुरक्षा के सवाल उठाते हुए पुलिस की जवाबदेही तय करने और पुलिसकर्मियों पर कार्यवाही को ले कर मांग बुलंद की.
धरने के दौरान केजरीवाल ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को निशाने पर लिया. पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार और जवाबदेही का मामला उठाया और कहा कि दिल्ली पुलिस द्वारा रेहड़ी, पटरी वालों, आटोरिकशा वालों से महीनावसूली का पैसा गृहमंत्री शिंदे तक पहुंचता है. दिल्ली में जितने अपराध हो रहे हैं, पुलिस के संरक्षण में होते हैं. पुलिस सैक्स, ड्रग, वेश्यावृत्ति से ले कर हर अवैध काम करने वालों से वसूली कर रही है, इसीलिए वह इन लोगों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करती. उसे जनता की सुरक्षा की कोई परवा नहीं है.
केजरीवाल ने यह भी कहा कि केंद्र ने संविधान की धज्जियां उड़ाई हैं. हम तो संविधान स्थापित करने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. दिल्ली में 90 प्रतिशत अपराध पुलिस की मिलीभगत से होते हैं. वेश्यावृत्ति कराने वाले, ड्रग रैकेट चलाने वाले और महिलाओं को जलाने वालों के खिलाफ पुलिस कार्यवाही नहीं कर रही है तो मुख्यमंत्री क्या करेगा?
केजरीवाल ने युगांडा हाई कमीशन के एक अधिकारी के पत्र के हवाले से कहा कि दक्षिण अफ्रीका से युवतियों को नौकरी के बहाने लाया जाता है और यहां उन्हें सैक्स व नशे के धंधे में धकेल दिया जाता है. पिछले जून माह में लिखे पत्र में दिल्ली उच्चायोग में कार्यरत युगांडा के इस अधिकारी ने ऐसे संगठित गिरोह के बारे में सावधान किया था.
केजरीवाल ने शिंदे पर निशाना साधा. उन्होंने सवाल किया कि क्या शिंदे देश के तानाशाह हैं और ऐसी हालत में क्या गणतंत्र बचा हुआ है? उन्होंने धरने में यह सवाल भी उठाया कि शिंदे के घर पर मात्र पत्थर फेंके जाने पर 12 पुलिस कर्मचारियों को हटा दिया जाता है पर दिल्ली सरकार के मंत्रियों की शिकायत पर संदिग्ध लोगों पर वे कार्यवाही नहीं करते.
केजरीवाल और मंत्रिमंडल के सदस्य अधिकारियों के साथ सड़क पर ही फाइलों का निबटारा करने लगे. केंद्र सरकार सांसत में आ गई और ‘आप’ को घेरने में लग गई. कांग्रेस ने केजरीवाल के तौरतरीके पर आपत्ति जताते हुए कहा कि मुख्यमंत्री ही सड़क पर उतरेगा तो शासन कौन करेगा. उधर, महिलाओं पर होने वाले अपराधों पर आमतौर पर अकर्मण्य रहने वाले दिल्ली महिला आयोग ने सोमनाथ भारती को विदेशी महिलाओं के साथ ज्यादती करने के आरोप लगा कर आयोग दफ्तर में तलब किया लेकिन वे नहीं पहुंचे. सोमनाथ भारती ने कहा कि उन्होंने कानून का उल्लंघन नहीं किया बल्कि कानून विरोधी हो रहे कार्र्य को उजागर किया था.
भाजपा का आरोप
उधर, भारतीय जनता पार्टी ने केजरीवाल के धरने को सहयोगी दल कांग्रेस के साथ दिखावटी संघर्ष बताते हुए सवाल उठाया कि वह सत्ता में शासन करने आए हैं या शासनतंत्र को तोड़ने. आश्चर्य है कि कांग्रेस और भाजपा दिल्ली की जनता की सुरक्षा और अपराधों के खिलाफ बात करने के बजाय आम आदमी पार्टी पर हमले पर उतर आईं. ‘आप’ को आइटम गर्ल कहा गया. अगर ‘आप’ आइटम गर्ल है तो कांग्रेस के राहुल गांधी इसी आइटम गर्ल से सीखने की बात कैसे कह रहे हैं? भाजपा इसी की राह पर चलने का दिखावा क्यों करने लगी है?
आखिर धरने के 32 घंटे बीत जाने पर उपराज्यपाल नजीब जंग द्वारा मुख्यमंत्री और उन के मंत्रिमंडल के सदस्यों से गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय सुरक्षा की दुहाई दे कर धरना खत्म करने की अपील की गई तथा जांच रिपोर्ट आने तक कुछ पुलिस अफसरों को छुट्टी पर भेजने का आश्वासन दिया गया. इस पर धरना खत्म कर दिया गया.
धरने के बाद विपक्ष द्वारा सोमनाथ भारती से इस्तीफे की मांग की जाने लगी. उधर, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस भेज कर पूछा कि क्या केजरीवाल ने मुख्यमंत्री जैसे अहम संवैधानिक पद पर रहते हुए धरने पर बैठ कर कानून का उल्लंघन नहीं किया है. कोर्ट में धरने को ले कर जनहित याचिका दायर कर दी गई.
लेकिन किसी मुख्यमंत्री का धरना पहली बार नहीं हुआ है. केजरीवाल के धरने की निंदा करने वाली भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी, भाजपा के ही पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा, नीतीश कुमार जैसे नेता भी मुख्यमंत्री रहते धरने पर बैठ चुके हैं. महात्मा गांधी खुद स्वतंत्रता के बाद, जब दिल्ली में कांग्रेस के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का राज था, कोलकाता में भूख हड़ताल पर बैठे थे.
दिल्ली में अपराधों को ले कर पुलिस की भूमिका, केंद्र सरकार का रवैया और विपक्षी भाजपा की सोच साफ हो गई कि उन की रुचि जनता की सुरक्षा में तो कतई नहीं है. सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना ही मकसद है. असली मुद्दे को भटका दिया गया. सब को पता है कि पुलिस में भ्रष्टाचार की वजह से अपराध बढ़ रहे हैं. कोई जवाबदेही तय नहीं है. एक मुख्यमंत्री के धरने के बावजूद हमेशा की तरह गृहमंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी. ढीठ, तानाशाहों जैसा उस का रवैया जारी रहा.
वर्षों से जमाजमाया भ्रष्टाचार का साम्राज्य तोड़ना आसान नहीं है. उलटा भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले, अपराध की सूचना देने वाले को ही आरोपी बना कर फंसा दिया जाना पुलिस की फितरत है. यह हालत तब है जब दिल्ली में अपराध के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं. हर दिन दुराचार से ले कर लूटखसोट, चोरी, हत्या और अन्य अपराधों पर पुलिस का रवैया गैर जिम्मेदाराना रहता है. पूरे देश में पुलिस की कार्यशैली कमोबेश यही है.
केजरीवाल पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की तरह दिल्ली के अपराधों पर यह कह कर पल्ला झाड़ सकते थे कि पुलिस उन के अधीन नहीं है या लोग, महिलाएं रात को घर से निकलती ही क्यों हैं? लेकिन इस से तो भ्रष्ट, अकर्मण्य व्यवस्था को ही मजबूती मिलती. केजरीवाल ने, जैसे भी हो, गैर जिम्मेदार, निरंकुश पुलिस व्यवस्था व उसे सियासी पनाह देने वालों की असलियत को देश के सामने उजागर कर दिया है.
संवैधानिक पद पर किसी के बैठने का मतलब यह तो नहीं कि वह काठ का उल्लू बना रहे. जनता की दिक्कतों के लिए कोई कदम न उठाए? व्यवस्था को न सुधारे? संवैधानिक मर्यादाओं की बात करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि आम जनता को सड़क पर आना ही क्यों पड़े? खिड़की ऐक्सटैंशन के निवासियों की कई शिकायतों के बावजूद कार्यवाही क्यों नहीं हुई?
दिक्कत यह है कि जिस किसी के पास ताकत है, अधिकार है वह चाहता है उसे कोई चुनौती न दे. उस अधिकार का उपयोग वह कुछ पा कर करना चाहता है. आम जनता के पास इन अधिकारप्राप्त लोगों के खिलाफ करने को कुछ अधिक नहीं है. उसे इस काबिल छोड़ा ही नहीं गया. वह निरीह बनी हुई है.
दिल्ली पुलिस भले ही केंद्र के मातहत हो पर कानून व्यवस्था सुधारने की उम्मीद लोग दिल्ली सरकार से जरूर करते हैं. ऐसे में पुलिस विभाग अगर मंत्रियों, यहां तक कि मुख्यमंत्री की भी नहीं सुनता तो हालत अजीब हो जाती है. शीला दीक्षित इसी फेर में निपट गईं. तब महल्लेमहल्ले में बलात्कार हो रहे थे और जनता जवाब मांग रही थी. शीला दीक्षित इस बात को पार्टी के सामने नहीं रख पाईं क्योंकि केंद्र में उन की अपनी ही पार्टी की सरकार थी. नतीजतन, दिल्ली में अपराध बढ़ते गए.
आम लोगों की जबान पर यही शिकायत रहती है कि पुलिस का ध्यान तो सिर्फ वसूली पर रहता है. हर तरह के अवैध कार्यों में पुलिस की हिस्सेदारी रहती है. दिल्ली के हर चौराहे पर वाहनों से पुलिस को सरेआम वसूली करते देखा जा सकता है. आम नागरिक की कोई सुनवाईर् नहीं होती. इस में सुधार कौन करेगा. सोमनाथ जब आरोपियों के खिलाफ कदम उठाने के लिए कहते हैं और केजरीवाल धरने पर बैठते हैं तो यह अराजकता मानी जाने लगती है.
ध्यान बंटाने की कोशिश
केंद्र का एक भी मंत्री मंत्रालयों, कोठियों, एअरकंडीशंड गाडि़यों से बाहर आ कर जनता की परेशानियां देखने की जहमत उठाता है? राजनीतिबाज घोटाले करते हैं, अफसर रिश्वत लेते हैं, यह अराजकता नहीं है? गुजरात में सरकार की नाक के नीचे दंगे कराए जाते हैं, उस के कई मंत्री, अफसर उस में लिप्त होते हैं, क्या यह अराजकता नहीं? सरकारी दफ्तरों में बिना घूस के काम नहीं होते, वह अराजकता नहीं है? कौमनवेल्थ गेम, 2जी स्पैक्ट्रम, कोयला खनन, आदर्श सोसायटी हाउसिंग घोटाले होते हैं, वह अराजकता नहीं?
हां, पुराने दलों के लिए यह अराजकता जरूर है कि केजरीवाल सरकार के कदम के चलते उन के नेताओं, समर्थक अफसरों, बिचौलियों की कमाई पर डाका पड़ने का खतरा पैदा हो रहा है.
दरअसल, धरना कोई विवाद नहीं था. असली मसले से ध्यान हटाने की कला में माहिर हमारे घाघ राजनीतिबाजों ने इसे जानबूझ कर विवाद बना दिया. पुरानी लूटखसोट की व्यवस्था में शामिल पुराने राजनीतिक दल और कुछ नौकरशाह भ्रष्ट व्यवस्था में बदलाव बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं. इसी वजह से यह कुचक्र रचा जा रहा है.
पुलिस की गैर जिम्मेदारी, भ्रष्ट और निकम्मे आचरण की प्रवृत्ति पर आम आदमी पार्टी ने गहरा प्रहार किया है. ‘आप’ के भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे से घूसखोर कर्मचारी, अफसरों में खलबली मची हुई है. वे बौखलाए हुए हैं. दिल्ली में पुलिस को अब रेहड़ी, पटरी, आटोरिकशा, छोटेबड़े दुकानदारों से हफ्तावसूली से कतराना पड़ रहा है. दिल्ली सरकार के दफ्तरों में रिश्वत को ले कर खौफ का माहौल बन रहा है. दिल्ली के दफ्तरों से अकसर वास्ता पड़ने वाले लोगों का कहना है कि अब कर्मचारी बिना कुछ मांगे, बिना हीलहुज्जत किए आसानी से काम कर देते हैं.
बहरहाल पूरे मामले में पुलिस महकमे में व्याप्त अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार व दिल्ली पुलिस पर नियंत्रण के मुद्दे को चर्चा का विषय बनाने में केजरीवाल कामयाब हुए हैं. उन्होंने लुटियंस जोन में सत्ता को चुनौती दी है. मौजूदा अकर्मण्य, भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया है. उन्होंने यह जता दिया कि जो संघर्ष सत्ता पाने के लिए किया जाता है वह सत्ता पाने के बाद भी हो सकता है.
केजरीवाल का रास्ता चाहे अराजकता का हो या शासन के विपरीत, दोनों हालात में जनता के भले के लिए ही है. जाहिर है आने वाला समय लकीर के फकीर राजनीतिबाजों का नहीं होगा. उन्हें जनता को आगे रखना होगा. वे दिन अब लदते दिखाई देंगे जब भरोसा तोड़ रही राजसत्ता में नेता, नौकरशाह और बिचौलिए मंत्रालयों की ऐशोआराम की ही जिंदगी जीते थे. व्यवस्था के अंदर रह कर व्यवस्था से संघर्ष करने की मिसाल शायद यह देश पहली बार देख रहा है.
नरेंद्र मोदी–भाजपा, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार
सौदागर के सपने
गुजरात की तरक्की में वहां के रहने वालों की मेहनत और कारोबारी सोच का बड़ा हाथ है. पूरी दुनिया जानती है कि कारोबार के मामले में गुजरातियों का मुकाबला कोई नहीं कर सकता. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय किया तो वे सपने बेचने लगे.
सौदागर बने नरेंद्र मोदी किसी एजेंट की तरह उत्तर प्रदेश की जनता को सपने दिखा रहे हैं. वे लोगों से कह रहे हैं कि उन को प्रधानमंत्री बना दो, तो फिर उत्तर प्रदेश भी गुजरात की तरह तरक्की करने लगेगा. उत्तर प्रदेश को गुजरात कैसे बनाएंगे, वे यह नहीं बताते हैं.
भाजपा में मोदी से पहले एक और पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी हैं. वे लोकसभा में गुजरात के गांधीनगर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. उन्होंने भी ऐसे ही कुछ सपने जनता को दिखाए थे. उन में 3 बातें खास थीं : अयोध्या का राममंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता कानून. लेकिन वे प्रधानमंत्री न बन सके और उन के सारे सपने धरे के धरे रह गए. अब नरेंद्र मोदी सपना देख रहे हैं. वे उत्तर प्रदेश की तसवीर कैसे बदलेंगे, यह प्रदेश के लोगों को समझ नहीं आ रहा है.
उत्तर प्रदेश की तसवीर तो वे तब बदल सकते थे जब वे इस प्रदेश के मुख्यमंत्री बन रहे होते. उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार अगले विधानसभा चुनाव यानी 2017 में भी बनने वाली नहीं है. यहां अभी लड़ाई समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच ही है. दोनों बडे़ दल कांग्रेस और भाजपा सत्ता की लड़ाई से दूर हैं. दिल्ली में मात खाने के बाद कांग्रेस नए सिरे से अपनी पार्टी को आगे बढ़ाने में जुट गई है. राहुल गांधी की टीम को महत्त्व दे कर वह अपना हौसला बनाए रखना चाहती है. जिस समय भाजपा और सपा के नेता रैली में लगे थे उस समय राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका के साथ अमेठी के लोगों से मिल कर बता रहे थे कि वे मैदान से भागे नहीं हैं.
विकास के मामले में सब से ज्यादा खराब हालत में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान हैं. यही वे क्षेत्र हैं जहां मोदी को सब से ज्यादा उम्मीद है. इन में भी उत्तर प्रदेश और बिहार कमजोर कड़ी हैं. यहां के रहने वाले लोग कामधंधे की तलाश में पंजाब, दिल्ली, मुंबई, सूरत और अहमदाबाद आतेजाते रहते हैं. इन में से ज्यादातर वे लोग हैं जो मेहनतमजदूरी करने जाते हैं.
यह बिरादरी बड़ी संख्या में अति पिछडे़ और दलित तबके से आती है. उत्तर प्रदेश और बिहार की जातीय राजनीति को यह तबका ही प्रभावित करता है. यह तबका गुजरात की तरक्की की तारीफ कर सकता है पर वोट वह अपनी बिरादरी वाले को ही देगा. ऐसे में गुजरात के सपनों का इस पर कोई असर नहीं पड़ने वाला.
भाजपा के पास लोकसभा की342 सीटें ही ऐसी हैं जहां वह अपना दमखम दिखा सकती है. नरेंद्र मोदी की रणनीति है कि इन 342 सीटों में ही 272 सीटें हासिल करने की कोशिश की जाए. इस के लिए वे कट्टरवाद से ले कर विकास तक का हर सपना बेच रहे हैं.
गोरखधाम की शरण में मोदी
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के मानबेला मैदान में लोगों की आई भीड़ को संबोधित करने से पहले नरेंद्र मोदी भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और पार्टी के प्रदेश प्रभारी अमित शाह के साथ गोरखनाथ मंदिर पहुंचे. वहां नरेंद्र मोदी ने गोरखधाम के अध्यक्ष महंत अवैद्यनाथ के पैर छू कर आशीर्वाद लिया. कुछ देर तक उन के साथ बातचीत की. इस के बाद वे रैली के लिए निकले. महंत अवैद्यनाथ अब राजनीति से दूर हैं. उन के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से भाजपा से सांसद हैं. योगी आदित्यनाथ और भाजपा के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है. पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ अपने हिसाब से पार्टी को चलाना चाहते हैं और भाजपा के दूसरे नेता अपने हिसाब से. ऐसे में आदित्यनाथ और दूसरे भाजपा नेताओं के बीच गुटबाजी समयसमय पर सामने आती रही है.
नरेंद्र मोदी ने इस गुटबाजी को खत्म करने का काम किया है. लेकिन टिकट वितरण के समय तक यह गुटबाजी खत्म ही रहेगी, इस की गारंटी देने वाला कोई नहीं है. योगी आदित्यनाथ हिंदू युवा वाहिनी नाम से अपना एक अलग संगठन चलाते हैं. वे इस के लोगों को विधानसभा और लोकसभा में पहुंचाना चाहते हैं. ऐसे में अपने लोगों के लिए जब टिकट मांगते हैं तो भाजपा के दूसरे नेता उन का जनाधार कमजोर करने के लिए उन के टिकट काट देते हैं.
इस लोकसभा चुनाव में भी युवा वाहिनी के कुछ नेता गोरखपुर, बस्ती अंबेडकरनगर से टिकट चाह रहे हैं. अब कब तक नरेंद्र मोदी इस संतुलन को बनाए रखते हैं, देखने वाली बात होगी. आदित्यनाथ को समझाने के लिए ही शायद नरेंद्र मोदी ने गोरखधाम पीठ को महत्त्व दिया है. मोदी ने रैली में पहुंचे गोरखपुर के लोगों को भी सपने दिखाए और कहा, ‘‘गोरखपुर ने मुझे जीत लिया है. वादा रहा कि इस प्यार को ब्याज के साथ विकास के रूप में लौटाऊंगा.’’
दबंगई दिखाने की कोशिश
मोदी को पता है कि अगर उत्तर प्रदेश में वोट पाने हैं तो वोटों का सांप्रदायिक बंटवारा जरूरी है. ऐसे में वे केवल गोरखधाम की तारीफ ही नहीं करते, वहां आशीर्वाद लेने भी जाते हैं. वहां से आ कर वे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव को ललकारने लगते हैं. वे कहते हैं, ‘‘नेताजी, आप को पता है गुजरात का मतलब क्या होता है? नेताजी, आप की हैसियत नहीं है कि यूपी को गुजरात बना सको. इस के लिए 56 इंच चौड़ा सीना होना चाहिए. यूपी को गुजरात बनाने के लिए 24 घंटे और 365 दिन बिजली देनी होगी. गुजरात बनने का मतलब प्रदेश की विकास दर 10 फीसदी करनी होगी. उत्तर प्रदेश अभी 3-4 फीसदी विकास दर पर ही लटक रहा है.’’
मोदी ने विकास की बातों के साथ ही साथ किसानों के मुद्दे पर भी उत्तर प्रदेश सरकार को घेरने का काम किया. मोदी ने गोरखपुर में स्कूल, कालेज, महिलाओं की सुरक्षा, बकाया गन्ना मूल्य, कानून व्यवस्था, गरीबी और पिछड़ेपन जैसे स्थानीय विषयों पर भी सवाल किए.
नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश को गुजरात जैसा बनाने के लिए 10 साल का समय मांगा है. जिस समय नरेंद्र मोदी गोरखपुर में अपनी रैली कर रहे थे उसी समय गोरखपुर से 220 किलोमीटर दूर समाजवादी पार्टी वाराणसी में अपनी चुनावी रैली कर रही थी. नरेंद्र मोदी ने उस रैली पर निशाना साधते हुए कहा, ‘‘यह खुशी की बात है कि मैं जहां जाता हूं, बापबेटे दोनों पीछा करते रहते हैं.’’
अपनी रैली में समाजवादी पार्टी की ज्यादा से ज्यादा बात कर के मोदी वोटों का बंटवारा सपा और भाजपा के बीच रखना चाहते हैं ताकि वोटों के सांप्रदायिक बंटवारे का ज्यादा से ज्यादा लाभ भाजपा को मिल सके. उधर, मुलायम सिंह ने अपने आधे घंटे के भाषण में ज्यादा समय मोदी और भाजपा को दिया. उन्होंने कहा, ‘‘गुजरात में उत्तर प्रदेश जैसी कल्याणकारी योजनाएं नहीं हैं. मोदी इंसानियत के हत्यारे हैं. भाजपा को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कोई नहीं मिला, इसलिए वह मोदी जैसे आदमी का सहारा ले रही है.’’
वहीं, मुलायम के सुपुत्र व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा, ‘‘लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश अहम है, इसलिए यहां साजिशें ज्यादा हो रही हैं.’’
दरअसल, मोदी के सहारे सपा वोटों का धु्रवीकरण चाहती है. इसलिए वह मोदी का डर दिखा कर मुसलिम वोटों को अपनी ओर करना चाह रही है. वहीं, सपा की मुसलिमपरस्त नीतियों का भय दिखा कर भाजपा हिंदुओं को अपनी ओर लाना चाहती है.
राजनीतिक स्तंभकार हनुमान सिंह ‘सुधाकर’ कहते हैं, ‘‘वोटों का सांप्रदायिक धु्रवीकरण आग से खेलने जैसी करतूत है. आज का वोटर समझदार हो गया है. ऐसे में दोनों ही दलों का यह दांव उलटा भी पड़ सकता है. और अगर ऐसा हुआ तो दोनों ही दलों को बड़ा नुकसान होगा.’’
रैली के साथ मार्केटिंग भी
एक अच्छे सौदागर की तरह नरेंद्र मोदी और उन की टीम ने न केवल रैलियों में भीड़ जुटाने का काम किया बल्कि भीड़ के माहौल को वोट प्रतिशत और सीटों में बदलने की संभावना को चुनावी सर्वे के सहारे सच साबित करने की कोशिश भी की है. भाजपा ने अपना एक अलग चुनावी सर्वेक्षण कराया है. उस में भाजपा को उत्तर प्रदेश में 50 से ऊपर सीटें मिलती बताई गई हैं. भाजपा के लिए परेशानी वाली बात यह है कि इस सर्वेक्षण में उस का मुकाबला बहुजन समाज पार्टी के साथ दिख रहा है. भाजपा के बाद दूसरी सब से ज्यादा सीटें पाने वाली पार्टी के रूप में बसपा का नाम आ रहा है.
भाजपा को लगता है कि कहीं वोटों का सांप्रदायिक बंटवारा न हुआ तो पार्टी को नुकसान हो सकता है. भाजपा के सर्वेक्षण में विस्तार से यह नहीं बताया गया है कि किस वोटबैंक के सहारेउसे 50 से अधिक सीटें मिल रही हैं?
भारतीय जनता पार्टी ने वोटरों को अपनी ओर लुभाने की जो कोशिशें की हैं उन में कांग्रेस की नाकामी खास रोल अदा कर रही है. मध्यवर्ग कांग्रेस से बहुत नाराज है. मध्यवर्ग की नाराजगी का फायदा केवल भाजपा को मिलेगा, यह पूरी तरह सही नहीं है. जिस तरह से दिल्ली में कांग्रेस से नाराज लोगों ने भाजपा को दरकिनार कर आम आदमी पार्टी को वोट दिया उसी तरह दूसरे राज्यों में भी हो सकता है. खासकर उत्तर प्रदेश में बसपा व सपा और बिहार में जदयू, राजद व लोजपा जैसे दल अपने मजबूत आधार के जरिए भाजपा का खेल बिगाड़ने का दमखम रखते हैं. मध्यवर्ग में आम आदमी पार्टी का भी जनाधार बढ़ रहा है. दिल्ली के बाद अब उत्तर प्रदेश और बिहार में लोग उस के जनाधार को बढ़ा रहे हैं. ऐसे में अगले चुनाव में भारी फेरबदल देखने को मिल सकता है.
आंकड़ों का बहुमत फेल
इंडिया टुडे-सी वोटर सर्वे उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और झारखंड में लोकसभा की 139 सीटों में से 64 सीटें भाजपा को दे रहा है. सर्वे के अनुसार, उत्तर प्रदेश में भाजपा को 30 सीटों का अनुमान लगाया गया है. यहां दूसरे नंबर पर बसपा को माना जा रहा है. उसे 24 सीटें मिलने की बात कही गई है. इस से साफ पता चलता है कि दूसरे दलों के मुकाबले बसपा मजबूत हालत में है. इस के बाद भी नरेंद्र मोदी बसपा को दौड़ से बाहर बता रहे हैं. एक और सर्वे सीएसडीएस का भी सामने आया जिस में भाजपा को उत्तर प्रदेश में 41 से 48 के बीच सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है. अगर इन सर्वे को सही माना जाए तो भी भाजपा के प्रभाव वाली 342 सीटों में से 272 सीटों कामिलना हाथ पर सरसों उगाने जैसा है. दरअसल, इन 342 सीटों में से 139 सीटों में भाजपा को केवल64 सीटें ही मिल रही हैं. यानी 45 फीसदी सीटें उसे मिल रही हैं. अगर यही प्रतिशत उस के प्रभाव वाली कुल 342 सीटों पर देखें तो 190 सीटों का गणित दिखता है, जो बहुमत से 82 सीटें कम के आंकडे़ पर टिक जाता ?है. ऐसे में मोदी अपना सपना कैसे पूरा कर पाएंगे, यह समझ से परे है.
बहरहाल, लोकसभा चुनाव परंपरागत परिणामों के बजाय आश्चर्यजनक नतीजे दे सकते हैं. जिस तरह दिल्ली विधानसभा चुनाव में विकल्प बन कर उभरी आम आदमी पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस को सत्ता से दूर कर दिया है, अगर वही स्थिति भावी आम चुनाव में भी परिलक्षित हो तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए. देखना दिलचस्प होगा, पीएम पद की दौड़ में नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल में कौन सियासी मैराथन जीतता है.
– साथ में शैलेंद्र सिंह