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पैंशन के नाम पर अपमान जैसी स्थिति ठीक नहीं

चुनाव आते ही सरकारें आम आदमी के हित में लुभावनी नीतियों को लागू करने का खूब प्रयास करती हैं. ऐसे वक्त में खाद्य सुरक्षा. महिला सुरक्षा तथा सामाजिक सुरक्षा जैसे नारों के साथ लोकलुभावन योजनाओं पर जोर दिया जाता है. यह अलग बात है कि हजारों लोग खाद्य सुरक्षा योजना के बावजूद खाली पेट रात काट रहे हैं और स्वास्थ्य सुरक्षा योजना होने पर भी चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ रहे हैं. इसी तरह से कभी रोटी, कपड़ा और मकान सब का अधिकार जैसे लुभावने नारे भी चले थे. इन सब के बावजूद हालात नहीं बदले.

दूरदराज की बात छोडि़ए, दिल्ली में ही असंख्य लोग कड़ाके की ठंड में पटरियों पर सो रहे हैं और हजारों जिंदगियां रैनबसेरों में रोटी के लिए तरस रही हैं.

निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को पैंशन योजना 1995 के तहत पैंशन दी जाती है लेकिन जिस रूप में इस पैंशन का भुगतान किया जा रहा है वह एक तरह से आम आदमी का अपमान है. कई लोगों को 300-400 रुपए मासिक पैंशन इस योजना के तहत मिल रही है जबकि दूसरी पैंशन योजनाओं का लाभ इस से अधिक है.

इधर, सरकार ने लोकसभा चुनाव को देखते हुए न्यूनतम पैंशन की रकम को 1 हजार रुपए करने की योजना पर काम शुरू किया है. सरकार का दावा है कि इस से करोड़ों लोगों को फायदा होगा लेकिन असली सवाल है कि इस राशि में पैंशनधारक को कितना लाभ पहुंचाने की क्षमता है. यह आम आदमी का उसी तरह से मजाक है जैसे योजना आयोग ने कुछ समय पहले न्यूनतम आय गांव में 28 रुपए और शहरों में 32 रुपए प्रति दिन तय की थी.

सत्ताधारी पार्टी को कई दिग्गजों ने सरकार की चापलूसी में इस पर कसीदे भी पढ़े थे. कमाल यह है कि इसे सरकार की उपलब्धि बता कर कसीदे पढ़ने वाले लोग अरबों का भ्रष्टाचार करने के आरोप में जेल में हैं. जरूरत इस बात की है कि न्यूनतम पैंशन की राशि को एक सम्मानित  स्तर दिया जाना चाहिए. इच्छाशक्ति हो तो सरकार इस के लिए रास्ते निकाल सकती है.

लग्जरी उत्पादों में विश्वसनीयता का संकट

देश में इस समय नकली लग्जरी उत्पादों की बाढ़ आई हुई है. यह खुलासा उद्योग मंडल एसोचैम के हाल में हुए एक सर्वेक्षण में हुआ है. लोकप्रिय वस्तुओं के डुप्लीकेट बाजार में आसानी से मिल रहे हैं. सामान्य उपयोग की ब्रांडेड वस्तु का नकली सामान भी बाजार में उपलब्ध है. सामान्य बाजार से खरीद पर पता ही नहीं लगता कि उपभोक्ता असली माल ले कर जा रहा है या ठगा गया है. इस्तेमाल करने पर पता चलता है लेकिन अब तक बहुत देर हो गई होती है. रसीद ले कर सामान खरीदना हमारे अभ्यास में नहीं है.

बाजार के जानकार कहते हैं कि विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए यह स्वस्थ स्थिति नहीं है. बाजार में हमारे लिए विश्वसनीयता का संकट बढ़ता जा रहा है. यहां तक कि जीवनरक्षक दवाएं भी नकली मिल रही हैं. इन नकली दवाओं की सरकारी खरीद भी हो रही है, इसलिए सरकारी अस्पताल के डाक्टर मरीज को जल्द ठीक होने के लिए अस्पताल से नहीं, बाजार से दवा खरीदने की सलाह देते हैं.

उधर, नकली सामान की बिक्री पर लगाम लगाने की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है. बौलीवुड की फिल्में रिलीज हों, उस से पहले ही उन की नकली सीडी बाजार में आ जाती हैं. ये सब पुलिस और प्रशासन की नाक के नीचे होता है लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं होती.

एसोचैम का कहना है कि नकली सामान का बाजार करीब 2,500 करोड़ रुपए का है.

सर्वेक्षण में कहा गया है कि नकली लग्जरी बाजार की जो रफ्तार है उस के मद्देनजर अगले 1-2 साल में यह बाजार दोगुना हो जाएगा. बाजार की इस स्थिति से बड़ी कंपनियां परेशान हैं. समय रहते इस से निबटने के कदम न उठाए गए तो खमियाजा सिर्फ बड़ी कंपनियों को ही नहीं, आम आदमी को भी झेलना पड़ेगा.

 

पुराने नोट बदलने की असली वजह पर असमंजस

कुछ दिनों पहले बाजार में यह हलचल रही कि जिस नोट पर लिखा गया होगा उसे बैंक स्वीकार नहीं करेंगे. साफसुथरे नोटों के प्रचलन के लिए इसे अच्छा माना जा रहा था लेकिन तभी रिजर्व बैंक ने स्पष्ट कर दिया था कि इस तरह के कोई निर्देश नहीं हैं. इस बार रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने 2005 से पहले के सभी नोट बदले जाने की घोषणा कर के आम लोगों में हलचल पैदा कर दी है.

बाजार से प्रचलित नोटों के वापस लेने की इसी तरह की हलचल 1996 व 1970 शृंखला के नोट बंद करने के निर्देश के दौरान भी रही थी. उस दौरान भी पुराने नोट बदलने की घोषणा की गई थी. इस बार गवर्नर ने बैंकों से कह दिया है कि 2005 से पहले के नोट 31 मार्च के बाद प्रचलन में नहीं रहेंगे. इस तरह 9 साल पुराने और प्रचलन के लिए बाजार में मौजूद 3,785 करोड़ नोट बेकार हो जाएंगे.

केंद्रीय बैंक ने सभी बैंकों को निर्देश दे दिए हैं कि वे 1 अप्रैल से 30 जून तक आमजन के नोट बदलें. उस के बाद एकसाथ 10 नोट जमा करने पर नोट बदलने गए व्यक्ति को अपनी पहचान बतानी होगी. मामला गंभीर लगता है. इस बारे में कहा जा रहा है कि सरकार ने चुनाव के मद्देनजर यह कदम उठाया है लेकिन गवर्नर का कहना है कि लोकसभा चुनाव से इस कार्यवाही का कोई लेनादेना नहीं है.

जानकारों का मानना है कि इस की वजह नकली नोटों के प्रचलन को कम करना है और स्वयं राजन ने भी कहा है कि यह कदम प्रभावशाली नोटों के प्रचलन को कम करना है. और इस का कोई दूसरा मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए. इस का सीधा मतलब काले धन को बाहर निकालना और नकली मुद्रा पर नकेल कसना है.

 

सुस्ती के बाद सूचकांक सर्वोच्च स्तर पर

अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण साल की शुरुआत से ही बाजार में सुस्ती का माहौल रहा है. इस की मजबूती के लिए सरकार की तरफ से आर्थिक हालात में सुधार के लिए कोई ऐसा प्रयास नहीं हुआ जिस से कहा जा सके कि यह अर्थव्यवस्था को पटरी पर लौटाने वाला काम हुआ है.

मंदी के इस दौर में रुपया भी कमजोर ही बना रहा लेकिन महंगाई की दर घटने से उत्साह का माहौल जरूर बना है.

इसी बीच कंपनियों के परिणाम भी जानकारों के लिए आशावादी ही रहे हैं. जनवरी के दूसरे पखवाड़े के आरंभ तक शेयर बाजार में गिरावट का रुख रहा लेकिन गणतंत्र दिवस को समाप्त होने वाले सप्ताह में बाजार में शुरू से ही बढ़त रही और 22 जनवरी, को बौंबे स्टौक एक्सचेंज के सूचकांक ने 87 अंक की बढ़ोत्तरी के साथ 21,338 अंक का रिकौर्ड स्तर हासिल किया और इस के अगले ही दिन बाजार मामूली 36 अंक की उछाल के साथ अब तक के सर्वाधिक 21,375 अंक पर बंद हुआ. कारोबार के दौरान सूचकांक 21,484 अंक के स्तर तक पहुंच गया था.

कमाल यह है कि इस दौरान रुपया पहले की तुलना में और कमजोर ही होता गया. लेकिन रिजर्व बैंक के गवर्नर इस दौरान ज्यादा सक्रिय दिखे और उन्होंने मार्च 2005 से पहले के छपे सभी नोट बैंकों में जमा कराने की घोषणा की है. बाजार के जानकारों का मानना है कि इस का बाजार पर सकारात्मक असर पड़ा है और नकली मुद्रा के प्रचलन पर लगाम लगने की उम्मीद से अर्थव्यवस्था के मजबूत होने के संकेत मिले हैं.

रेटिंग एजेंसी फिच समूह का भी यही अनुमान है. उस का कहना है कि बेहतर मानसून से बंपर पैदावार, निर्यात बढ़ने और सेवा व उद्योग क्षेत्रों में सुधार की उम्मीद है जिस से अर्थव्यवस्था के बेहतर होने की प्रबल संभावना है.

 

होंडा सिटी शानदार सवारी

जिंदगी में नयापन भला किसे नहीं भाता. फिर चाहे वह गाडि़यों में बदलाव ही क्यों न हो. ग्राहकों की इसी चाहत को ध्यान में रखते हुए होंडा ने अपनी कार होंडा सिटी का अपग्रेडेड मौडल पेश किया है. आइए जानें, इस नए मौडल की क्या हैं खासीयतें.

होंडा के लिए सिटी काफी महत्त्वपूर्ण कार है. सी सैगमैंट की कार में फिर से टौप पर लाने के लिए इसे रिफ्रैशमैंट की जरूरत महसूस हो रही थी. इसी जरूरत को ध्यान में रखते हुए कंपनी ने होंडा सिटी का नया वर्जन निकाला है. डिजाइन के मामले में इस की हैडलाइट स्लिम और स्लीक हो गई है. नई हैडलाइट्स से कार का लुक भी शानदार हो गया है. इस की टेललाइट्स में भी एलईडी इफैक्ट दिया गया है.

नए वर्जन में कार का इंटीरियर ज्यादा क्लासी हो गया है. मैटीरियल की क्वालिटी और ओवरऔल फिनिशिंग शानदार है और सब से बड़ी चीज, इस के व्हीलबेस में 50 एमएम स्पेस बढ़ गया है. 4440 एमएम बैक सीट में भी जगह बढ़ गई है. पिछली सीट के पैसेंजर को एसी की शानदार ठंडक भी

खूब मिलेगी, पीछे की सीट पर2 पावरआउटलेट भी हैं. कार के टौप ऐंड वैरियैंट्स में 8-स्पीकर औडियो सिस्टम वाला सीडी प्लेयर है. इस के अलावा यूएसबी/एयूएक्स, ब्लूटूथ, रिवर्सिंग कैमरा, टचस्क्रीन एसी कंट्रोल सिस्टम, औडियो सिस्टम के लिए नया एलसीडी पैनल, स्टीयरिंगमाउंटेड कंट्रोल जैसे कई फीचर्स मौजूद हैं.

होंडा सिटी 2 इंजन में आई है. पहला 6 स्पीड मैनुअल के साथ डेढ़ लिटर डीजल इंजन और दूसरा 5 स्पीड मैनुअल व सीवीटी के साथ डेढ़ लिटर पैट्रोल इंजन. ये इंजन क्रमश: 98.6 बीएचपी ञ्च3600 आरपीएम/20.3 केजीएम ञ्च1750 आरपीएम और 117 बीएचपी ञ्च6600 आरपीएम/14.7 केजीएम ञ्च4600 आरपीएम की पावर जैनरेट करते हैं. परफौर्मैंस सुधारने के लिए इंजन औयल की कम खपत और कूलिंग सिस्टम को बेहतर किया गया है. नई होंडा सिटी को चलाने में आप को मजा आएगा, चाहे आप हाईवे पर हों या ट्रैफिक में.

सीवीटी के साथ पैट्रोल इंजन मौडल एक परफैक्ट सिटी या कहें शहरी कार है. होंडा का दावा है कि 17 किलोमीटर प्रति लिटर का माइलेज देगी, जोकि मैनुअल में बताए गए माइलेज से 1 किलोमीटर ज्यादा है.

टायरों की चौड़ाई कम होने के बावजूद उन की ग्रिप अच्छी है. ब्रेक लगाने पर भी ग्रिप शानदार बनी रहती है. स्टीयरिंग का वेट भी शानदार है. इस की कीमत 8 से12 लाख रुपए के बीच रहने की उम्मीद है. इस में कोई शक नहीं है कि यह अब तक की बैस्ट होंडा सिटी है. तो फिर देरी किस बात की, तैयार हो जाइए इस की शानदार टैस्ट ड्राइव के लिए.

-दिल्ली प्रैस की अंगरेजी पत्रिका बिजनैस स्टैंडर्ड मोटरिंग से

 

भारत भूमि युगे युगे

वसीयत पर बवाल

शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के ज्येष्ठ पुत्र जयदेव ठाकरे अपने पिता की वसीयत को ले कर इतने दुखी हुए कि अदालत पहुंच गए यह कहते हुए कि उन के छोटे भाई द्वारा अदालत में पेश वसीयत फर्जी है. जयदेव काफी पहले से अपने पिता का घर छोड़ कर अलग रहने लगे थे. अपनी फिल्म निर्माता पत्नी स्मिता ठाकरे को भी उन्होंने छोड़ दिया था.

बकौल जयदेव, यह वसीयत अंगरेजी में लिखी गई है जिस पर बाल ठाकरे के दस्तखत मराठी में हैं. जो आदमी जिंदगी भर मराठी मानुष के लिए संघर्ष करता रहा वह अपनी वसीयत अंगरेजी में क्यों लिखेगा और जिन दिनों वसीयत पर दस्तखत हुए उन दिनों उन के पिता की हालत दस्तखत करने लायक ही न थी. लगता नहीं कि जयदेव अदालत में जीत पाएंगे. बहरहाल, उद्धव की मुसीबत तो उन्होंने बढ़ा ही दी है और यह भी जता दिया है कि सगे भाइयों के बीच पैतृक संपत्ति संबंधी विवाद ही भाईचारे की हिंदूवादी पहचान है.

जेल के बाद

चारा घोटाले के सजायाफ्ता लालू प्रसाद यादव जमानत पर जेल से बाहर आए और पूरे जोश के साथ सोनिया व राहुल में अंधश्रद्धा जताते हुए अपने दोनों दुश्मनों नीतीश कुमार व नरेंद्र मोदी पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे हैं.

कभी बिहार में कांगे्रस को 3 लोकसभा सीटें भी न देने वाले लालू को ज्ञान प्राप्त हो गया है कि अब कांगे्रस ही उन के राष्ट्रीय जनता दल का बेड़ा पार लगा सकती है. समीकरण बड़ा दिलचस्प है जो यह साबित करता है कि दुश्मन का दुश्मन हमेशा दोस्त साबित नहीं होता. थकेहारे पुराने नेताओं और बासी पार्टियों के लिए कांग्रेसी रैन बसेरा खुला हुआ है. रामविलास पासवान भी इस बसेरे में हैं जिस का कुछ तो फायदा कांग्रेस को मिलेगा ही.

पागल ही तो हैं

इसे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की कुंठा और भड़ास ही कहा जाएगा कि वे आपा खोते अरविंद केजरीवाल को पागल कह बैठे. दरअसल, शिंदे जैसे देश के तमाम नेता केजरीवाल की लोकप्रियता हजम नहीं कर पा रहे हैं.

केजरीवाल इन माने में जरूर पागल हैं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए मैट्रो ट्रेन से जाते हैं, कम खर्चे वाले छोटे मंत्रिमंडल से काम चला रहे हैं, कांग्रेसी समर्थन की परवा नहीं कर रहे, स्वास्थ्य की चिंता किए बगैर काम कर रहे हैं. उन्होंने एक झटके में धाकड़ नेत्री शीला दीक्षित को धूल चटा दी. ये खूबियां चूंकि किसी श्ंिदे या दूसरे नेता में नहीं हैं, इसलिए उन जैसे नेता केजरीवाल के खिलाफ बकवास करेंगे ही.

खून और सीना

डायलौग ऐसे थे कि हिंदी फिल्मों के पेशेवर संवादलेखक भी पानी मांगने लगें. संवाद अदायगी ऐसी कि राजकुमार जैसे अभिनेता भी शरमा जाएं. 25 जनवरी को मुलायम सिंह वाराणसी में और नरेंद्र मोदी गोरखपुर में थे और दोनों एकदूसरे को जम कर कोस रहे थे.

मुलायम का कहना भी सच था कि मोदी के हाथ खून से रंगे हैं, मोदी की भी बात ठीक थी कि गुजरात बनाने के लिए 56 इंच का सीना चाहिए और ये बापबेटा यूपी में मेरा पीछा करते रहते हैं. मुलायम के हाथ खून से नहीं रंगे हैं और यूपी को गुजरात नहीं बनने देने की भी उन की बात ठीक है क्योंकि वह तो पहले से ही दंगा प्रधान राज्य है.

रैलियों के इस ड्रामे में साफ यह हुआ कि इस साल हिंदी फिल्में कम व्यवसाय करेंगी, इसलिए समझदार निर्मातानिर्देशकों को अपनी फिल्में लोकसभा चुनाव के बाद रिलीज करनी चाहिए.

 

दबंगई की रह पर बचपन

उद्दंडता और बचपन का चोलीदामन का साथ जैसी कहावत तो आमतौर पर सुनी जाती रही है मगर आज तेजी से बदल रहे परिवेश में समय से पहले समझदार हो रहे बच्चे जिस प्रकार दबंग होते जा रहे हैं उस ने दबंगई और उद्दंडता के बीच के अंतर को काफी कम कर दिया है. मसलन, धाक और धौंस के बीच क्या अंतर होता है, इस फर्क को आज शायद ही कोई बच्चा महसूस करता होगा? ग्लैमर और मनोरंजन के अत्याधुनिक संसाधनों के साथ आधुनिक बाजारवाद का सितम जिस प्रकार बचपन से उस की सुलभता को छीन रहा है उस ने हमारे आधुनिक कहे जाने वाले समाज की चिंता को और ज्यादा बढ़ा दिया है.

उस घटना का उदाहरण हम सब के सामने है जब हरियाणा के गुड़गांव स्थित एक पब्लिक स्कूल के एक छात्र ने अपने सहपाठी पर मामूली कहासुनी होने के चलते गोली चला दी थी. गनीमत यह रही कि उस का निशाना चूक गया और एक बड़ा अनर्थ टल गया. जो छात्र अपनी कम उम्र में अपने सहपाठी पर गोली दाग सकता है उस की मानसिकता का आकलन बड़ा मुश्किल है. चेन्नई में 15 वर्षीय एक स्कूली छात्र ने शिक्षिका द्वारा छात्र की कौपी में लिखी टिप्पणी पसंद न आने पर शिक्षिका की हत्या कर दी.

यह तो चंद उदाहरण मात्र हैं वरना तो पूरे देश में किशोरवय बच्चे निरंतर अपराध में लिप्त होते जा रहे हैं. उन के निरंतर हिंसक होते व्यवहार में घातक टीवी शोज और हिंसक वीडियो गेम्स मानो आग में घी का काम करते हैं. अमीर मांबाप की सिरचढ़ी औलाद घर के तानाशाही माहौल को देख कर ठीक वैसा ही बनना चाहती है, तो इस में गलती किस की है?

ज्यादा पौकेटमनी का कुप्रभाव

कई मामलों में देखा गया है कि स्कूली छात्रों को मातापिता द्वारा जरूरत से ज्यादा दी जाने वाली पौकेटमनी के भी दुष्परिणाम सामने आए हैं. मसलन, जब बच्चों की जरूरत कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है तो वे किसी भी हद तक दुस्साहसी कदम उठा सकते हैं और उस के पीछे यह सोच काम करती है कि चलो, एक बार की तो बात है, यह पैंतरा आजमा कर देखते हैं.

दरअसल, ऐसी सोच दोनों ही हालात में खतरनाक है. एक, यदि बच्चा पकड़ा जाता है तो उस की ठीकठाक जिंदगी गलत दिशा में मुड़ जाती है. दो, यदि न पकड़ा गया तो उस की हिम्मत इस कदर बढ़ जाती है कि वह बारबार उसी हरकत को दोहरा कर अपराध की डगर पर चल पड़ता है. जो अभिभावक बच्चे को मनचाहा जेबखर्च दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं. बाद में वही बच्चा आगे चल कर अपनी मांगें मनवाने में मातापिता के विरुद्ध भी हिंसा पर उतारू होने से नहीं हिचकिचाता.

कार्टून और खिलौनों की भूमिका

बच्चों पर आधारित खिलौनों, कार्टून्स का व्यवसाय दुनिया के बड़े व्यवसायों में से एक है जहां मात्र 10 रुपए से ले कर10 हजार रुपए की कीमत वाले खिलौने उपलब्ध हैं. इसी प्रकार, गांव, गली, नुक्कड़ों पर खुले वीडियो गेम्स पार्लर बच्चों में जानेअनजाने हिंसक गतिविधियों का संचार कर रहे हैं. राजधानी दिल्ली के एक नामी स्कूल में पढ़ने वाले 14 वर्षीय किशोर की अपने दोस्तों से बहस हो गई और दोस्तों ने ही उस की हत्या कर दी.

ये घटनाएं आज के बच्चों में बढ़ती आपराधिक प्रवृति की ओर इशारा करती हैं. वीडियो पार्लर्स में बच्चे आसानी से एकदूसरे के संपर्क में आ कर बाकायदा अपना गिरोह बना कर भी वारदातों को अंजाम दे डालते हैं. लिहाजा, बच्चों पर निगरानी रखना बेहद जरूरी है.

गलत संगति का असर

कुछ वर्ष पूर्व हरियाणा के पंचकूला शहर में नशे की लत ने 2 चिरागों को एकसाथ बुझा दिया. पुलिस पड़ताल से यह खुलासा हुआ कि दोनों ही मृतक छात्र नशे के आदी थे. इन में मृतक गुरनाम पंचकूला के गांव रैली तथा दूसरा छात्र अभिषेक भाटिया मूल रूप से हिमाचल प्रदेश का निवासी तथा पंचकूला में रह कर अपनी पढ़ाई पूरी कर रहा था. दोनों ही छात्र गंभीर किस्म के नशे के आदी थे.

जैसा संग वैसा रंग उक्ति के अनुसार यदि बच्चा गलत संगति में पड़ गया है तो उस का असर उस पर होना लाजिमी है. ऐसे में बच्चे के बिगड़ने में देर नहीं लगती. वहीं, वह दूसरे बच्चों को भी खराब कर सकता है. हालांकि पश्चिमी देशों की तुलना में यहां स्थिति इतनी भयावह नहीं है क्योंकि वहां हथियार रखने पर यहां की तरह लंबेचौड़े कानून नहीं हैं.

टीवी, वीडियो गेम्स का दुष्प्रभाव

बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति पैदा करने में टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले सनसनीखेज समाचारों, हिंसा आधारित धारावाहिकों व फिल्मों की भी भूमिका है. रहीसही कसर इंटरनैट पूरी कर देता है. एक सर्वे की रिपोर्ट में कहा भी गया है कि बच्चे इंटरनैट पर उपलब्ध सनसनीखेज गेम्स और फिल्मों से अपराधों को अंजाम देने और बचने के उपाय सीखते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक 14 से 17 वर्ष के बच्चों में हिंसात्मक फिल्में देखने के कारण हथियार रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है. जहां मातापिता की अनुपस्थिति में बच्चे हर चीज के मतलब अपने हिसाब से निकालते हैं. कई फिल्मों में अपनाई गई चोरी, बैंक डकैती या अपहरण की तकनीक को बच्चों ने भी निसंकोच अपनाया और सलाखों के पीछे जा पहुंचे.

चकाचौंध का प्रभाव

बच्चों में बहुत छोटी उम्र से ही नशा करने की भी प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है. वह पहले उसे फैशन और स्टेटस सिंबल के रूप में लेते हैं, बाद में यही आदत लत बन जाती है. आधुनिकता की रेस में कहीं लाड़ला पिछड़ न जाए यह सोच कर मातापिता उन्हें बिना सोचेसमझे बहुत सी सुविधाएं उपलब्ध करवा देते हैं, जिन का बहुत से बच्चे गलत फायदा उठाने से नहीं चूकते. मोबाइल और इंटरनैट के जरिए भी वे आपराधिक प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर हो जाते हैं जिन का पता उन के अभिभावकों को तब चलता है जब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

कई मामलों में देखा गया है कि सामाजिक, आर्थिक असमानताएं भी बच्चों को अपराध के लिए उकसाती हैं. जब बच्चे अपने से उच्च आर्थिक स्तर के बच्चों को आधुनिक गैजेट्स का इस्तेमाल करते देखते हैं तो उन चीजों को पाने की आकांक्षा भी बच्चों में अपराध को जन्म देती है. ऐसे में वे अपनी आकांक्षा को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.

अनावश्यक मानसिक दबाव

मातापिता जिस अनुपात में बच्चों पर खर्च करते हैं उसी अनुपात में उन की अपेक्षाएं भी बढ़ती हैं. वे पैसों के बल पर अपने बच्चे की तुलना उस बच्चे से करते हैं जो उस से अव्वल नंबर ले कर पास हुआ होता है. पंचकूला के ही एक स्कूल की अध्यापिका इंदूबाला दहिया कहती हैं कि यह अपेक्षा बहुत ही खतरनाक स्थिति पैदा कर सकती है क्योंकि मांबाप की हसरतों को पूरा करने के दबाव के चलते उन की अपनी अभिरुचि का कोई महत्त्व नहीं रह जाता. बच्चों को इस बात की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए कि उन की अपनी दिलचस्पी किस विषय में है. आप किसी को भी जबरदस्ती आईएएस, आईपीएस नहीं बना सकते, चाहे जितना जोर लगा लें. 

करोड़ों के बंगले पर टका सा जवाब

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह इन दिनों 81 करोड़ रुपए के बंगले तले दबे पड़े हैं. जहां विपक्षी पार्टियां उक्त आलीशान बंगले को जनता के पैसे से ऐयाशी करने का कदम बता रही हैं वहीं भाजपा इसे फुजूलखर्ची नहीं मानती. करोड़ों के इस बंगले के क्या माने हो सकते हैं, बता रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.

रमन सिंह अगर राजनीति में न आ कर छत्तीसगढ़ के अपने गृहनगर कवर्धा में डाक्टरी का व्यवसाय कर रहे होते तो आज 61 साल की उम्र में भी उन के लिए 81 करोड़ तो बहुत दूर की बात है, 81 लाख रुपए का मकान खरीदने के लिए भी हजार बार सोचना पड़ता. लेकिन रमन सिंह, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं और लगातार तीसरी बार बने हैं. लिहाजा, 81 करोड़ रुपए का बंगला उन के लिए मामूली बात है.

लेकिन यह मामूली बात अब गैरमामूली होती जा रही है जिस के खुलासे पर रमन सिंह हालफिलहाल बगलें झांकते यह भर कह पा रहे हैं कि मुख्यमंत्री के लिए नए रायपुर में घर बनना चाहिए और आने वाले 5 सालों में इस की जरूरत होगी लेकिन घर छत्तीसगढ़ के अनुरूप हो, सादगी वाला हो और सुरक्षा के लिहाज से बेहतर हो, इस के लिए हम ने नए सिरे से प्रस्ताव बनाने को कहा है.

अपने शांत स्वभाव और धैर्य के अलावा सादगी के लिए भी पहचाने जाने वाले रमन सिंह के इस शाकाहारी व सात्विक बयान पर हैरानी होना स्वाभाविक है कि 81 करोड़ रुपए के आवास और उस का सादगी से संबंध तो पांव व पीठ जैसा है जो कतई बदहाल आदिवासी बाहुल्य इस राज्य के अनुरूप नहीं कहा जा सकता. ऐसा लगता है कि रमन सिंह तेजी से बढ़ते इस विवाद को वक्तीतौर पर टरकाने की नाकाम कोशिश भर कर रहे हैं. उन की मंशा और सादगी पर 81 करोड़ रुपए का दाग तो लग ही चुका है.

क्या है मामला

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 20 किलोमीटर दूर महासमुंद रोड पर तेजी से एक नया शहर, नया या न्यू रायपुर विस्तार और आकार ले रहा है जो दरअसल इस सूबे की नई राजधानी होगा. यहां बीते 5 सालों से इमारतों का निर्माण कार्य चल रहा है. कई सरकारी दफ्तर बन चुके हैं और कुछ में सरकारी कामकाज शुरू भी हो चुका है.

न्यू रायपुर में जमीनों के औसत दाम 2 हजार रुपए वर्गफुट है. छत्तीसगढ़ बनने के बाद जैसे ही न्यू रायपुर बनने की घोषणा हुई थी तो कौडि़यों के मोल वाली यहां की जमीन रातोंरात करोड़ों की हो गई थी, जिसे बिल्डरों ने कौडि़यों से कुछ ज्यादा दाम दे कर खरीद लिया था. दूर की नजर रखने वाले जमीनों के कारोबारी भी रातोंरात अरबों के आसामी हो गए थे. यह हालांकि गए वक्त की बात है, ताजा यह है कि रायपुर या छत्तीसगढ़ का कोई मध्यवर्गीय न्यू रायपुर में मकान खरीदने की बात नहीं सोचता क्योंकि यहां दाम लगातार बढ़ रहे हैं.

मुख्यमंत्री रमन सिंह का बंगला 12 एकड़ के विशालकाय रकबे में बनना प्रस्तावित है जिसे ले कर वे निशाने पर हैं. उन की सादगी के चिथड़े उड़ने लगे हैं. इस सीएम हाउस में दफ्तर के साथसाथ वीआईपी रैस्ट हाउस भी होगा.

एक गरीब प्रदेश का मुख्यमंत्री 81 करोड़ रुपए के बंगले में रहने जा रहा है, इस पर खासा उबाल सूबे में मचा हुआ है. न्यू रायपुर की बसाहट का जिम्मा न्यू रायपुर विकास प्राधिकरण को सौंपा गया है. इस विभाग के जनसंपर्क अधिकारी विकास शर्मा के मुताबिक, न्यू रायपुर में राजभवन और मुख्यमंत्री निवास के लिए जमीन का चुनाव कर प्रस्ताव वित्त विभाग के पास भेजा गया है. गौरतलब है कि वित्त विभाग के मुखिया खुद रमन सिंह ही हैं.

गरमाई सियासत

यह बात उजागर होने की देर थी कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस से पहले तेजी से बढ़ती आम आदमी पार्टी हमले में बाजी मार ले गई. छत्तीसगढ़ में आप के नेता सुधीर राय का कहना है कि छग में मुख्यमंत्री रमन सिंह ने जीरो टौलरेंस और भ्रष्टाचार को  बरदाश्त नहीं करने की बात कही थी. जिस राज्य में लाखों लोगों के सिर पर छत न हो वहां एक अकेले मुख्यमंत्री और उन के परिवार के लिए 81 करोड़ रुपए का मकान बनाया जाना भ्रष्टाचार का एक नया नमूना है.

बात इतनी भर नहीं है. दरअसल, रमन सिंह का एक सिरदर्द, उन की ही पार्टी का दिया हुआ है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के 5 कमरों के मकान पर बवाल खड़ा करने वाली भाजपा अब खुद कठघरे में है.

यह बात अब छग में रेखागणित की प्रमेय की तरह चटखारे ले कर की जा रही है कि 12 एकड़ जमीन में 81 करोड़ रुपए का जो बंगला सीएम के लिए बनेगा उस में हजारों गरीबों के लिए इंदिरा आवास बनाए जा सकते हैं या फिर उस में1 हजार एलआईजी और 600 एमआईजी मकान बनाए जा सकते हैं.

इस प्रमेय को और विस्तार देते कांग्रेस के राज्य प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला का कहना है कि 81 करोड़ रुपए में 16,200 इंदिरा आवास बनाए जा

सकते हैं जहां इतने परिवारों को छत मिल जाएगी. अकेले मुख्यमंत्री के लिए इतने पैसे खर्च करना फुजूलखर्ची और जनता की गाढ़ी कमाई के पैसों को बेदर्दी से लुटाने वाला फैसला है.

इन सियासी हमलों पर भाजपा खामोश नहीं रही, न ही उस ने कदम वापस खींचे. पलटवार में राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री निवास पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए. छग भाजपा प्रवक्ता शिवराज शर्मा का कहना है, ‘‘न्यू रायपुर में प्रस्तावित घर रमन सिंह के लिए नहीं बल्कि मुख्यमंत्री के लिए बनाया जा रहा है, सुरक्षा और जरूरत के हिसाब से बनाए जाने वाले इस घर के निर्माण को इतने संकुचित तरीके से लेना ठीक नहीं है क्योंकि मुख्यमंत्री निवास से राज्य की गरिमा ठीक वैसे ही जुड़ी है जैसी राष्ट्रपति भवन व प्रधानमंत्री भवन की गरिमा है. उन दोनों भवनों में तो एक शहर बसाया जा सकता है.’’

गरिमा और गरीबी

जनता के पैसे से ऐश करने की कांग्रेसी बीमारी भाजपा को भी कभी की लग चुकी है जिस की ताजा मिसाल गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी हैं, जिन का घर अहमदाबाद में बीते साल 150 करोड़ रुपए में बना था. देश का यह पहला आलीशान और हाईटैक सीएम हाउस है जिस की भव्यता, गरिमा पर भारी पड़ती है.

रमन सिंह के 81 करोड़ रुपए के मकान ने यह सोचने को भी मजबूर कर दिया है कि राजनेताओं के मकान का क्षेत्रफल तय होना चाहिए और इस का राज्य की गरीबी यानी प्रति व्यक्ति औसत आय से भी संबंध होना चाहिए. एक निश्चित राशि भी इस बाबत तय होनी चाहिए जिस से कोई मुख्यमंत्री मकान के उस से बड़े सपने न देखे.

विडंबना यह है कि यह काम भी राजनेताओं को करना है, इसलिए इस पर वे सोचेंगे भी क्यों. राजेरजवाड़ों की तरह लोकतंत्र में भी जनता के पैसे पर मौज की जाती है. बात पैट्रोल की हो या दावतों की, यात्राओं की हो, बिजली की हो, नौकरों और कर्मचारियों की हो या फोन की, इन की कोई सीमा तय नहीं है और हो भी तो उस का पालन कोई नहीं करता.

रमन सिंह ने दोबारा सोचने की बात कही है लेकिन कम कीमत के आवास में रहने की नहीं. तो तय है कि यह एक मध्यवर्गीय कुंठित राजसी महत्त्वाकांक्षा है. इसलिए लोकसभा चुनाव तक 81 करोड़ रुपए के बंगले पर वे चुप रहेंगे लेकिन जिद छोड़ेंगे, ऐसा नहीं लग रहा. जनता के काम खासतौर से छग की गरीबी दूर करने का यह वाकई नायाब तरीका है कि महंगे मकान में रह कर काम करो वरना दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरह उन्हें भी सनकी और पागल कहा जाने लगेगा.

रही बात उस जनता की जिस के पैसों से नेताओं के आलीशान मकान बनते हैं तो वह बेचारी इन आलीशान इमारतों की नक्काशी ताकती रहती है. छग के आम लोगों और आदिवासियों की बड़ी परेशानी और जरूरत मुख्यमंत्री की 81 करोड़ रुपए की छत नहीं खुद के सिर पर छत जुगाड़ने की है. 

प्रधानमंत्री पद की दौड़

देश की सर्वोच्च राजनीतिक कुरसी की दौड़ में एक तरफ कांग्रेस के अघोषित उम्मीदवार राहुल गांधी हैं तो दूसरी तरफ भाजपा के नरेंद्र मोदी. वहीं, सियासत में तेजी से उभरे अरविंद केजरीवाल भी मजबूत दावेदार माने जा रहे हैं. सवाल यह है कि काबिलीयत और जनसमर्थन के आधार पर हो रही इस चुनावी जंग में अपरिपक्व राहुल का झंडा बुलंद होगा या भगवे में लिपटे नरेंद्र मोदी का सपना साकार होगा या फिर दोनों के अरमानों पर अरविंद केजरीवाल झाड़ू फेरेंगे? पढि़ए यह विश्लेषणात्मक लेख.

राहुल गांधी–उपाध्यक्ष, कांग्रेस

काबिलीयत पर सवाल

देश की सब से बड़ी व पुरानी कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के अघोषित उम्मीदवार राहुल गांधी मीडिया को दिए अपने राजनीतिक कैरियर के पहले इंटरव्यू में कोई छाप नहीं छोड़ पाए. उलटा उन की राजनीतिक अपरिपक्वता और अधकचरा ज्ञान उभर कर लोगों के सामने आया. वह सूझबूझ नहीं दिखी जो देश के शीर्ष पद के दावेदार में होनी चाहिए. राहुल गांधी कोई नई सोच, देश की समस्याओं पर नया दृष्टिकोण पेश नहीं कर पाए.

राहुल गांधी ही क्यों, भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की ‘समझ’ भी देश के सामने समयसमय पर आती रही है. मोदी के आर्थिक, इतिहास, भूगोल और संवैधानिक ज्ञान पर सवाल उठते रहे हैं. मोदी को हवाईर् बातें बनाने में माहिर माना जाता है तो राहुल गांधी को अपरिपक्व, अज्ञानी.

इसीलिए सोशल मीडिया में पढ़ेलिखे खासतौर से युवाओं द्वारा मोदी को ‘फेंकू’ और राहुल गांधी को  ‘पप्पू’ कहा जाता है.

युवा भारत यानी सोशल मीडिया में दोनों दावेदारों की काबिलीयत को ले कर एक मजेदार मगर गंभीर टिप्पणी मौजूं है. टिप्पणी राहुल के इंटरव्यू और मोदी को ले कर है जिस में कहा गया है, ‘एक बेवकूफ और दूसरा हत्यारा, भारत का क्या होगा’. हालांकि इस टिप्पणी को ले कर विवाद पैदा हो गया क्योंकि इसे आम आदमी पार्टी के संयोजक व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने रिट्वीट कर दिया था जो कि उन्हीं की पार्टी के समर्थक व संगीतकार विशाल डडलानी की थी.

मगर आश्चर्य की बात है कि सोशल मीडिया के अलावा सब से बड़ी व पुरानी कांग्रेस पार्टी और धर्ममार्गी पार्टी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की काबिलीयत पर बड़े स्तर पर कोई चर्चा नहीं है. न तो पार्टी के भीतर और न ही देश में.

मीडिया से दूरी

राहुल गांधी का राजनीति में आने के यानी पिछले 10 साल के बाद टैलीविजन न्यूज चैनल को दिया गया पहला इंटरव्यू था. राहुल ने कहा कि  उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना है तो इंटरव्यूकर्ता ने पूछा, पर आप की पार्टी तो भ्रष्टों के साथ गठबंधन कर रही है, लालू यादव की राजद के साथ. इस पर उन के चेहरे पर खिसियाहट देखी गई.

गुजरात दंगों को ले कर पूछे सवालों पर राहुल में जानकारी का अभाव देखा गया. उन से जब गुलबर्ग सोसायटी मामले में मोदी को अदालत द्वारा बरी किए जाने के संबंध में सवाल किया गया तो वे आगे तर्क नहीं दे सके. यह नहीं बता पाए कि गुलबर्ग के अलावा अन्य मामलों में भी मोदी फंसे हुए हैं.

चैनल ने जब पूछा कि अदालत ने मोदी को क्लीन चिट दे दी है तो वे उन्हें जिम्मेदार क्यों ठहरा रहे हैं? इस पर राहुल ने कहा कि गुजरात दंगे जब हुए थे, वे मुख्यमंत्री थे. गुजरात सरकार दंगों को भड़का और बढ़ा रही थी.

दिल्ली के सिख विरोधी दंगों और गुजरात दंगों में सरकार की भूमिका पर वे कहते हैं कि आमतौर पर यह फर्क है कि 1984 में सरकार जनसंहार में शामिल नहीं थी लेकिन गुजरात में वह शामिल थी. दिल्ली में सरकार दंगों को भड़का नहीं रही थी, उस में मदद नहीं कर रही थी. सरकार ने दंगे रोकने की कोशिश की थी.

राहुल से जब जोर दे कर पूछा गया कि वे गुजरात दंगों पर मोदी पर निशाना कैसे साध सकते हैं? तो उन्होंने कहा कि यह मैं नहीं, बड़ी संख्या में लोगों ने देखा है कि दंगों में गुजरात सरकार सक्रियता से शामिल थी. राहुल ने कहा कि मेरा मतलब है कि लोगों ने इसे देखा है. मैं उन लोगों में नहीं हूं जिन्होंने उसे देखा. आप के सहयोगियों ने उसे देखा. आप के सहयोगियों ने मुझे बताया. उन्होंने प्रशासन को सक्रिय रूप से अल्पसंख्यकों पर हमला करते देखा.

यह पूछे जाने पर कि क्या वे 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए माफी मांगेंगे? राहुल ने कहा कि इस की कोईर् जरूरत नहीं है. मैं इन दंगों में बिलकुल भी शामिल नहीं था. ऐसा नहीं था कि मैं इस का हिस्सा था. उन्होंने यह कह कर भी विवाद खड़ा कर दिया कि उन की पार्टी के कुछ नेता शायद शामिल थे और इस के लिए उन्हें सजा दी गई है.

मोदी से संबंधित राय

आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी के प्रतिद्वंद्वी होने के सवाल पर राहुल  ने कहा कि मुझे मोदी से टकराव का कोई डर नहीं है. मैं ने अपनी दादी और पिता को मरते हुए देखा है. मैं किसी चीज से नहीं डरता. पहले मुझे समझ लीजिए. आप को खुद ही यह जवाब मिल जाएगा कि मैं किस से डरता हूं. कांग्रेस चुनावों में भाजपा को परास्त करेगी. राहुल गांधी मीडिया को खुल कर साक्षात्कार क्यों नहीं देते, शायद इस डर से कि उन की कमियां, अज्ञानता खुल कर सामने आ जाएंगी. इसी तरह नरेंद्र मोदी के ज्ञान को ले कर भी प्रश्न उठाए जाते हैं. हाल में जब मोदी ने जम्मूकश्मीर जा कर संविधान के अनुच्छेद 370 पर सवाल खड़ा किया तो उन पर चौतरफा हमला होने लगा. नैशनल कौंफ्रैंस के नेता उमर अब्दुल्ला और पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा था कि अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू और कश्मीर को जो विशेष दरजा प्रदान किया गया था वह राज्य की संविधान सभा द्वारा मंजूरी मिलने के बाद स्थायी हो गया है और इसे हटाया नहीं जा सकता.

वैसे इसी से मिलतेजुलते अनुच्छेद 371, 371ए से आई तक हैं जो अब निरर्थक हो चुके हैं, तो वे हटाए जाने चाहिए. सईद ने यह भी कहा था कि हम भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की संवैधानिक जानकारी की इस गंभीर कमी पर चिंता प्रकट करते हैं. इस से पहले मोदी की अर्थशास्त्र संबंधित जानकारी पर केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम सवाल खड़े कर चुके हैं. उधर, भाजपा नेता अरुण जेटली भी राहुल गांधी द्वारा इंटरव्यू में कही गई बातों पर कहते हैं कि कांग्रेस उपाध्यक्ष को जानकारी का अभाव है लेकिन मोदी की अज्ञानता पर वे कुछ नहीं कहते. स्पष्ट है कि देश की जनता के सामने अज्ञानियों, अल्पज्ञानियों के बीच में से एक को चुनने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है. जनता को सिर्फ लौलीपौप से बहलाने की कोशिश की जा रही है. आज चुनौतियों के दौर में किसी भी देश को विवेकवान, वाक्पटु नेतृत्व की जरूरत है. फिलहाल देश के सामने जो भावी नेतृत्व दिखाई दे रहा है उन पर सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वे समस्याओं से त्रस्त देश को संभालने के काबिल हैं?

जवाब नहीं हैं

सवाल लोगों की खामोशी पर भी है. देश में जबतब मेरिट को ले कर हल्ला मचाया जाता है लेकिन सवाल जब देश के नेतृत्व यानी भविष्य को ले कर हो तब मेरिट की बात करने वाले चुप्पी साधे नजर आ रहे हैं. क्या नेताओं की अज्ञानता, अल्प जानकारी, कट्टर मजहबी विचारधारा, झूठी धर्मनिरपेक्षता, हवाई बातें, वंश, परिवार परंपरा ही मेरिट है? इन पर सवाल क्यों नहीं उठते?

दिक्कत यह है कि राजा नंगा है पर यह बात बताए कौन? पिछले एक दशक में प्रधानमंत्री पद के इस संभावित दावेदार का कोई भी करिश्मा देश को देखने को नहीं मिला. संसद में वे कम बोलते दिखे. न वे जनता से मिलते हैं, न मीडिया से. किसी नेता को अनुभव के लिए, अपनी काबिलीयत जाहिर करने के लिए और कितना वक्त चाहिए? देश के लोगों में प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों के प्रति कितना सम्मान है, सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है.  तो क्या देश ‘फेंकू’ और ‘पप्पू’ को अपना भविष्य सौंपने को तैयार है? हमारे नेताओं में बराक ओबामा, व्लादिमीर पुतिन जैसे तेजतर्रार, धर्म, नस्ल, वंशनिरपेक्ष नेता हैं? विश्वगुरु कहलाने वाले भारत में योग्य नेताओं का अकाल कैसे हो सकता है? देश में बहस इस बात पर होनी चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार कितने योग्य हैं.

 

अरविंद केजरीवाल–आम आदमी पार्टी

भ्रष्ट व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की जिद

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा कुछ पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्यवाही को ले कर धरना देने पर काफी होहल्ला मचा. कई सवाल खड़े किए गए. सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया गया. ऐसा माहौल बना दिया गया मानो केजरीवाल और उन के मंत्रियों ने कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो. विरोधी उन्हें अराजक बताने लगे. सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी उन से जवाब मांगा गया. महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर आमतौर पर चुप्पी साधे रहने वाला दिल्ली महिला आयोग भी अचानक सक्रिय हो उठा और दिल्ली के कानून मंत्री सोमनाथ भारती को पेश होने का फरमान जारी कर दिया गया.

आखिर दिल्ली सरकार का कुसूर क्या है? यही न कि मुख्यमंत्री को धरने पर इसलिए बैठना पड़ा क्योंकि केंद्र के अधीन दिल्ली की पुलिस ने उन के 2 मंत्रियों की शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं की. पुलिस ने निरंकुश रवैया अपनाए रखा. उपराज्यपाल और केंद्रीय गृहमंत्री से मिलने मुख्यमंत्री जब गए तो गृहमंत्री ने उन पुलिस वालों के निलंबन से इनकार कर दिया. उपराज्यपाल ने हाथ खड़े कर दिए कि वे नहीं, गृहमंत्री ही हटा सकते हैं. हार कर केजरीवाल को गृहमंत्रालय पर धरना देने का ऐलान करना पड़ा.

समूचे मामले में विपक्षी दलों और मीडिया द्वारा असली मुद्दे को हाशिए पर फेंक दिया गया और फुजूल की बातों को हवा दी जाने लगी. पुलिस का जैसा स्वभाव है कि उलटे शिकायतकर्ता को ही फंसा दिया जाता है वैसे ही उस का समूचा तंत्र केजरीवाल सरकार को ही दोषी, अराजक साबित करने पर तुला दिखाई दिया.

केजरीवाल और उन के मंत्री का तरीका गलत हो सकता है पर मुद्दा  नहीं. लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे उलटे चोर मिल कर कोतवाल को डांट रहे हैं. भ्रष्ट, अकर्मण्य और निरंकुश व्यवस्था असली मुद्दे को हाशिए पर फेंक देने में कामयाब हो गई. भारती के खिलाफ मामला दर्ज हो गया. जितनी फुरती पुलिस ने भारती के खिलाफ मामला दर्ज कराने में दिखाई उतनी खिड़की ऐक्सटैंशन मामले में कार्यवाही करने में नहीं.

इस बात पर कहीं कोई बहस नहीं हो रही कि पुलिस की जवाबदेही कैसे तय की जाए. जनता और जनप्रतिनिधियों की शिकायत पर तंत्र काम न करे तो क्या किया जाए? मामले की शुरुआत दिल्ली के कानून मंत्री सोमनाथ भारती के इलाके से हुई. मालवीय नगर के खिड़की ऐक्सटैंशन में बड़ी तादाद में दक्षिण अफ्रीकी नागरिक रहते हैं. इलाके के लोगों की शिकायतें थीं कि इन में से कई नागरिक सैक्स और ड्रग के धंधे में लिप्त हैं. वे कई दफा पुलिस में शिकायत कर चुके थे कि इन से वे खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं और इलाके की सुरक्षा को भी खतरा है.

लोगों ने अपने क्षेत्र के नए चुने गए विधायक व कानून मंत्री सोमनाथ भारती से भी शिकायत की. भारती ने 16 जनवरी को ड्रग और सैक्स का धंधा करने वाले दक्षिण अफ्रीकी लोगों के यहां छापा मार कर आरोपियों को रंगेहाथों पकड़वाने की कोशिश की. उन्होंने पुलिस को बुलाया पर पुलिस ने सहयोग नहीं किया. पुलिस बिना सुबूतों के कार्यवाही करने से इनकार करती रही. काफी जद्दोजहद हुई.

जांच के आदेश

इसी तरह महिला एवं बाल कल्याण मंत्री राखी बिड़ला ने सागरपुर में दहेज के लिए युवती को जलाने के आरोपियों की गिरफ्तारी की पुलिस से मांग की. इस पर भी पुलिस ने आदत के अनुसार नानुकुर की. इन दोनों मामलों को ले कर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पहले तो उपराज्यपाल नजीब जंग से मिले. उन से उन पुलिस अफसरों को निलंबित करने की मांग की जिन्होंने जनप्रतिनिधियों की शिकायत पर कोई गौर नहीं किया. उपराज्यपाल ने किसी पुलिसकर्मी को हटाना अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर बता कर हाथ खड़े कर दिए. हालांकि उन्होंने न्यायिक जांच के आदेश दे दिए थे. बाद में केजरीवाल केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे से मिलने गए. शिंदे ने भी निलंबन की मांग साफतौर पर ठुकरा दी.

एक मुख्यमंत्री पुलिस के 2 कोतवाल को काम न करने पर हटा नहीं सकता, उसे यहांवहां गिड़गिड़ाना पड़ता है और इस के बावजूद कोई सुनवाई नहीं होती तो ऐसे मुख्यमंत्री बनने का क्या औचित्य हो सकता है? आम आदमी की सुनवाई कैसे होती होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है. इसी भ्रष्ट और निकम्मी व्यवस्था के खिलाफ संघर्र्ष पर उतरे केजरीवाल कहां चुप बैठने वाले थे.

केजरीवाल धरने के लिए मंत्रिमंडल सदस्यों और आम आदमी पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ गृहमंत्रालय की ओर बढे़ पर उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया गया. रेल भवन के पास ही उन के काफिले को रोक दिया गया. केंद्र सरकार द्वारा नई दिल्ली क्षेत्र में पहले से ही निषेधाज्ञा लागू कर दी गई थी और सुरक्षा के कड़े इंतजाम कर दिए गए थे. पुलिस केंद्र सरकार के अंतर्गत है, दिल्ली सरकार के अंतर्गत नहीं. आखिरकार रेल भवन के बाहर सड़क पर ही वे धरने पर बैठ गए.

गृहमंत्री के यहां से निराशा मिलने के बाद बात उचित ही थी कि जब एक मुख्यमंत्री जनता की शिकायतों पर कार्यवाही न करने वाले अपने राज्य के ही 2 पुलिसकर्मियों को निलंबित नहीं कर सकता तो समूचे राज्य की सुरक्षा की जवाबदेही कैसे हो सकती है.

मुख्यमंत्री केजरीवाल लापरवाह और भ्रष्ट पुलिस वालों का कुछ नहीं कर सकते हैं. दिल्ली सरकार को दिल्ली की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार की ओर देखना पड़ता है. दो दिन पहले ही पहाड़गंज क्षेत्र में एक विदेशी महिला के साथ बलात्कार की घटना हो चुकी थी. केजरीवाल ने सुरक्षा के सवाल उठाते हुए पुलिस की जवाबदेही तय करने और पुलिसकर्मियों पर कार्यवाही को ले कर मांग बुलंद की.

धरने के दौरान केजरीवाल ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को निशाने पर लिया. पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार और जवाबदेही का मामला उठाया और कहा कि दिल्ली पुलिस द्वारा रेहड़ी, पटरी वालों, आटोरिकशा वालों से महीनावसूली का पैसा गृहमंत्री शिंदे तक पहुंचता है. दिल्ली में जितने अपराध हो रहे हैं, पुलिस के संरक्षण में होते हैं. पुलिस सैक्स, ड्रग, वेश्यावृत्ति से ले कर हर अवैध काम करने वालों से वसूली कर रही है, इसीलिए वह इन लोगों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करती. उसे जनता की सुरक्षा की कोई परवा नहीं है.

केजरीवाल ने यह भी कहा कि केंद्र ने संविधान की धज्जियां उड़ाई हैं. हम तो संविधान स्थापित करने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. दिल्ली में 90 प्रतिशत अपराध पुलिस की मिलीभगत से होते हैं. वेश्यावृत्ति कराने वाले, ड्रग रैकेट चलाने वाले और महिलाओं को जलाने वालों के खिलाफ पुलिस कार्यवाही नहीं कर रही है तो मुख्यमंत्री क्या करेगा?

केजरीवाल ने युगांडा हाई कमीशन के एक अधिकारी के पत्र के हवाले से कहा कि दक्षिण अफ्रीका से युवतियों को नौकरी के बहाने लाया जाता है और यहां उन्हें सैक्स व नशे के धंधे में धकेल दिया जाता है. पिछले जून माह में लिखे पत्र में दिल्ली उच्चायोग में कार्यरत युगांडा के इस अधिकारी ने ऐसे संगठित गिरोह के बारे में सावधान किया था.

केजरीवाल ने शिंदे पर निशाना साधा. उन्होंने सवाल किया कि क्या शिंदे देश के तानाशाह हैं और ऐसी हालत में क्या गणतंत्र बचा हुआ है? उन्होंने धरने में यह सवाल भी उठाया कि शिंदे के घर पर मात्र पत्थर फेंके जाने पर 12 पुलिस कर्मचारियों को हटा दिया जाता है पर दिल्ली सरकार के मंत्रियों की शिकायत पर संदिग्ध लोगों पर वे कार्यवाही नहीं करते.

केजरीवाल और मंत्रिमंडल के सदस्य अधिकारियों के साथ सड़क पर ही फाइलों का निबटारा करने लगे. केंद्र सरकार सांसत में आ गई और ‘आप’ को घेरने में लग गई. कांग्रेस ने केजरीवाल के तौरतरीके पर आपत्ति जताते हुए कहा कि मुख्यमंत्री ही सड़क पर उतरेगा तो शासन कौन करेगा. उधर, महिलाओं पर होने वाले अपराधों पर आमतौर पर अकर्मण्य रहने वाले दिल्ली महिला आयोग ने सोमनाथ भारती को विदेशी महिलाओं के साथ ज्यादती करने के आरोप लगा कर आयोग दफ्तर में तलब किया लेकिन वे नहीं पहुंचे. सोमनाथ भारती ने कहा कि उन्होंने कानून का उल्लंघन नहीं किया बल्कि कानून विरोधी हो रहे कार्र्य को उजागर किया था.

भाजपा का आरोप

उधर, भारतीय जनता पार्टी ने केजरीवाल के धरने को सहयोगी दल कांग्रेस के साथ दिखावटी संघर्ष बताते हुए सवाल उठाया कि वह सत्ता में शासन करने आए हैं या शासनतंत्र को तोड़ने. आश्चर्य है कि कांग्रेस और भाजपा दिल्ली की जनता की सुरक्षा और अपराधों के खिलाफ बात करने के बजाय आम आदमी पार्टी पर हमले पर उतर आईं. ‘आप’ को आइटम गर्ल कहा गया. अगर ‘आप’ आइटम गर्ल है तो कांग्रेस के राहुल गांधी इसी आइटम गर्ल से सीखने की बात कैसे कह रहे हैं? भाजपा इसी की राह पर चलने का दिखावा क्यों करने लगी है?

आखिर धरने के 32 घंटे बीत जाने पर उपराज्यपाल नजीब जंग द्वारा मुख्यमंत्री और उन के मंत्रिमंडल के सदस्यों से गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय सुरक्षा की दुहाई दे कर धरना खत्म करने की अपील की गई तथा जांच रिपोर्ट आने तक कुछ पुलिस अफसरों को छुट्टी पर भेजने का आश्वासन दिया गया. इस पर धरना खत्म कर दिया गया.

धरने के बाद विपक्ष द्वारा सोमनाथ भारती से इस्तीफे की मांग की जाने लगी. उधर, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार को नोटिस भेज कर पूछा कि क्या केजरीवाल ने मुख्यमंत्री जैसे अहम संवैधानिक पद पर रहते हुए धरने पर बैठ कर कानून का उल्लंघन नहीं किया है. कोर्ट में धरने को ले कर जनहित याचिका दायर कर दी गई.

लेकिन किसी मुख्यमंत्री का धरना पहली बार नहीं हुआ है. केजरीवाल के धरने की निंदा करने वाली भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी, भाजपा के ही पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा, नीतीश कुमार जैसे नेता भी मुख्यमंत्री रहते धरने पर बैठ चुके हैं. महात्मा गांधी खुद स्वतंत्रता के बाद, जब दिल्ली में कांग्रेस के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का राज था, कोलकाता में भूख हड़ताल पर बैठे थे.

दिल्ली में अपराधों को ले कर पुलिस की भूमिका, केंद्र सरकार का रवैया और विपक्षी भाजपा की सोच साफ हो गई कि उन की रुचि जनता की सुरक्षा में तो कतई नहीं है. सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना ही मकसद है. असली मुद्दे को भटका दिया गया. सब को पता है कि पुलिस में भ्रष्टाचार की वजह से अपराध बढ़ रहे हैं. कोई जवाबदेही तय नहीं है. एक मुख्यमंत्री के धरने के बावजूद हमेशा की तरह गृहमंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी. ढीठ, तानाशाहों जैसा उस का रवैया जारी रहा.

वर्षों से जमाजमाया भ्रष्टाचार का साम्राज्य तोड़ना आसान नहीं है. उलटा भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले, अपराध की सूचना देने वाले को ही आरोपी बना कर फंसा दिया जाना पुलिस की फितरत है. यह हालत तब है जब दिल्ली में अपराध के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं. हर दिन दुराचार से ले कर लूटखसोट, चोरी, हत्या और अन्य अपराधों पर पुलिस का रवैया गैर जिम्मेदाराना रहता है. पूरे देश में पुलिस की कार्यशैली कमोबेश यही है.

केजरीवाल पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की तरह दिल्ली के अपराधों पर यह कह कर पल्ला झाड़ सकते थे कि पुलिस उन के अधीन नहीं है या लोग, महिलाएं रात को घर से निकलती ही क्यों हैं? लेकिन इस से तो भ्रष्ट, अकर्मण्य व्यवस्था को ही मजबूती मिलती. केजरीवाल ने, जैसे भी हो, गैर जिम्मेदार, निरंकुश पुलिस व्यवस्था व उसे सियासी  पनाह देने वालों की असलियत को देश के सामने उजागर कर दिया है.

संवैधानिक पद पर किसी के बैठने का मतलब यह तो नहीं कि वह काठ का उल्लू बना रहे. जनता की दिक्कतों के लिए कोई कदम न उठाए? व्यवस्था को न सुधारे? संवैधानिक मर्यादाओं की बात करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि आम जनता को सड़क पर आना ही क्यों पड़े? खिड़की ऐक्सटैंशन के निवासियों की कई शिकायतों के बावजूद कार्यवाही क्यों नहीं हुई?

दिक्कत यह है कि जिस किसी के पास ताकत है, अधिकार है वह चाहता है उसे कोई चुनौती न दे. उस अधिकार का उपयोग वह कुछ पा कर करना चाहता है. आम जनता के पास इन अधिकारप्राप्त लोगों के खिलाफ करने को कुछ अधिक नहीं है. उसे इस काबिल छोड़ा ही नहीं गया. वह निरीह बनी हुई है.

दिल्ली पुलिस भले ही केंद्र के मातहत हो पर कानून व्यवस्था सुधारने की उम्मीद लोग दिल्ली सरकार से जरूर करते हैं. ऐसे में पुलिस विभाग अगर मंत्रियों, यहां तक कि मुख्यमंत्री की भी नहीं सुनता तो हालत अजीब हो जाती है. शीला दीक्षित इसी फेर में निपट गईं. तब महल्लेमहल्ले में बलात्कार हो रहे थे और जनता जवाब मांग रही थी. शीला दीक्षित इस बात को पार्टी के सामने नहीं रख पाईं क्योंकि केंद्र में उन की अपनी ही पार्टी की सरकार थी. नतीजतन, दिल्ली में अपराध बढ़ते गए.

आम लोगों की जबान पर यही शिकायत रहती है कि पुलिस का ध्यान तो सिर्फ वसूली पर रहता है. हर तरह के अवैध कार्यों में पुलिस की हिस्सेदारी रहती है. दिल्ली के हर चौराहे पर वाहनों से पुलिस को सरेआम वसूली करते देखा जा सकता है. आम नागरिक की कोई सुनवाईर् नहीं होती. इस में सुधार कौन करेगा. सोमनाथ जब आरोपियों के खिलाफ कदम उठाने के लिए कहते हैं और केजरीवाल धरने पर बैठते हैं तो यह अराजकता मानी जाने लगती है.

ध्यान बंटाने की कोशिश

केंद्र का एक भी मंत्री मंत्रालयों, कोठियों, एअरकंडीशंड गाडि़यों से बाहर आ कर जनता की परेशानियां देखने की जहमत उठाता है? राजनीतिबाज घोटाले करते हैं, अफसर रिश्वत लेते हैं, यह अराजकता नहीं है? गुजरात में सरकार की नाक के नीचे दंगे कराए जाते हैं, उस के कई मंत्री, अफसर उस में लिप्त होते हैं, क्या यह अराजकता नहीं? सरकारी दफ्तरों में बिना घूस के काम नहीं होते, वह अराजकता नहीं है? कौमनवेल्थ गेम, 2जी स्पैक्ट्रम, कोयला खनन, आदर्श सोसायटी हाउसिंग घोटाले होते हैं, वह अराजकता नहीं?

हां, पुराने दलों के लिए यह अराजकता जरूर है कि केजरीवाल सरकार के कदम के चलते उन के नेताओं, समर्थक अफसरों, बिचौलियों की कमाई पर डाका पड़ने का खतरा पैदा हो रहा है.

दरअसल, धरना कोई विवाद नहीं था. असली मसले से ध्यान हटाने की कला में माहिर हमारे घाघ राजनीतिबाजों ने इसे जानबूझ कर विवाद बना दिया. पुरानी लूटखसोट की व्यवस्था में शामिल पुराने राजनीतिक दल और कुछ नौकरशाह भ्रष्ट व्यवस्था में बदलाव बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं. इसी वजह से यह कुचक्र रचा जा रहा है.

पुलिस की गैर जिम्मेदारी, भ्रष्ट और निकम्मे आचरण की प्रवृत्ति पर आम आदमी पार्टी ने गहरा प्रहार किया है. ‘आप’ के भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे से घूसखोर कर्मचारी, अफसरों में खलबली मची हुई है. वे बौखलाए हुए हैं. दिल्ली में पुलिस को अब रेहड़ी, पटरी, आटोरिकशा, छोटेबड़े दुकानदारों से हफ्तावसूली से कतराना पड़ रहा है. दिल्ली सरकार के दफ्तरों में रिश्वत को ले कर खौफ का माहौल बन रहा है. दिल्ली के दफ्तरों से अकसर वास्ता पड़ने वाले लोगों का कहना है कि अब कर्मचारी बिना कुछ मांगे, बिना  हीलहुज्जत किए आसानी से काम कर देते हैं.

बहरहाल पूरे मामले में पुलिस महकमे में व्याप्त अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार व दिल्ली पुलिस पर नियंत्रण के मुद्दे को चर्चा का विषय बनाने में केजरीवाल कामयाब हुए हैं. उन्होंने लुटियंस जोन में सत्ता को चुनौती दी है. मौजूदा अकर्मण्य, भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया है. उन्होंने यह जता दिया कि जो संघर्ष सत्ता पाने के लिए किया जाता है वह सत्ता पाने के बाद भी हो सकता है.

केजरीवाल का रास्ता चाहे अराजकता का हो या शासन के विपरीत, दोनों हालात में जनता के भले के लिए ही है. जाहिर है आने वाला समय लकीर के फकीर राजनीतिबाजों का नहीं होगा. उन्हें जनता को आगे रखना होगा. वे दिन अब लदते दिखाई देंगे जब भरोसा तोड़ रही राजसत्ता में नेता, नौकरशाह और बिचौलिए मंत्रालयों की ऐशोआराम की ही जिंदगी जीते थे. व्यवस्था के अंदर रह कर व्यवस्था से संघर्ष करने की मिसाल शायद यह देश पहली बार देख रहा है.

 

नरेंद्र मोदी–भाजपा, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार

सौदागर के सपने

गुजरात की तरक्की में वहां के रहने वालों की मेहनत और कारोबारी सोच का बड़ा हाथ है. पूरी दुनिया जानती है कि कारोबार के मामले में गुजरातियों का मुकाबला कोई नहीं कर सकता. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय किया तो वे सपने बेचने लगे.

सौदागर बने नरेंद्र मोदी किसी एजेंट की तरह उत्तर प्रदेश की जनता को सपने दिखा रहे हैं. वे लोगों से कह रहे हैं कि उन को प्रधानमंत्री बना दो, तो फिर उत्तर प्रदेश भी गुजरात की तरह तरक्की करने लगेगा. उत्तर प्रदेश को गुजरात कैसे बनाएंगे, वे यह नहीं बताते हैं.

भाजपा में मोदी से पहले एक और पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी हैं. वे लोकसभा में गुजरात के गांधीनगर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. उन्होंने भी ऐसे ही कुछ सपने जनता को दिखाए थे. उन में 3 बातें खास थीं : अयोध्या का राममंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता कानून. लेकिन वे प्रधानमंत्री न बन सके और उन के सारे सपने धरे के धरे रह गए. अब नरेंद्र मोदी सपना देख रहे हैं. वे उत्तर प्रदेश की तसवीर कैसे बदलेंगे, यह प्रदेश के लोगों को समझ नहीं आ रहा है.

उत्तर प्रदेश की तसवीर तो वे तब बदल सकते थे जब वे इस प्रदेश के मुख्यमंत्री बन रहे होते. उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार अगले विधानसभा चुनाव यानी 2017 में भी बनने वाली नहीं है. यहां अभी लड़ाई समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच ही है. दोनों बडे़ दल कांग्रेस और भाजपा सत्ता की लड़ाई से दूर हैं. दिल्ली में मात खाने के बाद कांग्रेस नए सिरे से अपनी पार्टी को आगे बढ़ाने में जुट गई है. राहुल गांधी की टीम को महत्त्व दे कर वह अपना हौसला बनाए रखना चाहती है. जिस समय भाजपा और सपा के नेता रैली में लगे थे उस समय राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका के साथ अमेठी के लोगों से मिल कर बता रहे थे कि वे मैदान से भागे नहीं हैं.

विकास के मामले में सब से ज्यादा खराब हालत में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान हैं. यही वे क्षेत्र हैं जहां मोदी को सब से ज्यादा उम्मीद है. इन में भी उत्तर प्रदेश और बिहार कमजोर कड़ी हैं. यहां के रहने वाले लोग कामधंधे की तलाश में पंजाब, दिल्ली, मुंबई, सूरत और अहमदाबाद आतेजाते रहते हैं. इन में से ज्यादातर वे लोग हैं जो मेहनतमजदूरी करने जाते हैं.

यह बिरादरी बड़ी संख्या में अति पिछडे़ और दलित तबके से आती है. उत्तर प्रदेश और बिहार की जातीय राजनीति को यह तबका ही प्रभावित करता है. यह तबका गुजरात की तरक्की की तारीफ कर सकता है पर वोट वह अपनी बिरादरी वाले को ही देगा. ऐसे में गुजरात के सपनों का इस पर कोई असर नहीं पड़ने वाला.

भाजपा के पास लोकसभा की342 सीटें ही ऐसी हैं जहां वह अपना दमखम दिखा सकती है. नरेंद्र मोदी की रणनीति है कि इन 342 सीटों में ही 272 सीटें हासिल करने की कोशिश की जाए. इस के लिए वे कट्टरवाद से ले कर विकास तक का हर सपना बेच रहे हैं.

गोरखधाम की शरण में मोदी

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के मानबेला मैदान में लोगों की आई भीड़ को संबोधित करने से पहले नरेंद्र मोदी भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और पार्टी के प्रदेश प्रभारी अमित शाह के साथ गोरखनाथ मंदिर पहुंचे. वहां नरेंद्र मोदी ने गोरखधाम के अध्यक्ष महंत अवैद्यनाथ के पैर छू कर आशीर्वाद लिया. कुछ देर तक उन के साथ बातचीत की. इस के बाद वे रैली के लिए निकले. महंत अवैद्यनाथ अब राजनीति से दूर हैं. उन के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से भाजपा से सांसद हैं. योगी आदित्यनाथ और भाजपा के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है. पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ अपने हिसाब से पार्टी को चलाना चाहते हैं और भाजपा के दूसरे नेता अपने हिसाब से. ऐसे में आदित्यनाथ और दूसरे भाजपा नेताओं के बीच गुटबाजी समयसमय पर सामने आती रही है.

नरेंद्र मोदी ने इस गुटबाजी को खत्म करने का काम किया है. लेकिन टिकट वितरण के समय तक यह गुटबाजी खत्म ही रहेगी, इस की गारंटी देने वाला कोई नहीं है. योगी आदित्यनाथ हिंदू युवा वाहिनी नाम से अपना एक अलग संगठन चलाते हैं. वे इस के लोगों को विधानसभा और लोकसभा में पहुंचाना चाहते हैं. ऐसे में अपने लोगों के लिए जब टिकट मांगते हैं तो भाजपा के दूसरे नेता उन का जनाधार कमजोर करने के लिए उन के टिकट काट देते हैं.

इस लोकसभा चुनाव में भी युवा वाहिनी के कुछ नेता गोरखपुर, बस्ती अंबेडकरनगर से टिकट चाह रहे हैं. अब कब तक नरेंद्र मोदी इस संतुलन को बनाए रखते हैं, देखने वाली बात होगी. आदित्यनाथ को समझाने के लिए ही शायद नरेंद्र मोदी ने गोरखधाम पीठ को महत्त्व दिया है. मोदी ने रैली में पहुंचे गोरखपुर के लोगों को भी सपने दिखाए और कहा, ‘‘गोरखपुर ने मुझे जीत लिया है. वादा रहा कि इस प्यार को ब्याज के साथ विकास के रूप में लौटाऊंगा.’’

दबंगई दिखाने की कोशिश

मोदी को पता है कि अगर उत्तर प्रदेश में वोट पाने हैं तो वोटों का सांप्रदायिक बंटवारा जरूरी है. ऐसे में वे केवल गोरखधाम की तारीफ ही नहीं करते, वहां आशीर्वाद लेने भी जाते हैं. वहां से आ कर वे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव को ललकारने लगते हैं. वे कहते हैं, ‘‘नेताजी, आप को पता है गुजरात का मतलब क्या होता है? नेताजी, आप की हैसियत नहीं है कि यूपी को गुजरात बना सको. इस के लिए 56 इंच चौड़ा सीना होना चाहिए. यूपी को गुजरात बनाने के लिए 24 घंटे और 365 दिन बिजली देनी होगी. गुजरात बनने का मतलब प्रदेश की विकास दर 10 फीसदी करनी होगी. उत्तर प्रदेश अभी 3-4 फीसदी विकास दर पर ही लटक रहा है.’’

मोदी ने विकास की बातों के साथ ही साथ किसानों के मुद्दे पर भी उत्तर प्रदेश सरकार को घेरने का काम किया. मोदी ने गोरखपुर में स्कूल, कालेज, महिलाओं की सुरक्षा, बकाया गन्ना मूल्य, कानून व्यवस्था, गरीबी और पिछड़ेपन जैसे स्थानीय विषयों पर भी सवाल किए.

नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश को गुजरात जैसा बनाने के लिए 10 साल का समय मांगा है. जिस समय नरेंद्र मोदी गोरखपुर में अपनी रैली कर रहे थे उसी समय गोरखपुर से 220 किलोमीटर दूर समाजवादी पार्टी वाराणसी में अपनी चुनावी रैली कर रही थी. नरेंद्र मोदी ने उस रैली पर निशाना साधते हुए कहा, ‘‘यह खुशी की बात है कि मैं जहां जाता हूं, बापबेटे दोनों पीछा करते रहते हैं.’’

अपनी रैली में समाजवादी पार्टी की ज्यादा से ज्यादा बात कर के मोदी वोटों का बंटवारा सपा और भाजपा के बीच रखना चाहते हैं ताकि वोटों के सांप्रदायिक बंटवारे का ज्यादा से ज्यादा लाभ भाजपा को मिल सके.  उधर, मुलायम सिंह ने अपने आधे घंटे के भाषण में ज्यादा समय मोदी और भाजपा को दिया. उन्होंने कहा, ‘‘गुजरात में उत्तर प्रदेश जैसी कल्याणकारी योजनाएं नहीं हैं. मोदी इंसानियत के हत्यारे हैं. भाजपा को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कोई नहीं मिला, इसलिए वह मोदी जैसे आदमी का सहारा ले रही है.’’

वहीं, मुलायम के सुपुत्र व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा, ‘‘लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश अहम है, इसलिए यहां साजिशें ज्यादा हो रही हैं.’’

दरअसल, मोदी के सहारे सपा वोटों का धु्रवीकरण चाहती है. इसलिए वह मोदी का डर दिखा कर मुसलिम वोटों को अपनी ओर करना चाह रही है. वहीं, सपा की मुसलिमपरस्त नीतियों का भय दिखा कर भाजपा हिंदुओं को अपनी ओर लाना चाहती है.

राजनीतिक स्तंभकार हनुमान सिंह ‘सुधाकर’ कहते हैं, ‘‘वोटों का सांप्रदायिक धु्रवीकरण आग से खेलने जैसी करतूत है. आज का वोटर समझदार हो गया है. ऐसे में दोनों ही दलों का यह दांव उलटा भी पड़ सकता है. और अगर ऐसा हुआ तो दोनों ही दलों को बड़ा नुकसान होगा.’’

रैली के साथ मार्केटिंग भी

एक अच्छे सौदागर की तरह नरेंद्र मोदी और उन की टीम ने न केवल रैलियों में भीड़ जुटाने का काम किया बल्कि भीड़ के माहौल को वोट प्रतिशत और सीटों में बदलने की संभावना को चुनावी सर्वे के सहारे सच साबित करने की कोशिश भी की है. भाजपा ने अपना एक अलग चुनावी सर्वेक्षण कराया है. उस में भाजपा को उत्तर प्रदेश में 50 से ऊपर सीटें मिलती बताई गई हैं. भाजपा के लिए परेशानी वाली बात यह है कि इस सर्वेक्षण में उस का मुकाबला बहुजन समाज पार्टी के साथ दिख रहा है. भाजपा के बाद दूसरी सब से ज्यादा सीटें पाने वाली पार्टी के रूप में बसपा का नाम आ रहा है.

भाजपा को लगता है कि कहीं वोटों का सांप्रदायिक बंटवारा न हुआ तो पार्टी को नुकसान हो सकता है. भाजपा के सर्वेक्षण में विस्तार से यह नहीं बताया गया है कि किस वोटबैंक के सहारेउसे 50 से अधिक सीटें मिल रही हैं?

भारतीय जनता पार्टी ने वोटरों को अपनी ओर लुभाने की जो कोशिशें की हैं उन में कांग्रेस की नाकामी खास रोल अदा कर रही है. मध्यवर्ग कांग्रेस से बहुत नाराज है.  मध्यवर्ग की नाराजगी का फायदा केवल भाजपा को मिलेगा, यह पूरी तरह सही नहीं है. जिस तरह से दिल्ली में कांग्रेस से नाराज लोगों ने भाजपा को दरकिनार कर आम आदमी पार्टी को वोट दिया उसी तरह दूसरे राज्यों में भी हो सकता है. खासकर उत्तर प्रदेश में बसपा व सपा और बिहार में जदयू, राजद व लोजपा जैसे दल अपने मजबूत आधार के जरिए भाजपा का खेल बिगाड़ने का दमखम रखते हैं. मध्यवर्ग में आम आदमी पार्टी का भी जनाधार बढ़ रहा है. दिल्ली के बाद अब उत्तर प्रदेश और बिहार में लोग उस के जनाधार को बढ़ा रहे हैं. ऐसे में अगले चुनाव में भारी फेरबदल देखने को मिल सकता है.

आंकड़ों का बहुमत फेल

इंडिया टुडे-सी वोटर सर्वे उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और झारखंड में लोकसभा की 139 सीटों में से 64 सीटें भाजपा को दे रहा है. सर्वे के अनुसार, उत्तर प्रदेश में भाजपा को 30 सीटों का अनुमान लगाया गया है. यहां दूसरे नंबर पर बसपा को माना जा रहा है. उसे 24 सीटें मिलने की बात कही गई है. इस से साफ पता चलता है कि दूसरे दलों के मुकाबले बसपा मजबूत हालत में है. इस के बाद भी नरेंद्र मोदी बसपा को दौड़ से बाहर बता रहे हैं. एक और सर्वे सीएसडीएस का भी सामने आया जिस में भाजपा को उत्तर प्रदेश में 41 से 48 के बीच सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है. अगर इन सर्वे को सही माना जाए तो भी भाजपा के प्रभाव वाली 342 सीटों में से 272 सीटों कामिलना हाथ पर सरसों उगाने जैसा है. दरअसल, इन 342 सीटों में से 139 सीटों में भाजपा को केवल64 सीटें ही मिल रही हैं. यानी 45 फीसदी सीटें उसे मिल रही हैं. अगर यही प्रतिशत उस के प्रभाव वाली कुल 342 सीटों पर देखें तो 190 सीटों का गणित दिखता है, जो बहुमत से 82 सीटें कम के आंकडे़ पर टिक जाता ?है. ऐसे में मोदी अपना सपना कैसे पूरा कर पाएंगे, यह समझ से परे है.

बहरहाल, लोकसभा चुनाव परंपरागत परिणामों के बजाय आश्चर्यजनक नतीजे दे सकते हैं. जिस तरह दिल्ली विधानसभा चुनाव में विकल्प बन कर उभरी आम आदमी पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस को सत्ता से दूर कर दिया है, अगर वही स्थिति भावी आम चुनाव में भी परिलक्षित हो तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए. देखना दिलचस्प होगा, पीएम पद की दौड़ में नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल में कौन सियासी मैराथन जीतता है.

– साथ में  शैलेंद्र सिंह 

 

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