उद्दंडता और बचपन का चोलीदामन का साथ जैसी कहावत तो आमतौर पर सुनी जाती रही है मगर आज तेजी से बदल रहे परिवेश में समय से पहले समझदार हो रहे बच्चे जिस प्रकार दबंग होते जा रहे हैं उस ने दबंगई और उद्दंडता के बीच के अंतर को काफी कम कर दिया है. मसलन, धाक और धौंस के बीच क्या अंतर होता है, इस फर्क को आज शायद ही कोई बच्चा महसूस करता होगा? ग्लैमर और मनोरंजन के अत्याधुनिक संसाधनों के साथ आधुनिक बाजारवाद का सितम जिस प्रकार बचपन से उस की सुलभता को छीन रहा है उस ने हमारे आधुनिक कहे जाने वाले समाज की चिंता को और ज्यादा बढ़ा दिया है.

उस घटना का उदाहरण हम सब के सामने है जब हरियाणा के गुड़गांव स्थित एक पब्लिक स्कूल के एक छात्र ने अपने सहपाठी पर मामूली कहासुनी होने के चलते गोली चला दी थी. गनीमत यह रही कि उस का निशाना चूक गया और एक बड़ा अनर्थ टल गया. जो छात्र अपनी कम उम्र में अपने सहपाठी पर गोली दाग सकता है उस की मानसिकता का आकलन बड़ा मुश्किल है. चेन्नई में 15 वर्षीय एक स्कूली छात्र ने शिक्षिका द्वारा छात्र की कौपी में लिखी टिप्पणी पसंद न आने पर शिक्षिका की हत्या कर दी.

यह तो चंद उदाहरण मात्र हैं वरना तो पूरे देश में किशोरवय बच्चे निरंतर अपराध में लिप्त होते जा रहे हैं. उन के निरंतर हिंसक होते व्यवहार में घातक टीवी शोज और हिंसक वीडियो गेम्स मानो आग में घी का काम करते हैं. अमीर मांबाप की सिरचढ़ी औलाद घर के तानाशाही माहौल को देख कर ठीक वैसा ही बनना चाहती है, तो इस में गलती किस की है?

ज्यादा पौकेटमनी का कुप्रभाव

कई मामलों में देखा गया है कि स्कूली छात्रों को मातापिता द्वारा जरूरत से ज्यादा दी जाने वाली पौकेटमनी के भी दुष्परिणाम सामने आए हैं. मसलन, जब बच्चों की जरूरत कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है तो वे किसी भी हद तक दुस्साहसी कदम उठा सकते हैं और उस के पीछे यह सोच काम करती है कि चलो, एक बार की तो बात है, यह पैंतरा आजमा कर देखते हैं.

दरअसल, ऐसी सोच दोनों ही हालात में खतरनाक है. एक, यदि बच्चा पकड़ा जाता है तो उस की ठीकठाक जिंदगी गलत दिशा में मुड़ जाती है. दो, यदि न पकड़ा गया तो उस की हिम्मत इस कदर बढ़ जाती है कि वह बारबार उसी हरकत को दोहरा कर अपराध की डगर पर चल पड़ता है. जो अभिभावक बच्चे को मनचाहा जेबखर्च दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं. बाद में वही बच्चा आगे चल कर अपनी मांगें मनवाने में मातापिता के विरुद्ध भी हिंसा पर उतारू होने से नहीं हिचकिचाता.

कार्टून और खिलौनों की भूमिका

बच्चों पर आधारित खिलौनों, कार्टून्स का व्यवसाय दुनिया के बड़े व्यवसायों में से एक है जहां मात्र 10 रुपए से ले कर10 हजार रुपए की कीमत वाले खिलौने उपलब्ध हैं. इसी प्रकार, गांव, गली, नुक्कड़ों पर खुले वीडियो गेम्स पार्लर बच्चों में जानेअनजाने हिंसक गतिविधियों का संचार कर रहे हैं. राजधानी दिल्ली के एक नामी स्कूल में पढ़ने वाले 14 वर्षीय किशोर की अपने दोस्तों से बहस हो गई और दोस्तों ने ही उस की हत्या कर दी.

ये घटनाएं आज के बच्चों में बढ़ती आपराधिक प्रवृति की ओर इशारा करती हैं. वीडियो पार्लर्स में बच्चे आसानी से एकदूसरे के संपर्क में आ कर बाकायदा अपना गिरोह बना कर भी वारदातों को अंजाम दे डालते हैं. लिहाजा, बच्चों पर निगरानी रखना बेहद जरूरी है.

गलत संगति का असर

कुछ वर्ष पूर्व हरियाणा के पंचकूला शहर में नशे की लत ने 2 चिरागों को एकसाथ बुझा दिया. पुलिस पड़ताल से यह खुलासा हुआ कि दोनों ही मृतक छात्र नशे के आदी थे. इन में मृतक गुरनाम पंचकूला के गांव रैली तथा दूसरा छात्र अभिषेक भाटिया मूल रूप से हिमाचल प्रदेश का निवासी तथा पंचकूला में रह कर अपनी पढ़ाई पूरी कर रहा था. दोनों ही छात्र गंभीर किस्म के नशे के आदी थे.

जैसा संग वैसा रंग उक्ति के अनुसार यदि बच्चा गलत संगति में पड़ गया है तो उस का असर उस पर होना लाजिमी है. ऐसे में बच्चे के बिगड़ने में देर नहीं लगती. वहीं, वह दूसरे बच्चों को भी खराब कर सकता है. हालांकि पश्चिमी देशों की तुलना में यहां स्थिति इतनी भयावह नहीं है क्योंकि वहां हथियार रखने पर यहां की तरह लंबेचौड़े कानून नहीं हैं.

टीवी, वीडियो गेम्स का दुष्प्रभाव

बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति पैदा करने में टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले सनसनीखेज समाचारों, हिंसा आधारित धारावाहिकों व फिल्मों की भी भूमिका है. रहीसही कसर इंटरनैट पूरी कर देता है. एक सर्वे की रिपोर्ट में कहा भी गया है कि बच्चे इंटरनैट पर उपलब्ध सनसनीखेज गेम्स और फिल्मों से अपराधों को अंजाम देने और बचने के उपाय सीखते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक 14 से 17 वर्ष के बच्चों में हिंसात्मक फिल्में देखने के कारण हथियार रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है. जहां मातापिता की अनुपस्थिति में बच्चे हर चीज के मतलब अपने हिसाब से निकालते हैं. कई फिल्मों में अपनाई गई चोरी, बैंक डकैती या अपहरण की तकनीक को बच्चों ने भी निसंकोच अपनाया और सलाखों के पीछे जा पहुंचे.

चकाचौंध का प्रभाव

बच्चों में बहुत छोटी उम्र से ही नशा करने की भी प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है. वह पहले उसे फैशन और स्टेटस सिंबल के रूप में लेते हैं, बाद में यही आदत लत बन जाती है. आधुनिकता की रेस में कहीं लाड़ला पिछड़ न जाए यह सोच कर मातापिता उन्हें बिना सोचेसमझे बहुत सी सुविधाएं उपलब्ध करवा देते हैं, जिन का बहुत से बच्चे गलत फायदा उठाने से नहीं चूकते. मोबाइल और इंटरनैट के जरिए भी वे आपराधिक प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर हो जाते हैं जिन का पता उन के अभिभावकों को तब चलता है जब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

कई मामलों में देखा गया है कि सामाजिक, आर्थिक असमानताएं भी बच्चों को अपराध के लिए उकसाती हैं. जब बच्चे अपने से उच्च आर्थिक स्तर के बच्चों को आधुनिक गैजेट्स का इस्तेमाल करते देखते हैं तो उन चीजों को पाने की आकांक्षा भी बच्चों में अपराध को जन्म देती है. ऐसे में वे अपनी आकांक्षा को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.

अनावश्यक मानसिक दबाव

मातापिता जिस अनुपात में बच्चों पर खर्च करते हैं उसी अनुपात में उन की अपेक्षाएं भी बढ़ती हैं. वे पैसों के बल पर अपने बच्चे की तुलना उस बच्चे से करते हैं जो उस से अव्वल नंबर ले कर पास हुआ होता है. पंचकूला के ही एक स्कूल की अध्यापिका इंदूबाला दहिया कहती हैं कि यह अपेक्षा बहुत ही खतरनाक स्थिति पैदा कर सकती है क्योंकि मांबाप की हसरतों को पूरा करने के दबाव के चलते उन की अपनी अभिरुचि का कोई महत्त्व नहीं रह जाता. बच्चों को इस बात की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए कि उन की अपनी दिलचस्पी किस विषय में है. आप किसी को भी जबरदस्ती आईएएस, आईपीएस नहीं बना सकते, चाहे जितना जोर लगा लें. 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...