Download App

प्रधानमंत्री पद का लालच

वर्ष 2014 के आम चुनाव रोचक होंगे. भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने में जिस तरह होहल्ला मचाया जा रहा है उस से तो लगता है कि भाजपा जीत चुकी और बात अब केवल राजतिलक की रह गई है. लोकसभा चुनाव मई, 2014 में होने हैं, उस से पहले दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं पर इस समय चुनावी आंधी नरेंद्र मोदी को ले कर है.

इस का एक मतलब तो साफ है कि मतदान पहले से कहीं ज्यादा होगा. मोदी समर्थक ऊंची जातियों वाले, पैसे वाले अब कतारों में जरूर खड़े होंगे. कांगे्रस और दूसरी पार्टियों को नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने के लिए मतदान केंद्रों तक अपने से सहानुभूति रखने वालों को ठेलठाल कर लाना होगा.

लोकसभा चुनावों में ऐसी सरगर्मी पहले केवल 1977 में देखी गई थी जब जनता पार्टी थी, ताकि आपातकाल थोपने की सजा इंदिरा गांधी को दी जा सके. तब उत्साह ऊपर से नीचे तक था पर अब प्रचार केवल इंटरनैट, मोबाइल और अखबारों तक सीमित है. मुकाबला गंभीर है, यह मोदी के चुनाव में कूदने से स्पष्ट है.

अब तक जो लोग चुनावों के प्रति उदासीन रहते थे वे सक्रिय रहेंगे, यह अच्छी बात है. अगर सरकार निकम्मी है और रिश्वतखोरी चपरासी से मंत्री तक जारी है, कौर्पाेरेटों यानी कंपनियों के मालिकों की सत्ता के गलियारों में खूब चल रही है तो केवल इसलिए कि आम जनता राजनीति को बेकार का शिगूफा मानने लगी थी. मोदी के चलते शायद यह बदला है.

लोकतंत्र की पहचान केवल चुनावों और मतदान से है. अगर अपनेआप चल कर आने वालों की गिनती ज्यादा होती है तो सरकार ही नहीं, अदालतें और कंपनियां भी जनरोष की चिंता करती हैं. मतदान केंद्र एक तरह से वह दुकान है जहां से विशिष्ट कंपनी का उत्पाद खरीदा जाता है और वही कंपनी सफल होती है जो बिकने में 1 नंबर की हो. कांगेस और भाजपा ही नहीं, दूसरे दल भी इस बार जीजान लगाएंगे क्योंकि बहुतों को प्रधानमंत्री पद की कुरसी दिख रही है. मोदी ने यह जरूर कह दिया है कि वे प्रधानमंत्री पद का सपना नहीं देख रहे लेकिन उन्हें त्यागी, जनसेवक समझने वाले यह जरूर देख सकते हैं कि वे इस पद के लिए कितना ललचा रहे हैं.

 

आप के पत्र

सरित प्रवाह, सितंबर (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘जागरूक बने जनता’ पढ़ी. यह आंख व कान खोलने वाली सटीक टिप्पणी है कि देश की समस्याएं हर रोज ज्यादा उलझती प्रतीत हो रही हैं. ऐसा लगता नहीं कि देश की व्यवस्था जिन राजनीतिबाजों और नौकरशाहों के हाथों में है वे उन्हें सुलझाना चाहते हैं.

देश अगर सोचे कि सर्वोच्च न्यायालय, महालेखा परीक्षक, चुनाव आयुक्त, स्वतंत्र प्रैस जैसी संस्थाएं कुछ कर सकती हैं तो यह गलत है. ये संस्थाएं सरकार के कामकाज पर नजर रखने के लिए हैं, समस्याओं को हल करने में सरकार को सहयोग देने के लिए नहीं.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

*

 

आप की टिप्पणियां ‘खाद्य सुरक्षा’, ‘जागरूक बने जनता’ और ‘भारत में विदेशी पूंजी’ पढ़ने के बाद लगा, हमारे वीर सपूतों ने देश को अंगरेजों के चंगुल से आजादी तो दिलाई लेकिन जनता को आजादी का सही इस्तेमाल करना नहीं सिखाया गया. ऐसे लोगों को चुन कर सत्ता सौंपी जाती है जो भ्रष्टाचार करना और कराना अपना हक समझते हैं. लोकसभा चुनाव का समय करीब आ गया तो सत्ताधारियों को भूख और कुपोषण से पीडि़त जनता की याद आई. मजे की बात यह है कि देश के 82 करोड़ भूखे लोगों के प्रति पनपी सहानुभूति के पीछे सत्ता पाने की उन की सख्त भूख है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बना कर कांगे्रस पार्टी यह सपना देख रही है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में गरीब और भूखी जनता भरपेट खाद्य खा कर उस को मतदान करेगी. सोनिया गांधी ने घोषणा की कि यह कानून भूख और कुपोषण को दूर करने की पार्टी की प्रतिज्ञा पूरी करेगा. सोनिया के पुत्र राहुल गांधी ने कानून को ऐतिहासिक विधेयक बता कर नया इतिहास रचने की रंगीन आशा पाल रखी है.

इतना तो विश्वास करना पड़ेगा कि अब भंडारों में अन्न सड़ने की नौबत शायद नहीं आएगी. अनाहार के कारण मौत के शिकार हुए लोगों के संबंधियों को खाद्य सुरक्षा के गीत गाती सरकार क्या मुआवजा देगी?

अब तो नेतागण फेसबुक पर स्पष्टीकरण दे कर फेसबुकरहित गरीब समाज का मजाक उड़ाते हैं. फेसबुकी अभिव्यक्ति से भूखे लोगों का कुछ भला नहीं हो सकता. जहां तक जनता के जागरूक बनने का मशविरा है, सराहनीय है. लेकिन राजनीति और नौकरशाही जनता को इस तरह नचाती है और सताती है कि जनता के होश उड़ जाते हैं, आतंक उन के घर और मन पर छाया रहता है, क्योंकि अपराधी लोग सांसद और विधायक बन जाते हैं और फिर वे नौकरशाही की मदद से तांडव मचाते हैं. जनता को जागरूक बनाने में मीडिया की भूमिका ही महत्त्वपूर्ण होती है.

‘भारत में विदेशी पूंजी’, लगता है सत्ताधारियों की दृष्टि में यह एकमात्र सहारा है. जब विदेशी सोच, आचार-व्यवहार, रंगढंग, तौरतरीके हमें भाने लगे हैं तो विदेशी पूंजी का स्वागत करने की स्थिति बाध्यता बन गई है.

कभी हम उन्हें सिखाते थे, आज वे कदमकदम पर हमें सिखाते हैं. हम क्या थे, अभी क्या हैं, इस की जानकारी भी हमें विदेशी आईने में होती है तो इस वैश्वीकरण के बाजारवादी युग में पूंजी की ललकार को स्वीकार करना हमारी कमजोरी बन गई है. आप ने बिलकुल सत्य लिखा है, ‘विदेशी पूंजी से देश तरक्की करेगा, यह भ्रम है.’ भ्रम से बाहर निकलने के रास्ते ढूंढ़ना जरूरी हो गया है.

बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.)

*

जागरूकता का अभाव

सितंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित अग्रलेख ‘मुसलिम वोट बैंक : गलतफहमी में न रहें सियासी दल’ में मुसलिम वोटरों को किस तरह बरगलाया जाता है, इस की वास्तविक स्थिति प्रस्तुत की गई है. मुसलिम वर्ग में जागरूकता आना एक अच्छा संकेत है. मुसलिम तबका अधिकांश गरीब व कम पढ़ालिखा है. यह देखने में आया है कि हमारे यहां गरीब वर्ग के लोग, चाहे वे किसी जाति या धर्म के हों, नासमझी व अशिक्षा के कारण परिवार में वृद्धि करते रहते हैं. फलस्वरूप न तो उन का शैक्षणिक विकास हो पाता है न आर्थिक.

इस के विपरीत आज अच्छे व संपन्न वर्ग के लोग 1 या 2 बच्चे तक ही अपना परिवार सीमित रखते हैं. इधर, कट्टरवादी लोगों को खुश करने के लिए सत्ताधारी लोगों ने उन के परिवार कल्याण के लिए, उन की तरक्की के लिए कोई योजना नहीं बनाई. राजनीतिक दल मुसलमानों से जज्बाती मुद्दे पर वोट तो मांगते हैं परंतु उन की दशा सुधारने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाते. झोपड़ी में रह कर अभाव की जिंदगी जीना उन की नियति बन गई है.

देश में जब भी दंगे होते हैं, पिछड़े व गरीब लोग ही ज्यादा प्रभावित होते हैं. अच्छा संकेत यह है कि इतने सालों बाद ये लोग अब कुछ सोचने को तैयार हो गए हैं. उन्हें इस बात का एहसास हो गया है कि उन का अपना हितैषी कोई नहीं है.

अच्छी बात है कि देश का नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का हो, सचेत होता जा रहा है. यह संदेश देश के कर्णधारों तक जाना भी जरूरी है. इस के लिए साहस की जरूरत है. वोट देते वक्त मतदाता को इस बात का एहसास होना चाहिए कि उस की भी कोई अहमियत है. वह एक लोकतंत्रीय व्यवस्था में जी रहा है. मतदान करने के पहले वह उस आदमी को परख ले जिसे वह वोट दे रहा है.

प्रकाश दर्पे, इंदौर (म.प्र.)

*

सितंबर (द्वितीय) अंक पढ़ा. कई लेख अच्छे लगे. लेख ‘मुसलिम वोट बैंक : गलतफहमी में न रहें सियासी दल’ ने सही माने में यह दर्शाया कि देश के मात्र छठे हिस्से के इन वोटों की प्राप्ति के लिए राजनीतिक दल किस स्तर की मारामारी करते हैं. इस के लिए चाहे उन्हें अपनी अस्मिता तक भी क्यों न गिरवी रखनी पड़े. इन वोटों को पाने की गलतफहमी सभी दलों को है.

लेख ‘धमारा घाट रेल हादसा : पोंगापंथी में गंवा बैठे जान’ में धमारा घाट रेल हादसे के बारे में बेशक सविस्तार कारण व निवारण बताए गए हैं मगर देश के धर्मभीरु व धर्मांध लोगों की समझ में फिर भी नहीं आएगा क्योंकि धर्मोपदेश के कारण भक्तगण इतने अंधेबहरे हो जाते हैं कि उन्हें न तो दिखाई देता है और न ही सुनाई. ऐसे में अगर वे फिर ऐसी किसी दुर्घटना के शिकार हो जाएं तो आश्चर्य न होगा.

जहां तक सवाल देश में फैली ‘घूस की मार देश बीमार’ का है, तो हमें याद आता है कि हमारा देश जो कभी ‘सोने की चिडि़या’ के नाम से जाना जाता था, वह तो अब ‘रेत का ढेर’ भी नहीं रहा, मगर इस देश के भ्रष्टाचारी व उन के परिजन अवश्य ही ‘सोने’ के हो गए हैं. शायद यही कारण भी है कि आज जब भी किसी भी विभाग का भ्रष्ट कर्मचारी पकड़ा जाता है तो उस के घर से न केवल सोनेचांदी के जेवर ही निकलते हैं, बल्कि सोने की ईंटें तक बरामद की जाती हैं. कारण, आज इन भ्रष्ट तत्त्वों के पेट कुएं जो बन गए हैं. ये सब विषय समाज के प्रबुद्ध वर्ग, समाज सेवकों तथा चिंतकों द्वारा मंथन किए जाने को आमंत्रित करते हैं.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

*

पोंगापंथी और प्रशासन

सितंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘धमारा घाट रेल हादसा : पोंगापंथी में गंवा बैठे जान’ पढ़ कर यही लगा कि रेल व प्रशासन दोनों उपरोक्त घटना के लिए बराबर के दोषी हैं. हम पोंगापंथी हैं, इस के यह माने नहीं कि रेल व प्रशासन हमारी पोंगापंथी का लाभ उठा कर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ ले. संविधान में प्रत्येक को अपने मतानुसार चलने का पूरा अधिकार है. लेकिन उस में यह कहीं नहीं लिखा कि इस अधिकार का प्रयोग करने वालों की सुरक्षा करना प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं है.

यह बात अलग है कि हमें अपनी रूढि़वादिता को बदलना होगा और इस के साथ अपनी सुरक्षा करनी व सावधानी बरतनी होगी परंतु बिहार के धमारा घाट पर हुई दुर्घटना ने जनता, प्रशासन और रेलवे तीनों की कमियों को उजागर किया है.

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

*

बेईमानी का बोलबाला

सितंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘घूस की मार, देश बीमार’ पढ़ा. घूस व रिश्वतखोरी ने दीमक की तरह देश को खोखला कर दिया है. सरकारी अफसर तो मात्र मोहरे हैं, असली रिश्वतखोर तो हमारे राजनेता हैं जिन के पास अकूत संपत्ति है.

इसी अंक का अन्य लेख ‘कुरसी की लड़ाई, नेताओं की आपसी खिंचाई’ आज के संदर्भ में सटीक व तथ्यपरक लगा, कोई भी दल खुद को बेदाग नहीं साबित कर सकता. सभी दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं. सत्ता हथियाने के लिए वे हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं. इस अंक में छपी कहानियां ‘दुख में अटकना नहीं’ और ‘मुआवजा’ बेहद मर्मस्पर्शी लगीं.

श्याम चौरे, इंदौर (म.प्र.)

*

अच्छे लोगों की कमी

सरिता अच्छी पत्रिका है लेकिन आजकल इसे पढ़ कर लगता है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी ने इस का बहुतकुछ बिगाड़ दिया है. क्या कांग्रेस दूध की धुली पार्टी है जिस ने एक ही रात में हजारों सिखों को मरवा दिया. मैं ने देखा है, कांग्रेस के राज में हिंदूमुसलिम दंगे किस तरह से होते थे और वह क्याक्या करवाती थी. मैं न राजनीतिज्ञ हूं न किसी पार्टी का. मैं तो चाहता हूं कि सभी हंसते रहें और खुशी से अपना जीवन बिताएं.

आप से उम्मीद करता हूं कि अच्छी सामग्री प्रकाशित करें, लोगों को भ्रष्ट राजनेताओं से सावधान करें. हमारा देश तो अच्छा है, धनी है, बस कमी है तो अच्छे लोगों की.

महिंदर बेसराज

*

रिश्तों में अपनापन

सितंबर द्वितीय अंक में ‘पितापुत्र, रिश्तों में पनपती दोस्ती’ लेख पढ़ा. सुमन बाजपेयी ने अति सुंदर ढंग से पिता और पुत्र के रिश्ते को पूरी सचाई के साथ पाठकों के सामने पेश किया है. मैं स्वयं नानूदादू बन चुका, दो बेटियों और एक बेटे का पिता हूं. अपने अनुभव के अनुसार मैं इतना कहना चाहूंगा कि यदि मेरी मेरे बच्चों के साथ दोस्ती में कोई कमी रह भी गई हो, लेकिन मेरे बच्चों और उन के बच्चों के बीच तो दोस्ती का रिश्ता ही पाता हूं.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

*

स्वार्थ की राजनीति

लेख ‘मुसलिम वोट बैंक : गलतफहमी में न रहें सियासी दल’ पढ़ा. भारत के सियासी दल वोट के लिए जिस तरह से मुसलिम समुदाय को राजनीति के तराजू पर तौल रहे हैं उस से कभी इस समुदाय का और न ही इस देश का भला होने वाला है. हां, लोगों के बीच धर्म की खाई अवश्य चौड़ी होती जाएगी. ऐसी अवस्था में मुसलिम, खासकर पिछड़े व दलित मुसलिम वर्ग को खुद अपनी परिस्थिति का नए सिरे से आकलन करना होगा. उन्हें गहन चिंतन करना होगा कि मजहबी शिक्षा, अंधविश्वास और पिछलग्गूपन से उन की उन्नति कभी नहीं हो सकती.

अपनी बदहाली से मुक्ति के लिए उन्हें आधुनिक सोच कायम करनी होगी. मजहब और विकास में अंतर समझ कर अपनी जिंदगी व समाज को नया आयाम देना होगा. धर्म या मजहब निजी आस्था है, लेकिन जीवन के संपूर्ण विकास के लिए वैज्ञानिक सोच को समाहित करना आवश्यक है.

किसी के द्वारा दी गई बैसाखी का सहारा न बन कर अपना रास्ता खुद चुनने की कोशिश करें. ऐसा तभी संभव होगा जब वह अपनी मौजूदा घिसीपिटी व्यवस्था से ऊपर उठ कर आधुनिक शिक्षा और ज्ञान की ओर अग्रसर हो. साथ ही, मुसलिम समाज में उत्पन्न जातीय संकीर्णता के बारे में पढ़ कर दुख हुआ. इसलाम धर्म के अनुयायियों में भी जातिभेद का बीज पनपेगा, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती. वास्तव में हिंदू धर्म में व्याप्त जाति व्यवस्था का कीड़ा (दीमक) जिस के भी घर में पैर पसारेगा, उस घर को खोखला ही करेगा.

सूर्य प्रकाश, वाराणसी (उ.प्र.)

तुम नहीं थे

दीप था बाती भी थी
सिर्फ तुम नहीं थे
रोशनी हो न सकी

वाणी थी शब्द भी थे
सिर्फ तुम नहीं थे
बात हो न सकी

बसंत था बहार भी थी
सिर्फ तुम नहीं थे
फूल खिल न सके

नदी थी नाव भी थी
सिर्फ तुम नहीं थे
पार हो न सके

जिस्म था सांसें भी थीं
सिर्फ तुम नहीं थे
जिंदगी जी न सके.

काली प्रसाद जयसवाल   

इन्हें भी आजमाइए

  1. पलंग का सिरहाना अगर पुराना हो कर खराब लगने लगा हो तो उस के लिए कपड़े का कवर सी कर उस पर चढ़ा दीजिए. उस में दोचार जेबें भी बनाइए जो किताब, बटुआ आदि रखने के काम आएंगी.
  2. आलू के उबले हुए पानी में यदि चांदी की चीजें डाल कर फिर उबालें तो खूब चमक आ जाती है, इस के अलावा खट्टे दही में भी कुछ घंटे चांदी के बरतन पड़े रहें तो बिलकुल नए हो जाते हैं.
  3. सब्जी का बरतन जल जाने पर थोड़ा प्याज एक गिलास पानी के साथ उस बरतन में चढ़ा दें. थोड़ी देर में बरतन साफ हो जाएगा.
  4. कपड़े के सफेद जूतों को और अधिक सफेद व चमकदार बनाने के लिए सफेद पौलिश में पानी के स्थान पर दूध का प्रयोग करें.
  5. नीबू के छिलकों को धूप में सुखा कर बारीक पीस लें और मंजन के रूप में प्रयोग करें. दांतों को साफ करने के साथसाथ यह सांस की दुर्गंध को भी समाप्त करेगा.
  6. सूती कपड़े पर से चाय के दाग दूर करने के लिए उबले चावल पीस कर उस पर मलें या गीले आटे से रगड़ कर धोएं.
  7. ठंड में यदि आप के होंठ फट जाएं तो उन पर शहद और सुहागा मिला कर लगाइए.

यश की वापसी

अभिनेता यश टोंक को एक बार फिर से एकता कपूर के धारावाहिक ‘पवित्र बंधन’ में अभिनय करने का मौका मिल रहा है. यश का कहना है कि यह मेरे कैरियर की सब से अच्छी बात होगी कि मुझे एक बार फिर गिरीश की भूमिका में अभिनय करने का अवसर मिल रहा है. कहानी बहुत दिलचस्प है.

ऐसा लग रहा है कि एकता अपने पुराने स्टार्स को दोहराना पसंद करती हैं. पर दर्शक उन्हें कितना अपनाएंगे, वह बाद में पता चलेगा क्योंकि इस धारावाहिक की लीड कैरेक्टर तो रितु धुधानी हैं.                      

लोकेशन की तलाश

‘गैंग्स औफ घोस्ट’ का एक खास गाना मुंबई के शक्ति मिल्स में फिल्माया जाना था लेकिन कुछ दिनों पहले शक्ति मिल्स में हुई बलात्कार की घिनौनी घटना के कारण पूरी टीम ने यह गाना दूसरी जगह फिल्माने का निर्णय लिया है.

निर्देशक सतीश कौशिक कहते हैं कि हम इस घटना से काफी आहत हैं. इसलिए गाना अब कहीं और शूट किया जाएगा. यह निर्णय शायद सभी के लिए राहतपूर्ण हो. गौरतलब है कि फिल्म ‘गैंग्स औफ घोस्ट’ में सौरभ शुक्ला और रजत कपूर के साथ अभिनेत्री माही गिल बेहद सैक्सी रूप में नजर आएंगी. फिलहाल, फिल्म पूरी होने की राह देख रही हैं.

 

मीडिया से खफा

चिकनी चमेली के नाम से मशहूर कैटरीना कैफ कुछ दिनों से मीडिया से कुछ ज्यादा ही खफा हैं. तभी तो क्रिसमस में रिलीज होने वाली फिल्म ‘धूम 3’ पर बात करने के बजाय वे मीडिया की उस हरकत पर बिफर जाती हैं जब उन की बिकनी पिक्स रणबीर कपूर के साथ लीक हुई थी. हाल में अपने साक्षात्कार में कैटरीना ने कहा कि स्टार को मिस्टीरियस होना चाहिए. अगर मैं अपने जीवन की कुछ बातें खुद तक ही रखना चाहती हूं तो इस में गलत क्या है? लेकिन मीडिया इस बात को नहीं समझता. यही वजह है कि मैं मीडिया से दूर रहना चाहती हूं.

 

मैजिक गर्ल

‘कहो न प्यार है’ और ‘गदर’ जैसी ब्लौकबस्टर फिल्मों से अपना कैरियर शुरू करने वाली अभिनेत्री अमीषा पटेल ने स्वयं द्वारा लिए गए कुछ गलत फैसलों के चलते अपना कैरियर लगभग खत्म कर लिया. खैर, अच्छी खबर यह है कि अमीषा पटेल एक अच्छी निर्माता के तौर पर अपने कैरियर में ‘देसी मैजिक’ नाम की फिल्म ले कर लोगों के सामने आ रही हैं. अमीषा, हम तो यही चाहेंगे कि आप जोरदार वापसी करें.

 

गर्दिश में हीरो

शाहिद कपूर फिल्म ‘फटा पोस्टर निकला हीरो’ में सलमान खान की नकल करते हुए दिखाई दिए. शाहिद का कहना है कि वे सलमान के बहुत बड़े फैन हैं और उन की तरह अभिनय करना उन का मजाक नहीं, बल्कि आदर व्यक्त करना है. प्रमोशन के दौरान वे ‘बीइंग ह्यूमन’ की टीशर्ट भी पहने हुए नजर आए.

शाहिद की सोच अच्छी है पर दर्शक शाहिद के अभिनय को ही देखना पसंद करेंगे न कि किसी और की नकल. लगता है शाहिद के तारे गर्दिश में हैं, तभी तो उन्हें अपनी फिल्म में सलमान जैसे बड़े सितारे का सहारा लेना पड़ा.

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें