सरित प्रवाह, सितंबर (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘जागरूक बने जनता’ पढ़ी. यह आंख व कान खोलने वाली सटीक टिप्पणी है कि देश की समस्याएं हर रोज ज्यादा उलझती प्रतीत हो रही हैं. ऐसा लगता नहीं कि देश की व्यवस्था जिन राजनीतिबाजों और नौकरशाहों के हाथों में है वे उन्हें सुलझाना चाहते हैं.

देश अगर सोचे कि सर्वोच्च न्यायालय, महालेखा परीक्षक, चुनाव आयुक्त, स्वतंत्र प्रैस जैसी संस्थाएं कुछ कर सकती हैं तो यह गलत है. ये संस्थाएं सरकार के कामकाज पर नजर रखने के लिए हैं, समस्याओं को हल करने में सरकार को सहयोग देने के लिए नहीं.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणियां ‘खाद्य सुरक्षा’, ‘जागरूक बने जनता’ और ‘भारत में विदेशी पूंजी’ पढ़ने के बाद लगा, हमारे वीर सपूतों ने देश को अंगरेजों के चंगुल से आजादी तो दिलाई लेकिन जनता को आजादी का सही इस्तेमाल करना नहीं सिखाया गया. ऐसे लोगों को चुन कर सत्ता सौंपी जाती है जो भ्रष्टाचार करना और कराना अपना हक समझते हैं. लोकसभा चुनाव का समय करीब आ गया तो सत्ताधारियों को भूख और कुपोषण से पीडि़त जनता की याद आई. मजे की बात यह है कि देश के 82 करोड़ भूखे लोगों के प्रति पनपी सहानुभूति के पीछे सत्ता पाने की उन की सख्त भूख है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बना कर कांगे्रस पार्टी यह सपना देख रही है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में गरीब और भूखी जनता भरपेट खाद्य खा कर उस को मतदान करेगी. सोनिया गांधी ने घोषणा की कि यह कानून भूख और कुपोषण को दूर करने की पार्टी की प्रतिज्ञा पूरी करेगा. सोनिया के पुत्र राहुल गांधी ने कानून को ऐतिहासिक विधेयक बता कर नया इतिहास रचने की रंगीन आशा पाल रखी है.

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