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भारत भूमि युगे युगे

जेल में लालू

चारा घोटाले में 2 दशक बाद फैसला आया और राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव जेल गए तो बात अचंभे की नहीं, पर सियासी लिहाज से है. राबड़ी देवी भले ही कहती रहें कि पति की चरण- पादुकाएं रख वे पार्टी चला लेंगी, हकीकत सब जानते हैं कि पार्टी चलाना बैलगाड़ी हांकने या कार चलाने जैसा आसान काम नहीं है.

सजा लालू को हुई है पर बिहार में नुकसान भारतीय जनता पार्टी का होना तय दिख रहा है. अब होगा यह कि कांग्रेस और जनता दल (यूनाइटेड) को हाथ मिलाने में हिचक नहीं रहेगी. यों भी, राजनीति का दस्तूर यही है कि बजाय कमजोर को ताकतवर बनाने के किसी दूसरे ताकतवर का हाथ थाम लिया जाए.

 

गुरु का गरूर

नाम भले ही रामदेव हो पर योगगुरु का गरूर किसी रावण से कम नहीं. उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही नामर्द कह दिया. रामदेव की लोकप्रियता का ग्राफ अब गिर रहा है जिस से वे बौखलाएं हुए हैं और अहंकारी भाषा बोल लोकप्रिय होने के सस्ते नुस्खे आजमा रहे हैं. कर चोरी के छापे, उन की दुकान पतंजलि पर पड़ रहे हैं.

दवाइयों के अलावा कौस्मेटिक और घरेलू उपयोग की सामग्री की बिक्री के लिए दूसरे उद्योगपतियों की तरह रामदेव भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हैं. इस से साफ यह होता है कि उन का स्वार्थ क्षुद्र और इच्छा कुंठित है. बाबाओं के इशारे पर नोट तो झड़ते हैं पर वोट नहीं गिरते, ऐसा कई बार उजागर भी हो चुका है.

चिंता की बात रामदेव की बदजबानी है जिस पर भगवा खेमा खामोश है. गैर भगवाई कहने से चूक नहीं रहे कि किसी और को नहीं, पर रामदेव को खुद अपने मर्द होने का सुबूत देना चाहिए. यह भी घटिया और फूहड़ बात है पर है रामदेव की शैली की ही.

 

जैसा बाप वैसा बेटा

दुनियाभर को भागवत और पौराणिक कथाएं सुना कर अरबों, खरबों की बादशाहत खड़ी करने वाले तथाकथित संत आसाराम का बेटा नारायण सांई भी अब कानून के फंदे में है. आरोप लगभग वही हैं जो पिता पर लगे हैं यानी दुष्कर्मों के. अपने घर में राम या श्रवण कुमार के बजाय खुद की तरह रंगीन मिजाज बेटा हुआ तो बात ऐयाशी की है या संस्कारों की, यह बात उन धर्मप्रेमी बंधुओं को तय करनी चाहिए जिन के लिए संत आदर्श होते हैं.

धीरेधीरे साबित यह हो रहा है कि आसाराम का पूरा कुनबा धर्म की आड़ में देह का धंधा करता था जो धर्म की ही तरह शाश्वत धंधा है पर उपदेश नैतिकता के दिए जाते हैं. सच सामने होते हुए भी लोगों की आंखें नहीं खुल रहीं तो उन्हें ऐसे विलासी संतों को पैदा करने और पालनेपोसने की जिम्मेदारी  अपने सिर लेने में क्यों हिचक हो रही है?

 

बेबस जोगी

छत्तीसगढ़ राज्य के सुकुमा में मई में माओवादियों ने थोक में कांगे्रसी नेताओं की हत्या कर दी थी. तब से कांग्रेसी खेमा चिंता में था कि अब क्या होगा, पार्टी छत्तीसगढ़ में नेतृत्वविहीन हो गई है. अब चुनावी टक्कर बराबरी की आंकी जा रही है तो अजीत जोगी चाहते हैं कि उन्हें सीएम प्रोजैक्ट कर दिया जाए लेकिन राहुल गांधी इस पेशकश पर तैयार नहीं हो रहे. जाहिर है उन की मंशा नए नेता पैदा करने की है.

दूसरी टांग केंद्रीय कृषि मंत्री चरणदास महंत ने भी अड़ा रखी है जो जोगी से ज्यादा मजबूत स्थिति में हैं. थोड़ी सी मेहनत से कांग्रेस छग में वापसी कर सकती है, इसलिए जोगी के नाम पर जोखिम नहीं उठाया जा रहा. इस की एक वजह जोगी के पैरों की तकलीफ भी है. मतदाता आजकल वोट डालते वक्त नेता की सेहत और फिटनैस को भी ध्यान में रखता है.  

फ्रैंकफर्ट मोटर शो २०१३ कारों का जलवा

दुनिया में कारों के शौकीनों के लिए सब से बड़ा फेयर फ्रैंकफर्ट का शानदार मोटर शो इस साल भी कारों के बेहतरीन मौडल ले कर आया. ‘फ्रैंकफर्ट मोटर शो 2013’ में हाईब्रिड और इलैक्ट्रिक कारें सब की नजरों का खास आकर्षण रहीं. नजर डालते हैं कुछ चुनिंदा व बेहतरीन मौडलों पर जो इस मोटर शो में प्रदर्शित किए गए.

सब से पहले बात बीएमडब्लू की. बीएमडब्लू आई 8, जोकि हाईब्रिड स्पोर्ट्स कार है, को इस शो का बड़ा आकर्षण कह सकते हैं. 100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार महज 4 से 5 सेकंड में पकड़ने वाली इस बेहतरीन कार को हलका बनाने के लिए कार्बन फाइबर के पुरजों का प्रयोग किया गया है. इसी कंपनी की एक और कार बीएमडब्लू कौंसैप्ट ऐक्स 5,जो हाईब्रिड इलैक्ट्रिक बेस्ड टैक्नोलौजी से सुसज्जित है, भी किसी से कम नहीं है. सिर्फ 3.8 लिटर ईंधन में 100 किलोमीटर की सवारी कराने वाली इस गाड़ी को न चाहने वाले के लिए कोई वजह ढूंढ़ना मुश्किल है.

बीएमडब्लू को टक्कर देती और भी कई नामचीन कंपनियां फ्रैंकफर्ट मोटर शो में मौजूद थीं. मसलन, फोक्सवैगन. मोटर शो में फोक्सवैगन ई गोल्फ कार पेश की गई जोकि एक इलैक्ट्रिक मौडल है. इस कार की वैसे तो कई खूबियां हैं पर यह बताना ही काफी होगा कि यह इलैक्ट्रिक कार एक बार चार्ज होने पर 190 किलोमीटर तक शानदार रफ्तार से आप को सफर का मजा देगी. सिर्फ यही नहीं, इस मौडल की कार को 100 किलोमीटर चलाने का खर्चा महज 3.28 यूरो होता है.

अब जरा फेरारी की सवारी करते हैं. फेरारी 458 स्पैशल. फेरारी के इस नए मौडल में भी कम फीचर्स नहीं हैं. यह कार एयरोडायनेमिक है जिस से तेज रफ्तार में भी सड़क पर स्मूथ चलती रहती है. शून्य से 100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार महज 3 सेकंड में हासिल कर लेने की इस की खूबी भी इसे औरों से बेहतर बनाती है.

कारों की फेहरिस्त में औडी स्पोर्ट क्वात्रो कौंसैप्ट का जिक्र भी बेहद जरूरी है. 4 सीटों वाली औडी की इस कार का अगला हिस्सा भारी मात्रा में वायुरोधी है और दिखने में बेहद आकर्षक है. 700 हौर्सपावर का सौलिड इलैक्ट्रिक मोटर और 4 लिटर का विशाल वी 8 इंजन इस को एक फ्यूचर तकनीक के बेहतरीन मौडल के तौर पर पेश करता है. इस कार की रफ्तार 305 किलोमीटर प्रति घंटे तक है.

औडी से जुड़े यूलरिक हेकेनबर्ग कहते हैं कि आज कारों के शौकीनों को हाईब्रिड से ले कर इलैक्ट्रिक कारें खास पसंद आ रही हैं. ऐसे में कस्टमर्स को हम उन की चौइस पर छोड़ते हैं.

अब टोयोटा यारिस हाईब्रिड कौंसैप्ट कार की बात करते हैं. जबरदस्त परफौर्मेंस वाली हाई क्लास हाईब्रिड तकनीक से लैस यह कार फिलहाल बाजार में बिक्री के लिए नहीं आई है लेकिन अपनी खूबियों से इस ने सब को लुभाया. 3 इलैक्ट्रिक मोटरों और 4 सिलेंडरों वाले टर्बोचार्ज्ड इंजन से इसे 400 हौर्सपावर की ताकत मिलती है. आखिर में बात ओपेल मोंजा की. यह कौंसैप्ट कार जनरल मोटर्स की सहयोगी कंपनी की भविष्य की कारों की मौजूदा स्थिति बता रही है.

-दिल्ली प्रैस की अंगरेजी पत्रिका बिजनैस स्टैंडर्ड मोटरिंग से

रास न आई नीना की जीत

अमेरिका भले ही अपने मुल्क के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा पर इतराता हो लेकिन भारतीय मूल की नीना दावुलूरी के ‘मिस अमेरिका’ बनने पर नस्ली टिप्पणियों ने साबित कर दिया कि अमेरिका को नीना की जीत रास नहीं आई. पढि़ए आशा त्रिपाठी की रिपोर्ट.

नीना दावुलूरी के ‘मिस अमेरिका’ बनने पर वहां मचा हंगामा अमेरिकियों की घटिया मानसिकता का परिचायक है. अमेरिकी लोगों ने नीना दावुलूरी के भारतीय मूल के होने के आधार पर नस्ली भेदभाव से प्रेरित टिप्पणियां करते हुए गुस्सा जताया, जो बेहद शर्मनाक है. प्रतियोगिता के जजों ने साफ कहा है कि उन्होंने नीना दावुलूरी को उन की सलाहियतों के नतीजे में 2014 की मिस अमेरिका के खिताब के लिए चुना है.

नीना दावुलूरी के मातापिता मूलरूप से भारत के आंध्र प्रदेश राज्य के विजयवाड़ा शहर के रहने वाले हैं. कई दशक पहले यह परिवार अमेरिका में जा कर बस गया है. वहां के जनगणना ब्यूरो के 2010 के आंकड़ों के मुताबिक, अमेरिका में करीब 32 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं. उन में से बड़ी संख्या में पेशेवर मैडिकल डाक्टर, सौफ्टवेयर इंजीनियर, वकील, प्रोफैसर और कंपनियों के मालिक हैं. नीना दावुलूरी को निशाना बनाए जाने से बहुत से भारतीय और दक्षिण एशियाई मूल के लोग भी नाराज हैं.

वहीं, दिलचस्प यह है कि कुछ अमेरिकी नस्ली टिप्पणियां कर रहे हैं तो बहुत से अमेरिकी नीना दावुलूरी की जीत पर खुश हैं और नस्ली टिप्पणियां करने वालों की निंदा भी कर रहे हैं. वैसे मिस अमेरिका ने तो पहले ही कह दिया है कि वे नस्ली टिप्पणियों पर तवज्जुह नहीं देतीं.

नीना दावुलूरी का कहना है, ‘‘मुझे इन सब बातों से ऊपर उठ कर देखना है. हर चीज से ऊपर, मैं ने हमेशा खुद को एक अमेरिकी माना है.’’ नीना ने अमेरिका की नई नस्ल को संदेश में कहा कि मैं खुश हूं कि ‘मिस अमेरिका’ संस्था ने देश में विविधता को भी महत्त्व दिया है.

अमेरिका में न्यूयार्क के सेराक्यूज शहर में रहने वाली नीना अच्छी छात्रा रही हैं, इस खिताब के साथ उन्हें 50 हजार अमेरिकी डौलर की स्कौलरशिप मिली है. वे डाक्टर बनना चाहती हैं. उन के पिता चौधरी धन दावुलूरी शहर के सैंट जोसेफ अस्पताल में डाक्टर हैं.

‘मिस अमेरिका’ प्रतियोगिता में कुल 53 प्रतिभागी थे. इन में से अमेरिका के हर राज्य की 1 प्रतिभागी थी. प्रतियोगिता में स्विम सूट, इवनिंग गाउन, टेलैंट और इंटरव्यू जैसे कई राउंड्स थे. अमेरिकियों ने सोशल मीडिया पर ‘अरब ने जीता मिस अमेरिका का ताज’ और ‘क्या हम 9/11 भूल गए हैं’ जैसे कमैंट पोस्ट किए हैं. किसी ने उन्हें ‘मिस टेररिस्ट’ कहा तो किसी ने उन्हें ‘मिस अलकायदा’ ही कह डाला. ट्वीटर पर लोगों ने लिखा, ‘कैसे कोई विदेशी मिस अमेरिका बन सकती है.’ नीना के रंग को ले कर भी घटिया टिप्पणी की गई है. कई लोगों ने उन्हें मोटी तो कई ने उन्हें विदेशी तक कह डाला. कई लोगों ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति ओबामा को खुश करने के लिए उन्हें मिस अमेरिका बनाया गया है.

उधर, नीना के खिलाफ सोशल साइट्स पर चलाए जा रहे इस हेट कैंपेन का भारतीयों ने जवाब भी दिया है. एक भारतीय ने ट्वीट किया है, ‘डियर अमेरिका, अगर आप नस्लवादी होना चाहते हैं तो आप को कोई नहीं रोक रहा है, लेकिन पहले भूगोल का अपना ज्ञान तो सुधारिए.’ एक अन्य भारतीय ने लिखा है कि नीना पूरी तरह से अमेरिकी हैं.

नीना के चयन पर जहां एक तरफ उन के खिलाफ सोशल मीडिया पर नस्ली टिप्पणियां हो रही हैं वहीं 1 अमेरिकी सांसद ने इसे भारतीय समुदाय के लिए बड़ी उपलब्धि बताया है. उन्होंने कहा कि नीना की जीत भारतीय अमेरिकियों के लिए ठीक वैसी ही है जैसी यहूदी समुदाय के लिए बेस मेरसन की जीत थी.

दरअसल, मेरसन वर्ष 1945 में ‘मिस अमेरिका’ का खिताब जीतने वाली यहूदी समुदाय की पहली महिला थीं. जो भी हो, नीना के खिलाफ की गई अमेरिकी टिप्पणियां न सिर्फ दुनिया के सभ्य समाज को ठेस ही पहुंचा रही हैं बल्कि इस से यह भी साफ हो गया है कि अमेरिका में भी तुच्छ मानसिकता के लोग रहते हैं और वे खुद को सुधारने की कोशिश भी नहीं कर रहे हैं.

भाजपा में द्वंद्व

भोपाल में शिवराज सिंह चौहान की जनआशीर्वाद यात्रा के समापन के दिन हुआ सियासी जलसा भाजपा के अंतर्द्वंद्व और नरेंद्र मोदी बनाम लालकृष्ण आडवाणी में ही सिमटता दिखा. मंच पर नायक बनने की ख्वाहिश पाले मोदी की दाल यहां नहीं गली. पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव का लेख.

भोपाल के जंबूरी मैदान में गत 25 सितंबर को आयोजित भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता सम्मेलन को दुनिया का सब से बड़ा राजनीतिक जलसा मानने को गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स के अधिकारी भी तैयार हैं. इस महाकुंभ में मध्य प्रदेश के लगभग 6 लाख कार्यकर्ता इकट्ठा हुए थे. भारतीय जनता पार्टी का यह शो दरअसल मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का मेगा शो था जिन्होंने इस दिन 2 महीने तक चली अपनी जन आशीर्वाद यात्रा का समापन किया.

मालवा क्षेत्र के एक युवा भाजपा विधायक की मानें तो 2 बातें एकसाथ हुईं जिन्होंने शिवराज सिंह को परेशानी में डाल दिया था. पहली, नरेंद्र मोदी को आननफानन पीएम पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना जिस से प्रदेश में मुसलिम वोटों का नफा, नुकसान में बदल रहा था और दूसरी, कांग्रेसी दिग्गजों का कई दफा एकसाथ मंच पर दिखना व ज्योतिरादित्य सिंधिया का राहुल गांधी के इशारे पर एकदम सक्रिय हो जाना रही. लेकिन इस आयोजन से शिवराज ने एक तीर से दो निशाने साध डाले.

जाहिर है दोनों बातों का चुनाव और मतदाता के मूड से गहरा नाता है. 2003 और 2008 के विधानसभा चुनाव नतीजों से साफ हो गया था कि मध्य प्रदेश का मुसलमान मतदाता भाजपा से परहेज नहीं करता है लेकिन मोदी को थोपा गया तो करेगा और शिवराज की दरियादिली और मेहनत दोनों पर पानी फिर जाएगा. ज्योतिरादित्य सिंधिया इसलिए चिंता की बात हैं कि उन की दादी और बूआएं भाजपा सरकारों में मंत्री रही हैं.

ज्योतिरादित्य सिंधिया भले ही अभी सत्ता पलटने की स्थिति में कांग्रेसी फूट के चलते न हों पर आने वाले वक्त में बड़ा खतरा भाजपा के लिए बन सकते हैं. ऐसे में शिवराज सिंह चौहान के लिए जरूरी हो गया था कि वे अपनी जमीनी ताकत दिखाएं. भाजपा आलाकमान और संघ भी चाहते थे कि दिल्ली की खटास को पाटने के लिए जरूरी है कि लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी ज्यादा से ज्यादा एकसाथ मंच पर दिखें जिस से कार्यकर्ताओं का मनोबल बना रहे और मतदाता में गलत संदेश न जाए.

लेकिन भोपाल में उलटा और दिलचस्प यह हुआ कि लाखों के जमावड़े और दिग्गजों की एकसाथ मौजूदगी से कार्यकर्ताओं का जोश तो बढ़ा लेकिन खटास बजाय कम होने के और बढ़ती दिखाई दी, जिस के विधानसभा चुनावों तक ज्योें की त्यों रहने की आशंका है. अगर भाजपा मध्य प्रदेश में सम्मानजनक तरीके से जीती यानी 230 सीटों में से 125 सीटें भी जीत ले गई तो आडवाणी के तेवर देखने लायक होंगे. वजह, शिवराज सिंह चौहान की गिनती उन के खास शिष्यों और गुट में होती है. मुमकिन है आडवाणी, मोदी के नाम पर दूसरा अड़ंगा साल के आखिर में डालें. इस का संकेत भोपाल में मंच पर साफ दिखा, मोदी और आडवाणी अपने बीच की दूरी छिपा न सके.

भाषणों का सच

24 सितंबर की रात जब प्रदेशभर से कार्यकर्ता बसों, जीपों, ट्रेनों और ट्रैक्टरों से भोपाल आ रहे थे तब रात के 3 बजे मध्य प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर, राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल और अनंत कुमार तीनों माथापच्ची कर रहे थे कि वक्ताओं के बोलने का क्रम कैसे तय किया जाए.

शिवराज सिंह चौहान किसी भी कीमत पर आडवाणी को नाराज करने और मोदी को हीरो बताने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे, इसलिए बीच का रास्ता यह निकाला गया कि आडवाणी से इस महाकुंभ का उद्घाटन करवाया जाए और फिर उन्हें पहले बोलने दिया जाए.

अपने भाषण में आडवाणी ने आधे से ज्यादा वक्त शिवराज सिंह की संगठन क्षमता और सरकार की तारीफ की.  साथ ही उन्होंने नरेंद्र मोदी और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की भी तारीफ कर के यह जता दिया कि उन की नजर में भाजपा शासित प्रदेशों के सभी मुख्यमंत्री एक समान हैं. मोदी के प्रधानमंत्री घोषित होने के बाबत वे चुप ही रहे और उसी चुप्पी ने जताया कि वे अभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इशारे पर हुए इस फैसले पर न खुश हैं, न इत्तफाक रखते हैं.

कुछ कार्यकर्ताओं द्वारा आडवाणी के भाषण के दौरान मोदीमोदी के नारे लगे तो नाराज आडवाणी ने अपना भाषण अधूरा छोड़ दिया. 3 दिन बाद भाजपा प्रदेश कार्यालय के सूत्रों के हवाले से यह खबर आम लोगों के सामने आई कि 2 हजार कार्यकर्ता गुजरात से मोदी की हर सभा में जाते हैं, जिन का काम ही मोदीमोदी चिल्लाना होता है. प्रधानमंत्री बनने के लिए मोदी इतने बचकाने स्तर पर आ जाएंगे, यह किसी को रास नहीं आ रहा.

पूर्व केंद्रीय मंत्री व भाजपा नेता अरुण जेटली ने भाषण के नाम पर बोलने की रस्म निभाई. जबकि पार्टी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू मुद्दों से भागते नजर आए पर इन दोनों ने शिवराज की तारीफों के पुल अपने संक्षिप्त भाषण में जरूर बांधे और दूसरों की तरह हारी और थकी आवाज में नरेंद्र मोदी को भविष्य का प्रधानमंत्री कहा.

लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज अपने भाषण में महाभारत का जिक्र करते हुए बोलीं, ‘मैं द्वापर के महाभारत की बात कर रही हूं, सभी मिलजुल कर बैठे हैं.’

यह जल्दबाजी थी या सोचीसमझी चाल, यह तो वही जानें पर सुनने वालों को अचानक ही लालकृष्ण आडवाणी भीष्म पितामह नजर आने लगे और नरेंद्र मोदी दुर्योधन, जिस की सत्ता की भूख ने यह भीषण युद्ध करवाया था. यह चर्चा कई दिनों बाद तक लोग करकर चुटकियां लेते रहे कि मुरली मनोहर जोशी, विदुर या कृपाचार्य हैं, नकुल, सहदेव उन्होंने जेटली और नायडू को माना. भीम का दरजा राजनाथ सिंह को दे दिया पर अर्जुन कौन है जिसे भीष्म पितामह का आशीर्वाद मिल चुका था, यह कोई तय नहीं कर पाया. इस लिहाज से अनजाने में सही, सुषमा ने आरएसएस को धृतराष्ट्र साबित कर डाला.उमा भारती ने शुरू में ही मान लिया कि शिवराज सिंह की राह में वे टंगड़ी नहीं अड़ाएंगी.

मोदी ने किया निराश

देश की दूसरी सब से बड़ी पार्टी भाजपा ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित किया है तो जाहिर है उन में कोई खास और अलग बात होनी चाहिए, आम और खास लोगों की यह राय भोपाल में नरेंद्र मोदी के भाषण के साथ ही ध्वस्त हो गई.

दरअसल, नरेंद्र मोदी उम्मीद से ज्यादा भीड़ देख सम्मोहित थे और उन से पहले बोले सभी नेता खुलेआम शिवराज सिंह की तारीफ कर उन्हें एहसास भी करा चुके थे कि वास्तव में लोकप्रियता होती क्या है.

जबलपुर से आए एक संभाग स्तर के भाजपा पदाधिकारी का कहना था कि मोदी, शिवराज की तारीफ करें, यह दिक्कत की बात नहीं, दिक्कत की बात यह है कि वे शिवराज की चाटुकारिता कर रहे थे और सारा देश इस के साथसाथ यह भी देख रहा था कि मोदी की उम्मीदवारी से भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं में फूट पड़ गई है और उन का आत्मविश्वास भी डगमगा गया है. यह विधानसभा चुनावों के लिहाज से नहीं, बल्कि लोकसभा के लिहाज से चिंता की बात है.

संघ से भी जुड़े इस छोटे पदाधिकारी की चिंता बेवजह नहीं है और उस की दलील में दम है. भोपाल के एक मुसलमान भाजपा कार्यकर्ता का कहना था, ‘हमें शिवराज सिंह से परहेज नहीं, मोदी से है. उम्मीद थी कि वे भोपाल के इस महाकुंभ में अपने सियासी पाप धोएंगे. वे टोपी भले न पहनें पर होने वाले प्रधानमंत्री में जो निरपेक्षता और उदारता होनी चाहिए वह उन में नहीं दिखी. जाने क्यों इस बड़े जलसे में भाजपा ने शहनवाज हुसैन या मुख्तार अब्बास नकवी को नहीं बुलाया.’

मोदी को खासतौर से सुनने आए भोपाल के एक सरकारी कालेज के प्राध्यापक की मानें तो, ‘मोदी भोपाल  न आते तो उन का ‘क्रेज’ बना रहता. अपने भाषण में उन्होंने शिवराज सिंह और रमन सिंह की तारीफ प्रदेशों के विकास की बाबत की पर खुद  को अलग रखा. वे तो अभी से खुद को पीएम समझने लगे हैं और बोल भी ऐसे रहे थे मानो प्रधानमंत्री बन ही गए हों.’

मोदी की सत्ता लालसा और जल्दबाजी पर आम लोग बिदके दिखे तो जाहिर है मोदी न केवल भाजपा में बल्कि आम लोगों में भी सर्वमान्य नहीं हैं. भाजपा को उन के नाम पर वोट नहीं मिलने वाले. भाजपा की नीति अगर उन के नाम पर हिंदुओं की भावनाओं को भड़का कर वोट झटकने की है तो हो उलटा भी सकता है कि मुसलमानों के साथसाथ छोटी जाति के हिंदू वोट भी उन से कट जाएं.

इस पूरे जलसे के हीरो शिवराज सिंह चौहान रहे जो यह जताने में कामयाब रहे कि प्रदेश में वे अकेले सर्वमान्य नेता हैं. कार्यकर्ता उन के नाम से जुटता और काम करता है इसीलिए आयोजन के पहले प्रकाशित विज्ञापनों और भाषण में वे कार्यकर्ता की ही स्तुति करते रहे जो कार्यकर्ताओं के उत्साह की बड़ी वजह थी.

कांग्रेसी खेमा इस सम्मेलन से इसलिए सकते में है कि विधानसभा चुनाव के नतीजे उसे साफ नजर आ रहे हैं. 2 महीनों में किसी चमत्कार की उम्मीद अब कांग्रेसी नहीं कर सकते. भाजपा की ऊपरी फूट और गुटबाजी का कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा क्योंकि इस सम्मेलन में शिवराज सिंह चौहान ही छाए रहे.

ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी शिवराज की रणनीति समझ आ गई है कि भाजपा का सारा ध्यान अब यूथ और बूथ पर है. वे पसीना बहा कर कांग्रेस के वोट तो बढ़ा सकते हैं पर सीटें इतनी नहीं बढ़ा सकते कि हालफिलहाल के अनुमान गड़बड़ा जाएं. इसलिए वे भी 2018 को ध्यान में रखते बिसात बिछा रहे हैं. कांग्रेस को पहले से, 8-10 ही सही, ज्यादा सीटें मिलीं, जैसी कि जानकार उम्मीद जता रहे हैं, तो इस का श्रेय सिंधिया लेते हुए 5 साल तक ठाकुर लौबी को किनारे कर खुद को मजबूत करेंगे, जो कांग्रेस के लिहाज से जरूरी भी है वरना वह मध्य प्रदेश में बेहद दयनीय स्थिति में पहुंच जाएगी.

शिवराज सिंह की मंशा भी साफ दिख रही है कि विधानसभा जीते तो लोकसभा में उन की चलेगी और मध्य प्रदेश में टिकट उन की पसंद से ही दिए जाएंगे. भाजपा इन दिनों दोहरे द्वंद्व से गुजर रही है. पहले के मुकाबले वह थोड़ी मजबूत जरूर हो रही है पर इस का श्रेय मोदी, आडवाणी को न जा कर शिवराज सिंह, रमन सिंह और वसुंधरा सहित दिल्ली में प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल को जा रहा है.

भाजपा में समीकरण 5 राज्यों के चुनावी नतीजों के बाद तेजी से बदलेंगे. नरेंद्र मोदी भोपाल की भीड़ देख एक तरह से यह मान गए हैं कि मध्य प्रदेश में वोट उन के नहीं शिवराज के नाम पर पड़ेंगे. पर दुर्योधन की तरह वे सब से बड़ी कुरसी के लिए अड़ गए हैं. असल और कलियुगी महाभारत तय है, साल 2014 की शुरुआत में दिखेगा.

घोटालेबाजों पर रुदन, शरीफों पर सितम

आज लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं को सजा होने पर लोग इतरा रहे हैं जबकि इन हालात के असल जिम्मेदार वे खुद ही हैं. किसी ने भी ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ नेताओं व अफसरों के लिए कुछ नहीं किया. ऐसे में दोष घोटालेबाजों को क्यों दिया जाए? पढि़ए जगदीश पंवार का लेख.

बिहार के 17 साल पुराने चारा घोटाले में राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव को सीबीआई विशेष अदालत ने 3 अक्तूबर को जब 5 साल की सजा सुनाई तो ज्यादातर लोगों को सुखद आश्चर्य हुआ. ढाई दशक से भारतीय राजनीति में चर्चित लालू यादव को 1996 में किए गए घोटाले के लिए 5 साल की कैद की सजा हुई है. सजा होने के चलते लालू यादव की संसद सदस्यता स्वत: ही खत्म हो गई.

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, 2 या इस से ज्यादा साल की सजा पाने वाला कोईर् भी व्यक्ति सजा होने के 6 साल बाद तक चुनाव नहीं लड़ सकता. यानी कानून के मुताबिक अब लालू यादव न चुनाव लड़ सकेंगे न किसी कुरसी पर रह पाएंगे और सजा पूरी होने के 6 साल बाद यानी पूरे 11 साल बाद ही सक्रिय राजनीति में फिर से आ पाएंगे. 68 वर्षीय लालू यादव तब तक शायद राजनीति करने लायक न रहें.

मामले में लालू यादव के अलावा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र, जनता दल (यूनाइटेड) सांसद जगदीश शर्मा समेत कई नेता और अधिकारियों को जेल की सजा सुनाई गई है. लालू यादव को 1990 में चाईबासा ट्रेजरी से 37.7 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी के मामले में यह सजा हुई है. उन्हें 5 साल की सजा के अलावा 25 लाख रुपए जुर्माना, जगन्नाथ मिश्र को 4 साल की सजा व 2 लाख रुपए जुर्माना, विधायक आर के राणा पर 30 लाख रुपए जबकि पशुपालन विभाग के 6 अफसरों पर डेढ़डेढ़ करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया गया है. इन अफसरों को भी 5-5 साल की सजा हुई है.

जनवरी 1996 में 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाले का परदाफाश हुआ था. जांच शुरू हुई और पशुपालन विभाग के दफ्तरों पर छापे मारे गए. ऐसे दस्तावेज जब्त किए गए जिन से पता चला कि चारा आपूर्ति के नाम पर अस्तित्वहीन कंपनियों द्वारा पैसों की हेराफेरी की गई. बाद में जांच सीबीआई को सौंपी गई. सीबीआई ने लालू यादव को भी आरोपी बनाया और सीबीआई की विशेष अदालत ने 30 सितंबर को उन्हें दोषी करार दिया.

चारा घोटाले में सजा सुनाते हुए विशेष सीबीआई कोर्ट के जज प्रवास कुमार सिंह ने अपने फैसले में लिखा है, ‘‘हम सभी सुनते हैं कि भगवान सर्वशक्तिमान, अंतर्यामी और सर्वव्यापी हैं लेकिन अब देख रहे हैं कि भगवान शब्द की जगह भ्रष्टाचार शब्द को दिलाने की कोशिश हो रही है. यह तब है जब रोजाना भ्रष्टाचाररूपी शैतान को ले कर प्रवचन होते हैं. यह मामला इस का उदाहरण है कि किस प्रकार बड़े राजनेता, नौकरशाह और बिजनैसमेन ने साजिश के तहत सरकारी खजाने को लूटा.’’

इसी समय, 17 साल पुराने एक अन्य मामले में कांग्रेस के सांसद रशीद मसूद को भी 5 साल की जेल हुई है. उन पर आरोप था कि अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने पात्र छात्रों का हक मार कर अपात्र छात्रों के त्रिपुरा के मैडिकल कालेज में दाखिले कराए थे.

दागी नेताओं के लिए सरकार के अध्यादेश का राहुल गांधी द्वारा विरोध करने के चलते लालू यादव, रशीद मसूद जैसे नेताओं को राजनीति से दरबदर होना पड़ा. राहुल गांधी के इस अध्यादेश को बकवास और फाड़ कर कूड़ेदान में फेंकने लायक बताने के बाद संप्रग सरकार और समूची पार्टी में हलचल मच गई. प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने राहुल गांधी की इच्छा के मुताबिक कैबिनेट मीटिंग बुलाई और फिर सरकार द्वारा अध्यादेश को वापस लेने का ऐलान किया गया.

यह अध्यादेश 24 सितंबर को कैबिनेट द्वारा संप्रग के लालू यादव जैसे सहयोगियों को बचाने के लिए ही लाया गया था ताकि आगामी लोकसभा चुनावों में बहुमत न मिलने की दशा में उन जैसों का फिर सहयोग लिया जा सके. अध्यादेश को वापस लेने से सरकार की खूब किरकिरी हुई है.

10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि 2 या उस से ज्यादा साल की जेल की सजा मिलने पर सांसद या विधायक की सदस्यता तुरंत खत्म मानी जाएगी. कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व ऐक्ट 1951 के सेक्शन 8(4) को खारिज कर दिया जो सजा पाए सांसदों, विधायकों को 3 महीने में  उच्च न्यायालय में अपील करने तक अयोग्य होने से बचाता था.

संप्रग सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलटने के लिए पहले तो कानून में संशोधन लाने की ठानी पर सहमति नहीं बनी. बाद में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सजायाफ्ता सांसद, विधायकों की सदस्यता को बचाने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून (संशोधन एवं विधिमान्यीकरण) अध्यादेश को मंजूरी दी.

अध्यादेश जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पास स्वीकृति के लिए भेजा गया तो उन्होंने संशोधन की सलाह दी. राष्ट्रपति को उस की संवैधानिकता व उस के औचित्य पर संदेह था. कानून के जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को इसलिए असंवैधानिक ठहराया क्योंकि उस ने इसे संविधान के अनुच्छेद 101 और 102 के अनुरूप नहीं पाया. सरकार ने शुरू में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संविधान के इन दोनों अनुच्छेदों में संशोधन का प्रस्ताव किया पर इस पर राजनीतिक सहमति नहीं बनी तो उस ने संविधान संशोधन के बिना जनप्रतिनिधित्व कानून को बदलने का कदम उठाया और उस में 2 विवादास्पद प्रावधान जोड़ दिए. इन के अनुसार, सजायाफ्ता सांसद, विधायक की सदस्यता रद्द नहीं होगी.

नेताओं का भ्रष्टाचार    

अदालत का यह फैसला सही है लेकिन साथ ही एक और गलती पूरे देश की है. इस देश ने हमेशा धर्मों और राजाओं को तन, मन, धन सभी कुछ दिया. दोनों हाथों से खूब लुटाया. धर्मगं्रथों में देवताओं, अवतारों, दूसरे नायकों और राजाओं की बेईमानी, चोरी, लूट के सैकड़ों किस्से मौजूद हैं. पुराणों के नायक शिव, राम या कृष्ण, जिन्हें कभी देवता, कभी राजा मान कर पूजा जाता है, आम जनता के लिए करते क्या थे? वे जनता से काम ही लेते थे और हम हैं कि उन किस्सों को श्रद्धा से सुन कर, पढ़ कर खुश होेते रहे. इधर आज के नेता, आज के अफसर लूट रहे हैं, उस पर आपत्ति है जबकि सदियों से उस लूट के आगे सिर नवाते रहे हैं.

आज देश घोटालेबाजों पर तो खूब हायतौबा कर रहा है पर दूसरी तरफ क्या शरीफ, ईमानदारों के साथ सही व्यवहार कर रहा है? क्या हम ने ईमानदारों के लिए कुछ किया, उन्हें क्या दिया?

हम तो सोच कर चल रहे हैं कि दूध के धुले नेताओं को राजनीति चलाने के लिए कुछ नहीं चाहिए. सवाल पूछना जरूरी है कि राजनीति में रहते हुए किसी लोकप्रिय नेता की राजनीति कैसे चलती है? किसी भी विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री के घर और दफ्तर में काम कराने के सिलसिले में आनेजाने वाले लोगों का तांता लगा रहता है. आमजन के अलावा उन के पास दूसरे बड़े नेता, अफसर और कभीकभी विदेशी मेहमान भी आते रहते हैं.

नेता के यहां इन सब को चाय पिलाई जाएगी, लोग बिस्कुट भी खाएंगे, ठंडा पानी भी नेता की ओर से आप को पिलाया जाएगा. उन का चपरासी या नौकर आप के लिए खड़ा रहेगा. आप के काम की अर्जी आगे बढ़ाएगा. नेताजी से मिलवाएगा. इन सब के लिए नेताजी को पैसा खर्च करना होता है. क्या किसी नेता का घर और औफिस बिना पैसे के चल सकता है?

वर्ष 2011 में बिहार के विधायकों को वेतन और भत्ते मिला कर करीब 80 हजार रुपए मिलते थे लेकिन बाद में बढ़ाए गए. 1996 में जब चारा घोटाला हुआ था तब लालू यादव मुख्यमंत्री थे और उन्होंने जो इनकम टैक्स रिटर्न भरा था उस के अनुसार, उन के पास मुख्यमंत्री के तौर पर सालाना वेतन और भत्ते मिला कर कुल 9,90,940 रुपए थे. यानी 17 साल पहले इतने बड़े राज्य के मुख्यमंत्री को आज की तुलना में एक विधायक के बराबर पैसा मिलता था. क्या एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा मात्र इतने रुपए में घर और राजनीति चलाना आसान है? बिना कहीं और का पैसा लिए जनता की सेवा करना क्या मुमकिन है?

हायतौबा मचाई जा रही है कि सारे मुख्यमंत्री घोटालेबाज हैं, सारे नेता भ्रष्टाचारी हैं. कोई कहता है, इन सब को जेल होनी चाहिए, कोईर् फांसी की वकालत कर रहा है. यानी जनता चाहती है देश के नेता अपनी जेब से पैसा खर्च कर के जनता की, समाज की और देश की सेवा करते रहें. यानी मुफ्त की सेवा.

कहने का मतलब यह नहीं है कि भ्रष्टाचार, घोटाले जायज हैं. उस समय मुख्यमंत्री रहते लालू यादव के सामने अफसरों ने चारे की फाइल रखी होगी तो साइन कर दिए होंगे. उन की वकालत करने का हमारा कोई इरादा नहीं है. यह बात सही है कि दस्तावेजों पर साइन मुख्यमंत्री के होने के कारण कानून की नजर में दोषियों में भी वे गिने जाएंगे.

पर यह घोटाला तो लालू यादव के मुख्यमंत्रित्व काल से पहले से चला आ रहा था. 1985 में तब के सीएजी टी एन चतुर्वेदी ने मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह को पत्र लिख कर चारा खरीद में चल रहे घोटाले की जानकारी दी थी. उस के बाद मुख्यमंत्री और अफसर आतेजाते रहे और चारा घोटाले में शामिल रहे. उन्हें बारबार सचेत किया गया पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई. घोटाला दशकों तक चलता रहा और इस में मुख्यमंत्री से ले कर अफसर व दूसरे कर्मचारी शामिल रहे. घोटाले में 55 मुकदमे दर्ज हुए थे. लालू यादव 3,200 करोड़ रुपए के चारा घोटाले मामले में आरोपी बनाए गए.

यहां मकसद लालू यादव का पक्ष लेना नहीं है. हां, ठीक है लालू यादव ने घोटाला किया और उन्हें सजा मिलनी चाहिए लेकिन सवाल यह है कि जनता धर्म के नाम पर साधु, संतों,

गुरुओं को खूब पैसा चढ़ा रही है, क्रिकेट, फिल्मों पर खूब खर्च कर रही है लेकिन आसाराम जैसे तथाकथित संत, क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्म अभिनेता देश को क्या दे रहे हैं? क्या इन का किसी तरह के सामाजिक प्रशासनिक या आर्थिक उत्थान में कोई योगदान है?

बिहार में कर्पूरी ठाकुर के बाद दलित, पिछड़ों में सामाजिक, राजनीतिक जागृति पैदा करने में लालू के योगदान को कौन भुला सकता है. लालू गांवों में गरीबों के घर खाट पर जा बैठते थे. उन का सुखदुख पूछते, पढ़ाईलिखाई के मकसद से चरवाहा स्कूल खुलवाए, गंदी बस्तियों में पानी के टैंकर ले जा कर बच्चों को नहलाते थे और साफसफाई का महत्त्व समझाते थे. यह भले ही जनसंपर्क की कलाबाजी हो पर वे गरीब, अनपढ़ों में एक चेतना जगाने का काम करते थे.

धर्म के धंधेबाजों के पास जा कर जनता लुटपिट रही है, अपनी बेटियों तक को दांव पर लगा रही है. क्रिकेट आप का केवल मनोरंजन कर रहा है, मुफ्त में नहीं, पैसा खर्च करना पड़ता है. क्रिकेट में परदे के पीछे क्या होता है, चौकों, छक्कों पर तालियां पीटने वाली जनता को पता ही नहीं होता कि वे जो खेल देख रहे हैं वह तो नूराकुश्ती है. बात जब खिलाडि़यों, टीम मैनेजरों और सट्टेबाजों के बीच फिक्सिंग की सामने आती है तब आंखें खुलती हैं. आप माथा पीटते हैं, रोते हैं, गालियां देते हैं. क्या यह घोटाला नहीं है? और इन घोटालेबाजों को जनता अपनी जेब से खुशीखुशी पैसे दे रही है. फिल्मकारों के लिए भी आप सर्कस के तमाशे की तरह पैसा बहा रहे हैं.

दिखने में राजनीतिबाजों का रुतबा बड़ा आकर्षक लगता है. सुरक्षाकर्मियों का घेरा, हैलिकौप्टर या हवाईर् जहाज का सफर, हरदम जनता या बाहरी मेहमानों से घिरे रहना. पर यह लालू यादव के लिए नहीं, यह तो राज्य के मुख्यमंत्री की सुरक्षा, स्टेटस और ड्यूटी के लिए आवश्यक होता है, वह चाहे कोई भी हो.

अगर भारतीय राजनीति से 100-150 नेताओं को निकाल दिया जाए तो क्या देश चल सकेगा? संसद में अभी कई नेता ऐसे हैं जो लालू, रशीद मसूद की तरह सदस्यता गंवाने वाले हैं. इन में भाजपा के 18, कांग्रेस के 14 और अन्य दलों के 14 सांसद हैं, उन पर लगे आरोप साबित हुए तो उन की संसद सदस्यता जा सकती है. ये तमाम भ्रष्ट नेता हमारे ही दिए हुए तो हैं.

सवाल है कि यह देश भ्रष्टाचारियों पर तो इतना हल्ला मचा रहा है पर उस ने ईमानदार नेताओं, अफसरों को क्या दिया?ईमानदार इसलिए नहीं आ पाते क्योंकि हमारा व्यवहार उन के लिए ठीक नहीं है. आप शरीफ नेताओं की मांग करते हैं पर हम ने शरीफ, ईमानदार नेताओं और अफसरों के साथ कैसा सुलूक किया?

देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद अपना कार्यकाल खत्म कर के दिल्ली में रहने के बजाय बिहार अपने गांव लौट गए. वहां वे अपने टूटेफूटे घर में रहे. उन के पास कोई नौकरचाकर भी नहीं था. वे अपनी धोती स्वयं धोने से ले कर सारा काम करते थे. उन के पास कोई बैंक बैलेंस नहीं था. प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री अपनी ऐंबैसडर कार का कर्ज तक नहीं चुका पाए थे. प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा दिल्ली के लाजपत नगर में एक कमरे के मकान में रहते थे. हमेशा आर्थिक तौर पर कमजोर रहे.

दूसरी ओर ऐसे राष्ट्रपति भी आए जो राष्ट्रपति भवन में जब आए तो केवल 2 ट्रक सामान के साथ और जब गए तब 22 ट्रकों में सामान भर कर निकले थे. हम बात प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की कर रहे हैं. इस बारे में उस समय अखबारों में खूब छपा था. हौकी में स्वर्ण पदक दिलाने वाले ध्यानचंद के पास इलाज के पैसे नहीं होते थे. आज क्रिकेट खिलाड़ी सिर्फ धन बटोर रहे हैं. सामाजिक बुराइयों पर अपने नाटकों के जरिए समाज में संदेश फैलाने वाले महाराष्ट्र के नाटककार विजय तेंदुलकर कब मरे, क्या हुआ, पता नहीं. देश ने ऐसे लेखक को याद भी नहीं किया.

अभी देश सचिन तेंदुलकर के संन्यास पर विलाप कर रहा है. उन के रनों, शतकों, टैस्ट मैचों पर टैलीविजन चैनल व्यस्त दिखाई दे रहे हैं और अखबारों के पन्ने भरे जा रहे हैं. कथित उपलब्धियों के गुणगान किए जा रहे हैं. और तो और, सचिन तेंदुलकर को भगवान का दरजा दे कर पूजा की हद तक देश पहुंच गया है लेकिन उन का जिस खेल से संबंध है वह खेल सट्टेबाजों, सौदागरों, डौन, माफियाओं, अपराधियों से जुड़ा रहा है. दशकों से इन अपराधियों का इस खेल में बोलबाला रहा. देश, समाज को इस से क्या मिला? सट्टेबाज, माफिया पैदा नहीं किए? चीन, अमेरिका इस खेल के कायल नहीं हैं फिर भी तरक्की में इन देशों की गिनती भारत से ऊपर है.

वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना की भारत ने उपेक्षा की. काम नहीं मिला तो उन्हें बाहर जाना पड़ा. यानी जो ईमानदार, शरीफ होता है वह मारा जाता है. भ्रष्ट नेताओं और माफियाओं के लिए सांसत पैदा करने वाले महाराष्ट्र के चर्चित नौकरशाह जी आर खैरनार गुमनामी में जी रहे हैं. उन्हें केवल अपनी पैंशन से गुजारा करना पड़ रहा है. खैरनार ने कहा था कि एक समय शरद पवार और उन के परिवार की माली हालत एक जैसी थी. आज पवार का परिवार विशाल आर्थिक साम्राज्य का मालिक है जबकि खैरनार की बहन आज भी घरों में बरतन मांज कर अपना गुजारा चलाती हैं.

भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में मुहिम चलाने वाले अन्ना हजारे को हम ने क्या दिया. वे आज भी अपने पुराने आश्रम में हैं. भ्रष्टाचार में उन का साथ देने का दंभ भरने वाले अन्यत्र चले गए. यानी हम ईमानदार अफसर तो चाहते हैं पर हम ने उन्हें क्या दिया या क्या देते हैं?

इन हालात के लिए गलती हमारी है. हम ने ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, शरीफ नेता, अफसर, शिक्षक, समाजसेवी के साथ व्यवहार ठीक नहीं किया. ऐसे में अगर लालू यादव जैसे नेताओं के घोटाले सामने आते हैं और उन्हें सजा मिलती है तो यह दोष घोटालेबाजों को क्यों दिया जाए? जब हम ने ईमानदार नेताओं और नौकरशाहों के लिए कुछ किया ही नहीं तो राजनीति व लोकसेवा के क्षेत्र में शरीफ लोग क्यों, कैसे आएंगे. फिर लालू यादव का क्या कुसूर है?

देश का रुदन भ्रष्टाचारियों, बेईमानों, घोटालेबाजों को ले कर तो है लेकिन ईमानदारों, शरीफों के साथ सितम किया जा रहा है. उन की उपेक्षा की जा रही है. कोई भी देश अच्छा, अपने नागरिकों की वजह से बनता है. नागरिक अच्छे हैं तो देश अच्छा होगा लेकिन जिस देश की रगरग में बेईमानी, भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता भरी हो वह ईमानदार नेताओं की उम्मीद करे, यह कैसे संभव है? ऐसे में अच्छे लोग कहां से आ पाएंगे जो देश को निष्पक्ष, ईमानदार और भ्रष्टाचारमुक्त नेतृत्व प्रदान करेंगे.

 

त्योहारों की उमंग जीवन में भरे रंग

भारतीय जनजीवन में त्योहारों और उत्सवों का आदिकाल से ही काफी महत्त्व रहा है. यहां मनाए जाने वाले सभी त्योहार मानवीय गुणों को स्थापित कर लोगों में प्रेम, एकता व सद्भावना को बढ़ाने का संदेश देते हैं. दरअसल, ये त्योहार ही हैं जो परिवारों और समाज को जोड़ते हैं. त्योहार हमारी संवेदनाओं और परंपराओं के ऐसे जीवंत रूप हैं जिन्हें मनाना या यों कहे कि बारबार मनाना हमें अच्छा लगता है क्योंकि अनोखे रंग समेटे त्योहार हमारे जीवन में उमंग और उत्साह की नई लहरों को जन्म देते हैं.

क्यों जरूरी हैं त्योहार

  1. त्योहार जीवन को खुशहाल व रिश्तों को मजबूत बनाने में एक अटूट कड़ी की भूमिका निभाते हैं.
  2. होली का त्योहार जहां मस्ती और मौज का संदेश देता है वहीं दीवाली अंधकार को दूर कर के जीवन में रोशनी भरने का.
  3. त्योहार अच्छा खाना, अच्छा पहनना, खुश रहने और जीवन को खुशनुमा बढ़ाने का श्रेष्ठ माध्यम होते हैं.
  4. ऐतिहासिक विरासत और जीवंत संस्कृति के सूचक ये त्योहार विदेशियों के समक्ष भी हमारे सरस और सजीले सांस्कृतिक वैभव का प्रदर्शन करते हैं और हमें गौरवान्वित होने का अवसर देते हैं.
  5. जीवन को नई ताजगी देते त्योहार जीवन में जीने का उत्साह और उल्लास का रंग भरते हैं जिस से जीने का हौसला दोगुना हो जाता है. रोजमर्रा की परेशानियों को भुला कर हमें सजनेसंवरने और नए स्वाद चखने का भी अवसर देते हैं ये त्योहार.

रोशनी का त्योहार

अमावस्या के अंधकार में ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ यानी अंधेरे से रोशनी की तरफ जाने का संदेश देता दीवाली का त्योहार आकाश में पटाखों की रोशनी  और समृद्धि की अभिव्यक्ति है. आशाओं के उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले इस त्योहार का महत्त्व जीवन के अनमोल पहलुओं से जुड़ा हुआ है. इस का उद्देश्य भाईचारे को बढ़ाते हुए एकदूसरे के दुखसुख का हमसफर बनना है.

नएपन का एहसास

बदलते समय के साथ बदल रहा है समाज और बदल रहा है त्योहारों को मनाने का अंदाज भी. ‘मैं तो लूंगा खीलखिलौने तुम भी लेना भाई’ की जगह अब औनलाइन गिफ्ंिटग, हाईटैक डिजिटल दीवाली और मौल संस्कृति का नया रूप देखने को मिल रहा है. आइए, नजदीक से देखें दीवाली के बदले रूप को.

औनलाइन गिफ्टिंग

उद्योग जगत के एक अनुमान के अनुसार, औनलाइन गिफ्ंिटग का बाजार 1,000 करोड़ रुपए से अधिक का है. औनलाइन गिफ्टिंग के जरिए दूर बैठे अपनों को उपहारों के जरिए दीवाली की खुशियां बांटने का यह माध्यम दिनोंदिन जोर पकड़ रहा है. गिफ्टिंग का यह बदला अंदाज दूरियों को नजदीकियों में बदलने का बेहतर माध्यम सिद्ध हो रहा है.

मिठाइयों, चौकलेट्स, कार्ड्स, फ्लावर बुके, ज्वैलरी, कौर्पोरेट गिफ्ट्स सभीकुछ औनलाइन शौपिंग साइट्स पर मौजूद हैं. इन साइट्स पर पीवीआर मूवी गिफ्ट कार्ड्स, कैफेकौफी डे गिफ्ट वाउचर्स, स्पा सैलून की अनेक स्कीम्स भी मौजूद हैं जिन्हें आप बस एक क्लिक पर अपनों को, वे चाहे कहीं भी हों उपहारस्वरूप दे कर उन की खुशियों में अपनी खुशियां ढूंढ़ सकते हैं.

बढ़ते उपयोगी उपहार

चौकलेट के विज्ञापनों ने भारतीय रिश्तों व परिवार के आपसी प्रेम को त्योहारों से जोड़ दिया है, फिर चाहे वह रोशनी का त्योहार दीवाली हो या भाईबहन के अटूट बंधन का रक्षाबंधन. विदेशी कंपनियां भारतीय त्योहारों को ध्यान में रख कर अपने प्रौडक्ट लौंच कर रही हैं. हाटबाजारों, मेलों की जगह मौल संस्कृति जन्म ले रही है. बाजारों में सस्ते और विभिन्न वैरायटी के इतने उपहार मौजूद हैं कि आप के लिए चुनना मुश्किल हो जाएगा. यह बदलाव व नयापन अच्छा तभी होगा जब वह समाज के हर वर्ग के हित में हो, विदेशी कंपनियों के कुचक्र में छोटे व्यापारियों के हितों की बलि न चढ़े और बाजारीकरण हावी न हो.

दीयों की रात वादों की सौगात

दीवाली की खुशियां आप की जिंदगी में ताउम्र बनी रहें, इस के लिए आप भी पूरे करें वे वादे जो आप को और आप के अपनों को सही माने में दीवाली की खुशियां दें.

बड़ों को खुशियां देने का वादा : रोहित के बुजुर्ग पिता घुटनों में दर्द की शिकायत से परेशान रहते थे. प्राइवेट नौकरी की भागदौड़ में रोहित समझ नहीं पा रहा था कि कैसे वह अपने पिता की तकलीफ दूर करे. ऐसे में रोहित के एक दोस्त ने उसे सलाह दी कि वह अपने पिता को एक मसाजर गिफ्ट करे. रोहित ने दोस्त की सलाह मान कर अपने पिता को मसाजर गिफ्ट किया. मसाजर से रोहित के पिता की तकलीफ दूर हो गई और रोहित को यह खुशी हुई कि उस ने अपने पिता के लिए कुछ किया.

दरअसल, कई बार नौकरी व व्यवसाय की भागदौड़ में हम उन की परेशानियों और जरूरतों को समझ नहीं पाते. ऐसे में छोटीछोटी बातों से कुछ ऐसा करें जिन से वे खुश रहें, वे खुश रहेंगे तो आप भी खुश रहेंगे.

बच्चों को समय देने का वादा : बच्चे हमारे जीवन की सब से बड़ी पूंजी होते हैं. उन के विकास के लिए हम उन्हें अच्छी शिक्षा, सुखसुविधाओं के साथसाथ समयसमय पर उपहार दे कर उन्हें खुशियां देने का प्रयास करते हैं. लेकिन कई बार हम उन की सब से जरूरी जरूरत यानी उन्हें समय देना भूल जाते हैं, उन के साथ हंसीखुशी के पल बांटना भूल जाते हैं. पेरैंटिंग का सब से जरूरी नियम है बच्चों की भावनात्मक जरूरतों को समझना, उन के विचारों, मनोभावों को जानना. 

स्वस्थ रहने का वादा : इस दीवाली आप खुद से एक वादा कीजिए कि आप अपने साथसाथ पूरे परिवार को फिट व हैल्दी रखने की जिम्मेदारी उठाएंगे यानी हैल्थ पर विशेष ध्यान देंगे.

देर से सोने व जागने की आदत को करेंगे अलविदा.

घर से बिना ब्रैकफास्ट किए नहीं निकलेंगे.

अतिरिक्त वजन घटाएंगे.

जंकफूड की जगह हैल्दी फूड को खानपान का हिस्सा बनाएंगे.

साल में 1 बार स्वास्थ्य जांच अवश्य कराएंगे.

मौर्निंग वाक और ऐक्सरसाइज को दिनचर्या का हिस्सा बनाएंगे.

ईकोफ्रैंडली दीवाली : जीवन से अंधेरे को दूर कर के रोशनी फैलाने वाले इस त्योहार पर आप खुद से वादा करें कि आप ‘सेव नेचर सेव लाइफ’ पर आधारित ईकोफ्रैंडली दीवाली मनाएंगे और पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त रखने में अपना योगदान देंगे.

  1. दीवाली सैलिबे्रशन का समय निर्धारित कर के मात्र 3-4 घंटे ही दीवाली मनाएंगे.
  2. ईकोफ्रैंडली पटाखों का इस्तेमाल करेंगे, कैमिकल बेस्ड पटाखों का इस्तेमाल नहीं करेेंगे. बिजली की झालरों की जगह परंपरागत मिट्टी के दीयों का इस्तेमाल करेंगे. इस से बिजली की बचत होगी.
  3. रंगोली में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करेंगे, जैसे सफेद रंग के लिए चावल पाउडर, लाल रंग के लिए कुमकुम, पीले के लिए हल्दी वगैरह.
  4. घर की सजावट ताजे गेंदे व रजनीगंधा के फूलों से करेंगे. आम के पत्तों व गेंदे के ताजे फूलों की बंदनवार से घर सजाएंगे.
  5. पटाखे अकेले अपने परिवार के साथ छोड़ने के बजाय दोस्तों, रिश्तेदारों के साथ मिल कर छोड़ेंगे.

बचत का वादा : दीवाली के नजदीक आते ही जहां एक ओर बाजार व शौपिंग मौल रंगबिरंगे उपहारों व सजावटी सामानों से भर जाते हैं वहीं कंपनियां इस समय विभिन्न औफर्स ला कर ग्राहकों को लुभाने का प्रयास करती हैं. नतीजतन, लोगों में ‘मौका भी है और दस्तूर भी’ की राह पर शौपिंग का क्रेज उमड़ने लगता है, जो बाद में जेब व बजट दोनों पर भारी पड़ता है. इसलिए इस दीवाली में खुद से वादा कीजिए कि व्यर्थ की फुजूलखर्ची करने के बजाय किफायत से काम लेंगे.

वैसे, ध्यान रखिए कि स्मार्ट होममेकर स्मार्ट चीजें ही खरीदते हैं. इस दीवाली फुजूलखर्ची न कर के आप ने जो बचत की है उसे विभिन्न निवेश प्लान में लगा कर घर और परिवार के भविष्य को सुरक्षित करेंगे और बचत में समझदारी के वादे को पूरा करेंगे.

दोस्तों से वादा : आज की व्यस्त जिंदगी में रिश्तों के साथ दोस्त भी कहीं पीछे छूट जाते हैं. तो इस दीवाली अपनेआप से वादा कीजिए कि दोस्तों के हमेशा टच में रहेंगे. अपने हर सुखदुख उन के साथ बांटेंगे. टच में रहने के लिए आप मैसेजेस, सोशल नैटवर्किंग साइट्स के साथसाथ महीने में 1 बार वीकेंड पर और त्योहारों पर गेटटुगेदर पार्टी का सहारा ले सकते हैं. पार्टी का आयोजन आप घर पर कर सकते हैं, इस से बचत तो होगी ही साथ ही, दोस्तों का एकदूसरे के परिवार से मेलजोल बढ़ेगा. ऐसी पार्टियों से पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं और माहौल खुशनुमा हो जाता है.

आडंबरों को न ढोने का वादा : दीवाली के दिन हर घर में जलने वाले दीये की रोशनी का उद्देश्य मन में छिपे व्यर्थ के अंधविश्वासों व आडंबरों को दूर करना है लेकिन व्यर्थ की पूजापाठ व पंडेपुजारियों के चक्कर में पड़ कर लोग मेहनत व ईमानदारी के बजाय ऐसे काम करते हैं जिन से वे अकर्मण्यता की ओर अग्रसर होते हैं. इस दीवाली आप वादा कीजिए कि आप अंधविश्वासों व आडंबरों के बजाय समाज की प्रगति में निवेश करेंगे. उदास चेहरों पर खुशियां ला कर दीवाली की जगमगाहट को और फैलाएंगे न कि व्यर्थ की परंपराओं को ढो कर खुशियों के त्योहार को बोझ बनाएंगे.

ये सारे वादे आप को न सिर्फ करने हैं बल्कि निभाने भी हैं. इन्हीं वादों के बीच एक वादा यह भी कि आप न सिर्फ दीवाली के दिन बल्कि हर दिन अपनेआप को प्रैजैंटेबल बनाए रखेंगे. खुद को खूबसूरत दिखने का कोई मौका न छोड़ेंगे. तो, इस तरह खुद से किए गए आप के ये वादे आप को सब की नजरों में प्रशंसा का पात्र बना देंगे और फिर आप को हर दिन हर पल खास नजर आएगा.      

हर साल नई आशा नई चुनौती : हर बार की तरह दीवाली एक बार फिर आ गई है. घर सज गए हैं, बाजारों में रौनक हैं, सभी जम कर खरीदारी कर रहे हैं, नए कपड़े, घर की साजसजावट, उपहारों का आदानप्रदान हो रहा है लेकिन इन सभी के बीच हर साल कुछ चुनौतियां और कुछ नई आशाएं होती हैं कि यह दीवाली पिछली दीवाली से और अच्छी हो, सब के चेहरों पर खुशियों की रोशनी जगमगाए लेकिन यह तभी होगा जब हम कुछ खास बातों का ध्यान रखें :

सेहत का न निकालें दिवाला : हर साल दीवाली पर मिठाइयों में मिलावट के अनेक मामले सामने आते हैं. खोये में मैदा, सिंथेटिक दूध, डिटर्जेंट पाउडर, यूरिया, चांदी के वर्क की जगह एल्यूमिनियम फौयल, नकली रंग का कैमिकल, सस्ती सैक्रीन जो एक प्रकार का कैमिकल होती है, का प्रयोग किया जाता है. जिस में लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ होता है और खुशियों का त्योहार दुख के मातम में बदल जाता है. त्योहारों के अवसर पर ऐसे अपराध समाज के लिए चुनौती हैं और उम्मीद करते हैं कि ऐसे अपराध करने वाले लोग दूसरों की जिंदगियों से नहीं खेलेंगे.

पर्यावरण के लिए चुनौती : दीवाली के अवसर पर पटाखों का शोर और उन से निकलने वाले हानिकारक धुएं से न सिर्फ पर्यावरण संबंधी समस्याएं जन्म लेती हैं स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ती हैं. डाक्टरों के अनुसार, 90 डैसीबल से अधिक तेज आवाज वाले पटाखे सुनने की शक्ति के लिए हानिकारक होते हैं जबकि दीवाली पर बिकने वाले अधिकांश पटाखे 120 डैसीबल से अधिक आवाज वाले होते हैं.

त्योहारों का रिश्ता सारे समाज से है उन्हें केवल निजी खुशियों तक सीमित न रख कर पूरे समाज के सुखदुख की दृष्टि से देखना ही लोगों के जीवन से अंधकार को दूर करेगा और जीवन में रंगों की रंगोली व खुशियों का प्रकाश फैलाएगा. 

निशाने पर बैटरी रिकशा

दिल्ली में आजकल बैटरी रिकशा तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं और बहुत सी जगह उन्होंने साइकिल रिकशों की जगह ले ली है. 4 सवारियों को बैठाने और प्रदूषण न फैलाने वाले ये रिकशा आटो रिकशा के मुकाबले ये बेहद सस्ते हैं. सब से बड़ी बात यह है कि ये रिकशा पैडल रिकशा के मुकाबले ज्यादा सभ्य हैं क्योंकि इन में गरमी में पसीने से तर, पतलादुबला रिकशे वाला मोटीमोटी सवारियों को खींचता नजर नहीं आता. लोग इन्हें पसंद कर रहे हैं क्योंकि इन पर चढ़ कर अमानवीय अपराधबोध नहीं होता.

लेकिन पुलिस और अफसरों को इन से बहुत शिकायत है. वे मोटर व्हीकल ऐक्ट का हवाला दे कर करों, लाइसैंसों से मुक्त इन रिकशाओं को कानूनों के दायरे में लाने की कोशिश कर रहे हैं. दिल्ली पुलिस ने बहुत से समाचारपत्रों को मोहरा बनाया है जो निरंतर इन के अवैध होने का रोना रो रहे हैं. बेहद हलके और धीमी गति से चलने वाले बैटरी रिकशा चाहे किसी को मार न सकें पर इन्हें परमिट, लाइसैंस, रोड टैक्स, ड्राइविंग लाइसैंस की चपेट में लाने की मांग की जा रही है.

यह मांग नितांत नाजायज है और केवल रिश्वत वसूली के लिए की जा रही है. देश में ऐसा कौन सा लाइसैंसशुदा काम है जो ढंग से चल रहा है. यहां चाहे फूड व ड्रग लाइसैंस हो, फैक्टरी लाइसैंस या मोटर व्हीकल लाइसैंस हो, इन का मकसद जिम्मेदारी समझाना नहीं, वसूली करना है.

हमारे यहां हर लाइसैंस देने वाले विभाग पर दलालों का कब्जा है जो अधिकारियों के लिए रिश्वत वसूलने का काम भी करते हैं. रिश्वत मिली तो हर काम जायज वरना गलत. लाइसैंस का इस देश में केवल एक मतलब है : लाइसैंस पाने वाले ने रिश्वत का भुगतान कर दिया है और इसे काम करने दें.

लाइसैंस हमारे यहां हाथ में कलेवा या माथे पर तिलक, सिर पर स्कल टोपी या गले में क्रौस की तरह है कि भुगतान हो चुका है, अब जीने दो. 3 पहिए वाले आटो रिकशों, टैंपो आदि पर उन की कीमत के दोगुने की रिश्वत देनी पड़ती है और फिर हर बार हफ्ता देना होता है. तभी आटोरिकशा वाले ज्यादा अकड़ दिखाते हैं. बैटरी रिकशा चूंकि रिश्वतखोरी की चपेट से बचे हैं, इसलिए सस्ते हैं.

वे इज्जतदार काम की इजाजत दे रहे हैं और सब से बड़ी बात यह है कि आम नागरिक को राहत दे रहे हैं. इन्हें कानूनी दायरों से दूर रखना चाहिए पर यह, इस देश में तो संभव नहीं है क्योंकि पुलिस और परिवहन दलालों का तंत्र जनतंत्र पर कई गुना भारी है.

समाजसेवा का मोल नहीं

सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यों ही बरबाद होती है. दुनिया के अधिकांश लोगों की जिंदगी यों ही दो वक्त के खाने, सिर पर छत का इंतजाम, बच्चों को पैदा व उन्हें बड़ा करने में बीत जाती है जबकि दुनिया में करोड़ों ऐसे हैं जिन्हें दूसरों से कुछ सहायता चाहिए ताकि वे अपने जीवन में वे खुशियां, चाहे थोड़ी सी ही, ला सकें जिन्हें आम सभ्य शिक्षित नागरिक प्रकृति की देन समझता है. हर वह जना जो हर सुबह यह सोचता है कि दिनभर सिवा अपने उबाऊ काम के क्या करे जो उसे जीवन का कुछ ध्येय दे सके, वह उन से सीखे जिन्होंने अपने साथ दूसरों के लिए कुछ किया.

समाजसेवा असल में खुद की सेवा है. आप अपने शरीर, अपनी बुद्धि, अपनी मेहनत, अपने पैसे से जब किसी का कोई अधूरा काम पूरा करते हैं तो खुद को बहुत कुछ सिखाते हैं. आप एक अंधे को रास्ता पार कराते हैं तो ही पता चलता है कि सड़क के ट्रैफिक से कैसे निबटा जाए. जब आप बीच रास्ते में खडे़ किसी और की गाड़ी का टायर बदलने में उस की सहायता करते हैं तो ही आप को पता चलता है कि टायर कैसे बदला जाता है, जब ट्रैफिक आजा रहा हो.

मानव ने प्रकृति पर जो विजय पाई है, वह उन लोगों के बलबूते पाई है जिन्होंने अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जंगल से निकलने का रास्ता ढूंढ़ा, खुद निशान बन कर दूसरों को समझाने की कोशिश की, आग जलाने की विधि खोजी, बीमारियों के इलाज के लिए दवाएं खोजीं आदि. यह काम खत्म नहीं हुआ है. तमाम खोजों, आर्थिक उन्नति के बावजूद कुछ लोग ऐसे रह गए हैं जो अपनी कमजोरी के कारण या किन्हीं दुर्घटनाओं के कारण पीछे ही हैं. उन्हें सहायता की जरूरत है.

सरकार ने 82 करोड़ लोगों का पेट भरने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून बनाया है. सवाल है कि इतने लोग भूखे रह क्यों गए? क्यों वे अपने लिए दो वक्त का खाना पैदा न कर सके? क्योंकि वे कुछ निकम्मे थे, कुछ का सबकुछ छीन लिया गया, कुछ शराबीनशेड़ी बन गए, कुछ बीमार हो गए. उन्हें आप की जरूरत है दलदल से निकलने के लिए. आप को उन की जरूरत है यह जानने के लिए कि दलदल से किसी को कैसे निकाला जाए और कैसे वहां न फंसा जाए.

दुनियाभर के सक्षम अमीर अब इस ओर ध्यान दे रहे हैं. मशहूर व्यवसायी बिल गेट्स और वारेन बफेट ने समाजवसेवी कार्यों में अपना पैसा लगाया है. भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन, भूतपूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर जनसेवा में समय लगा रहे हैं. अफसोस यह है कि हमारे नेता रिटायर हो कर जनसेवा नहीं करते, मरने तक वे अपने तन की सेवा में लगे रहते हैं.

खड़े होइए, कुछ करिए. घर के पास की सड़क साफ कर डालिए. नेकचंद की तरह नगर निगम के बाग में रौक गार्डन बना डालिए. पड़ोस के गांव में 2-4 घरों के बच्चों को पढ़ा डालिए. आसपास के किसी वृद्ध या आंटी की दवाएं लाने का जिम्मा उठा लीजिए. चिंता न करिए, यह घाटे का सौदा न रहेगा. इन कामों में जो तनमनधन लगाएंगे वे असीम शांति देंगे, आप का आत्मविश्वास बढ़ाएंगे. लोगों के तानों, तीखे शब्दबाणों को सहने की अच्छी आदत डालेंगे और आप के जीवन के खालीपन को भरेंगे.

 

सेना में भ्रष्टाचार

सैनिकों द्वारा शत्रु की सीमा में लूट तो हमेशा से की जाती रही है पर हाल में 2 मामले ऐसे आए हैं जिन में सेना के अफसर अपने देश में ही लूट मचा रहे हैं. यह पक्का है कि देश की सरकार और देश का कानून इन सैनिक अफसरों को अंतत: छोड़ ही देंगे और लूट जारी रहेगी.

पहला मामला पूर्व सेना प्रमुख विजय कुमार सिंह का है जिन पर आरोप है कि उन्होंने सेना के पैसे का दुरुपयोग जम्मूकश्मीर की सरकार को गिराने में किया. उन्होंने अपना खुद का गुप्तचर संगठन बना लिया था. वे अपने पर लगे आरोपों को छिपाने के लिए भारतीय जनता पार्टी में जा मिले हैं ताकि जो भी मामला सामने आए उसे झेलने के लिए भाजपा के नेता साथ आ जाएं. कहना न होगा कि उन की इस लूट का मामला 2-4 दिनों में रफादफा हो गया.

दूसरा मामला राजस्थान के जैसलमेर में तैनात एक ब्रिगेडियर विजय मेहता का है जिन पर आरोप है कि उन्होंने इलाके के एक गांव में बनी पत्थर की 2 छतरियों को तुड़वा कर अपने गुड़गांव के फार्महाउस में भेज दिया और वहां उन का पुनर्निर्माण करा लिया. उन्हें तोड़े जाने से पहले वह इलाका सैनिक प्रशिक्षण का क्षेत्र घोषित हो गया था. वहां गांव वालों का आनाजाना बंद हो गया था. ब्रिगेडियर महाशय अब उन की जगह नई छतरियां बनवाने को तैयार बताए जाते हैं. पुरानी छतरियां लगभग 400 साल पुरानी हैं.

अंगरेज देश से बहुत सी दुर्लभ चीजें लड़ाइयों में जीत कर इंगलैंड ले गए थे और वे वहां के संग्रहालयों व कुछ निजी घरों की शोभा बढ़ा रही हैं पर अंगरेज सैनिक तो पराए थे, शत्रु थे. देश की संपत्ति की रक्षा के लिए तैनात सैनिक खुद ही लूटपाट करें तो ऐसी करतूत जनता में सैनिकों के प्रति मौजूद विश्वास को ठेस पहुंचाती है.

सैनिकों को अभी भी बहुत आदर से देखा जाता है और सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार की अनदेखी की जाती है. सेना को मनचाहा बजट मिलता है और बड़े अधिकारी जब अरबोंखरबों के सौदे करते हैं तो आमतौर पर आम लोग ही नहीं, नेता और अदालतें चुप रहती हैं. मीडिया आमतौर पर सैनिकों को बख्श देता है, चाहे उस के पास भ्रष्टाचार के पूरे सुबूत हों. सैनिक अफसरों के बेटे विदेशों में किस तरह मौज करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है पर उस पर भी कुछ बोला नहीं जाता.

सेना जब पैसे से खेलेगी तो कुछ सैन्य अधिकारियों का मन डोलेगा ही, खासतौर पर जब पता हो कि कोई हिसाबकिताब नहीं रखा जा रहा. सेना की जमीनें भी बिकेंगी, खरीदी में रिश्वतें भी ली जाएंगी पर इस का मतलब यह नहीं कि सेना में लूट मचे और जनता एहसानों तले दबी रहे. सेना को अगर तीखी खोजी नजर से बचना है तो उसे खुद का दामन साफ रखना होगा. सेना बेईमानी कर के जनता का प्यार नहीं पा सकती. आज देश को शत्रु की उतनी चिंता नहीं, जितनी करों के जरिए जमा किए गए पैसों की बरबादी की है.

 

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