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खरबों की इंडियन सट्टा लीग

इंडियन प्रीमियर लीग सिर्फ क्रिकेट का खेल ही नहीं है बल्कि अरबों की पिच पर खेला जाने वाला सट्टेबाज खिलाडि़यों का बड़ा खेल भी है. नुक्कड़, कसबों से ले कर क्लब, पब और सफेदपोशों के अड्डों पर चलने वाले इस हाइटैक और देशव्यापी खेल की अंदरूनी पड़ताल कर रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.

तारीख 18 अप्रैल, 2013. जगह मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल. भीड़भाड़ वाले न्यू मार्केट में आईडीबीआई बैंक के नीचे गुमटियों में से एक में पान की दुकान, जिस के सामने की तरफ टीटी नगर थाना है, के पास 10-12 लोगों की भीड़ लगी थी. ये लोग कुछ लेने नहीं बल्कि सट्टा लगाने के लिए खड़े थे. दुकान में ऊपर की तरफ छोटा सा टीवी लगा था जिस में आईपीएल का मैच चल रहा है. मुकाबला दिल्ली डेयरडेविल्स और चेन्नई सुपर किंग्स टीमों के बीच था.

सड़क पर से जो लोग गुजर रहे थे. उन में से कुछ का ध्यान इस भीड़ की तरफ जाता है पर माजरा किसी को समझ नहीं आता. नजदीक जाने पर पता चला कि सट्टे के शौकीन दीनदुनिया से बेखबर अंदाजा लगाने का अपना कुदरती शौक गैर कानूनी तरीके से पूरा कर रहे हैं.  इन में से शायद ही किसी को मालूम रहा होगा कि चेन्नई सुपर किंग्स और दिल्ली डेयरडेविल्स क्या बला हैं और इन के कप्तान और खिलाड़ी कौन हैं.

बौलर रनअप लेता है तो हलचल मच जाती है. एक नौजवान शर्ट की जेब से 10 रुपए का नोट निकाल कर दुकानदार को देते हुए कहता है, चौका. दूसरा 20 रुपए का नोट थमाते हुए कहता है, विकेट. तीसरा 10 रुपए का नोट दे कर कहता है, खाली. चौथा 5 रुपए का नोट देते हुए कहता है, छक्का. अब तक बौलर ने बौल फेंक दी है जिस पर कोई चौका, छक्का तो दूर एक रन भी नहीं बना, न ही विकेट गिरा.  दुकानदार तीसरे आदमी को 20 रुपए वापस दे देता है यानी 10 रुपए का लाभ. बाकी तीनों अफसोस से सिर मलते फिर गेंदबाज को वापस जाते देखते अपनी जेबें टटोलने लगते हैं और दुकानदार नोट पेटी में डाल लेता है.

आधा घंटे खड़े रहने पर मोटा सा हिसाब यह लगाया जा सकता है कि तकरीबन 4-5 हजार रुपए इधर से उधर हो चुके हैं.  दुकानदार को कोई घाटा नहीं हुआ है बल्कि उस ने 3 हजार रुपए के लगभग कमा लिए हैं. 1-2 लोग ही 1000-500 रुपए जीत पाए हैं. दांव हर गेंद के पर लगता है. जो जीतता है यानी जिस का अंदाजा सही निकलता है उसे दोगुने पैसे वापस मिल जाते हैं. जिन का अंदाजा गलत निकलता है उन का पैसा दुकानदार का हो जाता है. जिन की जेब बिलकुल खाली हो जाती है वे यहां से खिसक लेते हैं और जिन की जेब में पैसा है वे बदस्तूर पूरी तल्लीनता से दांव लगाते रहते हैं.

आसपास की गुमटियों में ग्राहक बैठे खापी रहे थे. कुछ गौर से इस सट्टे को देख रहे थे पर बोल कुछ नहीं रहे थे. एक चाय वाले से बात करने पर पता चला कि पान की यह दुकान सट्टे के लिए मशहूर है जिस का रोजाना 5 घंटे में लाख 2 लाख रुपए का कारोबार हो जाता है. कुरेदने पर सीहोर से भोपाल आ कर रह रहा यह चाय वाला बताता है कि सामने थाने वालों को सब मालूम है.

हकीकत में सट्टा न्यू मार्केट का ही एक बड़ा कारोबारी चलवाता है जिस की पुलिस वालों से सैटिंग है और अकेले इस दुकान पर नहीं बल्कि इस बाजार के चारों तरफ कई दुकानों पर सट्टा चलता है. सट्टा लगाने वाले अधिकतर लोग दिहाड़ी मजदूर, खोमचे वाले, आटो रिकशा ड्राइवर और छात्र होते हैं. कुछ तो रोजाना नियम से आते हैं, जो कभी हारते हैं तो कभी जीतते भी हैं.

हिसाबकिताब बेहद साफ है जितनी रकम अंदाजा लगाते हुए लगाई जाती है उस की दोगुनी उसी समय वापस मिल जाती है. गलत अंदाजे पर पैसा दुकानदार का हो जाता है.

देशभर में इंडियन प्रीमियर लीग पर चल रहे अरबोंखरबों के सट्टे की यह बेहद छोटी शक्ल है और दिलचस्प इस लिहाज से है कि इस में भाव नहीं खुलते. एक गेंद पर औसतन लोग 80 रुपए लगाते हैं जिस में से जीतने वाले को 20 या 30 रुपए मिल जाते हैं बाकी 50-60 रुपए दुकानदार के हो जाते हैं, जो हकीकत में किसी बिल्डर, प्रौपर्टी डीलर या बड़े कारोबारी या अफसर का एजेंट होता है.  पैसा रात को उन के घर पहुंच जाता है जिस का 20 फीसदी एजेंट यानी दुकानदार को मिलता है. इस में तमाम खर्चे शामिल रहते हैं.

दांव लगाने वाले सटोरियों में से अधिकतर पर्ची वाले सट्टे के आदी हैं जो कल्याण का सट्टा खेलते हैं पर क्रिकेट के सट्टे का मजा कुछ और है क्योंकि इस में हाथोंहाथ नतीजा सामने आ जाता है और बारबार दांव खेलने का भी मौका मिलता है.

पूरे भोपाल में ऐसी तकरीबन 1 हजार दुकानें हैं जहां आईपीएल का सट्टा चल रहा है. कुछ में खुलेआम तो कुछ में चोरीछिपे सट्टा लगता है. इस में जरूरी नहीं कि दांव लगाने वाला सामने आए, वह मोबाइल पर सट्टा लगाता है.  छोटेबड़े अफसर, कारोबारी और दूसरे सफेदपोश लोग भी आईपीएल सीजन 6 के सट्टे में बराबरी के भागीदार हैं.

देश का शायद ही कोई बड़ा शहर होगा जहां इस खेल पर सट्टा न लग रहा हो.  

आईपीएल के इस सीजन पर सिलीगुड़ी से एक बड़ा बैटिंग ग्रुप पुलिस के हत्थे चढ़ा. इसी की निशानदेही पर कोलकाता पुलिस की खुफिया टीम ने दक्षिण कोलकाता के भवानीपुर में दबिश दे कर और भी कई गिरफ्तारियां कीं. सिलीगुड़ी के पुलिस कमिश्नर के अनुसार, ये लोग सिलीगुड़ी में बैठ कर ईडन गार्डन में खेले जा रहे मैच की बैटिंग किया करते थे. क्योंकि कोलकाता में आईपीएल को ले कर पुलिस की चौकसी के मद्देनजर सट्टेबाज अपने ‘औपरेशन’ के लिए सिलीगुड़ी को ज्यादा मुफीद समझते थे इसीलिए उन्होंने बैटिंग के लिए सिलीगुड़ी को चुना. सट्टेबाजों ने इस के लिए बाकायदा एक रजिस्टर बनाया हुआ था और वे ‘फेवरिट’ टीम के लिए औनलाइन रेट जारी किया करते थे.

मध्य कोलकाता के बड़ा बाजार इलाके के एक सट्टेबाज के अनुसार, कालेज और विश्वविद्यालय के छात्रों में इन दिनों कम समय में ज्यादा पैसा कमाने के लालच को देखते हुए सट्टेबाज उन्हें सट्टेबाजी के काम में लगाया करते हैं. यहां तक कि सट्टे पर रकम लगाने और एक का चार बनाने के लालच में छात्र महल्ले के महाजनों से कर्ज लेने से भी नहीं कतरा रहे हैं. एकाध मामले में पाया गया कि कर्ज की रकम न लौटा पाने पर छात्र घर छोड़ कर चले गए.

मजेदार बात यह है कि पश्चिम बंगाल ही नहीं, पड़ोसी देश बंगलादेश में बैटिंग की धूम मची हुई है. गौरतलब है कि कोलकाता नाइट राइडर्स और पुणे वारियर्स में बंगलादेश के शकिब अलहसन और तमिम इकबाल शामिल हैं. वे खेल रहे हों या न खेल रहे हों, पर बंगलादेश के गलीचौराहे, रेस्तरां और चायपान की गुमटियों में धड़ल्ले से सट्टा चल रहा है. एक सटोरिए की जबान से इस की बानगी देखिए, ‘‘जैसा कि आप लोग जानते हैं कि आईपीएल चालू है. अब आईपीएल हो या इंटरनैशनल, सभी मैचों में सट्टा लगता है, यह भी आप को पता होगा. अगर आप को इस खेल में दिलचस्पी है तो आप भी इस में सट्टा लगा सकते हैं. जहां तक रूल का सवाल है तो आप अपनी टीम सिलैक्ट कीजिए और उस पर पैसा लगाइए. पैसा मतलब ऐक्टिव पौइंट. अगर आप की टीम जीत जाती है तो जितना ऐक्टिव पौइंट अपनी टीम में लगाया है, उस का डबल एक्टिव पौइंट आप को मिलेगा. यानी 100 के 200. 200 के 400. ऐक्टिव पौइंट की लिमिट है 200, जितने एक्टिव पौइंट्स लगाना चाहते हैं, उतने पौइंट्स एसएमएस के जरिए, ट्विटर या फेसबुक के जरिए भेज दीजिए. फेवरिट टीम लिखें, स्पेस डालें और फिर ऐक्टिव पौइंट डालें. गेम मैच शुरू होने के 1 घंटा पहले शुरू हो कर मैच खत्म होने तक चालू रहेगा.’’

सट्टे का खेल

अगर आंध्र प्रदेश की बात करें तो सट्टा महानगरों से अब छोटे शहरों तक पहुंच गया है. बदलते वक्त के अनुसार सटोरियों ने अत्याधुनिक तकनीकें भी अपनाई हैं. पुणे, दिल्ली में बैठ कर लैपटौप के जरिए हैदराबाद, विजयवाड़ा, विशाखापट्टनम जैसे नगरों में एजेंटों के माध्यम से इस धंधे को अंजाम दिया जाता है.

हैदराबाद में हर दिन सैकड़ों क्लब, रेस्तरां खुल रहे हैं. वैसे तो यहां क्लब, पब, रेस्तरां में बड़ी स्क्रीन पर मैच दिखाने का चलन पहले से है. ज्यादातर इन्ही जगहों पर ही करोड़ों रुपयों का सट्टा चलता है.

इस खेल में युवा और रियल एस्टेट के व्यापारी ज्यादा दिखाई देते हैं. यहां स्क्रीन शो, सट्टे के साथ अश्लील नाचगाना भी होता है. लेकिन स्थानीय पुलिस या सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठाती क्योंकि ज्यादातर क्लब और सट्टे के अड्डे राजनीतिक या सामाजिक क्षेत्रों में कनैक्शन रखने वालों के होते हैं. इसलिए इन पर पुलिस भी हाथ डालने की हिम्मत नहीं जुटा पाती. इन दिनों इस धंधे में मोबाइल तकनीक का उपयोग ज्यादा हो रहा है. सटोरियों ने इंटरनैट से सट्टा लगा कर पैसों का लेनदेन भी औनलाइन कर दिया है.

आंध्र प्रदेश में हर साल सैकड़ों सटोरिए गिरफ्तार किए जाते हैं. छापेमारी के दौरान इन से लाखों रुपए बरामद होते हैं.

इनकम टैक्स अधिकारियों के अनुसार विश्व कप सीजन में 20 हजार करोड़ रुपयों तक का सट्टा लगता है तो इस में हैदराबाद और बाकी आंध्र प्रदेश के छोटे शहरों की भागीदारी 2 हजार करोड़ तक की हो सकती है.

आधुनिक तकनीक से चल रहा यह सट्टा पुलिस प्रशासन के लिए चुनौती है. हैदराबाद के डीसीपी इस बारे में कहते हैं कि कोई एक अड्डा है तो पुलिस उस पर नजर रख सकती है लेकिन लैपटौप और मोबाइल के जरिए चलने वाले सट्टे के इस धंधे पर रोक लगा पाना संभव नहीं दिखता.

भोपाल बस स्टैंड पर सट्टा खिलाने वाले एक एजेंट की मानें तो सट्टे का धंधा तकरीबन 60 अरब रुपए का है लेकिन आईपीएल में सट्टे के कारोबार का ठीकठाक आंकड़ा शायद ही कोई बता पाए. इस एजेंट के मुताबिक सब से ज्यादा सट्टा हैदराबाद में लगता है. इस के बाद अहमदाबाद, इंदौर और जयपुर आते हैं.  बड़े शहरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु और चेन्नई की बात अलग है वहां ज्यादातर लोग जीत हार पर दांव लगाते हैं.  

इस एजेंट के मुताबिक, आईपीएल सीजन 4 तक सट्टे का भाव मुंबई से आता था पर अब भोपाल जैसे शहर में ही सारा लेनदेन हो जाता है. पहले की तरह ‘उतारा’ यानी लाभ का हिस्सा इंदौर या मुंबई नहीं भेजना पड़ता. क्रिकेट का सट्टा अब झुग्गीझोंपडि़यों में भी लगने लगा है.  बड़े सटोरियों ने छोटे एजेंटों का जाल फैला दिया है जिन्हें खाईबाज कहा जाता है. इन लोगों का काम सट्टा लगवाना और इकट्ठा किया पैसा ‘सही जगह’ पहुंचाना होना है जिस के एवज में उन्हें रकम का इलाके के मुताबिक 6 से 12 फीसदी तक कमीशन मिलता है. लेनदेन में कोई बेईमानी नहीं करता.

यह ‘सही जगह’ कहां है, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं. भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर के एक बड़े कारोबारी की मानें तो यह जगह शायद मुंबई होनी चाहिए पर पुर्तगाल और लंदन से भी लेनदेन होता है. इस कारोबारी का यह भी कहना है कि विदेशों की तरह हमारे यहां भी सट्टे को कानूनी मंजूरी मिल जाए तो इस से दलाली खत्म हो जाएगी.

दलाली खत्म हो न हो पर बात वाकई समझ से परे है कि सट्टे को जुर्म क्यों माना जाए और जुर्म है भी तो कितनों को सजा मिलती है. सटोरियों पर गैंबलिंग ऐक्ट की धाराओं के तहत मामला दर्ज होता है जिन में वे जुर्माना दे कर छूट जाते हैं.

पुराने सटोरियों के बीच एक किस्सा बड़ी दिलचस्पी से चलन में है कि एक दफा सट्टा किंग रतन खत्री को प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी ने अपने पास बुला कर सट्टा बंद करने की गुजारिश की थी तो रतन खत्री ने तुरंत यह जवाब दिया कि आप सरकारी लौटरी बंद कर दीजिए, मैं सट्टा बंद कर दूंगा.

इस सच्चे या मनगढ़ंत किस्से में बात रतन खत्री की हाजिरजवाबी की कम सट्टे को ले कर कानूनी बेचारगी की ज्यादा समझ आती है. सरकार पैसा कमाने के लिए लौटरी चलाती है. उस का ही दूसरा रूप सट्टा है जो कानूनन जुर्म है. 

नंबर वाले सट्टे की तरह ही आईपीएल के सट्टे का भाव चंद मिनटों में देशभर में फैल जाता है. बढ़ती तकनीकी और साधनों के चलते अब दांव खेलने वालों का एजेंट या बुकी तक आना जरूरी नहीं रहा है. वे मोबाइल फोन पर सट्टा लगा सकते हैं. पैसों का लेनदेन कभी भी सहूलियत से हो जाता है.

ये हैं अड्डे

सट्टा खिलाना जितना आसान काम है उस से कहीं ज्यादा मुश्किल है सट्टा खिलाने के लिए महफूज जगह ढूंढ़ पाना.  सट्टे के खेल में आजकल बहुत ज्यादा भीड़ इकट्ठा नहीं होती क्योंकि यह हाईटैक हो गया है. मोबाइल और लैपटौप के जरिए महज 2 लोग करोड़ों का सट्टा संभाल सकते हैं.

मंझोले होटल सटोरियों की पसंदीदा जगह होते हैं जहां वे किराए पर कमरा ले कर इतमीनान से तमाम ऐशोआराम के बीच दांव लगवाते हैं और मैच खत्म होने के बाद हिसाबकिताब करते हैं.  पुलिस से बचने के लिए सटोरिए लगातार एक ही होटल में नहीं रहते बल्कि 2-4 दिन के अंतर से होटल बदल लेते हैं.  सटोरियों की दूसरी पसंदीदा जगह फार्म हाउस हैं जो आमतौर पर शहर से बाहर होते हैं.  आईपीएल के वक्त अंदाजा है कि देशभर में सटोरियों ने फार्म हाउस तगड़े भाड़े पर लिए. शहर से दूर पुलिस का खतरा कम रहता है और भीड़भाड़ भी नहीं रहती, इसलिए सटोरिए बेफिक्र रहते हैं.  भोपाल के ही एक पुलिस मुलाजिम की मानें तो बड़ी कंपनियों के दफ्तर व शोरूम में भी सट्टा लगता है.

भोपाल के सटोरियों ने नया रास्ता तलाशते हुए बड़ी गाडि़यों को इस का जरिया बनाया है. लंबीचौड़ी कारों में मोबाइल, लैपटौप और टीवी तक सटोरियों ने लगा रखे हैं. मैच शुरू होते ही ये सट्टा गाडि़यां हाइवे पर दौड़ना शुरू हो जाती हैं और मैच खत्म होने के बाद मुकाम पर वापस आ जाती हैं. पुलिस वालों को भनक भी नहीं लगती और करोड़ों का कारोबार हो जाता है. कार वाले सटोरिए कम आवाजाही वाली सड़कों को ज्यादा पसंद करते हैं जहां घंटा आधा घंटा कार बेखटके खड़ी भी की जा सकती हो. खानेपीने का तमाम सामान सटोरिए कार में रखते हैं.

अप्रैल के तीसरे हफ्ते में देशभर में दर्जनभर बड़े छापों में पकड़े गए सटोरियों में से अधिकतर होटलों में थे. दिल्ली सैंट्रल के डीसीपी आलोक कुमार की अगुआई में 17 अप्रैल को डाले गए एक छापे में 4 सटोरिए एक होटल से पकड़े गए थे.  इन सटोरियों से 3 लाख रुपए नकद के अलावा एक एलसीडी और 18 मोबाइल फोन जब्त किए गए थे.

तुलसीधर नाम का सटोरिया होटल का मैनेजर था. दूसरे 2 आरोपी, सुनील भारती और अरविंद कात्याल, जायदाद की खरीदफरोख्त का कारोबार करते हैं यानी प्रौपर्टी डीलर हैं.  ये लोग फोन पर सट्टे के भाव ले कर एजेंटों व पंटरों को बता रहे थे, एवज में उन्हें 6 फीसदी रकम मिल रही थी.  छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के टाटीबांध इलाके के एक होटल में छापा मार कर पुलिस ने 25 लाख रुपए बरामद किए. इस से पहले के छापों में भी इतनी ही नकदी पकड़ी गई थी.

रायपुर के छापे की एक दिलचस्प बात सटोरियों से एक सट्टा मशीन की भी जब्ती थी, जिसे खासतौर से सट्टे के लिए कंप्यूटर के माहिरों ने बनाया था. इस छोटी सी मशीन से दर्जनों मोबाइल फोन जुड़े रहते हैं. दिल्ली, छत्तीसगढ़ पर पड़े छापे इस बात की तस्दीक करते हैं कि सट्टे का यह खेल देश के हर कोने में चल रहा है. फिर चाहे वह बंगाल हो या आंध्र प्रदेश.

भाव का खेल

भोपाल की पान की दुकान और दिल्ली व रायपुर के होटलों के सटोरियों की गिरफ्तारी से एक बात और उजागर होती है कि आईपीएल 6 पर सट्टा 2 तरह से चल रहा है. पहला, भाव वाला और दूसरा, बिना भाव का, जो छोटी गुमटियों पर खेला जाता है.

भाव वाले सट्टे में भाव मैच शुरू होने के 2 घंटे पहले खुलता है और हर गेंद के साथ इस में उतारचढ़ाव आता रहता है.  सट्टे की भाषा के जानकार ही कारोबारी तरीके से सट्टा खेल पाते हैं, शौकिया खेलने वाले भी अपना दिमाग लगाते हैं.  जो टीम सब से कमजोर होती है उस का भाव सब से ज्यादा होता है. अभी तक कमजोर मानी जाने वाली टीमों का भाव 600 रुपए तक खुला है.

इस गेंद पर रन बनेगा, विकेट गिरेगा, चौका, छक्का पड़ेगा या 1, 2 व 3 रन बनेंगे, इन बातों पर भी दांव लगते हैं.  बौल, नो बौल होगी, इस पर भी लोग पैसा लगाते हैं. यानी एक गेंद ही करोड़ों की होती है तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक ओवर, एक मैच और पूरा आईपीएल कितने खरब रुपए का होगा.

सट्टा लगाने के आदी भोपाल के एक इंजीनियरिंग कालेज के छात्र की मानें तो सट्टा तो इस बात पर भी लगता है कि बल्लेबाज किस तरफ गेंद को खेलेगा औफ साइड में या औन साइड में, इस तरह के दांव में 1 के 4 रुपए मिलते हैं.

भाव भले ही मुंबई से आएं या मेलबौर्न, पुर्तगाल या लंदन से, हकीकत तो यह है कि भाव नाम की कोई चीज अब क्रिकेट के सट्टे में रही ही नहीं है.  अगर दांव लगाने वाला यह कहता है कि टीम ए जीतेगी तो उसे हजार के डेढ़ हजार रुपए ही मिलते हैं. हार जाए तो हजार रुपए डूब जाते हैं.

मजा हर गेंद वाले सट्टे पर आता है. इस पर ही दांव ज्यादा लग रहे हैं. मसलन, विराट कोहली, सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धौनी या क्रिस गेल जैसे धाकड़ बल्लेबाज क्रीज पर हों तो हर गेंद पर चौका लगने पर दांव लगता है जिस में दोगुने पैसे मिलते हैं. एक बल्लेबाज औसतन 30 गेंदें खेले तो औसतन 5 चौके ही मार पाता है. बाकी 25 गेंदों का पैसा खाईबाज की जेब में जाता है. यानी जोखिम का कोई रोल खाईबाजों के लिहाज से इस सट्टे में नहीं है.

कानून का जोर नहीं

आईपीएल 6 में देशभर में धड़ल्ले से खुलेआम सट्टा चल रहा है, जिस के बारे में कहा यह भी जाता है कि इसे बड़े उद्योगपति, अंडरवर्ल्ड के डौन और फिल्म वालों के अलावा खुद कुछ क्रिकेटर भी खिला रहे हैं.

आम लोगों की दिलचस्पी सट्टे में है. यह आम लोगों की अंदाजा लगाने की फितरत है जिस पर कानून का कोई जोर नहीं चलता. चूंकि सट्टा खिलाना जुर्म है इसलिए लोग पकड़े जाते हैं. बीते 30 सालों से क्रिकेट के सटोरिए पकड़े जा रहे हैं पर सट्टा बंद होने का नाम नहीं ले रहा, उलटे बढ़ता जा रहा है. अब तो औरतें भी इस में भागीदार हो चली हैं.

अरबों के सट्टे से फायदा दलालों, बुकियों और पैसे वालों को होता है. बड़ा हिस्सा पुलिस वालोें को भी मिल जाता है.

जब सट्टा लौटरी की तरह बंद नहीं हो सकता तो इसे कानूनी मंजूरी देने में हर्ज क्या है, इस सवाल पर सरकार को बेहद संजीदगी से विचार करना चाहिए विदेशों की तरह सट्टे को अगर लाइसैंसशुदा खेल बना दिया जाए तो उस से आमदनी सरकार की भी बढ़ेगी और कइयों को रोजगार भी मिलेगा. जब सरकार जुआघरों को लाइसैंस दे सकती है, घुड़दौड़ को मान्यता दे सकती है तो सट्टे को क्यों नहीं?

  -साथ में साधना शाह और जी कोटि रेड्डी

धर्म और भेदभाव

सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को नोटिस दिया है कि वे नफरत पैदा करने वाले?भाषणों पर किस तरह से रोक लगा रही हैं या लगा सकती हैं. सर्वोच्च न्यायालय के पास यह मामला महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे के उन भाषणों के कारण पहुंचा जिन में वे गैरमहाराष्ट्रियनों के खिलाफ बोलते रहते हैं.

पहले बाल ठाकरे और अब राज ठाकरे मुंबई व महाराष्ट्र में दक्षिण भारतीयों और बिहारियों के खिलाफ भेदभाव फैलाने में हमेशा चर्चा में रहे हैं. 

इसी तरह हिंदू व मुसलिम नेता अपने समर्थकों को पक्का करने के लिए एकदूसरे पर छींटाकशी करते रहते हैं. देश की एकता की परवा किए बिना केवल अपने हितों के लिए बैरभाव पैदा करना किसी के लिए भी अच्छा नहीं है क्योंकि अंतत: इस से कुछ हल नहीं होता.

पर सवाल है कि बैरभाव के बीज बोए कहां जाते हैं? ये न स्कूलों में बोए जाते हैं, न कालेजों में और न दफ्तरों में. इन सब जगह लोग हर तरह के लोगों के साथ काम करने को तैयार रहते हैं.

असल में भेदभाव मंदिरों, मसजिदों, चर्चों, गुरुद्वारों में सिखाया जाता है. वहां एक ही धर्म के लोग जाते हैं और सिद्ध करते हैं कि हम दूसरों से अलग हैं. धर्म के रीतिरिवाज ही एकदूसरे को अलग करते हैं. धर्म के नाम पर छुट्टियों में एक वर्ग घर पर बैठता है और दूसरा बढ़चढ़ कर पूजापाठ के लिए धर्मस्थल को जाता है. पहनावा भी धर्म तय करता है, जो अलगाव दर्शाता है. कुछ कलेवा बांधे टीका लगाए घूमते हैं तो कुछ टोपी पहनते हैं तो कोई पगड़ी बांधता है. संविधान की धज्जियां तो ये भेदभाव उड़ाते हैं.

जो नेता बैरभाव की बातें करते हैं वे यहीं से सीख कर आते हैं. अपने धर्मस्थलों की भीड़ देख कर उन का जोश चौकड़ी भरने लगता है. हम ही सब से अच्छे हैं, बाकी सब जाहिल. इन्हें रोकना है तो जेल भेजने की बात न करो, अलगाव की अफीम उगाने की खेती बंद करो. पर क्या यह हो सकेगा? न जाने क्यों, न केवल भारत बल्कि दुनियाभर में धर्म को मौलिक हक दिया गया है जबकि यह मौलिक झगड़े की जड़ है.

कानून, अपराध और नाबालिग

आमतौर पर कानून 18 साल से कम उम्र की आयु के अपराधियों को अबोध मानता है जिन्हें अपराध करने पर सजा नहीं मिलती, सुधारगृह में भेजा जाता है. यह बात दूसरी है कि सुधारगृह भी जेलों की तरह चलते हैं जहां क्रूरता, वहशीपन, मारपीट, समलैंगिक संबंध, अत्याचार सबकुछ सहना पड़ता है. हां, उन्हें 18 वर्ष होने पर छोड़ दिया जाता है. आमतौर पर उन्हें मातापिता की गारंटी पर घर जाने की छूट मिलती रहती है.

16 दिसंबर, 2012 को हुए दिल्ली के गैंगरेप कांड में सब से ज्यादा हिंसा उस लड़के ने दिखाई जो 18 साल से कम उम्र का है और जो अब जेल में नहीं एक  सुधारगृह में है और उस पर सामान्य कानूनों के अंतर्गत मुकदमा नहीं चल रहा. देशभर में अपराध करने वालों में से एक बड़ी संख्या इन 18 वर्ष से कम उम्र वालों की है. वे अपराध कर के बच न निकलें, इस के लिए एक संसदीय समिति बालक की परिभाषा पर विचार कर रही है.

यह ठीक है कि स्कूलों, कालेजों और सड़कों व घरों में 18 वर्ष से कम उम्र के उद्दंड बच्चों की कमी नहीं है जो हिंसा ही नहीं, क्रूरता पर उतर आते हैं. उन्हें साधारण कानूनों के तहत न ला कर जनता को असहाय बनाया जा रहा है. कल्पना करिए उन मातापिता की जिन की 16 वर्ष की लड़की को 16 वर्ष के 4 लड़के उठा कर ले गए हों और कई दिन तक बलात्कार करते रहे हों.

उस 12 वर्षीय लड़की के सौतेले पिता की सोचिए जिसे मारने के लिए लड़की ने जहर वाला खाना दिया हो या उस 15 वर्षीय लड़के की जो एक जौहरी की दुकान से जेवर उठा कर भाग गया हो. क्या इन  अपराधियों को छोड़ दिया जाए?

समाजशास्त्रियों का मानना है कि इन बाल अपराधियों को बच्चा ही समझा जाए. ये अबोध ही हैं. ये आवेश या गुस्से में आ कर अपराध करते हैं. अपराध इन का व्यवसाय या कैरियर नहीं होता. ये या तो मातापिता की अवहेलना के शिकार होते हैं या ऐसे माहौल की देन जो बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं है.

इन मामलों में दोषी अपराधी के मातापिता और संरक्षक हैं जो नहीं जानते कि अपने बड़े होते बच्चों को कैसे पालें. जिन घरों में अपराधों को सामान्य मान्यता मिली हो, मातापिता झगड़ालू, मारपीट करने वाले हों, शराब के दौर चलते हों, वहां अगर बच्चे अपराध का रास्ता अपना लें तो दोषी कोई और ठहराया जाएगा. आज का कानून सही है, चाहे समाज को कुछ भी भुगतना पड़े, अपना आक्रोश दर्शाने के लिए कानून बदलना गलत होगा.

कोरी ताकत का राज

कोलगेट यानी कोयला घोटाले में केंद्रीय जांच ब्यूरो की भूमिका को स्पष्ट करने के लिए कानूनमंत्री रह चुके अश्विनी कुमार और जांच ब्यूरो के प्रमुख रणजीत सिन्हा को धन्यवाद देना चाहिए. रणजीत सिन्हा ने साफ कह दिया कि चूंकि केंद्रीय जांच ब्यूरो केंद्र सरकार का ही विभाग है इसलिए मंत्रियों व बाबुओं को केंद्रीय जांच ब्यूरो को निर्देश देने और उस की रिपोर्टों को देखने का पूरा हक है.

भूतपूर्व कानून मंत्री ने साफ कर दिया था कि इस देश में राजा मालिक है और राजा हर दोष से ऊपर है. वह गलती कर नहीं सकता और अगर गलती करे तो पकड़ा नहीं जा सकता. कोई अगर इस गलतफहमी में था कि यहां संविधान के अनुसार कानून का राज है तो वह गलतफहमी दूर कर ले.

सर्वोच्च न्यायालय जो भी फैसला कर ले, वह भी पत्थर पर लिखे इस सत्य को बदल नहीं सकता कि केंद्रीय जांच ब्यूरो स्वतंत्र रूप से काम कर सकता है और स्वयं निर्णय ले सकता है. सर्वोच्च न्यायालय का काम कानून बनाना नहीं है, बने कानूनों की व्याख्या करना है और अगर जांच ब्यूरो पर सरकार का शिकंजा कानून ने दिया है तो सर्वोच्च न्यायालय केंद्रीय जांच ब्यूरो के द्वारा लिए फैसलों या की गई जांचों को गैरकानूनी ठहरा सकता है पर उसे सही जांच करने का आदेश नहीं दे सकता.

केंद्रीय जांच ब्यूरो का उपयोग भरपूर तरीके से शासकों द्वारा किया जा रहा है. जब भी केंद्र सरकार पर कोई गहरी आंच आती है, जांच ब्यूरो को सक्रिय कर दिया जाता है. कोई भी सक्षम नागरिक या नेता, जो केंद्र सरकार को चुनौती देने का साहस रखता है, कुछ न कुछ तो ऐसा कर बैठता है जो कानूनी रूप से अपराध न हो फिर भी गलत हो सकता है. अपनी अपार शक्ति, पैसे, पुलिस अधिकारों के कारण केंद्रीय जांच ब्यूरो कुछ न कुछ चुनौती देने वाले के खिलाफ ऐसा निकाल लेगा कि वह मुंह बंद करने को मजबूर हो जाए.

कितने ही नेता, कितने ही उद्योगपति और ऐक्टिविस्ट अगर चुप हो जाते हैं तो केंद्रीय जांच ब्यूरो के डर के कारण और कोयला खानों को मनमरजी से अलौट करने के मामले में तैयार की गई ब्यूरो की रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में पेश करने से पहले मंत्री को दिखाना कोई नई या पहली बात नहीं है. यह सिर्फ एक सच को स्वीकारना है.

देश में राजनीति में आने के लिए जो आपाधापी होती है उस का कारण ही यह है कि यहां चाहे जो नेता, मंत्री या अफसर बन जाए, वह यह जानता है कि न थानेदार और न ही सीबीआई उस का कुछ बिगाड़ सकती है. आप अपने वोट, स्वतंत्र प्रैस, अदालतों के अधिकारों का चाहे जितना गाल बजा लें, सच यह है कि नेतागीरी में पैसा भी है, सुरक्षा भी है.

दंभियों के हाथ शासन

कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की हार का अनुमान पार्टी को पहले से ही था और उस के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कई साल पहले साफ कह दिया था कि माइनिंग ठेकेदारों को अरबों बनवाने के आरोपों से घिरे उस के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा को पद छोड़ना ही होगा चाहे कर्नाटक भाजपा के हाथ से निकल जाए. भाजपा को उम्मीद थी कि वह 10-20 सीटों को खोएगी पर परिणामों ने 70 सीटें छीन कर उस को सकते में डाल दिया.

भारतीय जनता पार्टी कहती रहे कि यह नुकसान येदियुरप्पा द्वारा अपनी कर्नाटक जनता पक्ष पार्टी बनाने के कारण हुआ पर यह तो पक्का है कि जो वोट येदियुरप्पा को मिले वे भारतीय जनता पार्टी की नीतियों के तो नहीं थे. येदियुरप्पा किसी भी तरह से महान भारतीय संस्कृति का ढोल नहीं बजा रहे और न ही मुसलिम दलित विरोध की छाप उन में है.

कर्नाटक में जीत कर कांग्रेस में कोई खास खुशी नहीं, सिर्फ संतोष है कि एक और बार पिटने से बचे. कांग्रेस के नेता वैसे ही आरोपों से घिरे हैं. अदालतों में रोज फटकार पड़ रही है और लोकसभा व राज्यसभा में जवाब देने को उन के पास शब्द नहीं रहते. आम जनता बेईमानी के कांडों से त्रस्त है और उस की हालत उस मेमने की तरह है जो शेर के पंजों में फंस गई है. 2014 में कांग्रेस का साथ जनता खुशीखुशी देगी, इस का?भरोसा तो कर्नाटक की जीत भी नहीं दिला सकती.

कर्नाटक में कांग्रेस की सीटें 42 बढ़ गईं पर उसे मतप्रतिशत में केवल 1.86 प्रतिशत की वृद्धि मिली है. यानी भाजपा से परेशान मतदाता भी कांग्रेस पर भरोसा नहीं कर रहे.

कांग्रेस के लिए साल के अंत तक मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, छत्तीसगढ़  विधानसभाओं के चुनाव भी चुनौतियां रहेंगे पर कर्नाटक की जीत का मतलब है कि कांग्रेसी चुनावी दंगल में कम से कम मुंह लटका कर नहीं उतरेंगे.

अफसोस की बात है कि चुनावी प्रणाली अच्छे, शरीफ नेताओं को उतारने का काम बिलकुल नहीं कर पा रही. जनता के पास पर्याय नहीं होता या जनता जानबूझ कर बेईमानों का साथ देती है. कुछ भी कहिए पर चुनावी आंच में से जली लकड़ी, जो काली हो चुकी है, निकल रही है, लोहा फौलाद बन कर नहीं निकल रहा. चुनाव सही नेता नहीं, बेईमान व भ्रष्ट नेता पैदा कर रहे हैं. देश का शासन जनप्रतिनिधियों के नहीं क्रूर, दंभी, जनस्वामियों के हाथों में बंध गया है

पाकिस्तान में चुनाव

पाकिस्तान में चुनावों के जरिए सत्ता बदली, टैंकों और बंदूकों के बल पर नहीं, यही इस चुनाव की खासीयत रही है जिस में नवाज शरीफ की पार्टी बहुमत के करीब पहुंची. आखिरी दिन तक लग रहा?था कि कहीं कोई ऐसी बात न हो जाए कि चुनावों का रंग बेरंग हो जाए जैसे पिछले चुनावों से पहले बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गई थी. चुनावों में आम लोगों की हत्याएं तो हुईं पर नेताओं में से सिर्फ इमरान खान के एक स्टेज से खुदबखुद गिर कर गहरी चोट लगने से थोड़ी चिंता हुई.

भारत के लिए पाकिस्तान में शांति और लोकतंत्र बहुत जरूरी है क्योंकि वर्ष 1947 के विभाजन के बाद दोनों देशों की राजनीति की धुरी में पाकिस्तान रहा है. कश्मीर का मसला तो गंभीर है ही, पाकिस्तान का लगातार भारत में आतंकी भेजना भारत की शांति के लिए खतरा बना हुआ है. लोकतंत्रों में आमतौर पर शासकों के अपने खुद के ही इतने पचड़े होते हैं कि वे दूसरों के कामों में दखल कम देते हैं.

पाकिस्तान में लोकतंत्र और कानून का राज होने का मतलब है कि वहां सेना और मुल्ला की ताकत कम होना जो दोनों ही भारत के बहाने अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं. इस बार के चुनावों में न तो भारत को ज्यादा कोसा गया और न ही कश्मीरी लौलीपौप दिलाने की लंबीचौड़ी बात की गई. लोगों की मांग बिजली, व्यवस्था, गरीबी, नौकरियां आदि की रही.

जब जनता की सुनी जाने लगे तो सरकार के हाथ निरर्थक कामों से हट जाते हैं. रिश्वतखोरी तो चलेगी, बेईमानी भी होगी पर देश का पैसा बेकार में अफगानिस्तान या भारत में आग लगाने में इस्तेमाल न होगा. अगर नवाज शरीफ अपने वादे के अनुसार देश में प्रधानमंत्री का राज चला सकें और सेना को दखल न देने दें तो दुनिया का सब से खतरनाक देश कुछ चमक दे सकेगा और भारत राहत की सांस ले सकेगा.

 

कुछ पुराने पत्र

कुछ पुराने पत्र मैं
रातभर पढ़ता रहा
एक युग मेरी आंखों में
चलचित्र सा चलता रहा

मैं समझा था समझ लोगे
मगर तुम कब समझ पाए
मगर क्यों दोष दूं तुम को
हम भी तो न कह पाए

जो भेज न पाए जिन्हें
लिखलिख कर मैं रखता रहा
कुछ पुराने पत्र मैं
रातभर पढ़ता रहा

तुझे चाहत तो थी मेरी
मुझे चाहत थी बस तेरी
मगर कर न सका पूरी
वो जो शर्त थी तेरी

धनुष तेरे स्वयंवर का
मैं दूर से तकता रहा
कुछ पुराने पत्र मैं
रातभर पढ़ता रहा.

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