आमतौर पर कानून 18 साल से कम उम्र की आयु के अपराधियों को अबोध मानता है जिन्हें अपराध करने पर सजा नहीं मिलती, सुधारगृह में भेजा जाता है. यह बात दूसरी है कि सुधारगृह भी जेलों की तरह चलते हैं जहां क्रूरता, वहशीपन, मारपीट, समलैंगिक संबंध, अत्याचार सबकुछ सहना पड़ता है. हां, उन्हें 18 वर्ष होने पर छोड़ दिया जाता है. आमतौर पर उन्हें मातापिता की गारंटी पर घर जाने की छूट मिलती रहती है.

16 दिसंबर, 2012 को हुए दिल्ली के गैंगरेप कांड में सब से ज्यादा हिंसा उस लड़के ने दिखाई जो 18 साल से कम उम्र का है और जो अब जेल में नहीं एक  सुधारगृह में है और उस पर सामान्य कानूनों के अंतर्गत मुकदमा नहीं चल रहा. देशभर में अपराध करने वालों में से एक बड़ी संख्या इन 18 वर्ष से कम उम्र वालों की है. वे अपराध कर के बच न निकलें, इस के लिए एक संसदीय समिति बालक की परिभाषा पर विचार कर रही है.

यह ठीक है कि स्कूलों, कालेजों और सड़कों व घरों में 18 वर्ष से कम उम्र के उद्दंड बच्चों की कमी नहीं है जो हिंसा ही नहीं, क्रूरता पर उतर आते हैं. उन्हें साधारण कानूनों के तहत न ला कर जनता को असहाय बनाया जा रहा है. कल्पना करिए उन मातापिता की जिन की 16 वर्ष की लड़की को 16 वर्ष के 4 लड़के उठा कर ले गए हों और कई दिन तक बलात्कार करते रहे हों.

उस 12 वर्षीय लड़की के सौतेले पिता की सोचिए जिसे मारने के लिए लड़की ने जहर वाला खाना दिया हो या उस 15 वर्षीय लड़के की जो एक जौहरी की दुकान से जेवर उठा कर भाग गया हो. क्या इन  अपराधियों को छोड़ दिया जाए?

समाजशास्त्रियों का मानना है कि इन बाल अपराधियों को बच्चा ही समझा जाए. ये अबोध ही हैं. ये आवेश या गुस्से में आ कर अपराध करते हैं. अपराध इन का व्यवसाय या कैरियर नहीं होता. ये या तो मातापिता की अवहेलना के शिकार होते हैं या ऐसे माहौल की देन जो बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं है.

इन मामलों में दोषी अपराधी के मातापिता और संरक्षक हैं जो नहीं जानते कि अपने बड़े होते बच्चों को कैसे पालें. जिन घरों में अपराधों को सामान्य मान्यता मिली हो, मातापिता झगड़ालू, मारपीट करने वाले हों, शराब के दौर चलते हों, वहां अगर बच्चे अपराध का रास्ता अपना लें तो दोषी कोई और ठहराया जाएगा. आज का कानून सही है, चाहे समाज को कुछ भी भुगतना पड़े, अपना आक्रोश दर्शाने के लिए कानून बदलना गलत होगा.

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