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यह जवानी है दीवानी

यह फिल्म पूरी तरह से युवाओं के लिए है. इस में मस्ती है, रोमांस है, फन है, ऐडवैंचर है, डांस है, मस्त म्यूजिक है. कहने को तो इस फिल्म का निर्देशक अयान मुखर्जी है लेकिन यह करण जौहर की फिल्म ज्यादा नजर आती है, जो इस फिल्म का निर्माता है. 5 साल बाद परदे पर आई रणबीर और दीपिका की जोड़ी ने इस फिल्म में अपना जलवा बखूबी बिखेरा है. ‘यह जवानी है दीवानी’ एक लवस्टोरी पर बनी फिल्म है. लव स्टोरीज पर बनी ज्यादातर फिल्में सफल रही हैं. इस सब्जैक्ट पर बनने वाली फिल्में को रोमांस, ऐक्शन, मेलोड्रामा और डांस व गानों से सजा कर पेश किया जाता है. इसीलिए ये फिल्में अच्छाखासा मुनाफा कमा जाती हैं. निर्देशक ने फिल्म को रोचक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. उस ने पूरी कोशिश की है कि दर्शकों को ऐंटरटेनमैंट की पूरी डोज मिले. हिमाचल प्रदेश और यूरोप की खूबसूरत लोकेशनें फिल्म का प्लस पौइंट हैं.

फिल्म की कहानी 4 दोस्तों, कबीर थापर उर्फ बन्नी (रणबीर कपूर), अवि (आदित्य राय कपूर), नैना तलवार (दीपिका पादुकोण) और अदिति (कल्कि कोचलिन) की है जो ट्रैकिंग के लिए मनाली जाते हैं. बन्नी को मौजमस्ती करना ज्यादा पसंद है जबकि नैना अपने आप में ही सिमट कर रहने वाली लड़की है. लेकिन मनाली पहुंचने पर जब वह खुली हवा में सांस लेती है तो मानो उसे पर लग जाते हैं. उसे लाइफ में पहली बार ऐंजौय करने का मौका मिलता है. उधर बन्नी अपने सपनों को पूरा करने में यकीन करता है. वह शादी करने में विश्वास नहीं करता. इस ट्रिप के दौरान बन्नी और नैना एकदूसरे के नजदीक आते हैं.

लेकिन बन्नी अपने अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए यूरोप चला जाता है.

8 साल बाद जब वह अदिति की शादी में लौटता है तो उस की मुलाकात फिर से नैना से होती है. इन दोनों में एक बार फिर से प्यार हो जाता है.

फिल्म की यह कहानी पूरी तरह से बन्नी और नैना के रिश्तों के इर्दगिर्द बुनी गई है. इन किरदारों में दीपिका और रणबीर की कैमिस्ट्री खूब जमी है. मध्यांतर तक फिल्म की गति तेज बनी रहती है. मनाली मेें दीपिका और रणबीर का मस्ती करना सुहाता है. लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म की गति एकदम धीमी हो जाती है और फिल्म का आकर्षण कम होने लगता है. फिल्म के आखिरी 15-20 मिनट में इन दोनों किरदारों में फिर से रोमांस का जज्बा पैदा होना फिल्म में फिर से आकर्षण को जगाता है. फिल्म का निर्देशन काफी हद तक अच्छा है. निर्देशक अगर अदिति की शादी के फंक्शन को लंबा न खींचता तो ज्यादा अच्छा होता.

फिल्म में रणबीर कपूर एकदम नैचुरल लगा है. ‘बदतमीज…’ गाने में उस ने अपने चाचा शम्मी कपूर की यादें ताजा कर दी हैं. उस ने मस्ती भी की है और?भावुक दृश्य भी दिए हैं. दीपिका पादुकोण भी स्वाभाविक लगी है. मोटे फ्रेम के चश्मे में वह खूबसूरत लगी है. होली वाले गाने में उस ने जम कर मस्ती की है. कल्कि कोचलिन ने टौमबौय की?भूमिका की है. कल्कि और आदित्य राय कपूर कहानी को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं.

फिल्म के संवाद अच्छे हैं. रणबीर कपूर और कल्कि कोचलिन के द्वारा बोले गए संवादों पर दर्शकों के चेहरों पर मुसकराहट आती है. मारधाड़ के दृश्यों में कौमेडी भी है.

फिल्म का संगीत प्रीतम ने दिया है. कई गाने तो फिल्म के रिलीज होने से पहले ही लोगों की जबान पर चढ़ चुके थे. ‘बलम पिचकारी…’ और ‘बदतमीज दिल…’ गाने दर्शकों को झुमाने वाले हैं. माधुरी दीक्षित का एक आइटम सौंग ‘घाघरा…’ भी है. इस गाने में रणबीर कपूर ने माधुरी के साथ डांस किया है और जमा है.

फिल्म का छायांकन अच्छा है. मध्यांतर से पहले छायाकार ने पहाड़ों पर फैली बर्फ के नजारे दिखाए हैं तो मध्यांतर के बाद उदयपुर की सैर करा दी है.

 

हर औरत का दर्द मीना कुमारी का दर्द है

मीना कुमारी के मुरीदों की आज भी कमी नहीं है. उन्हीं में से एक हैं, दिल्ली में पलीबढ़ी और फिल्म व टीवी के माध्यम से शोहरत बटोरने वाली अभिनेत्री रूबी एस सैनी. वे बचपन से मीना कुमारी की फिल्में देखती आई हैं. वे अब बतौर लेखक, निर्माता, निर्देशक, कौस्ट्यूम डिजाइनर व अभिनेत्री रंगमंच पर एक अनूठा नाटक ‘एक तनहा चांद’ ले कर आई हैं. रूबी की जिंदगी के बारे में शांतिस्वरूप त्रिपाठी ने उन से बातचीत की. पेश हैं खास अंश.

आप अपनी अब तक की अभिनय यात्रा को ले कर क्या कहेंगी?

मेरी शिक्षादीक्षा दिल्ली के मध्यमवर्गीय परिवार में हुई. मेरी मम्मी को मीना कुमारी की फिल्में बहुत पसंद थीं. इसलिए धीरेधीरे मैं भी भावनात्मक स्तर पर मीना कुमारी से जुड़ती चली गई. जब अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा तो मुझे लगा कि मीना कुमारी पर कुछ करना चाहिए. लेकिन उस से पहले मैं ने दिल्ली में रहते हुए दूरदर्शन के कई सीरियलों में अभिनय किया. फिर 2007 में मैं मुंबई आ गई जहां मुझे सब से पहले जेडी मजीठिया के सीरियल ‘चलती का नाम गड्डी’ में सुहासिनी मुले और रवि गोसांई के साथ परिवार की बहू कुलदीप का किरदार निभाने को मिला. इस सीरियल से मुझे काफी शोहरत मिली. फिर जेडी मजीठिया ने मुझे अपनी फिल्म ‘खिचड़ी’ में अभिनय करने का मौका दिया.

उस के बाद कई फिल्मों में काम किया. अनूप जलोटा की शीघ्र प्रदर्शित होने वाली, आतंकवाद पर आधारित फिल्म ‘मकसद द प्लान’ की है. सीरियल तारक मेहता का ‘उलटा चश्मा’ के अलावा ‘यू ट्यूब’ पर मेरा खुद का चैनल चल रहा है. इस की स्क्रिप्ट भी मैं खुद ही लिखती हूं. अब थिएटर जगत में बतौर निर्माता, निर्देशक, लेखक, कौस्ट्यूम डिजाइनर व अभिनेत्री एक नाटक ‘एक तनहा चांद’ कर रही हूं. इस में मीना कुमारी का मुख्य किरदार मैं खुद ही निभा रही हूं.

नाटक की विषयवस्तु के रूप में मीना कुमारी की जिंदगी ही क्यों?

मेरी मम्मी मीना कुमारी की फिल्में देखते हुए रोती थीं. उस वक्त मैं भी सोचती थी कि मीना कुमारी के अंदर कितना दर्द है. कितना रोती हैं. इसी दौरान दिल्ली में ही एक दिन मेरी मुलाकात दिलशाद अमरोही से हुई, जोकि अमरोहा के रहने वाले हैं और कमाल अमरोही के काफी नजदीक रहे हैं. उन से मीना कुमारी की चर्चा निकली तो उन्होंने मुझे मीना कुमारी पर नाटक की पटकथा लिख कर दी जिस पर मैं ने 2006 में ‘तनहा चांद’ नाम से दिल्ली के कमानी औडिटोरियम और श्रीराम सैंटर में शो किए.

फिर 2007 में मैं मुंबई आ गई. वहां सीरियल व फिल्मों में अभिनय करने के साथसाथ मीना कुमारी के बारे में जानकारियां इकट्ठा की. काफी रिसर्च करने व मधुप शर्मा की किताब ‘आखिरी ढाई दिन’ पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इस नाटक को नए सिरे से लिखा जाना चाहिए. इस बार मैं ने दर्शक और मीना कुमारी के बीच पुल का काम करने के लिए अमन मियां का काल्पनिक पात्र गढ़ा और इस नाटक को नाम दिया ‘एक तनहा चांद’.

इस में हम ने यह दिखाया है कि राउफ लैला एक दरजी है, जोकि अकसर अमान मियां के यहां आताजाता है. अमान मियां ने मीना कुमारी को अपने घर में काफी समय तक रखा व पाला. अमान मियां ने मीना कुमारी के दर्द आदि को जिया था.

आप के मन में इस तरह के खयाल कैसे आए?

लोग मीना कुमारी को ट्रैजडी क्वीन समझते हैं. लोगों को मीना कुमारी की शराब की लत व कई पुरुषों के साथ अफेयर की बात पता है पर इस की वजह किसी को पता नहीं है. किसी ने उन के दर्द को नहीं जाना. जिन समस्याओं से मीना कुमारी अपनी निजी जिंदगी में जूझ रही थीं उन समस्याओं से आज की भारतीय नारी भी जूझ रही है.

मीना कुमारी के पास सुंदरता, धन, मानसम्मान, शोहरत सबकुछ था. उन के प्रशंसकों की कमी नहीं थी लेकिन उन की कोख सूनी थी. उन्हें अपने पति से अपेक्षित प्यार नहीं मिला. नाटक में हम ने इस बात को स्थापित किया है कि एक स्थापित अभिनेत्री का एक स्ट्रगलर फिल्मकार कमाल अमरोही से शादी करने का फैसला प्यार पाने का सपना था. मगर कमाल उन्हें अपनी पत्नी के बदले एक सफल हीरोइन के रूप में देखते थे, जो उन्हें सफल निर्देशक बना सकती थी. कहा भी गया कि मीना साहिबान (पाकीजा) नहीं होती, तो कमाल अमरोही इतिहास के पन्नों में ही नहीं होते. पुरुष प्रधान समाज में हर नारी का दर्द मीना कुमारी के दर्द की ही तरह है.

वर्तमान पीढ़ी तो मीना कुमारी के साथ रिलेट नहीं करती होगी?

शुरू से ही हर कोई मुझ से यही सवाल कर रहा था. लोगों का मानना था कि मीना कुमारी को जानने वाली पीढ़ी अब नहीं रही और नई पीढ़ी उन्हें जानती नहीं. लेकिन जब आप ‘एक तनहा चांद’ का दूसरा शो देखने आए थे, तो आप ने भी महसूस किया होगा कि दर्शकों में आधे से ज्यादा युवा थे. शुरू से मेरा मानना रहा है कि वर्तमान युवा पीढ़ी भी मीना कुमारी के बारे में जानना चाहेगी.

आप ने इस नाटक में मीना कुमारी को उन के पति कमाल अमरोही द्वारा प्रताडि़त करते हुए दिखाया है. इस को ले कर कोई विवाद नहीं उठा?

विवाद क्यों उठेगा? पूरी दुनिया जानती है कि कमाल अमरोही ने मीना कुमारी की जिंदगी बर्बाद की. जब मैं 7वीं कक्षा में थी तभी मुझे यह बात पता चली थी कि कमाल अमरोही, मीना कुमारी को मारते थे.

आरोप लगाया जा रहा है कि आप ने दूसरों के कौंसेप्ट को चुरा लिया?

लोग मुझ पर गलत आरोप लगा रहे हैं. मैं ने किसी का कौंसेप्ट नहीं चुराया. मीना कुमारी किसी की निजी प्रौपर्टी नहीं हैं. कोई भी इंसान अपनेअपने तरीके से उन्हें ट्रिब्यूट दे सकता है.

किस्तों का मोबाइल बाजार

मोबाइल फोन का भारतीय बाजार निर्माता कंपनियों को लगातार आकर्षित कर रहा है. कंपनियां बाजार पर कब्जा करने के लिए नित नई रणनीतियां बना रही हैं. उधर, करीब 1 साल के दौरान इन कंपनियों ने भारतीय उपभोक्ता को अपने महंगे फोन बेचने के लिए किस्तों की रणनीति अपनाई है. कंपनियां अपने महंगे फोन ग्राहक को ब्याजरहित आसान किस्त पर बेच रही हैं. इस के लिए फोन निर्माता कंपनी ने क्रैडिट कार्ड बनाने वाली कंपनियों के साथ समझौता किया है.

आसान किस्तों ने मोबाइल फोन की बिक्री को आसान बना दिया है जिस से एप्पल के आई फोन और सैमसंग के गैलेक्सी फोन की बिक्री में भारी इजाफा हुआ है.

सैमसंग का दावा है कि उस के स्मार्ट फोन की बिक्री इस रणनीति के तहत मार्च में जनवरी की तुलना में दोगुनी हुई है. कंपनियों ने 50 हजार के फोन 6 ऋणरहित किस्तों में दे कर बाजार में उपभोक्ता को महंगे फोन खरीदने के लिए आकर्षित किया है. कंपनियों ने बाजार में ऐसा जादू चलाया है कि महंगे उपकरण खरीदना फैशन बन गया है. इस फैशनबाजी को भुनाने के लिए कंपनियां 50 हजार रुपए का फोन 12 ब्याजरहित किस्तों में बेच कर आम उपभोक्ता को भी महंगे फोन रखने का आदी बना रही हैं.

कंपनियों का विदेश पलायन ठीक नहीं

गरमी तेज पड़ रही है और चारों तरफ बिजली के लिए हाहाकार मचा हुआ है. गांव में तो बिजली एक सपना बन गई है. शहरों में भी बुरा हाल है. जबरदस्त बिजली कटौती के कारण आम उपभोक्ता परेशान है ही लेकिन बिजली के भुगतान की लगातार बढ़ रही दर से तो उस का पसीना सूखने का नाम नहीं ले रहा है. बिजली संकट से निबटने के लिए सरकार के पास फिलहाल कोई उपाय नहीं है. परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की शुरुआत की गई है लेकिन उन में जोखिम ज्यादा है. इस क्रम में अक्षय ऊर्जा ही बेहतर विकल्प है. लेकिन ऐसा लगता है कि उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा. पन बिजली, सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा कुछ ऐसे विकल्प हैं जिन पर सरकार ध्यान दे तो संकट काफी कम किया जा सकता है. सरकार की ही उदासीनता है कि टाटा पावर जैसे बड़े औद्योगिक घराने अक्षय ऊर्जा के उत्पादन के लिए विदेश भाग रहे हैं जबकि देश को उस की सख्त जरूरत है. टाटा पावर अफ्रीकी बाजार के अक्षय ऊर्जा के कारोबार की संभावना तलाश रहा है जबकि इंडोनेशिया और भूटान में तो उस का यह कारोबार अच्छा चल रहा है. सवाल यह है कि देश ऊर्जा संकट से जूझ रहा है और इस दिशा में राहत पहुंचाने वाली बड़ी कंपनियां बाहर भाग रही हैं. निश्चित रूप से सरकार को निजी क्षेत्र की बड़ी कंपनियों को स्वदेश में ही ऊर्जा, विशेषकर अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में काम करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.

 

बैंकिंग पर सरकार का जोर

सरकार वित्तीय प्रवाह बढ़ाने के लिए बैंकों पर ज्यादा ध्यान दे रही है. सरकारी बैंकों को मिला कर एक बड़े और स्तरीय बैंक में तबदील करने के लिए इन का एकीकरण किया जा रहा है और सरकारी बैंकों की कुल संख्या घटा कर 7 करने पर काम चल रहा है. दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय नए बैंकों के लिए लाइसैंस देने पर भी विचार कर रहा है ताकि वित्तीय प्रवाह बढ़े व बाजार में प्रतिस्पर्धा आए. उस के लिए रिजर्व बैंक सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बड़े उपक्रमों को बैंक स्थापित करने के लिए लाइसैंस जारी कर सकता है. पिछले दशक यानी जब से (1991-94 से) देश में उदारीकरण की व्यवस्था शुरू हुई है तब से अब तक 2 चरणों में लगभग एक दर्जन नए बैंकों को लाइसैंस जारी किए गए हैं. वर्ष 2006 के बाद रिजर्व बैंक ने सिर्फ 2 बैंकों, कोटक महेंद्रा और येस बैंक को ही लाइसैंस दिए हैं जबकि तीसरे चरण में कई बड़ी कंपनियां बैंक का लाइसैंस लेने के लिए लाइन लगाए खड़ी हैं.

उम्मीद की जानी चाहिए कि इस से बैंकिंग बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और इस का लाभ आखिरकार आम आदमी को भी मिलेगा. लेकिन बैंक अनियमितता से नहीं जुड़ें, इस पर सरकार को नजर रखनी होगी.

 

कमजोर अर्थव्यवस्था आंकड़ों से बाजार में निराशा

सरकार के सोने के आयात पर फिर नियंत्रण की अवधि बढ़ाने, सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दर का निराशाजनक अनुमान, विनिर्माण क्षेत्र के 4 साल के निचले स्तर पर पहुंचने और विदेशी बाजार में अच्छा कारोबार नहीं होने से बंबई शेयर बाजार यानी बीएसई में निराशा का माहौल रहा और सूचकांक में तेज गिरावट दर्ज की गई है. निराशा के इस माहौल में बाजार को सब से तगड़ा झटका 23 मई को लगा जब सूचकांक 388 अंक तक लुढ़क गया. वर्ष 2012-13 में जीडीपी के दशक के सब से निचले स्तर पर रहने से बाजार में मायूसी का दौर रहा और 31 मई को समाप्त हुए सप्ताह में सूचकांक में 455 अंक की गिरावट दर्ज की गई. जून की शुरुआत भी बाजार के लिए अच्छी नहीं रही और जीडीपी, आटो बिक्री व विनिर्माण क्षेत्र के आंकड़ों के कमजोर रहने का दबाव बाजार पर स्पष्ट दिखा और सूचकांक मनोवैज्ञानिक स्तर से नीचे लुढ़कता रहा.

बाजार में अफरातफरी का माहौल देखते हुए वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने कहा है, ‘‘नर्वस होने की कोई बात नहीं है. मुझे लगता है कि भारतीय बाजार को ठीक तरह से स्थिति को पढ़ना आना चाहिए. बाजार को इधरउधर की घटनाओं से उत्पन्न हुई स्थिति का सही मूल्यांकन करना चाहिए.’’ वित्तमंत्री के इस बयान के बाद सूचकांक में जारी गिरावट को ब्रेक लगा और बाजार में, मामूली ही सही, मजबूती का रुख बना.

 

साधुवेश में पाखंडी

धर्मनगरी हरिद्वार और ऋषिकेश में धर्म और संन्यास की आड़ में यहां के साधुओं का छिपा असली चेहरा चौंकाने वाला है. कई निठल्ले नशे और ऐशोआराम से भरा जीवन जी रहे हैं तो कई कामवासना और अपराध के धार्मिक सागर में गोते लगा रहे हैं. पढि़ए  नितिन सबरंगी की रिपोर्ट.

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 45 किलोमीटर दूर आध्यात्मिक चेतना का केंद्र कही जाने वाली धर्मनगरी ऋषिकेश में कदम रखने के साथ सब से पहले आप की मुलाकात विभिन्न वेशभूषा वाले साधुओं से होगी. जैसेजैसे कदम गंगा किनारे बने आश्रमों, मठों, स्नान घाटों व मंदिरों की तरफ बढ़ेंगे, यह संख्या सैकड़ों में पहुंच जाएगी. सड़कों पर टहलते, विदेशी पर्यटकों से कुछ मांगते या चिलम के जरिए नशीले पदार्थ पीते गेरुए वस्त्रधारी मिल जाएंगे. उन्हें देख कर कई अंधभक्त ऐसे गद्गद हो जाते हैं मानो किसी दिव्य शक्ति से साक्षात्कार हो गया हो. यों भी अंधभक्तों के लिए बाबाओं का बड़ा बाजार मौजूद है.

ऋषिकेश की पहचान धर्मनगरी के रूप में है. इस के बारे में कहा जाता है कि रैभ्यमुनि द्वारा इस स्थान पर इंद्रियों पर जीत अर्जित की गई थी. इसलिए इस स्थान का नाम हृषिकेश पड़ा, लेकिन उच्चारण दोष के कारण बाद में नाम ऋषिकेश हो गया.

गंगा नदी के इर्दगिर्द बसे इस नगर में सैकड़ों आश्रम, प्राचीन व नवनिर्मित मंदिर, मठ, धार्मिक स्थान हैं. देश के अलावा विदेशों से भी लाखों लोग आतेजाते हैं. हर भगवाधारी भले ही साधु न हो, लेकिन यहां साधुओं की बड़ी जमात का डेरा होता है जो पाखंडी, ढोंगी व ठग होते हैं. उन का वेश बेहद प्रभावशाली होता है. भांतिभांति के वस्त्रों में रह कर वे विचरण करते हैं. ऐसे साधु आखिर होते कौन हैं? उन की दिनचर्या को नजदीक से परखने की हम ने कोशिश की.

पाखंडियों की दिनचर्या

ढोंगीपाखंडियों की दिनचर्या अलग होती है. दिन निकलते ही वे अपने जरूरी उठाऊ सामान जैसे थैला, बरतन, चिमटा, कमंडल व कपड़ों के साथ आश्रमों, मठों व घाटों पर जा कर बैठ जाते हैं. यहां श्रद्धालु व पर्यटक उन्हें सुबह नाश्ते के लिए कुछ खाने के लिए दे देते हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो अपने पैसे से दुकानों पर चाय आदि का सेवन करते हैं.

दोपहर में कई आश्रमों में आने वाले चढ़ावे व अमीर धर्मप्रेमी अनुयायियों के पैसे से भंडारे आदि होते हैं. ठलुओं के लिए भोजन की व्यवस्था आराम से हो जाती है. इस के लिए उन्हें कोई शुल्क अदा नहीं करना होता. जिन धर्मप्रेमियों के दान से यह होता है वे साधुवेशधारियों को खाते देख कर प्रसन्न होते हैं.

भोजन के बाद ऐसे लोग हरेभरे पेड़ों के नीचे नशा व आराम करते हैं. कुछ ऐसे हैं जो देशीविदेशी पर्यटकों से मांगने के लिए सड़कोंगलियों में टहलते रहते हैं. विदेशी उन्हें कैमरों में कैद कर के अपने देश के लिए भारत का नया आईना तैयार करते हैं.

इन ढोंगी साधुओं के शाम के भोजन की व्यवस्था ऐसे ही होती है. यानी कुछ इस तरह जैसे सुबह से शाम, जिंदगी तमाम.

नशे से गहरी यारी

यों तो गंगा तट पर किसी भी प्रकार का नशा प्रतिबंधित है लेकिन पीछे का सच चौंकाने वाला है. ‘जाफरान’, ‘करीना’, ‘दिलरुबा’ जैसे देशी ब्रैंड वाली शराब साधुओं की पहली पसंद है. इस के अलावा चरस, भांग, गांजा वाली चिलम सुलगती रहती है.

नशे के बिना उन्हें अपनी दिनचर्या मुश्किल लगती है. सुल्फा को साधु अपनी भाषा में भोले का प्रसाद बताते हैं जैसे भगवान ने उन से मुलाकात कर के कहा हो कि तुम दम लगाओ, मैं तुम्हारा भला कर दूंगा. विदेशी पर्यटकों के साथ नशे की पार्टियां तक की जाती हैं. शुद्ध वातावरण में मादक पदार्थों की गंध आने वालों के नथुनों से टकराती है. कोई पेड़ के नीचे बैठ कर धुएं के छल्ले निकालता है तो कोई तट पर बैठ कर.

परमार्थ निकेतन मार्ग पर चायपान की दुकान चलाने वाली महिला कमला कहती है कि साधु अलगअलग ब्रैंड के गुटके व बीड़ी पसंद करते हैं. उन के कारण ही उस की बिक्री अच्छी होती है. नशे की खुमारी साधुओं के चेहरे पर नृत्य करती दिखती है. नशा क्यों करते हो? इस सवाल का जवाब एक साधु पुराणदास ने यह कहते हुए दिया कि नशा तो हर चीज में होता है बाबू. फिर हम तो भोले बाबा की बूटी, उन की खुशी के लिए पीते हैं. जवाब भले ही हास्यास्पद था लेकिन अधिकांश का तर्क कुछ ऐसा ही होता है. धर्मनगरी में नशे के बड़े कारोबार को दबी जबान से पुलिस भी स्वीकार करती है.

संन्यास का ढोंग

ऐसे तो संन्यास भौतिक चीजों के प्रति उदासीन है लेकिन पाखंडियों को उस से प्यार है. मनोरंजन व संचार के साधन उन्हें लुभाते हैं. अब तो साधु मोबाइल, रेडियो, टेपरिकौर्डर व अन्य यंत्रों से लैस होते हैं. मौजमस्ती के लिए सिनेमा या बाजार जाने से भी परहेज नहीं करते. इस दौरान साधुओं का लिबास भी बदल जाता है. संन्यास का ढोंग करने वालों को खूब पता होता है कि ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए…’, ‘पलपल न माने टिंगू जिया…’ व ‘माई नेम इज शीला…’ जैसे आइटम गाने कितनी धूम मचा रहे हैं. कान से ईयरफोन लगा कर सुन रहे ऐसे गाने उन के दिमाग में नया संचार करते हैं.

लंबी दाढ़ी व जटा वाले एक साधु के पास जा कर हम ने पूछा कि बाबा, ‘माई नेम इज शीला…’ गाना सुना है? जवाब में वे ऐसे मुसकराए जैसे दिल के तार को झंकृत कर दिया हो. धर्मनगरी में टहलते हुए हम पेड़ के नीचे आराम फरमा रहे मोटी तोंद वाले एक गेरुए वस्त्रधारी के पास पहुंच गए.

औपचारिक बातचीत के बाद हम ने बातोंबातों में पूछ ही लिया कि बाबा, संन्यास क्या है? उन की भावभंगिमा कुछ ऐसी बदली कि जैसे उन से कुछ अटपटा पूछ लिया हो. मुसकरा कर बोले, ‘घरबार छोड़ दिया, बाबू. मांग कर खा रहे हैं, यही संन्यास है.’ आत्मसंतुष्टि व खामियों को छिपाने वाला यह जवाब उन के लिए काफी था.

तपोवन व अन्य स्थानों पर दोपहर में कई कलियुगी साधु नींद व बीड़ी, सुल्फा सेवन में लीन मिले. कैमरा देख कर वे असहज भी हुए. 70 वर्षीय एक साधु से हम ने पूछा कि यहां आ कर बाबा कैसे बन गए? उस ने अपना नाम गणेशदास उर्फ प्रभुदास बताया और कहा कि जवानी के दिनों में घर में पिता की पिटाई के बाद घर छोड़ दिया और साधु बन गए.

मूलत: रतनागिरी के रहने वाले इस कथित साधु का नाम गणेश था. गेरुआ पहनते ही वह गणेशदास हो गया. वैसे ऐसे लोगों को नहीं पता होता कि जिम्मेदारियों या पुलिस से बच कर भाग जाना संन्यास नहीं होता. ऐसे अनेक निठल्ले चेहरे संन्यासी के लिबास में मिलते हैं.

साधुवेश में अपराधी

हरिद्वार व ऋषिकेश जैसी धर्मनगरियों में रहने वाले साधुवेशधारियों का कोई पुलिस रिकौर्ड नहीं होता. वे कहां से आते हैं, कहां जाते हैं या उन का पूर्व का जीवन क्या है, इस बात को कोई नहीं जानता. गेरुआ वस्त्र पहनने, दाढ़ी व बालों को बढ़ा कर तरहतरह की मालाएं डाल कर तिलक लगा लेने भर से ही एक सामान्य व्यक्ति साधु हो जाता है. ज्ञान की डिगरी भी वस्त्रों के सामने अपाहिज रहती है. घालमेल ऐसा कि पता ही नहीं चलता कि कौन ठग है, कौन अपराधी और कौन साधु?

नशे का गोरखधंधा करने वाले एक तस्कर मुकेश मोहन ने गोआ पुलिस के छक्के छुड़ा दिए. दरअसल, वर्ष 2009 में वह पुलिस कस्टडी से फरार हो गया था. इस के बाद उस ने ऋषिकेश व हरिद्वार का रुख किया और मुक्कू बाबा बन गया. उस ने अपनी फितरत नहीं बदली और आश्रमों में साधुओं व विदेशी पर्यटकों को चरस सप्लाई करने लगा. विदेशियों के संपर्क में आ कर उस ने इंटरनैट इस्तेमाल करना भी शुरू कर दिया और खुद विदेश जाने के सपने देखने लगा. 3 साल बाद वह पुलिस के हत्थे चढ़ा तो उस के पास से धार्मिक पुस्तकें, चाकू, मालाएं व कैमरा आदि चीजें बरामद हुईं.

जयपुर के किशनगढ़ के विधायक नाथूराम के बेटे की हत्या का आरोपी बलवाराम भी हरिद्वार आ कर साधु बन गया.

दरअसल, हत्या के बाद वह फरार हुआ और हरिद्वार व ऋषिकेश में साधु बन गया. पुलिस ने उस पर 50 हजार रुपए का इनाम भी रख दिया. खोजबीन के बाद पुलिस ने उसे पकड़ लिया. वह नाम बदल कर बलवाराम से बलदेवदास हो गया था. उस के खिलाफ लूट के पुराने कई मामले दर्ज थे.

कुछ समय पहले साधुओं का एक दल सामाजिक कार्यकर्ता त्रिप्ता शर्मा के साथ देहरादून के आईजी से मिला और आरोप लगाया कि ऋषिकेश में कुछ हिस्ट्रीशीटर, कातिल व लुटेरे गिरोह बना कर साधुओं का वेश धारण किए हुए हैं. अगर पुलिस जांच हो जाए तो कई प्रदेशों के वांछित अपराधी ऋषिकेश व हरिद्वार जैसी धर्मनगरियों में मिल जाएंगे.

सैक्स स्कैंडल में फंसते ढोंगी

बाबाओं को भगवान मान कर पूजने वाले अंधभक्त श्रद्धालुओं की श्रद्धा हिचकोले तब खाती है जब उन के सैक्स स्कैंडल निकल कर सामने आते हैं. वैसे यह कमजोरी धर्मगुरुओं की बहुत पुरानी है.

बाबा लोग यौन संबंध, अप्राकृतिक कृत्यों व वेश्यावृत्ति रैकेट संचालित करने के आरोपों में घिरते रहे हैं. कोई भी धर्म इन प्रवृत्तियों से जुदा नहीं है. ऐसे ढोंगियों की क्या कहें, धर्म के कई ठेकेदार घिनौने आरोपों में फंस चुके हैं. ऐसे बाबा धर्म व धर्मनगरियों को बदनाम ही करते रहे हैं.

हरिद्वार की बात करें तो एक साधु सुधीर गिरी की हत्या हो गई. पुलिस जांच में उस के कमरे से कंडोम के अलावा अन्य आपत्तिजनक सामग्री मिली. ऐसी चीजें साधु के पास क्या खुद चल कर गई थीं, इस का जवाब आज तक किसी को नहीं मिल सका है.

उत्तर प्रदेश के बिजनौर में मदरसे के एक मौलवी नग्नावस्था में मिले. जांच में पता चला कि वियाग्रा का उन्होंने अधिक सेवन कर लिया था और एक युवती का रात में भूत उतारना चाहते थे लेकिन कथित भगवान को प्यारे हो गए. धर्म के नाम पर आएदिन नए किस्से सामने आते रहते हैं. कोई अश्लील फिल्में बना कर बेचता है तो कोई तेलुगू फिल्म अभिनेत्री के साथ रंगरेलियां मनाता है. ऐसे बाबाओं की अच्छीखासी तादाद है. घरपरिवार के कारणों से परेशान महिला भक्तों से ऐसे बाबाओं को अथाह प्रेम होता है. मौका पा कर वे दुष्कर्म करने से भी नहीं चूकते.

साधुओं की करतूत

साधुवेश में ढोंगियों, पाखंडियों व शैतानों की बड़ी तादाद मौजूद है. उन्हें इस से मतलब नहीं होता कि अंधभक्त क्या सोचेंगे, क्योंकि भक्तों की संख्या उन के लिए घटतीबढ़ती रहती है. अमेरिका की एक 25 वर्षीय युवती भ्रमण के लिए ऋषिकेश आई. वह लक्ष्मणझूला मार्ग से घूमती हुई गंगा तट पर पांडव गुफा तक पहुंच गई. एक साधुवेशधारी ने उस से बातें कीं और स्वयं को आयुर्वेद का जानकार बता कर मसाज विशेषज्ञ भी बताया. युवती बातों में आ गई तो कुपित मानसिकता वाले साधु ने उस के साथ छेड़छाड़ कर दुष्कर्म का प्रयास किया. युवती ने भाग कर खुद को बचाया. मामला पुलिस के संज्ञान में आया, लेकिन पाखंडी हाथ नहीं लगा. यह अकेला मामला नहीं है.

साधुवेश वाले शैतान देशीविदेशी महिला पर्यटकों पर छींटाकशी के साथ मौका पाने पर छेड़छाड़ कर बैठते हैं. एक विवाहित पर्यटक कहती है कि उस के बराबर से एक साधु ‘गोरेगोरे मुखड़े पर कालाकाला चश्मा’ गाना गाते हुए निकल गया, क्योंकि उस ने चश्मा लगाया हुआ था. स्थानीय लोगों की मानें तो ऐसे साधु पकड़ जाने के डर से स्थान बदल लेते हैं. वस्त्र गेरुआ पहनते हैं, लेकिन मन में पापलीला चलती रहती है.

करीब लाती है देहगंध

वैज्ञानिकों का मानना है कि प्यार की बढ़ती पींगों में दिल कहीं नहीं आता, यह तो सिर्फ शरीर से निकलते खास कैमिकल्स का खेल है जो प्यार के बीजों को सींचते हैं और एक दिन ये बीज प्यार रूपी पौधे में विकसित हो जाते हैं.

अमेरिका के पश्चिमी भाग में चूहों की ‘प्रेयरी बोल’ नामक एक प्रजाति पाई जाती है. यह अलग किस्म का चूहा है. घरेलू चूहों से यह न केवल रंगरूप और आकार में अलग है बल्कि इस की आदतें भी अलग हैं. वैज्ञानिकों ने इस को ले कर की गई रिसर्च में पाया कि चूहा प्यार में जल्दी पड़ जाता है. इन प्रयोगों के लिए उन्हें 5 साल का लंबा समय लगा. वैज्ञानिकों ने चूहों को आधार बनाते हुए बताया कि मानवीय प्रेम में भावनात्मक लगाव जैसी कोई बात नहीं है. असल में तो यह सिर्फ कैमिकल्स का खेल है.

चूहों पर इन कैमिकल्स के टैस्ट के दौरान पाया गया कि जब इस प्रजाति के नर और मादा चूहे कम से कम 12 घंटे धूप में साथ नहीं रह लेते, वे शारीरिक मिलन नहीं करते हैं. यही कारण है कि प्यार की यह बौछार वसंत ऋतु में ही हो पाती है, जब कुनकुनी धूप उन्हें सेंकती है, उन की चुहलबाजियों को बढ़ाती है और एकदूसरे के शरीर की छुअन शरीर में कैमिकल्स का स्राव करती है तब उन की प्रेम की कहानी का आगाज होता है.

इस दौरान वैज्ञानिकों ने चूहों के मस्तिष्क में ऐसे कैमिकल्स का पता लगाया जो शारीरिक मिलन के खास तत्त्व हैं. वसंत बीतते ही ‘प्रेयरी बोल’ प्रजाति के नर चूहों में ‘फिरोमन’ नामक एक तेज गंध वाला कैमिकल निकलता है जो मादा चूहे को अपनी ओर आकर्षित करता है. जब वे एकदूसरे के साथ रहने लगते हैं तो कुछ समय बाद ही नर चूहों के शरीर में ‘टेस्टेरोन’ हार्मोन में बढ़ोतरी हो जाती है जो उन के शुक्राणुओं को भी बढ़ा देती है.

वसंत ऊर्जा की ऋतु है. ठंड का ठहराव न केवल शारीरिक क्रियाओं को बल्कि सामान्य गति को भी कम कर देता है. वसंत मन को इस हद तक प्रफुल्लित कर देता है कि शादीशुदा जोड़े भी अपने रोमांस में कमनीयता ले आते हैं. सब से ज्यादा गर्भ भी इस ऋतु में ही धारण किए जाते हैं. वसंत ऋतु में स्पर्श शरीर के जर्म्स यानी कीटाणुओं को मौत थमाता है.

मजे की बात यह है कि वैज्ञानिकों ने जब लैबोरेटरी में ही वसंत का कृत्रिम माहौल पैदा किया तो मादा चूहा खुद ही नर चूहों की ओर लपकने लगा. इस से यह पता चला कि वसंत ऋतु मादकता पैदा करती है.

नर की उत्तेजना को नियंत्रित करने में ‘नाइट्रिक औक्साइड’ बहुत प्रभावी है. ये कैमिकल मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को उत्तेजित करने और नियंत्रित करने में न्यूरो ट्रांसमीटर की तरह काम करता है. चूहों पर किए गए प्रयोग में वैज्ञानिकों ने पाया कि जैसे ही ‘नाइट्रिक औक्साइड’ बनाने वाले एंजाइम यानी ‘एनओएस’ बेकार होते हैं, बेताबी से लिपटे नरमादा चूहे अलग हो जाते हैं. बस यही महत्त्वपूर्ण बात थी जिस ने सिर्फ कैमिकल्स से उपजे प्रेम की बात साबित की.

अब सिर्फ एक के पीछे की दीवानगी को समझना जरूरी है. असल में एक के पीछे की दीवानगी भी कैमिकल का ही खेल है. वैज्ञानिकों ने पाया कि नर चूहों में ‘वेसोप्रोसिन’ और मादा चूहों में ‘औक्सीटोसिन हार्मोन’ ज्यादा असरकारी होते हैं, जो एक ही के प्रति दीवानगी को जन्म देते हैं.

वेसोप्रोसिन इतना प्रभावी नहीं है लेकिन इतना जरूर है कि ‘वेसोप्रोसिन’ की ज्यादा मात्रा मादा के प्रति लगाव पैदा कर देती है. वह भी इस हद तक कि अगर उसे कोई और छुए तो भी बात मरनेमारने पर आ जाती है. यही है प्रेम की चरम सीमा. यही हाल मादा में ‘औक्सीटोसिन हार्मोन’ की ज्यादा मात्रा पैदा करती है. काश ये कैमिकल्स वहां निकल पाते जहां नफरत हिलोरे लेती है.

आज फाइव स्टार होटलों की संस्कृति कुछ भी हो, मगर बदले रूप में ही सही यहां वसंतोत्सव मनाया जाता है. गरमियोंसर्दियों में इंटरनैट पर इतनी चैटिंग नहीं होती जितनी कि वसंत में होती है. असल में शरीर में ‘टेस्टोस्टेरोन हार्मोन’ सारे फसाद की जड़ है. जब करीबी ज्यादा होती है तब मस्तिष्क से ‘फास’ नामक प्रोटीन निकलने लगता है जो यह संकेत देता है कि स्नायु कोशिकाएं पूरी तरह सक्रिय हैं और प्यार की आग धधक रही है. इसलिए अगर लंबी उम्र पानी है तो किसी से दीवानेपन की हद तक प्यार कीजिए.

प्यार न केवल आप के अंदर स्फूर्ति पैदा करता है बल्कि आप की आंतरिक क्रियाओं को भी बदल देता है. जिसे आप शुरू में नहीं चाहते मगर बाद में बेहद चाहने लगते हैं, इस के पीछे भी प्रेम कैमिकल्स का ही स्राव है. हर किसी के तन में अलगअलग देहगंध बसी होती है. देहगंध पर वैज्ञानिकों ने रिसर्च भी की है.

देहगंध पसीने से अलग है

पसीने से जहां दुर्गंध आएगी वहीं देहगंध जरा हट के होगी. यह गंध पुरुष और स्त्री दोनों में  होती है. मगर स्त्री की गंध का खास महत्त्व है. यह गंध जवानी में विपरीत सैक्स के आकर्षण का केंद्र बनती है जो शादी के बाद पतिपत्नी के बीच कड़ी को मजबूत करने में सीमेंट का काम करती है. मां बनने पर यही गंध बच्चे को ममता का पहला पाठ पढ़ाती है.

कुछ समय पहले देहगंध को ले कर कुछ टैस्ट किए गए थे. इस के लिए महिलाओं के ऐसे वर्ग को चुना गया जिन का प्रसव कुछ दिन पहले ही हुआ था. इस में महिलाओं को पहले नवजात शिशुओं के कपड़े सुंघाए गए. इन कपड़ों में उन के अपने बच्चे का भी कपड़ा था.

एकएक कर कपड़ों को सूंघती महिलाएं अपने बच्चे के कपड़े पर आ कर रुक जाती थीं. हर महिला ने इसे दुनिया की सब से बेहतरीन गंध बताया. वैज्ञानिकों के अनुसार, इस गंध के नथुने में पहुंचते ही महिलाओं को अजब अनुभूति होती है.

कई महिलाओं में रोमांच यहां तक हो गया कि उन के शरीर के रोंगटे खड़े हो गए. कुछ का शरीर ही कंपन में आ गया और उन की बांहें अपने बच्चे को लेने के लिए मचल उठीं. 

उपरोक्त टैस्ट के उलट एक और टैस्ट किया गया. इस में गोदी के बच्चों को माताओं के कपड़े सुंघाए गए. वैज्ञानिक हैरान थे कि 6 महीने के बच्चे ने भी अपनी ही मां के कपड़ों पर प्रतिक्रिया जाहिर की. कुछ रोते हुए बच्चे तो अपनी मां का कपड़ा सूंघते ही चुप हो गए. जवानी की देहगंध काफी असरदार पाई गई है जो हर किसी को गुमराह कर देती है. किसी युवती के साथ खड़े भर हो लेना, बड़े खजाने के मिल जाने के बराबर होता है.

वैज्ञानिकों के अनुसार, जवानी में जीवधारियों के शरीर में से ऐसे कैमिकल्स का स्राव होता है जो बाद में बनते ही नहीं. यह शरीर में समाई अतिरिक्त ऊर्जा, उत्साह और कई नई शारीरिक क्रियाओं की देन होती है. मनुष्य के अलावा अन्य जीवों में तो यह गंध विपरीत लिंग को आकर्षित करने के लिए खासतौर से निकलती है.

शादी के बाद पतिपत्नी के बीच आकर्षण की कड़ी में देहगंध खास भूमिका निभाती है. शादी के समय कई खुशबूदार पदार्थों जैसे चंदन, चिरौंजी, हल्दी आदि के उबटन का इस्तेमाल देहगंध को और मनभावन करने के लिए किया जाता है ताकि ‘पिया मन भाए’. आजकल ‘बौडी स्प्रे’ यानी परफ्यूम ने यह जगह ले ली है.

सुहागरात की सजावट खुशबूदार फूलों से करना भी माहौल में गंध को फैलाना ही है. फिर भी देहगंध अपना अलग ही असर छोड़ती है.

मानवजीवन से जुड़े इस अनोखे अध्याय पर ज्यादा रिसर्च नहीं हुई है. मगर इस में दोराय नहीं है कि भविष्य में यह देहगंध किसी बड़ी महत्त्वपूर्ण रिसर्च का रास्ता खोलेगी जो एकदूसरे को बांधे रखने में सहायक होगी. तब गंध मिलान की नई शाखा पनपेगी और शादी के लिए शायद यह देहगंध मिलान जरूरी हो जाएगा. 

इन्हें भी आजमाइए

  1. यदि आप की घड़ी के अलार्म की आवाज बहुत धीमी है तो आप घड़ी को चीनीमिट्टी की प्लेट में रख दें, अलार्म की आवाज बढ़ जाएगी. और यदि आवाज अधिक तेज है तो उसे किसी रबर के टुकड़े पर रख दीजिए, आवाज मंद पड़ जाएगी.
  2. पुराने ऊनी मोजे का बेबी की दूध की बोतल का कवर बना लीजिए. इस से बेबी बोतल को अच्छी तरह पकड़ सकता है और गिरने पर बोतल के टूटने का डर भी कम रहता है, साथ ही, दूध जल्दी ठंडा नहीं होगा.
  3. पुराने रोएंदार तौलिए के बिना उंगली वाले दस्ताने बना लीजिए. नहाते समय साबुन लगाने के बाद उन्हें पहन कर बदन रगडि़ए, खूब झाग उठेगा और शरीर अच्छा साफ होगा.
  4. दरी या गलीचे को कीड़ों से बचाए रखने के लिए उसे 10-15 दिन में कम से कम एक बार अलसी का तेल मिले हुए गरम पानी में भीगी झाड़ू से साफ कीजिए.
  5. दांत साफ करने के ब्रश को कीटाणुओं से बचाने और ज्यादा दिन तक चलाने के लिए नमक मिले पानी में धो कर, केस में बंद कर के रखें.
  6. छोटे बच्चों को नहलाते समय फर्श पर तौलिया बिछा दें. इस से उन के फिसलने का खतरा नहीं रहेगा और वे निश्चिंत हो कर नहा सकेंगे.
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