काश बारिश न थमती

मैं जीभर रो लेती

पानी संग पानी बनते आंसू

बेतरतीब धो लेती

यूं तो अब बरसात कम

होती है मेरे द्वारे

पहले जैसे जो आती

मैं जीभर रो लेती

कुछ बांझ से बीज पड़े थे

मेरी रसोई के कोने में

क्या मालूम वो भी खिल जाते

आंगन में उन को बो लेती

तेरी खुशबू से महका करती

आज भी मेरी चूनर धानी

कोई पहचान न पाता

चुपके से उस को धो लेती

मैं रोती, बादल रोता और

रोती तेरी यादें सारी

फिर रुक कर थक कर चुप हो कर

चैन से शायद सो लेती

काश ये बारिश न थमती

और मैं बेपरवाह रो लेती.

       - निहारिका श्री

 

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...