गोआ में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक ने पार्टी की अंदरूनी कलह को तो उजागर किया ही साथ ही, गुजरात दंगों के दागी नरेंद्र मोदी से जुड़े फैसले ने लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा दीं. आडवाणी को दरकिनार करते हुए मोदी को सामने ला कर भाजपा ने कट्टर हिंदुत्व बनाम उदारता की नई लड़ाई छेड़ दी है. पढि़ए जगदीश पंवार का विश्लेषणात्मक लेख.

9 जून का दिन इस देश के लिए दुखद ही कहा जाएगा जब गोआ में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में गुजरात दंगों के दागी नरेंद्र दामोदर दास मोदी को चुनाव अभियान समिति का मुखिया घोषित किया गया. दुनिया के सब से बड़े और 66 साल पुराने लोकतंत्र के लिए उम्मीद थी कि पार्टी पुराने अनुभव और सबक के बाद ऐसे किसी नेता को आगे करेगी जो लोकतंत्र के उसूलों पर चलने वाला व इस देश की बहुधर्मीय जनता को स्वीकार्य हो और अपने नेतृत्व वाले गठबंधन के सहयोगियों को भी मान्य हो पर राष्ट्रीय कही जाने वाली इस पार्टी को ऐसा कोई नेता न मिला.

गोआ के फैसले ने एक झटके में लोकतंत्र की तमाम मर्यादाओं, सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा दीं. हिंदुत्व के कट्टर, तानाशाहीपूर्ण विचारधारा वाले नरेंद्र मोदी को सीधे तौर पर न सही, देश के भावी शासक के तौर पर पेश किया गया. भाजपा मोदी की हवा में बह निकली. मोदी यानी कट्टर हिंदुत्व. यानी संघ की मूल सोच. यानी मुसलमानों के खिलाफ एक चेहरा.   

मोदी के नाम की घोषणा के साथ ही भाजपा और उस के सहयोगी दलों में हलचल मच गई. मोदी की कार्यशैली और विचारधारा से पार्टी के कुछ लोग और सहयोगी डरे हुए हैं.

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