बीती 3 दिसंबर को भोपाल गैस त्रासदी की 30वीं बरसी पर माहौल काफी कुछ बदला हुआ था. गैस पीडि़तों के हिमायती कोई आधा दर्जन संगठनों के आयोजनों और प्रदर्शनों से भावुकता व गुस्सा गायब थे लेकिन व्यावहारिकता और समझदारी कायम थी. दिलचस्प बात यह थी कि गैस पीडि़तों की तादाद के बराबर ही देशीविदेशी मीडियाकर्मी और भोपाल के बाहर से आए संगठनों के कार्यकर्ता थे.

कुल जमा लोग काफी कम थे. जाहिर है 30 साल बाद वही लोग बरसी में शिरकत करने आए थे जिन के कोई न कोई स्वार्थ थे. मसलन, कोई गैस त्रासदी पर बनाई अपनी फिल्म का प्रचार कर रहा था तो कुछ संगठन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कोसने की गरज से आए थे. तमाम धर्मगुरु अपना पसंदीदा काम गैस हादसे में मरे लोगों की आत्माओं को मुक्ति दिलाने की प्रार्थना कर रहे थे. राजनेताओं की मौजूदगी तो ऐसे मौकों पर जरूरी होती ही है.

प्रदर्शनों से एक और चीज नदारद थी जिसे लोग खासतौर से मीडियाकर्मी और प्रैस फोटोग्राफर्स 29 साल से देखने के आदी हो गए थे, वह थी यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन का पुतला जिसे पिछले साल तक गैस पीडि़त संगठन समारोहपूर्वक फांसी पर चढ़ाते रहे थे और एंडरसन को भोपाल लाओ के नारे लगाते थे.

दरअसल, इंसाफ मांगते गैस पीडि़तों ने जम कर जश्न इस साल की पहली नवंबर को मना लिया था जब वारेन एंडरसन की मौत की खबर आई थी. 92 वर्षीय एंडरसन की मौत हालांकि 29 सितंबर को ही अमेरिका के फ्लोरिडा में हो गई थी लेकिन मुद्दत से गुमनामी की जिंदगी जी रहे इस शख्स की मौत की पुष्टि और आधिकारिक तौर पर खबर 31 अक्तूबर को अमेरिका सरकार ने जारी की. उस के परिवारजनों को भी मौत के बाबत सूचना नहीं दी गई थी.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...