केंद्र सरकार जोरशोर से गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स यानी जीएसटी को अंतिम तौर पर कानून बनवाने में लग गई है जिसे देश के आर्थिक विकास के लिए सपाट रेसट्रैक माना जा रहा है. यह सही है कि बीसियों तरह के सामानों पर लगने वाले अप्रत्यक्ष करों के कारण हर व्यवसायी का काफी समय सेवा, उत्पाद, बिक्री, चुंगी आदि करों को देने में लगता है. ऐसे में जीएसटी कानून का सपना पूरा हो गया तो देश को एक करने में आसानी होगी और सामान इधर से उधर ले जाने में कठिनाइयां काफी कम हो जाएंगी.

सभी पार्टियों ने मिल कर काफी जद्दोजेहद के बाद आवश्यक संविधान संशोधन तो कर दिया और जीएसटी परिषद की बैठकें भी शुरू हो गई हैं पर यह बदलाव लागू हो जाएगा, इस का भरोसा अभी नहीं है. कारण यह है कि देश में सब से बड़ी शक्ति नेताओं की नहीं, जनता की नहीं बल्कि नौकरशाही की है जो आसानी से घूस का पैसा हथियाने के अवसर नहीं खोने देना चाहती. जीएसटी का जो सपना दिखाया जा रहा है उस में रिश्वत की गुंजाइश बहुत कम रह जाएगी. हर उत्पाद पर हर स्तर पर जीएसटी लगेगा और आखिरी उपभोक्ता ही असल में इसे देगा. बाकी सब के बीच में उस का क्रैडिट मिलता चला जाएगा यानी उस के पिछले सेवा देने वाले या उत्पादक को जिस ने दिया है वह उसे वापस मिलता जाएगा.

यह दिखने में चाहे आसान लगे, लेकिन इसे ठोस शक्ल देना आसान नहीं है. पहली बात जो आड़े आ रही है वह यह है कि कुछ राज्यों में केवल उपभोक्ता ही हैं. उन्हें जीएसटी का लाभ मिलेगा. दूसरे राज्यों में उत्पादक ज्यादा हैं. वहां की राज्य सरकारों को कम पैसा मिलेगा अगर उन का बनाया गया सामान दूसरे राज्यों में चला गया. हालांकि, केंद्र सरकार उस की भरपाई करने की नीति बना रही है. दूसरी समस्या यह है कि किन व्यवसायियों पर जीएसटी लगे. बड़े तो खैर इसे अपना लेंगे और कागजी कार्यवाही कर लेंगे पर छोटों पर नहीं लादा गया तो कैसे होगा. अंतिम कर कौन देगा. 10 लाख या 20 लाख रुपए के टर्नओवर तक का धंधा करने वालों को छोड़ देने की बात हो रही है पर इस पर सभी राज्य एकमत हों, जरूरी नहीं है.

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