नोटबंदी के बावजूद मध्य प्रदेश, असम व कुछ अन्य जगहों में कुछ सीटें जीत कर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पैठ साबित कर दी है. एक तरह से उस ने यह मुहर लगवा ली है कि जिन लोगों ने 2014 में उसे वोट दिया था वे नोटबंदी से खुश नहीं, तो नाराज भी नहीं हैं. राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों व पंचायतों के चुनावों में भाजपा कहींकहीं हारी है पर इस के बहुत से कारण हो सकते हैं.

लेकिन इस का अर्थ यह निकालना कि नोटबंदी से जनता खुश है, गलत है. नोटबंदी को बेचा गया ही इस तरह है कि मानो थोड़ी तपस्या के बाद चमत्कार होंगे. 1969 में इंदिरा गांधी ने यह किया था और 1984 में राजीव गांधी ने. 1969 में सरकारीकरण, गरीबी हटाओ और समाजवाद के नारों पर और 1984 में देश की एकता के नाम पर इंदिरा व राजीव को जीत मिली थी. आज वैसी ही जीत भाजपा के नरेंद्र मोदी को मिली है.

ब्लैकमनी से देश की गरीब जनता खिन्न है, इस में शक नहीं. भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में ऐसा ही है. अमेरिका में ‘औक्यूपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन कुछ महीने चला था. कालेधन के नारे पर ही नरेंद्र मोदी मई 2014 में जीत कर आए थे और ढाई साल में जब कुछ नहीं हुआ तो जनता निराश होने लगी. यह तो भगवा ब्रिगेड के अनवरत प्रचार का कमाल है कि उस की सत्ता को आंच न पहुंची.

नोटबंदी लागू कर देशभर पर अकाल सा थोप दिया गया है. लोग दूसरों के कालेधन का विरोध करने की जगह अपने पैसों को बचाने में लग गए हैं पर कुछ को संतोष यह है कि जिन के पास ज्यादा कालाधन है उन्हें या तो कतारों में खड़ा होना पड़ेगा या पूरा अथवा कुछ हिस्सा खोना पड़ेगा.

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