अभिनेता शशि कपूर को समझना है तो सिर्फ उन की हिंदी फिल्में या कपूर खानदान के कनैक्शन को समझना काफी नहीं है. उन का काम, कैरियर और व्यक्तित्व कई मानो में इन सब से परे और अलहदा रहा है. उन्हें समझने के लिए आप को अभिनय के हर कैनवास से गुजरना होगा, फिर चाहे वह थिएटर जगत की गलियां हों या फिर हौलीवुड से हो कर ब्रिटिश फिल्मों की ओर जाने वाले इंडिपैंडैंट सिनेमा का चौराहा हो. सिनेमाई सफर के हर एक मील के पत्थरों से शशि कपूर कभी न कभी जरूर गुजरे हैं.

हिंदी दर्शकों के बीच शशि कपूर ‘वक्त’, ‘आ गले लग जा’, ‘चोर मचाए शोर’, ‘फकीरा’, ‘जबजब फूल खिले’, ‘कन्यादान’, ‘शर्मीली’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, ‘दीवार’, ‘त्रिशूल’, ‘कभीकभी’ और ‘नमक हलाल’ जैसी फिल्मों में रंग जमाते दिखते हैं तो वहीं सामानांतर सिनेमा के शौकीनों को वे ‘जुनून’, ‘विजेता’, ‘36 चौरंगी लेन’, ‘उत्सव’, ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ जैसे सार्थक व सामाजिक सरोकारी सिनेमा में नजर आते हैं.

इन से इतर पृथ्वी थिएटर के साथ उन का संबंध और योगदान तो एक अलग ही अध्याय है. और इंटरनैशनल या वर्ल्ड सिनेमा में उन की मौजूदगी तो आज भी भारत में पूरी तरह से अंडररेटेड है. उन्होंने 70 -80 के दशक में हौलीवुड से ले कर ब्रिटेन की कई फिल्मों में न सिर्फ लीड रोल किए हैं बल्कि बतौर निर्माता भी जुड़े रहे हैं. बावजूद इस के, आज लोग उन की ‘हाउसहोल्डर’, ‘शेक्सपियर वाला’, ‘बौम्बे टाकीज’, ‘हीट ऐंड डस्ट’, ‘सिद्धार्थ’, ‘जिन्ना’ और ‘इन कस्टडी’ जैसी अंगरेजी फिल्मों से वाकिफ नहीं हैं.

सच तो यह है कि उन को अपने हिस्से की वह सफलता, प्रसिद्धि कभी मिली ही नहीं जिस के वे हकदार थे. हिंदी फिल्मों में उन की सफलता का सारा श्रेय अभिताभ बच्चन के स्टारडम तले दब गया तो वहीं इंटरनैशनल सिनेमा में अपनी मौजूदगी को ले कर उन्होंने कभी हल्ला नहीं मचाया जैसा कि आजकल के अभिनेता किसी अंगरेजी फिल्म में अपने 5 मिनट के रोल को सुर्खियों में लाने के लिए अपना हौलीवुड डैब्यू कह कर प्रचारित करते नहीं थकते हैं.

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