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पटना पहुंच कर रीना ने सब से पहले अपने लिए एक नौकरी ढूंढ़ी. उसे एक प्राइवेट नर्सिंग होम में डाइटीशियन की नौकरी जल्दी मिल भी गई. फिलहाल उस के लिए इतना काफी था. मां, पिताजी के साथ उस का बेटा टीटो पलने लगा.

उस शाम रीना नर्सिंग होम से घर के लिए निकल ही रही थी कि एक अनजान नंबर से कौल आई. उस के रिसीव करते ही उस ने इतना ही कहा, ‘‘अपना पता दे सकोगी अभी?’’

अरे, यह अनंत है. उसे अच्छा ही लगा. फिर भी स्त्रीसुलभ विरोध दर्शाते हुए पूछा, ‘‘क्या?’’

‘‘अमेरिका के राष्ट्रपति पूछ रहे हैं, इसलिए.’’

‘‘अच्छा, तुम मजाक भी कर सकते हो. मैं तो सम झ रही थी कि तुम बस ऊंचानीचा, भेदभाव ही कर सकते हो.’’

‘‘माफ करो, इसलिए तो आना चाहता हूं तुम्हारे पास, बहुतकुछ सीखना चाहता हूं तुम से. जीवन को सुंदर तरीके से जीना चाहता हूं. कुएं से बाहर निकलना चाहता हूं. पहली बार एहसास हुआ कि इंसान कितना प्यारा हो सकता है. पता दो न, प्लीज.’’

एक घंटे में अनंत रीना के दरवाजे पर खड़ा था. घर में उस की भरपूर  आवभगत की गई. लेकिन खानेपीने के मामले में चाह कर भी किसी ने पहल नहीं की. अनंत ने आखिर रीना से पानी मांग ही लिया.

रीना ने भेदभरी निगाहें रख उस से पूछा, ‘‘सच? पानी?’’

वह शर्मिंदा सा होता हुआ बोला, ‘‘हां, दो न, हो सके तो चाय भी.’’

दरअसल, ज्यादा पढ़ालिखा न होने की वजह से उस में आत्मविश्वास कम था और अभिव्यक्ति भी. 12वीं के बाद से वह पिता का कारोबार ही संभाल रहा था.

बाजार इलाके में उस के पिता की लाइन से 30 दुकानें किराए पर थीं. उन पैसों की उगाही का काम अनंत के जिम्मे था. पैसे का हिसाब लगाना और जातिबिरादरी के बीच उठनाबैठना, बस, इतनी ही जिंदगी थी उस की. उम्र निकलती जा रही थी, मगर ब्याह को बाबूजी मान नहीं रहे थे. बिरादरी में सब से ऊंचा दहेज देने वाला कोई परिवार हो, तो बात बने. लेकिन इतना दहेज का औफर अब तक अनंत के लिए कोई ला न पाया था कि जिस से बाबूजी संतुष्ट हो पाते.

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