इतने सारे लोगों के बीच रीना अपने समय का चीथड़ा खोलना नहीं चाहती थी. ऊपर से अनंत, अच्छाखासा, देखनेभालने में तरोताजा इंसान उसे ही एकटक अपनी नजरों से निगलता जा रहा था. रीना ने मां को इशारों से रोकना चाहा लेकिन वे अनंत को पुत्रसम मान आंखों से बहते आसुंओं को पोंछपोंछ कर बताती ही जा रही थीं.
‘‘और है ही कौन मेरा? एक बेटा, वह भी अमेरिका जा कर बस गया. उस ने अमेरिकी लड़की से शादी कर ली और वहीं की नागरिकता भी ले ली. 3 साल में एक बार दर्शन देता है. बेचारी मेरी यह रीना होम साइंस के फाइनल ईयर में अच्छे रैंक से पास हुई, साथ में डेढ़ साल के बेटे को संभालती हुई. बस, सब खत्म हो गया. ऐक्सिडैंट में दामाद की मौत के साथ ही इस की जिंदगी सूनी हो गई. देवर ने शादी की, देवरानी ने इतने जाल रचे कि अब इस का वहां टिकना मुश्किल हो गया है.’’
रीना के रोके न रुक रही थी उस की मां. कई लोग कभी ध्यान देते, कभी अनसुना करते. लेकिन कई मानो में परखा गया कि आत्मकेंद्रित अनंत रीना की मां की बात बड़े ध्यान से सुन रहा था. रीना की मां को भी अरसे बाद कोई अच्छा श्रोता मिला था. वे कहती गईं.
‘‘मैं ही ले आई इसे, वहां क्यों जान खपाए. टीटो भी पल जाएगा हमारे साथ.’’
वे अनंत की ओर उम्मीद से देख रही थीं कि उन्होंने सही ही किया हो, इस पर एक राय मिल जाए.
अनंत उन की बातों में खो चुका था. अचानक जैसे होश आ गया हो, बोला, ‘‘हां, हां, ठीक ही तो किया.’’