लेखक - अनिल के माथुर

सरिता, बीस साल पहले, अक्तूबर (प्रथम) 2005

आटा गूंध रही मधु सम झ नहीं पा रही थी कि वह गैस पर चढ़ी सब्जी को भूने, बुक्का फाड़ कर रोते विशू को संभाले या पहले फुरती से आटा गूंधने का काम ही निबटा ले. तभी दरवाजे की घंटी बज उठी.

‘‘उफ, इसे भी अभी ही बजना था,’’ आटा सने हाथों से ही मधु ने दरवाजा खोला. सामने मणिकांत खड़ा था, जो उसी के कालेज में लाइब्रेरी का चपरासी था.

‘‘तुम...’’ बात अधूरी छोड़ मधु रोते विशू को उठाने को लपकी मगर अपने आटा सने हाथ देख कर ठिठक गई. परिस्थिति को भांपते हुए मणिकांत ने अपने हाथ की पुस्तकें नीचे रखीं और विशू को गोद में उठा कर चुप कराने लगा.

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर मधु हाथ धोने रसोई में चली गई. एक मिनट बाद ही तौलिए से हाथ पोंछते हुए वह फिर कमरे में आई और मणिकांत की गोद से विशू को ले लिया.

‘‘मैडम, आप ये पुस्तकें लाइब्रेरी में ही भूल आई थीं,’’ पुस्तकों की ओर इशारा करते हुए मणिकांत ने कुछ इस तरह से कहा मानो वह अपने आने के मकसद को जाहिर कर रहा हो.

मधु को याद आया कि पुस्तकें ढूंढ़ कर जब वह उन्हें लाइब्रेरियन से अपने नाम इश्यू करवा रही थी तभी उस का मोबाइल बज उठा था. लाइब्रेरी की शांति भंग न हो, इसलिए वह बात करती हुई बाहर आ गई थी. पति सुमित का फोन था. वे औफिस के कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों को डिनर पर ला रहे थे. मधु को जल्दी

घर पहुंचना था. जल्दबाजी में वह अंदर से पुस्तकें लेना भूल गई और सीधे घर आ गई थी.

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