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जयेश ने प्रयोगशाला में बैक्टीरिया कल्चर को तैयार किया. सभी विद्यार्थियों को करना था. यह उन के बीएससी पाठ्यक्रम का हिस्सा था. भोजन के पश्चात दोपहर 2 बजे से प्रयोगशाला का सत्र होने से बहुतों को नींद आ रही थी. लैब अटेंडेंट प्रयोग की क्रियाविधि छात्रों को थमा कर वहां से गायब हो जाता था. लैब इंचार्ज भी लेटलतीफ था. जब स्लाइड पर बैक्टीरिया के धब्बों को बंसेन बर्नर पर गरम करने के लिए जयेश ने स्लाइड आगे बढ़ाई तो पता नहीं कैसे वहां रखे ब्लोटिंग पेपर के जरीए आग माइक्रोस्कोप तक पहुंच गई और यहांवहां के कुछ उपकरण भी आग की चपेट में आ गए. तुरंत लैब में ही रखे अग्निशामक से विद्यार्थियों के द्वारा ही आग बुझा ली गई. किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा, लेकिन प्रयोगशाला के कुछ उपकरण ध्वस्त हो गए. जयेश को इस वारदात से गहरा आघात लगा. गलती उस की नहीं थी, अवमानक लैब उपकरण ही इस का जिम्मेदार थे.

शाम को जब जयेश कालेज से वापस अपने घर जाने के लिए चल दिया तो कालेज के खेल के मैदान पर क्रिकेट खेलते छात्रों पर उस की नजर पड़ी. सभी के लिए कालेज वालों ने नई किट मंगाई हुई थी. उसे समझ नहीं आया कि कालेज वाले खेल पर इतना पैसा कैसे खर्च कर सक रहे थे, जबकि विज्ञान प्रयोगशाला में पुराने और जीर्णशीर्ण उपकरण रखे हुए थे. चाहे भौतिकी हो, चाहे रसायनशास्त्र या जीवविज्ञान प्रयोगशाला हो, सभी में रगड़े हुए औजार और उपकरण दिखते थे. ऐसा लगता था, जैसे वे अभी टूट जाएंगे. इस बारे में उस की बात जब अपने खिलाड़ी मित्र संदेश से हुई, तो उस का मित्र हंस दिया. उस ने हंसते हुए कहा, “रांची शहर में रहते हो तुम भैय्या…?”

बात सही थी. रांची शहर में क्रिकेट का जनून था. हिंदुस्तान का पूर्व कप्तान जिस शहर से रहा हो, वहां हर युवा क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहता था.

जयेश उदास लहजे में बोला, “यह बिलकुल भी उचित नहीं है. यह महाविद्यालय है. शिक्षा उन की प्राथमिकता होनी चाहिए.”

जयेश के एक और साथी प्रसनजीत ने भी इस वार्तालाप में भाग लिया. उस ने जयेश का साथ देते हुए कहा, “बात बिलकुल बराबर है. महाविद्यालय का कार्य छात्रों को भविष्य के लिए तैयार करना है. आखिर इन छात्रों में से कितने पेशेवर खिलाड़ी बन पाएंगे?”

संदेश ने हंसते हुए कहा, “कम से कम हम तीनों में से कोई नहीं.”

फिर, जयेश को गंभीर देखते हुए संदेश ने पूछा, “लेकिन, इन छात्रों में से कितने ऐसे हैं, जो वैज्ञानिक बनेंगे?”

प्रसनजीत ने वाजिब प्रश्न किया, “ऐसा नहीं हो सकता है कि महाविद्यालय खेल के पैसों में से कुछ पैसा लैब को नवीनतम बनाने और सुचारू रूप से चलाने पर खर्च करे?”

संदेश बोला, “हमारे शहर में…?”

प्रसनजीत कहने लगा, “70-80 के दशक का इतिहास पढो. तब, जब भी चीजों को बदलने की आवश्यकता पड़ती थी, तो वे धड़ल्ले से विरोधप्रदर्शन करते थे.”

संदेश कहने लगा, “इस मामले में किस चीज का विरोध करोगे भाई?”

प्रसनजीत ने जयेश को सुझाव दिया, “शायद, तुम एक पत्र लिख सकते हो?”

जयेश ने विचार करते हुए कहा, “मुझे लगता है कि मुझे औपचारिक रूप से शिकायत दर्ज करानी पड़ेगी. महाविद्यालय के बोर्ड और मैनेजमेंट से.”

संदेश बोला, “क्या कहोगे तुम उन से?”

जयेश बोला, “यही कि खेल का बजट बाकी के विभागों पर गलत असर छोड़ रहा है.”

संदेश ने फिर हंसते हुए जयेश को समझाने की कोशिश की, “हिंदुस्तान में लाखों शहर और गांव हैं, जहां ऐसी दलील चल सकती है. लेकिन ये रांची है भैय्या, इस बात का ध्यान रखना.”

अगले ही दिन जयेश विश्वास के साथ प्रिंसिपल रत्नेश्वर के चैंबर में जा पहुंचा. प्रिंसिपल की मेज पर काफी कागजात बिखरे पड़े थे. उस ने सिर उठा कर आगंतुक को देखा, “क्या चाहिए?”

जयेश ने अपना लिखा हुआ पत्र प्रिंसिपल के समक्ष कर दिया, “मैं ने औपचारिक शिकायत के रूप में महाविद्यालय के बोर्ड के नाम यह पत्र लिखा है.”

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने अपना चश्मा नीचे करते हुए अनमने से पत्र को निहारा, “क्या है इस में?”

जयेश ने बेझिझक कहा, “यह पत्र इस बारे में है कि खेल पर हम कितना पैसा खर्च कर रहे हैं. उम्मीद है कि आप इस पत्र को उन तक पहुंचा पाओगे.”

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने इसे बिना बात के आई मुसीबत समझा और बेमन से जयेश के हाथों से पत्र लिया, “लाओ दिखाओ.” उस ने आह भरी, और पत्र के बीच में से कोई पंक्ति पढ़ने लगा, “क्रिकेट के खेल में जख्मी होने के आसार बहुत अधिक रहते हैं. खिलाड़ियों में भी गुस्सा भरा हुआ रहता है. विकेट न मिलने और रन न बना पाने की वजह से उत्कंठा से भरे रहते हैं …”

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने हैरतअंगेज हो कर जयेश से पूछा, “तुम को क्रिकेट पसंद नहीं है?”

जयेश ने कोई जवाब नहीं दिया. रत्नेश्वर ने पत्र की अंतिम पंक्ति पढ़ी, “महाविद्यालय के पैसों का बेहतर उपयोग तब होगा, जब उसे विज्ञान और सीखने पर खर्च किया जाएगा.”

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने अपने चश्मे के भीतर से जयेश को घूरा, “इस पत्र को मैं बोर्ड को दूंगा, तो मेरा उपहास उड़ाएंगे.”

उन्होंने जयेश को पत्र लौटा दिया और कहा, “मेरे पास यहां और गंभीर मसले हैं.”

जयेश पत्र ले कर प्रिंसिपल के औफिस से बाहर आ गया. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि प्रिंसिपल के ऊपर भी वह स्वयं ही जाएगा. उसे ही यह कदम उठाना पड़ेगा. तब अचानक उस की नजर नोटिस बोर्ड पर पड़ी. वहां नोटिस लगा हुआ था कि जो भी छात्र संघ का हिस्सा बनना चाहते हैं, वे अपना नाम रजिस्टर करवाएं. अगले हफ्ते चुनाव की तिथि दी गई थी.

आकस्मिक रूप से इस नोटिस का सामने आ जाना जयेश को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो ऊपर वाले की भी यही इच्छा हो. उस ने दृढ़संकल्प बना लिया. बिना एक क्षण की देरी किए वह सीधे प्राध्यापक नीलेंदु के पास जा पहुंचा.

प्राध्यापक होने की वजह से नीलेंदु के पास छोटा ही सही, पर स्वयं का कमरा था. इस बात का उन्हें गर्व था. बाकी की फैकल्टी को अपनी जगहें साझा करनी पड़ती थीं.

नीलेंदु ने अभ्यागत को निहारा, “क्या है?”

जयेश ने पूछा, “सर, आप छात्र संघ चुनाव के इंचार्ज हैं?”

नीलेंदु ने सांस छोड़ कर कहा, “हां, हूं.”

जयेश ने कहा, “सर, मुझे महाविद्यालय का छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ना है.”

नीलेंदु ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, “सही में…?”

जयेश बोला,“जी सर.”

नीलेंदु ने विस्मय से कहा, “ठीक है.”

उन्होंने एक रजिस्टर अपनी डेस्क से निकाला और उस में एंट्री करते हुए कहा, “लेकिन, मैं तुम्हें बता दूं कि तुम किस के विरुद्ध खड़े हो रहे हो – अनुरंजन नावे.”

जयेश को कोई फर्क नहीं पडा, “तो…?”

प्राध्यापक नीलेंदु ने कहा , “छात्र संघ में सभी उसे पसंद करते हैं.”

जयेश इस बात से अनजान था. नीलेंदु ने पहली बार चुनाव लड़ने वाले इस छात्र का मनोबल परखना चाहा, “ये चुनाव लोकप्रियता पर निर्भर हैं. दरअसल, ये लोकप्रियता प्रतियोगिता होती है. जो ज्यादा लोकप्रिय होता है, वही जीतता है.”

यह सुन कर जयेश की भौहें तन गईं. नीलेंदु ने और हथोड़े का प्रहार किया, “स्नातकोत्तर छात्र है अनुरंजन. कितने वर्ष गुजारे हैं उस ने इस महाविद्यालय में. और तुम तो अभीअभी आए हो. तुम्हें तो कोई जानता तक नहीं. मुझे भी नहीं पता कि तुम कौन हो?”

जयेश ने कठोरता से कहा, “चुनाव लोकप्रियता के बारे में नहीं होने चाहिए. उन्हें इस बारे में होना चाहिए कि किस के पास सब से अच्छे विचार हैं.”

नीलेंदु ने मुंह बनाया, “और, तुम्हारे क्या विचार हैं?”

जयेश ने तुरंत उत्तर दिया, “खेल पर कम खर्च और विज्ञान पर ज्यादा.”

नीलेंदु उसे देखता रह गया.

शाम को जब जयेश की मुलाकात अपने मित्रों से हुई, तो उस ने उन्हें इस प्रकरण से अवगत कराया, “मैं ने निश्चय किया है कि छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ूंगा.”

प्रसनजीत खुश होते हुए बोला, “बहुत बढ़िया.”

संदेश ने विस्मय से प्रसनजीत से कहा, “तुम इसे बढ़ावा दे रहे हो? चुनाव में इस का पूरा भाजीपाला निकल जाएगा. बुरी तरह से शिकस्त मिलेगी.”

प्रसनजीत ने नाराजगी से संदेश से कहा, “तुम्हें पूरी बात नहीं पता है.”

संदेश बोला, “मुझे तो यही लगता है.”

प्रसनजीत ने जयेश का मनोबल कायम रखने के लिए कहा, “जीत हो या हार, मुझे तो इस बात की ही खुशी है कि तुम कोशिश कर रहे हो.”

जयेश को शायद और प्रोत्साहन की जरूरत थी, “लेकिन, तुझे ऐसा लगता है कि मैं जीतूंगा?”

प्रसनजीत ने कहा, “मुझे तो यही लगता है कि यह जीत निश्चित रूप से संभव है.”

संदेश ने हुंकार भरी. प्रसनजीत ने संदेश को अनदेखा कर जयेश से पूछा, “क्या तेरे पास अपने अभियान की कोई रणनीति है?”

जयेश ने इस बारे में अभी सोचा नहीं था, “नहीं.”

प्रसनजीत बोला, “कोई ऐसा नारा है, जो एकदम आकर्षक हो?”

जयेश ने फिर कहा, “नहीं.”

प्रसनजीत ने जयेश को समझाते हुए कहा, “हमारी एक आंटी हैं, वृंदा कडवे. वे हमारे इलाके का कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. मैं उन से बात करवा सकता हूं तुम्हारी.”

प्रसनजीत ने तुरंत अपने मोबाइल फोन से वृंदा कडवे को फोन लगाया, “आंटी, मैं प्रसनजीत.”

वृंदा ने आतुर हो कर कहा, “हां, बोलो बेटा, क्या बात है?”

प्रसनजीत ने स्थिति समझाई, “मेरा एक मित्र छात्र संघ के लिए चुनाव लड़ रहा है. वह उम्मीद कर रहा है कि आप उसे कुछ सलाह दे सकती हैं.”

प्रसनजीत ने जयेश को मोबाइल थमा दिया. वृंदा ने पूछा, “बेटा, तुम कभी फेल हुए हो क्या?”

जयेश एक पल के लिए यह प्रश्न सुन कर चौंक गया. फिर संभल कर उस ने उत्तर दिया, “नहीं, मैं हमेशा अव्वल दर्जे में पास हुआ हूं. और मैं हमेशा सभी के साथ तमीज से पेश आता हूं. अपने व्यवहार के बारे में आज तक मैं ने किसी को कुछ कहने का मौका नहीं दिया है.”

कारपोरेटर होने के कारण वृंदा कडवे सफाई को बेहद महत्त्व देती थीं, “तुम अपने आसपास स्वच्छता रखते हो?”

जयेश ने जोश में कहा, “गंदगी तो मुझे सर्वथा पसंद नहीं. आप तो खुद कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. क्या आप चुनाव जीतने के बारे में मुझे कुछ सलाह दे सकती हैं?”

वृंदा ने अपने अनुभव से कहा, “सब से महत्वपूर्ण बात है, बाहर निकलना और लोगों से जुड़ना.”

जयेश को यह थोड़ा मुश्किल कार्य लगा. वह विज्ञान का छात्र था. वह बोला, “मुझे लोगों से बहुत लगाव नहीं है.”

कारपोरेटर वृंदा को अच्छे से इस बात का महत्त्व पता था, “ठीक है, तुम को उस पर काबू पाने की आवश्यकता हो सकती है.”

जयेश ने इस के आगे का कदम जानना चाहा, “मान लें कि मैं यह कर सकता हूं. मैं उन से कैसे जुड़ूं?”

कारपोरेटर वृंदा बोली, “तुम्हारे लिए तो सब से अच्छी शुरुआत करने का तरीका है, सब के साथ दोस्ताना बना कर उन से हाथ मिलाओ.”

हाथ मिलाने के नाम से ही जयेश के हाथ सिकुड़ गए.

अगले कुछ दिनों में जयेश ने अपना अभियान चलाया. उस ने महाविद्यालय में जगहजगह पोस्टर लगवाए. सभी छात्रों से बातचीत की और उन्हें बताया, “मेरा नाम जयेश है और मैं छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ रहा हूं.”

प्रसनजीत और संदेश ने उस का भरपूर साथ दिया. हर जगह, हर विभाग में पोस्टर दिखने लगे, ‘छात्र प्रतिनिधि के लिए जयेश को वोट दीजिए.’

सभी से मिलते समय जयेश ने उन्हें एकएक पेन देना उचित समझा. थोक में खरीदने पर हर पेन की कीमत महज 5 रुपए पड़ी.

ऐसे में अनजाने में उस की मुलाकात अपने प्रतिद्वंद्वी अनुरंजन नावे से हो गई. वाणिज्य विभाग की ओर जाते समय जयेश ने एक लंबे से युवक को जब पेन थमाते हुए कहा, “मैं जयेश हूं. मैं छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ रहा हूं.”

इस पर उस युवक ने मुसकान से कहा, “आखिरकार तुम से मुलाकात हो ही गई.”

बड़े ही गर्मजोशी के साथ जयेश से हाथ मिला कर कहा, “मैं अनुरंजन नावे.”

जयेश ने अपने विरोधी पक्ष पर गौर किया. उसे गौर से देखता देख अनुरंजन ने विस्मय से पूछा, “इस पेन का क्या करना है?”

जयेश ने अस्पष्ट तरीके से कहा, “जो भी असाइनमेंट हम को करने के लिए मिलते हैं, वे इस से कर सकते हैं. मुझे अपने शिक्षकों के दिए हुए असाइनमेंट न केवल अच्छे लगते हैं, बल्कि उन्हें करने में भी मजा आता है.”

अनुरंजन ने मुसकराते हुए पेन ले लिया और कहा, “हम में से जो श्रेष्ठ है, उसी की जीत होगी.” और पेन ले कर वहां से चल दिया.

शाम को जयेश ने यह बात प्रसनजीत को बताई, “वह वाकई में बहुत अच्छी तरह से पेश आया. उस का स्वभाव मुझे अच्छा ही लगा.”

तभी संदेश बोला, “तभी तो वो लोकप्रिय है.”

प्रसनजीत ने एक और रणनीति को कार्यान्वित किया, “अब ढेर सारे चौकलेट ले लेते हैं. चौकलेट सभी को पसंद आते हैं. इस से बाकियों के साथ आत्मीयता बढ़ेगी.”

संदेश ने हामी भरी, “अच्छा तरीका है.”

जयेश बोला, “अब मुझे समझ में आ रहा है कि अमीर व्यक्ति लोगों का वोट कैसे खरीद सकते हैं.”

परंतु अगले दिन जब जयेश महाविद्यालय पहुंचा तो उसे जैसे झटका लगा. हर विभाग में उस के चित्र समेत पोस्टर लगे थे, जिन पर लिखा था, ‘जयेश को वोट देने का मतलब है ज्यादा असाइनमेंट और ज्यादा पढ़ाई.’ पोस्टर में नीचे इस प्रकार से लिखा था: ‘जयेश: “मुझे असाइनमेंट अच्छे लगते हैं.” अगर आप को और असाइनमेंट नहीं चाहिए, तो अनुरंजन नावे को वोट दीजिए.’

यह देख जयेश सकते में आ गया. उस ने पोस्टरों की लड़ी में से एक पोस्टर निकाल कर हाथ में ले लिया. रातोंरात अपने विरोधी पक्ष को अपने से ऊपर होता देख वह दंग रह गया. उस के ही मुंह से निकले हुए शब्द थे ये. वाणिज्य और कला के विद्यार्थी कहां असाइनमेंट जैसी चीज को पसंद करने वाले थे.

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