Hindi Story : मुजफ्फरपुर आए 2-3 दिन हो चुके थे. अभी मैं दफ्तर के लोगों को जानने, समझने, स्थानीय राजनीति की समीक्षा करने में ही लगा हुआ था. मेरा विभाग गुटबंदी का शिकार था. यूनियन 3 खेमों में बंटी थी और हर खेमा अपनी प्रमुखता और दूसरे की लघुता प्रमाणित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ता था. 3 गेंदों को एकसाथ हवा में उछालने वाला जादूगर बिस्मार्क मुझे रहरह कर याद आता था.
अचानक, ‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं,’ का स्वर मेरे कानों में पड़ा. मैं काफी देर से फाइलों में उलझा हुआ था. इस स्वर में निहित विनम्रता तथा संगीतमय खनक ने मेरा ध्यान बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लिया. मैं ने गरदन ऊपर उठाई और चेहरे पर थोड़ी सी मुसकान ला कर कहा, ‘‘हांहां, आइए.’’
‘‘नमस्कार, सर. आप कैसे हैं?’’ आगंतुक सबीर अहमद ने बुलबुल की तरह चहकते हुए कहा.
मैं ने हाथ के संकेत से उसे बैठने का इशारा कर दिया था. वह शायद संकेतों की भाषा में माहिर था. मुसकराते हुए मेरे सामने रखी कुरसियों में से एक पर बैठ गया.
‘‘मैं ठीक हूं. आप कैसे हैं, मि. अहमद?’’ मैं ने पूछा.
‘‘सर, पहली बात तो यह कि आप मुझे ‘मि. अहमद’ न कहें. यह बेहद औपचारिक लगता है. मेरी इल्तिजा है, मेरा अनुरोध है कि आप मुझे सबीर ही कहें. आप से हर मामले में छोटा हूं, उम्र में, नौकरी में, पद में, प्रतिष्ठा में…’’
‘‘बसबस, आगे कुछ मत कहिए, सबीर साहब. तारीफ जब सीमा लांघने लगती है तो उस में चापलूसी की बू आ जाती है, जो कहने और सुनने वाले, यानी दोनों के लिए नुकसानदेह होती है,’’ मैं ने प्यार से मुसकराते हुए कहा तो सबीर ने बड़ी अदा से सिर झुका कर आंखें बंद कर हथेलियों को माथे से सटाया.
मैं ने कहा, ‘‘और दूसरी बात क्या है?’’
‘‘सर, दूसरी बात यह है कि आप बड़े चिंतित लग रहे हैं, पर ऊपर से सामान्य दिख रहे हैं. कृपया इसे चापलूसी न समझें. अगर आप मुझे अपने छोटे भाई की जगह दें तो मुझे बहुत खुशी होगी.’’
पता नहीं क्यों, सबीर के स्वर में मुझे सचाई की झलक महसूस हुई और मैं ने घंटी बजा कर चपरासी को बुला कर कहा, ‘‘2 कौफी…’’
चपरासी के जाने के बाद मैं ने गहरी सांस ली. अंदर की सारी परेशानी मानो थोड़ी देर के लिए बाहर निकल गई.
‘‘मैं गुडि़या और डौली के दाखिले को ले कर बहुत परेशान हूं. महिला कालेज में कई बार जा चुका हूं, पर रिसैप्शनिस्ट हर बार एक ही जवाब देती है कि सीट नहीं है. बेचारी लड़कियां नाउम्मीद सी हो गई हैं,’’ मैं ने कहा.
‘‘सर, आप बेफिक्र रहें, समझ लें कि यह काम हो गया. मैं वाइस चांसलर को जानता हूं. उन से कह कर यह काम करा लूंगा. बस, इस नाचीज को 24 घंटे की मुहलत दे दें और दोनों बेटियों के कागजात भी मुझे दे दें,’’ उस ने इतमीनान से कहा.
‘‘शुक्रिया, दोस्त. अगर यह काम हो गया तो मैं चैन की सांस ले सकूंगा,’’ मैं ने कहा.
तभी कौफी आ गई और सबीर मुझे कौफी पर कई शेर सुनाता चला गया. उस की आवाज तो दिलकश थी ही, शेरों का चयन भी उम्दा था. मैं ने उस की खूब तारीफ की. थोड़ी देर बाद मुसकराता हुआ वह कागजात ले कर चला गया.
अगले दिन वह दोपहर के भोजन के समय मेरे घर पर आ गया. मुझे देखते ही बोला, ‘‘सर, दाखिला हो गया. यह रही रसीद और ये रहे बाकी पैसे.’’
डौली और गुडि़या, जो बेमन से खाना सजा रही थीं, यह बात सुनते ही उछल पड़ीं.
‘‘यह तुम्हारे सबीर चाचा हैं. इन्होंने ही इस काम को करवाया,’’ मैं ने बेटियों से कहा तो दोनों ने उन्हें धन्यवाद दिया. पत्नी ने अपनी खुशी का इजहार, ‘सबीर भाईसाहब, खाना खा कर ही जाइएगा,’ कह कर किया.
सबीर ने पहले तो इनकार किया, पर मां, बेटियां उस पर इतनी मेहरबान थीं कि बिना खिलाए जाने ही नहीं दिया.
2 दिनों बाद रविवार था. मैं बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था. अचानक सबीर को जीप से उतरते देखा. ‘यह तो मोटरसाइकिल सवार है, जीप से कैसे?’ मैं अभी सोच ही रहा था कि ड्राइवर ने पीछे से 2 गैस सिलिंडर उतारे और सबीर के निर्देश पर भीतर ले आया.
उसी समय मेरी पत्नी भी बाहर आ गई. गैस सिलिंडर देख कर वह बहुत प्रसन्न हुई. शायद मैं ने उसे बहुत कम मौकों पर इतना पुलकित देखा था. वह खिलखिलाती हुई बोली, ‘‘वाह, भाईसाहब, वाह, स्टोव से पीछा छुड़ाने का लाखलाख शुक्रिया.’’
सबीर नए दूल्हे की तरह शरमाता हुआ बोला, ‘‘इस में शुक्रिया काहे का, मालूम होता तो यह काम पहले ही हो जाता.’’
‘‘पर तुम्हें गैस के लिए किस ने और कब कहा?’’ मैं ने परेशान होते हुए पूछा.
‘‘मैं ने कहा था जब उस दिन आप स्नानघर में घुसे हुए थे. इन्होंने पूछा, ‘और कोई सेवा?’ और मैं ने अपना दुखड़ा सुना दिया,’’ जवाब पत्नी ने दिया
‘‘पर यह सब करनेकराने की क्या जरूरत थी, 2-4 माह स्टोव पर ही…’’ मैं ने पत्नी पर नाराजगी उतारते हुए कहा, ‘‘तुम यूनियन वालों को नहीं जानतीं, वे लोग हंगामा खड़ा कर देंगे कि क्षेत्रीय प्रबंधक स्टाफ को अपना घरेलू नौकर समझते हैं. बनीबनाई इज्जत धूल में मिल जाएगी.’’
‘‘सर, मैं ने आप से प्रार्थना की थी कि मुझे अपना छोटा भाई समझें. क्या भाभीजी का छोटामोटा काम आप के भाई नहीं करते? क्या घर वाले एकदूसरे पर एहसान करते हैं?’’ उस ने दुखी स्वर में कहा.
‘‘माफ करना, भई, मेरा इरादा तुम्हें दुख पहुंचाना नहीं था, पर…’’ कहतेकहते मैं रुक गया. मुझे शब्द ही नहीं मिल रहे थे.
‘‘परवर कुछ नहीं, सर, डीएम का पीए मेरा भाई है, उसी से कह कर महीनों का काम कुछ दिनों में करवा लिया, वरना गैस एजेंसी वाले तो ऐसा चक्कर डालते हैं कि कभीकभी 2 साल भी लग जाते हैं. मैं आखिर किस मर्ज की दवा हूं…’’
मेरा परिवार सबीर पर फिदा था. पत्नी तो उसे घर का सदस्य ही समझती थी. चंद दिनों में उस ने राशनकार्ड भी बनवा दिया. घर की हर जरूरत, हर समस्या वह ‘भाभीजी’ यानी मेरी श्रीमती की इच्छानुसार पूरी करवाता.
सबीर की निकटता ने मुझे यूनियन के झगड़ों से भी मुक्त कर दिया था. वह सभी गुटों का काम करता, करवाता. सब के बच्चों के दाखिले और शादीब्याह वगैरा में मदद करता. वह सब की आंखों का तारा, हरदिल अजीज सबीर भाई था.
वह औफिस के काम में भी बहुत चुस्त था. जो सूचना चाहिए, सबीर अहमद मिनटों में दे देता. औफिस के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तो वह जान ही था. अकसर मैं सोचता, ‘प्रकृति ने इस आदमी में एकसाथ इतने गुणों को भर दिया है कि सामने वाला न चाहते हुए भी खुद को इस पर निर्भर मानता है.’
वह मोतिहारी में क्षेत्राधिकारी था. मुजफ्फरपुर से मोतिहारी की दूरी 80-85 किलोमीटर है, पर उस के लिए यह सामान्य सी बात थी.
मैं अभी मोतिहारी गया भी नहीं था, सारे क्षेत्राधिकारी महीने में 1-2 बार मुख्यालय आते और आवश्यक जानकारी दे जाते.
एक दिन सबीर ने प्रार्थनापत्र देते हुए कहा, ‘‘सर, मैं ने मोतिहारी में किराए का मकान ले लिया है, गांव से पत्नी और बच्चों को ले आया हूं. सरकारी नियमों के अनुसार, मकान में दफ्तर रखने पर किराया मिल जाता है, आप निरीक्षण कर लेते और ओसीआर यानी औफिस कम रैजीडैंस प्रमाणपत्र दे देते तो मुझे प्रतिमाह 15 सौ रुपए मिल जाते.’’
‘‘ठीक है, पता मेरे ड्राइवर को बता दो. मैं अगले सप्ताह मोतिहारी कार्यालय का निरीक्षण करने आऊंगा तो यह कार्य भी कर दूंगा.’’
‘‘शुक्रिया, सर,’’ कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ. थोड़ी देर बाद उस की मोटरसाइकिल के स्टार्ट होने की आवाज आई, जो धीरेधीरे दूर होती चली गई.
मैं ने पान की पीक थूकने के लिए खिड़की का परदा उठाया. आसमान पर हलकेहलके बादल तैर रहे थे, धूप की चमक फीकी हो रही थी, जो कि वर्षा आने का संकेत था. मौसम तेजी से बदल रहा था, जो कि स्वास्थ्य के लिए बुरा था.
मोतिहारी में सबीर का मकान ढूंढ़ना नहीं पड़ा. चांदमारी महल्ले के मोड़ पर ही सबीर मुझे पान की एक दुकान पर मिल गया. फिर अपने मकान पर ले गया. बाहर नेमप्लेट पर लिखा था, ‘सबीर अहमद, फील्ड औफिसर, इफको.’
वह मुझे बैठक में ले गया. कमरे को दफ्तर कहना ज्यादा श्रेष्ठ था. एक बड़ी सी मेज व 6 कुरसियां लगी थीं. मेज पर मेरे विभाग का कैलेंडर रखा था, डायरी थी, फाइलें थीं और कागज आदि थे. दीवार पर विभागीय मोनोग्राम लटका हुआ था. एक कोने में सोफासैट था, हम उस पर बैठ गए.
थोड़ी देर बाद 8-9 वर्ष की प्यारी सी गुडि़या कौफी ले कर आई. उस ने सलीके से ‘नमस्ते, अंकल,’ कहा और ट्रे मेज पर रख कर बाहर चली गई. सबीर ने हंस कर कहा, ‘‘बड़ी शरमीली बिटिया है.’’
मैं ने कहा, ‘‘नहीं, बड़ी प्यारी बिटिया है.’’
इस पर हम दोनों हंस पड़े.
सबीर फाइलें लाता रहा, मुझे दिखाता रहा और अपने बारे में भी बताता रहा. उस ने कहा कि एक कमरे में उस की गर्भवती बहन रह रही है, जो प्रसव के लिए आई है, दूसरे में उस का परिवार है. बैठक को औफिस बना लिया है. एक स्टोर, रसोई और भोजनकक्ष है.
कुछ देर बाद वह भीतर गया और जल्दी ही लौट कर बोला, ‘‘सर, खाना तैयार है, अम्मी बुला रही हैं.’’
निरीक्षण के दौरान उस के घर खाना खाना मेरे अुनसार गलत कार्य था. मैं ने मना कर दिया, मगर उस के पैने तर्कों के आगे मेरे सिद्धांत फीके लग रहे थे. वह मां की ममता का वास्ता दे रहा था, ‘‘अम्मी बहुत दुखी हो जाएंगी. वे कह रही हैं कि हम मुसलमान हैं, इसलिए हमारे घर का खाना…’’
अंत में मुझे भोजन के लिए उठना ही पड़ा. पता नहीं मन की किस भावना ने मुझे खाने से ज्यादा उस की भावना के प्रति नतमस्तक कर दिया. रसोई सामने थी. एक बूढ़ी, विधवा औरत वहां मौजूद थी. मैं ने ‘प्रणाम, माताजी,’ कहा तो उन्होंने ‘जीते रहो, भैया,’ कह कर ममता का सागर उड़ेल दिया. खाना शाकाहारी व बेहद स्वादिष्ठ था. 2 स्त्रियां दूसरे कमरे में दिखीं, मगर मैं ने सोचा ‘परदे की वजह से शायद वे सामने नहीं आईं.’
चलते समय वह बच्ची फिर आई और ‘नमस्ते, अंकलजी, फिर कभी आएइगा,’ कह कर अपने नन्हे हाथों से बायबाय कर गई.
मैं संतुष्ट था, उस का मकान वास्तव में 15 सौ रुपए के लायक था, उस में दफ्तर मौजूद था ही, परिवार भी रहता था. मैं ने तुरंत ही ओसीआर रिपोर्ट पटना भेज दी. कुछ दिनों बाद उस की स्वीकृति भी आ गई और सबीर को हर माह 15 सौ रुपए मिलने लगे.
लगभग 4-5 महीने बाद मेरे बड़े भाई की लड़की की शादी मोतिहारी में होनी तय हुई. लड़का तो दिल्ली में नौकरी करता था. पर उस के मातापिता मोतिहारी में ही रहते थे. भैया को केवल उन का नाम और चांदमारी महल्ला ही पता था. अचानक बादलों में जैसे बिजली कौंध गई, सबीर का खयाल आते ही मैं स्फूर्ति से भर उठा.
ड्राइवर ने मोतिहारी में सबीर के मकान के आगे गाड़ी रोकी. मैं अभी गाड़ी से उतर भी नहीं पाया था कि सबीर की नन्ही सी प्यारी सी, बिटिया ने ‘नमस्ते, अंकल,’ कहा.
मैं ने बिस्कुट का पैकेट बच्ची को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘बेटा, पापा घर पर हैं?’’
‘‘जी हां.’’ थोड़ी देर में एक सज्जन अंदर से आए. लंबा कद और आंखों पर चश्मा. मैं ने पूछा, ‘‘सबीर घर पर हैं क्या?’’
वे हैरानी से बोेले, ‘‘कौन सबीर?’’
मैं ने प्रत्युत्तर में पूरी दास्तान सुनाते हुए कहा, ‘‘आप सबीर को नहीं जानते?’’
‘‘अच्छाअच्छा, सबीर साहब, देखिए, उस दिन एक रोज के लिए यह घर उन्होंने एक हजार रुपए किराए पर लिया था. मेरी ‘नेमप्लेट’ उतारी गई और उन की पहचान टांगी गई और नौकरानी ने मां बन कर खाना खिलाया. मेरी बेटी ने उन की बेटी की भूमिका निभाई. बस, खेल खत्म पैसा हजम.’’
मैं ने वितृष्णा से कहा, ‘‘शर्म आनी चाहिए.’’
वे छूटते ही बोले, ‘‘किसे? मुझे या सबीर साहब को? अरे साहब, यह सब इस बिहार में दाल में नमक के बराबर भी नहीं, समुद्र में एक चम्मच चीनी मिलाने जैसा है. यहां आएदिन घोटाले हो रहे हैं, मंत्री अरबों लूट रहे हैं तो सरकारी कर्मचारी हरिश्चंद्र क्यों बने रहें?’’
मैं वापस चल पड़ा. नुक्कड़ पर पान वाले से आ कर पता पूछा. आज उस से अंतिम फैसला करना है. मैं गुस्से से उबल रहा था. मेरा विश्वास, मेरी ईमानदारी को सबीर ने दांव पर लगा दिया था.
पान वाले ने उस का नाम सुनते ही कहा, ‘‘हां साहब, जानते हैं हम. उन्हें हम ही क्या, इस शहर का हर पान वाला एक उम्दा इंसान समझता है. बड़े रईस आदमी हैं, मोतिहारी के चांदमारी में भी एक मकान है, चकिया में स्वयं रहते हैं. पीपराकोड़ी में उन का विशाल फार्महाउस है, वहां मेरा भाई दरबान है, हुजूर.’’
‘स्वयं चकिया में, फार्महाउस पीपराकोठी में और पता चांदमारी का. वाह रे सबीर, क्या गुल खिलाया है तुम ने,’ मैं ने मन ही मन भन्नाते हुए कहा. मूड खराब हो चुका था. सो, लौट जाने का निर्णय किया.
अचानक मैं ने ड्राइवर से पीपराकोठी फार्महाउस चलने को कहा. ज्यादा परेशानी नहीं हुई. मुख्य सड़क से 14-15 किलोमीटर अंदर झखराग्राम में उस का फार्महाउस मिल गया. दरबान को उस के भाई का हवाला दिया तो उस ने विशाल फाटक खोल दिया. अंदर किले सा दृश्य था. चमचमाती सड़क और सुंदर सा गैस्टहाउस. गैस्टहाउस के पीछे एक विशाल गोदाम और वहां खड़े दर्जनों ट्रक. मैं ने वहां खड़े एक व्यक्ति से कहा, ‘‘मैं सीबीआई इंस्पैक्टर राणा हूं.’’
फार्महाउस में इफको खाद में नदी की बारीक रेत मिलामिला कर 1 टन खाद को 3 टन बनाया जा रहा था और करोड़ों रुपए गैरमामूली तौर पर कमाए जा रहे थे. पूछताछ से ज्ञात हुआ कि इस काले व्यापार में मंत्री महोदय भी बराबर के हिस्सेदार हैं. मैं सबीर के चरित्र के इस विरोधाभास पर हतप्रभ था.