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मैं बस स्टैंड के पास पहुंचा. अनुपम वहां नहीं था. उस की जगह खाली थी. मैं काफी देर खड़ा रहा कि शायद अनुपम आ जाए. हफ्ते के छहों दिन, सिर्फ रविवार को छोड़ कर, वह वहीं रहता था. पर आज वो नहीं आया था. पता नहीं क्यों नहीं आया. क्या मालूम कहीं बीमार न हो गया हो. या कहीं और न बैठने लगा हो. पर उस का तो चार सौ रुपया मेरे पास जमा है. चलो हो सकता है कल आ जाए. तभी मेरी बस आती दिखाई दी. मैं जल्दी से बढ़ कर बस में चढ़ गया.

अनुपम दूसरे दिन भी नहीं आया. यहां तक कि तीसरे चौथे दिन भी नहीं दिखाई दिया. मुाझे बेचैनी होने लगी. चार सौ की राशि एक बड़ी राशि थी. कम से कम अनुपम के लिए तो बड़ी राशि थी ही. मैं ने आने के दूसरे दिन ही बैंक से रुपए निकाल लिए थे व पर्स के पीछे वाले खाने में चार सौ रुपए संभाल कर रख दिए थे. अपना पर्स मुझे भारी लगने लगा था. दूसरा दिन शनिवार था. मैं ने तय किया कि अगर अनुपम कल भी नहीं आया तो मैं स्टेशन पर जा कर देखुंगा. रात आठ बजे तक वह वहां बैठता है ऐसा उस ने बताया था. शनिवार को भी अनुपम अपनी जगह नीम के पेड़ के नीचे नहीं आया. आफिस के बाद मैं ने कुछ खाने के लिए बनाया. खाना खत्म होतेहोते फिर धुआंधार बारिश होने लगी. कुछ करने को था नहीं सो मैं खाट पर लेट कर एक उपन्यास पढ़तेपढ़ते जो सोया तो सात बजे नींद खुली. लाइट गायब थी. मैं ने लालटेन जलाई.

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