शाम का समय था. कविता पार्क में एक बैंच पर बैठी थी. बैंच पर उस के बराबर में एक बच्चा खेलतेखेलते थक कर बैठा तो कविता का मन हुआ बच्चे के मासूम चेहरे पर बहते पसीने को अपने दुपट्टे से पोंछ दे लेकिन कुछ ही दूरी पर टहलते उस के मातापिता कहीं अन्यथा न लें, यह सोच कर वह अपनी इच्छा मन में दबाए चुपचाप बच्चे को देखती रही. बच्चे ने उसे अपनी तरफ देखते पाया तो सकुचा कर अपने मम्मीपापा की ओर दौड़ पड़ा. उस महिला ने बांहें फैलाईं और बच्चा मां की गोद में चढ़ गया और यह दृश्य देख कर कविता का मन ममता से भीग गया. उस की आंखें भर आईं. क्या कभी उस की बांहों में कोई ऐसे ही दौड़ कर नहीं आएगा? क्या वह ऐसे ही जीती रहेगी?
सबकुछ है उस के जीवन में, एक बेहद प्यार करने वाला पति, सारी भौतिक सुखसुविधाएं लेकिन जीवन की इस कमी का क्या करें. कितना कुछ हुआ इन 7 सालों में, कितने सपने देखे, कुछ पूरे हुए कुछ टूट कर बिखर गए. वह कभी हंसती, कभी रोती रही लेकिन जीवन का सफर यथावत चलता रहा. समय को तो गुजरना ही है. उस में किसी के सुखदुख के लिए ठहराव की गुंजाइश ही कहां है.कितने टैस्ट हुए थे, उसे याद आया, विनय ने सारी रिपोर्ट्स आने के बाद जब उसे बताया था कि वह कभी मां नहीं बन सकती तो कविता इस मानसिक आघात से कितनी विचलित हुई थी और विनय ने ही कैसे प्यार से उसे समझाया था.
आंखों से बहते आंसुओं का गीलापन जब गालों को छूने लगा तो एहसास हुआ कि वह पार्क में बैठी है. अंधेरा होने लगा था. घड़ी देखी, विनय के औफिस से आने का समय हो चुका था. घर चलना चाहिए, सोच कर पार्क में खेलते बच्चों पर एक नजर डाल कर वह उदास मन से लौट आई और विनय के आते ही उस का मूड एकदम बदल गया. विनय की प्यारभरी बातों ने उस के चेहरे की उदासी को हमेशा की तरह हंसी में बदल दिया. चाय बनातेबनाते उसे कभी कहीं पढ़े हुए इमर्सन के एक निबंध ‘फिलौसफी औफ कम्पैन्सेशंस’ की पंक्तियां याद आ गईं. निबंध के अनुसार, ‘प्रकृति और जीवन मनुष्य की हर त्रुटि, हर हानि, हर अभाव का कोई न कोई मुआवजा, किसी न किसी रूप में अदा कर देते हैं. जीवन के मुआवजे सदा ही प्रदर्शनात्मक नहीं होते. जीवन ऊपरऊपर से बहुत कुछ हर कर कोई ऐसी आंतरिक निधि दे सकता है कि उस से बड़ेबड़े धनाधिपतियों को ईर्ष्या हो.’