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अपनी आदत के अनुरूप नेहा कुछ कहनेसुनने के बजाय रोने लगी. नीरजा उसे चुप कराने लगीं. राजेंद्रजी सिर झुका कर खामोश बैठ गए. संजीव को वहां अपना हमदर्द या शुभचिंतक कोई नहीं लगा.

कुछ देर बाद नेहा अपनी मां के साथ अंदर वाले कमरे में चली गई. संजीव के साथ राजेंद्रजी की ज्यादा बातें नहीं हो सकीं.

‘‘तुम मेरे प्रस्ताव पर ठंडे दिमाग से सोचविचार करना, संजीव. अभी नेहा की बिगड़ी हालत तुम से छिपी नहीं है. उसे यहां कुछ दिन और रहने दो,’’ राजेंद्रजी की इस पेशकश को सुन संजीव अपने घर अकेला ही लौट गया.

नेहा को वापस न लाने के कारण संजीव को अपने मातापिता से भी जलीकटी बातें सुनने को मिलीं.

गुस्से से भरे संजीव के पिता ने अपने समधी से फोन पर बात की. वे उन्हें खरीखोटी सुनाने से नहीं चूके.

‘‘भाईसाहब, हम पर गुस्सा होने के बजाय अपने घर का माहौल सुधारिए,’’ राजेंद्रजी ने तीखे स्वर में प्रतिक्रिया व्यक्त की, ‘‘नेहा को आदत नहीं है गलत माहौल में रहने की. हम ने कभी सोचा भी न था कि वह ससुराल में इतनी ज्यादा डरीसहमी और दुखी रहेगी.’’

‘‘राजेंद्रजी, समस्याएं हर घर में आतीजाती रहती हैं. मेरी समझ से आप नेहा को हमारे इस कठिनाई के समय में अपने घर पर रख कर भारी भूल कर रहे हैं.’’

‘‘इस वक्त उसे यहां रखना हमारी मजबूरी है, भाईसाहब. जब आप के घर की समस्या सुलझ जाएगी, तो मैं खुद उसे छोड़ जाऊंगा.’’

‘‘देखिए, लड़की के मातापिता उस के ससुराल के मसलों में अपनी टांग अड़ाएं, मैं इसे गलत मानता हूं.’’

‘‘भाईसाहब, बेटी के सुखदुख को नजरअंदाज करना भी उस के मातापिता के लिए संभव नहीं होता.’’

इस बात पर संजीव के पिता ने झटके से फोन काट दिया. उन्हें अपने समधी का व्यवहार मूर्खतापूर्ण और गलत लगा. अपना गुस्सा कम करने को वे कुछ देर के लिए बाहर घूमने चले गए.

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