अभी वो पकौड़ियां अपनी परिस्थितियों से जूझ ही रही थीं कि सधे हुए हाथों ने कलछी की एक थपकी से उन्हें पलट दिया और वो फिर तेलरूपी भव सागर में डूबनेउतराने लगीं. तभी…
“साहब, कहां बैठना पसंद करेंगे?”
“कहीं भी बैठा दो भाई. बस, जगह साफसुथरी हो. हमें यहां कोई बसना थोड़ी है,” प्रखर ने मुसकराते हुए कहा.
“साहब, अंदर एसी रूम भी और फैमिली के लिए भी अलग से बैठने का हिसाब है. आप कहें तो वहीं लगा दूं.”
“एसी, इस मौसम में? तुम तो भाई, बस, यहीं गरमागरम पकौड़ियां और अदरक वाली चाय पिलाओ.” प्रखर आज बहुत ही हल्के मूड में थे.
पूर्वी और महिमा वहीं चारपाई पर बैठ गईं.
एक 17-18 साल का लड़का हाथ में कुल्हड़ और चाय की केतली लिए हाजिर था. उस के पीछेपीछे ढाबे का मालिक, जो पकौड़ियां तल रहा था, एक हाथ में प्याज की पकौड़ी और दूसरे हाथ में धनिया व हरीमिर्च की अधकचरी चटनी लिए खड़ा था. पकौड़ियों के साथ धनियामिर्च की चटनी सोने पर सुहागा का काम कर रही थी. प्रखर, मयंक और महिमा उस के स्वाद में डूब गए. पूर्वी चुपचाप चाय की चुस्कियां लेती रही. पकौड़े के हर टुकड़े के साथ प्रखर के मुंह से वाहवाह निकलती. प्रखर खाने के बहुत शौकीन थे. शहर का कोई भी ठेला, ढाबा और होटल नहीं था जो उन की नजर से बच जाए. पूर्वी प्रखर का ठीक उलटा थी, उसे सीधासादा घर का खाना ही पसंद था. तभी महिमा की नजर दूर किसी आकृति पर पड़ी.
“पापा, वह क्या है?”
“अरे, वह बहुत पुराना किला है. किसी राजा ने बनवाया था. इतिहास सब्जैक्ट मेरा शुरू से बहुत खराब है. तेरी मम्मी ही बता सकती है. तेरी मम्मी का मायका है. भाई, सुना है इन के रिश्तेदारों ने बनवाया था,” प्रखर ने पूर्वी को फिर छेड़ा.
“आप भी न कहीं भी शुरू हो जाते हैं. महिमा क्या सोचेगी आप के बारे में. अब आप ससुर बन चुके हैं.”
“तो क्या हुआ,” प्रखर उसी तरह हंसते रहे.
“आओ महिमा, तुम्हें आज यह किला भी दिखाते हैं.”
पूर्वी कुछ कहना चाहती थी पर उस के शब्द मौन हो गए थे. किस हक से रोकती और क्यों. उन परछाइयों से जितना दूर भागती वे उतना ही उस की देह, उस के जीवन से चिपक जातीं. गाड़ी तेजी से किले की तरफ बढ़ती जा रही थी और पूर्वी का मन न जाने क्यों टूटता जा रहा था. शादी के बाद एकदो बार वह प्रखर के साथ किले पर आई थी पर कोई न कोई बहाना कर के वह वहां से जल्दी चली आती. जैसे, भाग जाना चाहती थी वह उन यादों से, पर…
सुबह का समय था. किले में भीड़ अभी कम ही थी. मयंक अपने मोबाइल से महिमा और किले की तसवीरें निकाल रहा था. पूर्वी और प्रखर नवयुगल को छोड़ आगे बढ़ गए. वे दोनों कबाब में हड्डी नहीं बनना चाहते थे. किले की चढ़ाई चढ़तेचढ़ते पूर्वी थक गई थी. पूर्वी और प्रखर चलतेचलते किले के भीतरी भाग तक पहुंच गए. पूर्वी की आंखें तेजी से कुछ ढूंढ रही थीं. वैसी ही तो थीं जैसे आज से 30 पहले थीं.
लाल गुलमोहर से लदा पेड़ और पेड़ के नीचे वो लकड़ी की बैंच आज भी वहां वैसे ही पड़ी थी. कुछ भी तो नहीं बदला था. आज भी बैंच पर गुलमोहर की सुर्ख पंखुड़ियां वैसे ही बिखरी हुई थीं. वर्षों हो गए थे उसे यहां आए. हमेशा सोचती थी वह कि उस की मुहब्बत को मुकम्मल जहान न मिल सका.
गुलमोहर के फूलों के बीच झांकती रेशमी किरणें क्या फिर किसी प्रेमी युगल जोड़े पर वैसे ही बिखर सकी होंगी? क्या फिर कभी गुलमोहर के तले पड़ी यह बैंच पहले की तरह आबाद हो सकी होगी. कितने अरमानों और दर्द में लिपटी सिसकियों की गवाह थी यह बैंच. क्या कभी फिर किसी प्रेम युगल की मासूम हंसी से वो खिलखिलाई होगी या फिर सिर्फ यात्रा की थकान से चूर राहगीरों को पलभर के लिए फुरसत से सांस लेने के लिए सिर्फ एक बैंच बन कर ही रह गई होगी. क्या बैंच के उन उखड़े पेंट के बीच दबीदबी सिसकियों को कोई सुन पाया होगा. शायद नहीं.
पूर्वी थक चुकी थी. थकान से उस की धौकनी जोरजोर से चल रही थी. जिस की आवाज प्रखर ने भी महसूस की पर यह थकान शायद तन से ज्यादा मन की थी. न जाने क्यों फागुन बेरंग सा लग रहा था. एक पल को लगा गुलमोहर और वह बैंच उदास नजरों से उसे देख रहे थे. आखिर वो ही तो गवाह थे उस की उस अनकही दास्तां के, एक ऐसी दास्तां जो मुकम्मल न हो सकी.
गुंबद के दाहिने हाथ पर संकरे से गलियारे में सूखी पत्तियां लोट रही थीं. टौफीचौकलेट, चिप्स और गुटखे की रंगबिरंगी पन्नियां सूखी पत्तियों के बीच चमक रही थीं. न जाने क्यों पूर्वी के कदम उस गलियारे की तरफ बढ़ गए. पूर्वी ने दबे पांवों गलियारे में प्रवेश किया पर सूखी पत्तियों ने उस के आगमन की चुगली कर दी और शोर मचाने लगीं.
पूर्वी के चेहरे पर मुसकान तैर गई. यह पेड़ महज सिर्फ पेड़ नहीं, उस के खूबसूरत अतीत और यादों का गवाह भी था. जो दीवारें उसे अपरिचितों की तरह देख रही थीं, उस के हलके स्पर्श को पा कर मानो जी उठीं. उस की उंगलियों की खुशबू उन दीवारों में फैल गई. गलियारे के अंतिम छोर पर झरोखे के नीचे हाथ फेरते पूर्वी के हाथ उन खुरदुरे शब्दों से टकरा गए- ‘पूर्वी संग पीयूष उन्नीस सौ पच्चासी’. उसे लगा मानो उस ने बिजली के नंगे तारों को छू लिया हो. आज भी, इतने वर्षों बाद भी, वे शब्द खुदे थे. होते भी क्यों न, उस ने उस के दुप्पट्टे से सेफ्टी पिन निकाल कर किले के इस संकरे गलियारे में दुनिया से छिपा कर उकेरा था. कहते हैं मरतेमरते एक दिन इच्छाएं भी मर जाती हैं पर क्या प्यार भी?
मौसम खुशनुमा हो रहा रहा था. फरवरी की गुलाबी ठंड और हलकी धूप में गुलमोहर खिलखिला रहा था. अचानक से न जाने कैसे आसमान में काले बादल छा गए थे. इस मौसम में काले बादल… पूर्वी को लगा ये महज बादल नहीं, उस के हृदय का प्रतिरूप हैं. आंखें न जाने क्यों सजल हो आईं. सिर्फ बारिश ही नहीं भिगोती, जब आर्द्रता बढ़ जाए तो मन यों भी बरस जाता है. वह यादों के गलियारे में 30 साल पीछे खड़ी थी.
‘किसी ने देख लिया तो,’
‘तो क्या, तुम और मैं एक ही तो हैं,’ कितने आत्मविश्वास से पीयूष ने उस दिन उस से कहा था. आज भी वह नाम उन बीते लमहों की याद दिला रहा था. ‘बंद दरवाजों पर भी प्रेम जरा बाकी है, सबकुछ सूख गया, फिर भी हरा बाकी है…’ किसी की लिखी ये पंक्तियां अनायास ही याद आ गईं. पूर्वी ने नजर उठा कर देखा, पूरा किला प्रेमीप्रेमिकाओं के प्यार का गवाह बना हुआ था. किले की दीवारों, झरोखों यहां तक कि छतों पर भी प्यार की निशानियां चौक, लाल ईंट या फिर किसी नुकीली चीज से उकेरी हुई थीं. पूर्वी सोच रही थी इस में से कितनों की मुहब्बत अपनी मंजिल पा पाती हैं या फिर बस यों ही इबारत बन कर ही रह जाती है.
प्रखर पूर्वी को ढूंढतेढूंढते उस गलियारे तक पहुंच गए थे.
“तुम यहां, कहांकहां नहीं ढूंढा तुम्हें.”
पूर्वी ने कोई जवाब नहीं दिया और वह दीवारों का सहारा ले कर गलियारे से निकलने लगी. प्रखर ने अपना हाथ बढ़ा दिया. पूर्वी की आंखें मुसकरा दीं. उन मजबूत हाथों के सहारे ही तो जीवन के 30 वसंत पार कर चुकी थी. उसे हमेशा लगता था कि प्यार उस से रूठा हुआ है जैसे जाड़े की ठिठुरती सुबह में कुहासे से सूरज. पर प्रखर का साथ सर्द गुलाबी रातों में पश्मीने की तरह ही तो था. प्रखर ने हमेशा की तरह पूर्वी की साड़ी के आंचल से अपने चश्मे को साफ किया और गुंबद की नक्काशी को देखने लगे.
“अरे पूर्वी, देखो तुम्हारा नाम, ‘पूर्वी संग पीयूष उन्नीस सौ पच्चासी’. वैसे, यह पीयूष कौन है?” प्रखर की बात सुन पूर्वी का चेहरा लाल और कान गरम हो गए. हथेलियों पर पसीना उभर आया.
“आप भी न कुछ भी बोलते हैं, सारी दुनिया में एक मैं ही पूर्वी रह गई हूं. सासससुर बन गए हम. कुछ सालों में दादादादी भी बन जाएंगे और आप….”
पूर्वी प्रखर का हाथ छुड़ा कर आगे बढ़ गई. एक अनजाने डर ने उसे जकड़ लिया, कहीं प्रखर को कुछ…नहींनहीं, वह दास्तां उस के दिल में कब की दफन हो चुकी है. उस मरी हुई मुहब्बत, उन अरमानों ने आज वर्षों बाद एक बार करवट ली थी. क्या प्रखर ने उस की चोरी पकड़ ली थी.
“अरे यार, तुम तो नाराज हो गईं. मैं तो मजाक कर रहा था. अब मान भी जाओ.”