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गाड़ी में बैठते ही पूर्वी ने कार की खिड़कियां खोल दीं. हवा के तेज झोंके से बालों की गिरहें खुलने लगीं और शायद पूर्वी के मन की भी. महिमा मयंक की सिर्फ पत्नी नहीं थी, उस की बहू भी थी. यह बात समझने और मानने में उस को वक्त जरूर लगा पर आज उसे महिमा से कोई शिकायत नहीं थी.

मयंक उस की इकलौती संतान थी. हर मां की तरह अपने बेटे के लिए उस के भी कुछ अरमान थे. मयंक ने पूर्वी को उस के लिए बहू ढूंढने का मौका तक नहीं दिया. इस बात के लिए कहीं न कहीं वह महिमा को ही दोषी मानती थी, हर मां की तरह उसे अपना बेटा भी मासूम और नासमझ ही लगता था.

महिमा ने ही उसे अपने रूपजाल में फंसा लिया होगा, मेरा मयंक तो गऊ है. माना वह मां थी, अपने बेटे से बहुत प्यार करती थी लेकिन जिसे विशाल बरगद होना है उसे बोनसाई बना कर घर में सजा देना यह प्रेम तो नहीं है, एक कैद है जिसे वह अपना प्यार समझ रही थी. दरअसल, मयंक के लिए वह जंजीर जैसा बन गया था.

मयंक और महिमा के प्यार की डगर भी कहां आसान थी. मयंक की बेरोजगारी और दोनों परिवार की असहमति, कुछ भी तो नहीं था उन के पास. था तो बस एकदूसरे पर विश्वास. वह दिन था और आज का दिन, कार के आगे की सीट पर मयंक और महिमा बैठे हुए थे. प्रखर ने जबरदस्ती उसे मयंक के साथ आगे बैठा दिया था.

“मयंक, आज तुम गाड़ी चलाओ, मैं पीछे आराम से तुम्हारी मम्मी के साथ बैठूंगा.”

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