स्वाति के घर मेरा अचानक चले आना महज एक इत्तफाक था, क्योंकि उन दिनों सौरभ कुछ अधिक व्यस्तता से घिरे हुए थे और मैं नन्हे धु्रव के साथ सारा दिन एक ढर्रे से बंधी रहती थी. तब सौरभ ने ही स्वाति के घर जाने का सुझाव मुझे दिया था.

उन का कहना था, वह शीघ्र अपने कामकाज निबटा लेंगे और जब मैं चाहूंगी, मुझे लिवा ले जाएंगे. सौरभ के इस अप्रत्याशित सुझाव पर मैं प्रसन्न हो उठी. वैसे भी स्वाति की छोटी सी गृहस्थी, उस का सुखी संसार देखने की लालसा मैं बहुत दिनों से मन में संजोए बैठी थी.

विवाह के पश्चात हनीमून से लौटते हुए स्वाति और अनिल 3-4 दिन के लिए मेरे पास रुके थे, किंतु वे दिन नवदंपती के सैरसपाटे और घूमनेफिरने में किस तरह हवा हो गए, पता नहीं चला. 2 वर्ष बाद धु्रव पैदा हो गया और मैं उस की देखभाल में लग गई.

उधर स्वाति भी अपने घर, अस्पताल और मरीजों में व्यस्त हो गई. अकसर हम दोनों बहनें फोन पर एकदूसरे का हाल मालूम करती रहती थीं. तब स्वाति का एक ही आग्रह होता, ‘दीदी, किसी भी तरह कुछ दिनों के लिए कानपुर चली आओ.’ और, अब यहां आने पर मेरा सारा उत्साह, सारी खुशी किसी रेत के घरौंदे के समान ढह गई जब मैं ने देखा कि नदी के एक किनारे पर स्वाति और दूसरे पर अनिल खड़े थे और बीच में थी उफनती नदी.

अनिल अपनी तरफ से यह दूरी पाटने का प्रयास भी करते तो स्वाति छिटक कर दूर चली जाती. मुझे याद आता, डाक्टर होते हुए भी अति संवेदनशील स्वाति की आंखों में कैसा इंद्रधनुषी आकाश उतर आया था इस रिश्ते के पक्का होने पर. फिर ऐसा क्या हो गया जो इस आकाश पर बदरंग बादल छा गए. शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो, जब दोनों के बीच झगड़ा न होता हो. ऐसे में मेरी स्थिति अत्यंत विकट होती.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...