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भीतर से मुझे भय था कि कहीं रजनी नहीं आई तो? उस ने और मनोज ने कुछ और योजना तो नहीं बनाई है? यह सोच कर गुस्सा भी आ रहा था। जब मुझे रजनी की हर बातों से इतनी चिढ़ है तो मैं क्यों उस की बातों में आ गई ? आज मैं ने उस की बातों का विरोध क्यों नहीं किया? उस के लिए मैं ने झूठ क्यों बोला? सभी चले गए और मैं मूर्खों की तरह इस होटल में अकेली उस का इंतजार कर रही हूं। मेरा भय और गुस्सा बढ़ता जा रहा था।

बाहर तेज बारिश हो रही थी। मैं बेचैन हो इधरउधर टहल रही थी। बहुत समय बीत गया, "आज इस रजनी की बच्ची को मैं छोङूंगी नहीं। समझती क्या है वह अपनेआप को? मुझ को मूर्ख बना गई..." मैं गुस्से से पांव  पटक रही थी कि तभी होटल का दरवाजा खुला। सामने रजनी पूरी तरह से भीगी खड़ी थी। जी में तो  आया कि उसे 2 तमाचा लगा दूं। मैं ने गुस्से में पूछा,"इतनी देर क्यों कर दी तुम ने और मनोज कहां है?"

"वह स्टेशन चला गया," रजनी ने कहा।

"वाह, तुम्हें अकेली छोड स्टेशन चला गया?" मैं ने रजनी से और उलझ कर अपना समय बरबाद करना नहीं चाहा। संयोग से ट्रेन लेट थी, नहीं तो हमारी ट्रेन छूट जाती। ट्रेन में सभी बैठे हुए थे। मैं रजनी को ले कर खिड़की के पास बैठ गई जहां हमारी बातें कोई नहीं सुन सके।

मैं रजनी पर बरस पड़ी,"हद कर दी रजनी तुम ने। तुम्हारी शरमहया सब खत्म हो गई है। तुम इतनी देर मनोज के साथ कहां थीं? ऊपर से भीग भी गई थी," रजनी बिलकुल खोई सी थी। उस ने धीरे से कहा,"समय का मुझे पता ही नहीं चला।"

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