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घर लौट कर श्रीकांत ने पूरे रीतिरिवाजों से धूमधाम के साथ अपना विवाह रचाया. पत्री मिलान कर के अपने जैसी उच्चकुलीन वधू को घर लाया गया. अब श्रीकांत का जीवन सुखी, सफल और स्वस्थ होना चाहिए था. परंतु इस का उलट हो गया. शांता अपने नाम से विपरीत अशांतिप्रिय निकली. उस की कभी न खत्म होने वाली चिकचिक के कारण मातापिता ने घर अलग कर दिया. शांता के कलहप्रेम के कारण श्रीकांत को उच्चरक्तचाप की शिकायत रहने लगी. नन्हा बेटा भी डरासहमा रहता. पड़ोस में किसी से शांता की नहीं बनती थी. एकाकी जीवन, नीरस दिनचर्या.

बेंगलुरु में आज अचानक सारिका से मिल कर श्रीकांत के जीवन में ताजी हवा का झोंका एक बार फिर आया था. वही सौंदर्य स्वामिनी, वही स्नेही व्यक्तित्व, वही फूल समान मुसकान, वही नयन कटारी.

‘‘घर में कौनकौन है?’’ सारिका के प्रश्न ने श्रीकांत के दिमाग में दौड़ रही फिल्मी रील का अंत कर दिया. वह वर्तमान में आ गया. सारिका के प्रश्न का उत्तर दे उस ने भी जानना चाहा कि सारिका की जिंदगी में कोई और है या नहीं.

‘‘मैं ने पहले अपना कैरियर बनाना उचित समझा. आज मैं एक अच्छी कंपनी में उच्चपदासीन हूं. पूरा दक्षिण इलाका मेरी निगरानी में आता है. अब जल्द ही मेरी शादी होने वाली है. मेरा मंगेतर पुणे में नौकरी करता है. जाड़े के मौसम में शादी कर के मैं भी पुणे में शिफ्ट हो जाऊंगी.’’

‘‘क्या तुम खुश हो, सारिका? क्या तुम ने मुझे बिलकुल भुला दिया? हमारा प्यार, हमारा साथ...क्या वह समय जीवन में लौट नहीं सकता?’’ श्रीकांत की इस बात पर सारिका का हैरान होना स्वाभाविक था. श्रीकांत आगे कहने लगा, ‘‘मैं अब भी तुम्हें याद करता हूं, तुम्हारी हंसी, तुम्हारा प्यारभरा स्पर्श, हमारा सुख...’’ श्रीकांत कहे चला जा रहा था और सारिका चुपचाप उसे ताक रही थी. एकाएक वह खड़ी हो गई, ‘‘अब मुझे चलना चाहिए. कल शाम मैं तुम्हें यहीं मिलूंगी,’’ कह सारिका चली गई. श्रीकांत वहीं बैठा उसे जाते देखता रहा.

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