कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

सारिका को देख श्रीकांत सन्न रह गया था. उसे समझ नहीं आया कि सारिका का सामना कैसे करे और उसे क्या कहे. आखिर उस के साथ गलत भी तो उसी ने किया था.

‘‘लगता है जब तक तू पिटेगा नहीं, तेरे भेजे में इत्ती सी बात घुसेगी नहीं...,’’ आज फिर शांता ने घर सिर पर उठा रखा था. बेचारा नन्हा विपुल डर के मारे तितरबितर भाग रहा था. रोज का काम था यह. शांता के बदमिजाज व्यक्तित्व ने सारे घर में क्लेश घोल रखा था. शाम को दफ्तर से घर लौट रहे श्रीकांत ने घर के बाहर ही चीखने की आवाजें सुन ली थीं. ‘‘क्या शांता, आज फिर तुम विपुल पर चिल्ला रही हो? ऐसा क्या कर दिया इस नन्ही सी जान ने?’’

‘‘चढ़ा लो सिर, बाद में मुझ से मत कहना, तुम्हारे लाड़प्यार से ही बिगड़ रहा है यह. पता है आज क्या किया इस ने...’’ पंचम सुर में शांता ने विपुल की बालक्रियाओं की शिकायतें आरंभ कर दीं. श्रीकांत सोच रहा था कि यदि वह भी विपुल को दुलारना बंद कर दे तो बेचारा बच्चा मातापिता के होते हुए भी प्यार नहीं पा सकेगा. इतनी रूखी, इतनी चिड़चिड़ी क्यों थी शांता? श्रीकांत ने शादी की शुरुआत में जानने की काफी कोशिश की, उस के मातापिता से भी पूछा लेकिन हर बार यही सुनने को मिला कि स्वभाव की थोड़ी कड़वी जरूर है पर दिल की बहुत अच्छी है शांता. किंतु उस अच्छे दिल का दीदार गाहेबगाहे ही हुआ करता था.

शांता के ऐसे टेढ़े स्वभाव के कारण श्रीकांत के मातापिता ने भी उस की गृहस्थी में आना कम कर दिया था. वे दोनों अपने शहर में ही संतुष्ट थे. नौकरी की वजह से श्रीकांत को अलग शहर में रहना पड़ रहा था. ऐसा नहीं था कि श्रीकांत और शांता कभी मातापिता के साथ रहे ही नहीं. शादी के बाद कुछ समय तक सब साथ ही रहे थे. पर ऐसी कलहप्रिया पत्नी के साथ मातापिता के घर में रहना बहुत कठिन था.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...