आज से लगभग 60 साल पहले की बात है. तब मैं हरिद्वार के पन्ना लाल भल्ला इंटर कालेज में 10वीं क्लास में पढ़ता था. मेरे पिताजी हरिद्वार में स्टेशन मास्टर थे. हरिद्वार का अपना ही महत्त्व था. भारत के दूरदराज से आने वाले यात्रियों के लिए रेलगाड़ी ही एकमात्र साधन था. शायद अंगरेजों ने इसी के चलते सोचा होगा कि यहां किसी  वक्त बहुत बड़ी लड़ाई हुई होगी, इसलिए स्टेशन मास्टर साहब के रहने के लिए वैस्टर्न स्टाइल का घर बनाया.

हमारे घर की बाउंड्री वाल के साथ सड़क के किनारे पर एक झोंपड़ी थी. इस में सतीश मेरा दोस्त रहता था. उस के पिता मोची थे, जो सड़क के किनारे बैठ कर लोगों के जूतों की मरम्मत व पौलिश किया करते थे. मांबाप की इकलौती औलाद थी सतीश, जिस पर उन की उम्मीदें टिकी थीं. अपना पेट काट कर वे सतीश की पढ़ाई और देहरादून में रहने का खर्च उठाते थे. सतीश देहरादून के डीएवी कालेज से एमए इंगलिश लिटरेचर में अपनी पढ़ाई कर रहा था. लगभग 21-22 साल का नौजवान, दरमियाना कद, पतला शरीर और सब से अधिक प्रभावित करने वाली थी उस की गहरे सांवले रंग की आंखें, जो उस के काले रंग के बावजूद किसी को भी आकर्षित कर सकती थीं. उस का सपना था कि वह आईएएस अफसर बनेगा.

सतीश के इंगलिश विभाग के हैड प्रोफैसर शुक्ला का मानना था कि वह एक दिन जरूर बड़ा आदमी बनेगा. यहां तक कि वह चाहते थे कि एमए पूरी करने के बाद वह कालेज में ही इंगलिश विभाग का प्रोफैसर बने. इतनी खूबियों का मालिक होने के बावजूद वह जब भी गाता तो सुनने वाले उस के मुरीद हो जाते. वह बात करता तो ऐसा लगता मानो घंटियां बज रही हैं.

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