कोयले की कालिख में न जाने
किसकिस का मुंह है काला
हिसाब में कमजोर हैं न
गिन रहे थे संख्या श्न्यों की
और अटक गए थे
अरबखरब पर जा कर
सोच रहे थे बेकार ही
कोसते हैं जमाने को-
कि मिलावट के इस दौर में
स्वास्थ्य बिगड़ रहा है-
नहीं, आदमी का हाजमा
दिन पर दिन बढ़ रहा है
देखो, इतना धन कहां चला गया
और तो और, आम आदमी भी
घोटाले हजम करना सीख गया है अब
इतने विवश क्यों हैं हम?
हो रहे सम्मानित वो लोग
सार्वजनिक मंचों पर
अपना ही सम्मानपत्र जो
स्वयं ही दे रहे हैं लिख कर
और हम बने हैं मूकदर्शक
खौलता तो है खून हमारा
किंतु लावा बन कर नहीं फूटता
बजा रहे हैं हम तालियां
इन काहिलों पर
इतने विवश क्यों हैं हम?
नहीं करते बरदाश्त एक भी क्षण
न बना हो जब नाश्ता समय पर
या फिर छोड़ दी हो बाई ने
चिकनाई चम्मच पर
उबल पड़ते हैं तुरंत
पढ़ाते हैं पाठ
समय की कीमत का पत्नी को
और कर्तव्यनिष्ठा का बाई को
सिखाते हैं बच्चों को
‘अन्याय को सहन करना है
बढ़ावा देना अन्याय को
फिर क्यों रह जाते हैं मौन जब
पढ़े जाते हैं कसीदे उन की शान में-
जो रखते हैं योग्यता
एकमात्र चापलूसी की
आखिर इतने विवश क्यों हैं हम?
क्या है ये तूफान से पहले की शांति
या फिर इस दक्ष प्रजापति के यज्ञ में
जब तक न होगी आहुति किसी सती की
जो उद्वेलित कर दे तन और मन
तभी जागेगा भीतर का क्रोध
और फिर इस जन तांडव में
तहसनहस हो जाएगा-
कपट का यह साम्राज्य
बांध तोड़ते जल का वेग-
नहीं देखेगा फिर कोई भी
सीमा और न कोई भेद
बह जाएंगी अट्टालिकाएं
और झोंपडि़यां एकसाथ
और जब उतरेगा सैलाब तो
रह जाएगी विस्तृत जमीन
फिर से होगा निर्माण जिस पर
एक नवीन सभ्यता का!
नहीं, इतने विवश नहीं हैं हम
चाहें तो दिखा सकते हैं औकात
इन आतताइयों को
एक चींटी भी सुंघा सकती है
जमीन-हाथी को
जागो-देखो-बढ़ो
छोड़ दो बहलना मीठी लौलीपौप से
उखाड़ फेंको उन सब को
जो डाल कर फूट आमजन में
राज कर रहे हैं शान से
आओ, एक हो जाओ
और बसाओ वो सभ्यता
न हो जहां कोई-विवश, लाचार, बेदम
नहीं, इतने विवश नहीं हैं हम
इतने विवश नहीं हैं हम!
– डा. अंजु मोहिनी