ठंडे हुए तलवों और
सुन्न हुई उंगलियों को
रजाई की बांहें जब
तापती हैं
एक अजीब सा नशा
मन पर छाने लगता है
समय कोई भी हो
आंखों में वह नशा
उतर ही जाता है
होंठों से उठते
भाप के छल्लों में
पुरानी सर्दियां
प्लेबैक होने लगती हैं
महसूस होता है
मेरे ठंडे हाथों में
तुम्हारा गुनगुना हाथ
और आंखों में
प्यार का नशा
अब भी वैसी ही
जनवरी की ठंड है
वही मेरा कंपकंपाना
और है तुम्हारी
प्यारी रजाई
जो आज भी
मुझे नशे से
सराबोर कर देती है
एक और नशा है
जो छाने लगता है मुझ पर
फरवरी के आने का
सुनो…
तुम्हें याद है न…
– पारुल ‘पंखुरी’
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