जिंदगियां रोज कई जीता हूं मैं,

इनमें कोई मेरी है पूछता हूं मैं.

एक रात जो टूट गई थी बेसबब

हर रात बिछड़ी नींद ढ़ूंढ़ता हूं मैं.

ख्वाबों का हश्र ऐसा भी देखा है

पलकें बंद करने से डरता हूं मैं.

अधूरेपन का अहसास हमेशा रहा

तुझसे खुद को पूरा करता हूं मैं.

उजड़ना, बिखरना नसीब मेरा

ए मरूधर, बस यूं ही संवरता हूं मैं...

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...