मैं हर रात तुम्हारे कमरे में
आने से पहले सिहरती हूं कि
तुम्हारा वही डरावना प्रश्न
मुझे दुष्टता से निहारेगा पूछेगा
मेरे शरीर से आज नया क्या है?
मैं जन्मों से तुम्हारे लिए
शरीर ही बनी रही
ताकि तुम्हारे काम आ सकूं
तुम्हारा घर कभी मेरा घर
न बन सका
तुम्हारा कमरा
संभोग की अनुभूति के लिए
रह गया है सिर्फ
जिस में सिर्फ मेरा शरीर ही
शामिल होता है मैं नहीं
सिर्फ तन को ही जाना है तुम ने
मेरे मन को नहीं जाना
एक स्त्री का मन, क्या होता है
तुम जान न सके
शरीर की अनुभूतियों से आगे
बढ़ न सके
मन में होती है एक स्त्री
जो कभी मां बनती है
देखभाल करती है
तुम्हारी रोगी काया की
कभी प्रेमिका भी बनती है
तुम्हारे बारे में वो
बिना स्वार्थ के सोचती है
और वो सब से प्यारा सा संबंध
हमारी मित्रता का
तुम भूल ही गए
अकसर न चाहते हुए भी
मैं तुम्हें अपना शरीर
पत्नी के रूप में समर्पित करती हूं
लेकिन तुम सिर्फ
भोगने के सुख को ढूंढ़ते हो
और तब मेरे शरीर का
पत्नीरूप मर जाता है
जीवन की अंतिम गलियों में
जब तुम मेरे साथ रहोगे
तब भी मैं भीतर की स्त्री के
सारे रूपों को समर्पित करूंगी
उन सारे रूपों की तब तुम्हें
ज्यादा जरूरत होगी
क्योंकि तुम मेरे तन को
भोगने में असमर्थ होंगे
तुम तब मेरे साथ संभोग करोगे
मेरी इच्छाओं के साथ
मेरी आस्थाओं के साथ
मेरे सपनों के साथ
मेरे जीवन की अंतिम सांसों के साथ
पर हां, तुम मुझे भले
जान न सके
फिर भी मैं तुम्हारी ही रही
एक स्त्री जो हूं…
– विजय कुमार