नहीं मजबूत थे अरमा
जो अपनों से मिला देते
मेरे पैरों में भी वो ताकत नहीं थी
जो मंजिल से मिला देते
कि हुआ तो रूबरू उन से मगर
वो लफ्ज न निकले
वो लफ्ज कैद थे दिल में
जो उन से मिला देते
भटकती जिंदगानी में कभी
वो मुकाम न आया
कि जिस पर नाज करते हम
मुहब्बत में दुआ देते
कि ख्वाब ही ख्वाब दिल में थे
हकीकत में तो कुछ न था
हकीकत में जो कुछ होता तो
तुम को दास्तां सुना देते
सपने तो सुनहरे से हर पल साथ थे मेरे
मगर वो हालात न पाए
कि जंजीरें हटा मेरी
जो मेरे पंखों से मिला देते
अमीरी और गरीबी का मुझे
एहसास हर पल था
न देखा होता तुम्हें महलों में तो
दिल से दिल मिला देते.
– मनीषा जोशी