बहुएं, बेटियां बंटवारा कर रही थीं
मेरे गहनों व कीमती वस्तुओं का
हड्डियों का ढांचा मात्र मैं अपनों से
अपनी मृत्यु की कामना सुन रही थी
अब यह घर भी उन का था
जिसे मैं ने व पति ने बनाया था
पर अब बच्चों को बदबू आती है
मुझ से, मेरी दवाओं से
‘न इन को चैन है न हम को
न मालूम क्यों अटके हैं प्राण इन के
किस मोह में जकड़ी हैं सांसें इन की
कब मुक्त होंगे हम इन से’
मेरे लाड़ले के इन बोलों से
एक असह्य टीस उठी, सांस रुकी
और एक ठंडक फैल गई
चारों ओर मेरे वजूद के.
मीता प्रेम शर्मा
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