संकरी, अंधेरी

गीलीगीली गलियों के

दड़बेनुमा घरों की

दरारों से

आज भी झांकते हैं

डर भरी आंखों

और सूखे होंठों वाले

मुरझाए, पीले

निर्भाव, निस्तेज चेहरे

जिन का

एक अलग संसार है

और है

एक पूरी पीढ़ी

जो सदियों से भोग रही है

उन कर्मों का दंड

जो उन्होंने किए ही नहीं

अनजाने ही

हो जाता है उन से

यह अपराध एक और

कि वे

दड़बेनुमा घरों की दरारों से

देखने का करते हैं प्रयत्न

एक पल में ही सारा संसार.

                    - नसीम अख्तर

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